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जिस तन लगिया इश्क़ कमाल || आचार्य प्रशांत, बाबा बुल्लेशाह पर (2018)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
17 min
337 reads

जिस तन लगिआ इश्क़ कमाल,

नाचे बेसुर ते बेताल | टेक |

दरदमंद नूं कोई न छेड़े,

जिसने आपे दुःख सहेड़े,

जम्मणा जीणा मूल उखेड़े,

बूझे अपणा आप खिआल |

जिसने वेस इश्क़ दा कीता,

धुर दरबारों फ़तवा लीता,

जदों हजूरों प्याला पीता,

कुछ ना रहा जवाब सवाल |

जिसदे अन्दर वस्स्या यार,

उठिया यार ओ यार पुकार,

ना ओह चाहे राग न तार,

एंवे बैठा खेडे हाल |

बुल्लिहआ शौह नगर सच पाया,

झूठा रौला सब्ब मुकाया,

सच्चियां कारण सच्च सुणाया,

पाया उसदा पाक जमाल |

वक्ता: दरदमंद नूं कोई न छेड़े, जिसने आपे दुःख सहेड़े,

दुःख कहाँ से उठता है? दुःख उठता है अपूर्णता के भाव से, कुछ कमी है। अब या तो दुनियाभर की छोटी-छोटी कमियां हैं, उनको महत्वपूर्ण बना लो और उनका दुःख पाल लो या ये जान लो कि जीवन में मूल रूप से क्या कमी है।

एक ही कमी है, केंद्र से जुड़ाव नहीं है। उसी जुड़ाव की कमी है; ये विरह का दुःख कहलाता है। दुःख दोनों ही स्थितियों में है। दुःख का तुम निदान अलग-अलग कर रहे हो। एक आदमी है, बेचैन है, और उसने क्या वजह खोजी है अपनी बेचैनी की? कि बेचैन इसलिए हूँ क्यों टीवी का मेरा मॉडल पुराना पड़ गया है, बेचैन इसलिए हूँ कि वज़न बढ़ गया है, बेचैन इसलिए हूँ क्योंकि तनख्वा नहीं बढ़ रही है, बेचैन इसलिए हूँ क्योंकि घर में पुताई करनी है वो कराई नहीं है।

और एक दूसरा, ज्यादा होशमंद आदमी है। वो कहेगा न-न, ये सारी बेचैनी का कारण ये छोटी-छोटी वजह नहीं हैं, मूल कारण एक है। जिसने मूल कारण को पहचान लिया उसको छोटे कारण परेशान करना बंद कर देते हैं। जिसने अपनी बेचैनी का निदान यूँ किया कि ये बेचैनी उन सब छोटे-छोटे कारणों की वजह से है उसकी ज़िन्दगी से न बेचैनी जाती है, न वो तमाम कारण जाते हैं, वो उसको छेड़ते ही रहते हैं, परेशान करते ही रहते हैं।

बुल्ले शाह कह रहे हैं, ‘दरदमंद नूं’, जिसने मूल कारण को पहचान लिया, जिसने दुःख के मूल स्रोत को पहचान लिया उसको अब छोटे-मोटे दुःख नहीं छेड़ेंगे क्योंकि वो कहेगा कि तुम हो ही नहीं। तुम वजह हो ही नहीं। मैं बेचैन हूँ, पर मेरी बेचैनी की वजह तुम हो ही नहीं, तुम नकली वजह बनके मेरे सामने न आओ, असली वजह मैं जान गया हूँ और मुझे अब उसी को पाना है, जिसको पाने से सचमुच बेचैनी कम होगी।

या तो तुम दुनिया भर के झंझट पाले रहो या एक मूल झंझट पाल लो, क्योंकि दुःख तो दोनों ही जगह है। या तो दुनियाभर के लक्ष्य बनाये रहो और उन लक्ष्यों के पीछे हैरान, परेशान और दुखी होते रहो या एक लक्ष्य बना लो। जो हैरानी का एक कारण जान लेगा, उसको बाकि कारणों से मुक्ति मिल जाएगी। जो एक को पाने निकल पड़ेगा उसे बाकियों को पाने से मुक्ति मिल जाएगी। वो कहेगा, मुझे पाना ही नहीं है, बाकि झंझट मेरे ख़तम हो गए, क्योंकि मूल झंझट को मैंने पहचान लिया।

हम सबके जीवन में तमाम छोटे-छोटे दुखी करने वाले, चिढ़ाने वाले, चोटने वाले कारण मौजूद रहते हैं। अपने आप में उनकी कोई विशेष हस्ती है नहीं, ज़रा-ज़रा सी बातें होती हैं। किसी से कहा-सुनी हो गयी, मन खट्टा है, जो शर्ट पहननी थी वो मिल नहीं रही है, इतने भर से मूड ख़राब हो जाता है। और ये छोटी बात नहीं है, अगर इस से आपका मन खट्टा हो गया तो ये बड़ी बात है।

हम कभी सोचते भी नहीं कि सुबह से शाम तक हम जिनको छोटी बातें कहते हैं, वो छोटी बातें क्यों हमें हैरान-परेशान करने लगती हैं। आप यहाँ बैठे हो, आप बुल्ले शाह गा रहे हो, लेकिन ईमानदारी से बताना कि क्या मन में ये चिंता नहीं सवार हुई थी कि हमारा प्रदर्शन कैसा रहेगा? क्या मन में एक बार भी इस बात पर हैरानी नहीं जताई कि दूसरों की तुलना में कैसा गाऊंगा? अब सोचो, अध्यात्मिक गीत गाते हुए भी इस तरह कि छोटी बातें हैंरान करे हुए हैं। और जीवन क्या है? जीवन प्रत्येक बीतते हुए पल का नाम है, और हर पल जो बीत रहा है, उस छोटे पल में एक छोटी चिंता बैठी हुई है। तो जीवन तो नष्ट हो ही गया न। कोई ज़रूरी नहीं है कि आपके पास कोई बहुत बड़ी चिंता हो। छोटी-छोटी चिंताएँ ही मारे डाल रही हैं, ज़रा-ज़रा सी बातें।

बुल्ले शाह कह रहे हैं, चिंताओं के मूल को जान लो, मूल चिंता को पकड़ लो, तो छोटी चिंताएँ अपने आप विलुप्त हो जाएंगी। मूल बीमारी को जान लो, बाकि सब उसके लक्षण हैं, अपने आप गायब हो जाएंगे।

मूल बीमारी है, विरह।

मूल बीमारी ये है कि मन अपने ठिकाने पर नहीं है, मन अपने सही आसन पर नहीं है। इसी कारण सब कुछ बुझा-बुझा सा, रूठा-रूठा सा लगता है। गा रहे थे ना तुम, ‘ये आस्मां, ये बादल, ये रास्ते, ये हवा, हर एक चीज़ है अपनी जगह, ठिकाने पे, कई दिनों से शिकायत नहीं ज़माने से’। जब मन सही जगह पर होता है तो बाकि सब अपनी सही जगह पर दिखाई देने लगता है। शिकायतें बंद हो जाती हैं। वही कह रहे हैं बुल्ले शाह, कि तुम मुझे अब सताओगे क्या, जो कुछ सता रहा था, उसको मैं जान गया हूँ और मेरा अब पूरा ध्यान उसी पर है। मैं समझ गया हूँ कि वही एक मात्र महत्वपूर्ण चिंता है, अब मैं उसी की चिंता करता हूँ, और कोई चिंता करता ही नहीं।

यही कबीर कहते हैं कि अगर तुम्हें चिंता करनी ही है तो संसार की नहीं, राम की करो। जिसने राम की चिंता करी वो अपने आप संसार से पार हो गया, और जो संसार की चिंता करता रहेगा उसे न संसार मिलेगा, न राम! एक चिंता रखो और बाकि चिंताओं से मुक्त हो जाओ। क्या है वो एक चिंता? मन सही जगह पर है या नहीं है। उसकी फ़िक्र करो बस, बाकि फिक्रें छोड़ो। बाकि फिक्रें छेड़ेंगी ही नहीं, परेशान ही नहीं करेंगी। तुम्हें दिख जाएगा कि महत्वहीन है। एक चिंता रखो बस। एक की परवाह करो बस। एक साधे, सब सधे। बाकियों के प्रति बेपरवाह हो जाओ। एक दुःख के प्रति संवेदनशील हो जाओ, सारे दुःख हट जाएँगे।

वो दुःख विरह का है, वियोग का है।

श्रोता १: सर, इसमें ये क्या है कि, ‘उसको क्या कोई तंग करेगा जिसने दुःख संजो लिए हैं’?

वक्ता: ‘स्वयं संजो लिए हैं’ मतलब, अब वो स्वयं तय कर चुका है कि मुझे अब उस परम दुःख को ही काटना है। तुम चुनते हो ना, कि परम दुःख का समाधान चाहिए या छोटी-छोटी समस्याओं का समाधान चाहिए? मैंने कहा है कि मैं अब परम दुःख की ही परवाह करना चाहता हूँ। जब तुम छोटे दुखों में उलझते हो तो तुम परम दुःख से आँखें मूँद लेते हो। वो तुम्हारे लिए अनुपस्थित हो जाता है, विरह सताती ही नहीं। तो तुम चाहो तो उसे अपने जीवन से हटा सकते हो, तुम कह सकते हो कि, न, ऐसा कुछ है नहीं, कोई विरह परेशान नहीं कर रही मुझे। और तुम ही यह स्वीकार कर सकते हो कि नहीं, विरह है, ये दुःख मौजूद है, मैं स्वीकार करता हूँ इसकी उपस्थिति को और मैं देख पा रहा हूँ कि मात्र इसी का इलाज करना है और किसी का इलाज करने की ज़रुरत नहीं है। इसको ठीक कर लिया, सब अपने आप ठीक हो जाएगा।

तो ज़िन्दगी में जो छोटी-मोती झंझटें हैं उनसे उलझना छोड़िये, साफ़-साफ़ समझिये कि मूल झंझट क्या है। उस पर ध्यान दीजिये। मूल झंझट है विरह, वही मूल दुःख है, उसकी परवाह कर ली, बाकि सब परवाहों से मुक्त हो जाएँगे।

श्रोता २: इसमें प्रेम की बात हो रही है, इसमें आखिरी में प्रेमी को भी घुलना होगा।

वक्ता: देखो गाना भर नहीं है। पहले भी कई बार कहा है फिर कह रहा हूँ, गाने में धार आती है बोध से, मस्ती सातवे आसमान पर तभी पहुँचती है जब वो बोधपूर्ण मस्ती हो कि नशे के बीच भी होश कायम है, तब असली नशा चड़ता है। यह बड़ी विचित्र सी बात है, कि नशे का मज़ा ही तब है जब नशे के केंद्र में होश कायम हो। झूम के गाने का, मौज मानाने का मज़ा ही तब है जब उसके केंद्र में बोध बैठा हुआ है, अन्यथा नहीं।

जीना के हमने पैटर्न निर्धारित कर रखे हैं, उसके अनुसार भक्त या आशिक नहीं नाचेगा। पर इसका मतलब ये नहीं है कि कोई संगीत नहीं होगा उसके गाने में, इसका मतलब ये नहीं है कि कोई लय नहीं होगी उसके नाचने में, उसका नाचना बहुत सुन्दर होगा, उसका गाना ऐसा होगा कि झूम जाओगे। क्यों झूम रहे हो समझ नहीं पाओगे? क्योंकि हमने जिन कसौटियों पर गानों को आज तक परखा है, उन कसौटियों पर उसका गाना खरा नहीं उतरेगा। वहां तो कोई और ही कसौटी चलती है।

नाचे बेसुर ते बेताल,

मतलब हमारी जैसी उसकी सुर-ताल नहीं होगी। मतलब, हमारे सुरों जैसा उसका सुर नहीं होगा, और हमारी नज़र से देखोगे तो बेसुरा लगेगा। हमारी नज़र से देखोगे तो लगेगा क्या? बे-ताल। लेकिन अस्तित्व की नज़र से देखोगे, साफ़ मन की नज़र से देखोगे तो दिखाई देगा कि वह, असली गीत तो यही है।

श्रोता ३: ‘जिसने वेस इश्क़ दा कीता, धुर दरबारों फ़तवा लीता,’ का मतलब क्या है?

वक्ता: उसके सुर और ताल, समाज के सुर और ताल जैसे नहीं होते। ठीक उसी तरीके से अब वो जिन आदेशों पे चलता है वो इधर-उधर के या सामाजिक नहीं होते, वो अब सिर्फ एक जगह से आदेश लेता है। उसके दरबार से, सीधा वहां से आर्डर आता है, कमांड आती है और वो उसको फॉलो करता है।

श्रोता १: सर, वो उसमें पूछ रहा है छोटे-छोटे जो आदेश, छोटी-छोटी जो चीज़ें होती हैं वो भी तो उसका आदेश है।

वक्ता: चीज़ें नहीं आदेश होती हैं, आदेश होता है तुम्हारा अपना मन। तुम क्या रेस्पोंसे दे रहे हो। “मुझे कैसे कर्म करना है?”, तो इसका उत्तर वहां से आता है। इस स्थिति में मैं क्या करूँ? तो ऊपर से आई आवाज़, ऊपर से आया कि अब ये करो, छोटा मुद्दा हो या बड़ा मुद्दा हो। वैसे भी छोटे-बड़े का भेद तो तुम बनाते हो, जो मुद्दा एक के लिए छोटा है, दूसरे के लिए बहुत बड़ा हो सकता है, तुम्हारे लिए ही जो आज छोटा है कल बड़ा हो जाएगा। तो किसी भी स्थिति में अब क्या करना है इसका निर्धारण अब मेरे छोटे दिमाग से नहीं होता, इसका निर्धारण अब ‘वहां’ से होता है। तो कुछ भी हो रहा है, किसी भी पल में कोई भी क्रिया हो रही है उसमें मुझे क्या करना है; मुझे मालूम ही नहीं। मैं तो पूछ लेता हूँ, ‘बताओ क्या करूँ’?। उधर से फ़तवा आता है, मैं उस फतवे पर अमल कर लेता हूँ। मुझे अमल करना ही नहीं है, मैं तो पूछ लेता हूँ कि, ‘बताओ क्या करूँ?’’

मुझे निर्णय करना मतलब, ‘अहंकार को निर्णय करना’। और मैंने उस से पूछ लिया मतलब, ‘उस से पूछ लिया जो अहंकार से परे है, जो मेरा नहीं है’। हम क्या करते हैं? जब कोई स्थिति आती है तो हम कहते हैं, ‘मैं निर्णय करूँगा कि क्या करना है’। हम कहते हैं, ‘मेरा रेस्पोंसे’ और ‘मेरे’ रेस्पोंस’ का मतलब ही यह होता है कि मेरे जो पुराने तरीके हैं, उन्हीं से पूछ लूँगा, उन्हीं से पूछकर चलूँगा।

जो योगी है, जो सुलझा हुआ आदमी है, वो कहता है, ‘ज़रुरत क्या है, ज़रुरत क्या है अपने हिसाब को बीच में लाने की?’ तुम बीच में से हट जाओ और ‘डायरेक्ट एक्शन’ होने दो, सीधे फ़तवा वहीँ से आने दो। इसी बात को ‘स्पोंटेनिटी’ भी कहते हैं। कि तुम अगर उत्तर दोगे, तुम अगर निर्णय करोगे तो तुम्हे सोचना पड़ेगा, और तुम अगर सीधे फतवे पर अमल करोगे तो सोच का सवाल ही नहीं है। उधर से आया आदेश, और तुमने उस आदेश को बस अमल दिया, तामील कर दी उसकी, यही ‘स्पोंटेनिटी’ है। स्पोंटेनिटी का मतलब है, ‘मैंने सोचा नहीं, मैंने नहीं सोचा मुझे क्या करना है, मैं तो हुक्म पर बस चल पड़ा। मुझे सोचना है ही नहीं कि मुझे क्या करना है, मैं तो पूछ लेता हूँ, मैं तो उसके फतवे पर चल लेता हूँ। मुझे अपने दिमाग पर बोझ लादना ही नहीं है कि निर्णय करूँ और कर्ता बनूँ, और सोचूं, विचारूं और विकल्प तलाशूँ। मैं तो निर्विकल्प हूँ, क्यों? क्योंकि मुझे एक आदेश पर चलना है, जिसे एक आदेश पर चलना है वो क्यों दस विकल्प खोलेगा। मुझे जब उन विकल्पों पर चलना ही नहीं तो उन विकल्पों को खोलने का फायेद क्या? मुझे पता है मुझे क्या करना है, मुझे तो पूछ लेना ही, मुझे तो हट जाना है और जो हो उसे होने देना है। अपने आप को बीच में डालने की झंझट रखनी ही नहीं है’।

जो भी कुछ महत्वपूर्ण है, जो भी कुछ असली है, तुम्हारा खालिस रेस्पोंस, वो तभी निकलेगा जब तुम में इतनी स्पष्टता हो कि तुम्हे न विकल्प तलाशने पड़ें, न तोलने पड़ें कि ये करूँ तो क्या होगा, वो करूँ तो क्या हो जाएगा। तुम्हारे सामने दस रास्ते खुले ही न। जानते ही हो कि यही एक मात्र रास्ता है, बाकि दस बेकार हैं, महत्वहीन हैं।

वो जो एक मात्र रास्ता है, उस ही को फ़तवा कहते हैं। क्योंकि वो रास्ता तुम्हारा नहीं हो सकता, फ़तवा इसलिए क्योंकि फ़तवा कहीं और से आता है। कहीं और का अर्थ है कि तुम तो अहंकार से जुड़े हो,तो स्रोत तुम्हारे लिए कहीं और है। फ़तवा माने किसी ऊंचे का, सुलझे हुए का, ताकतवर का फरमान। किसी अथॉरिटी का आदेश। वह फ़तवा होता है। तुम, तो छोटा सा अहंकार हो।

स्रोत, इंटेलिजेंस तो तुम्हारे लिए तो तुमसे दूर, तुमसे हट कर के एक अथॉरिटी है। तो तुम ज़रा सीमा में रहो, ज़रा औकात में रहो, मत इतने फूलो कि अपनी चाल चलूँ। तुम जा कर, हाथ जोड़ कर उस अथॉरिटी से पूछ लो, ‘बताओ मैं क्या करूँ? क्या आदेश है तुम्हारा? मुझे मालूम है कि मैं कैसा हूँ, अपनी चाल चलूँगा, कुछ उल्टा-पुल्टा ही कर बैठूँगा’। इसलिए फ़तवा कहते हैं।

जा कर के पूछ लिया। किस से पूछ लिया? भक्त से पूछोगे, वो कहेगा अपने आराध्य से पूछ लिया, और बुल्ले शाह भक्त ही हैं, इसलिए फ़तवा शब्द का प्रयोग किया। ज्ञान मार्गी से पूछोगे तो वो कहेगा, न, अपने ही अंतस से पूछ लिया। फ़तवा किसी और का नहीं, अपने ही अंतस का है। वो अच्छे से जानता है कि अपना अंतस अपना होता नहीं। ईमानदारी की बात ये हैं कि हमारे लिए ‘अपना’ मात्र अहंकार है। अंतस को हमने कब अपना जाना? हमारा तो सारा जुड़ाव अहंकार से है। हमारा तो अपना वही है। अंतस अपना होते हुए भी पराया है। तो इसलिए वो कोई दूसरा है। वो एक बाहर की हो गयी, अथॉरिटी। बुद्धिमानी इसी में है कि उसकी बात सुनी जाए।

यही समर्पण है। कि ‘नहीं चलूँगा अपनी चाल, तुमसे पूछ लूँगा कि बता दो, क्या हुक्म है? क्या करूँ?’ अब ये करने में बुरा तो लगता ही है। मन तुरंत उठकर क्या कहता है, ‘अपने निर्णय खुद क्यों नहीं ले सकता? नहीं, मुझे पता है क्या करना चाहिए। क्यों मांगू किसी से आदेश। फ़तवा? सुनने में ही कितना ख़राब लग रहा है, अरे, हम कोई भेड़-बकरी हैं जो फतवों पर चलें? हम तो होशियार हैं, अक्लमंद हैं, अपने हिसाब से चलेंगे’। संत ऐसा नहीं कहते। वो कहते हैं, ‘न, हम जानते हैं हम कितने होशियार हैं, तुम्हें तुम्हारी होशियारी मुबारक, हमें पता है होशियारी का हश्र। हम नहीं जुगत भिड़ाएंगे। दोहराओ उन पंक्तियों को फिर से,

श्रोता ५:

जिसने वेस इश्क़ दा कीता,

धुर दरबारों फ़तवा लीता,

जदों हजूरों प्याला पीता,

कुछ ना रहा जवाब सवाल |

वक्ता: अब उसके लिए दुविधाएं बचती ही नहीं, कोई सवाल-जवाब बचते ही नहीं। सवाल-जवाब उसके लिए हैं जिसने अपने सर पर बोझ ले रखा हो समस्याएं सुलझाने का। ‘सवाल-जवाब क्या करना है, हम तो बैठे हैं, जो बता दोगे सो कर देंगे। दास हैं तुम्हारे, जो आदेश करोगे उसपर अमल हो जाएगा। हमें क्या उलझना है सवालों और जवाबों में, तुम जानो, तुम्हारा काम जाने’।

देखो इसमें, वास्तव में कितनी अक्लमंदी है। बुल्ले शाह कह रहे हैं कि जब तुम अपनी चाल भी चलते हो तो वो तुम्हारी चाल तो होती नहीं, वो चाल तो होती है उन सब ताकतों की जिन्होंने तुम्हें संस्कारित किया है। अभिमान तुम्हें भले ही हो कि वो मेरी चाल है, कि मेरा निर्णय है, मेरी सोच है। तुम्हारी तो है नहीं, आ तो बाहर से ही रही है। तो दोनों स्थितियों में तुम हो तो गुलाम ही। तुम सोच लो तुम्हें कौन सी गुलामी करनी है।

एक गुलामी ये है कि मैं उन सारी ताकतों का गुलाम हो जाऊं जिन्होंने मुझे आज तक संस्कारित कर रखा है, और बचपन से पहले से भी। और मैं उससे, और इससे, और सड़क पर चलते हर आदमी से आदेश ले रहा हूँ। टी.वी. पर आते हर पात्र का मैं गुलाम हूँ। जितने भी लोगों से मिलता हूँ, बातचीत करता हूँ, जिनके संपर्क में आया हूँ उनके प्रभाव में आ जाता हूँ।

तो एक तो तरीका ये है गुलामी का। इस से कहीं-कहीं बेहतर है कि एक के गुलाम हो जो, और जो हजारों की गुलामी करते हो उस से सदा के लिए मुक्त हो जाओ। उस ऊंचे दरबार से, बड़े दरबार से फ़तवा लेना शुरू कर दो ताकि हर एरे-गैरे से फ़तवा न लेना पड़े। हम तो हर एरे-गैरे के गुलाम हैं। तुम जिसको नहीं भी जानते हो, तुम्हारे सामने आता है और तुमसे दो बातें बोल कर चला जाता है, वो तुम्हारे मन पे छा जाता है, तुम घंटों उसके बारे में सोचते हो। हो गया ना वो तुम्हारा मालिक।

बुल्ले शाह कह रहे हैं, ‘ दास तो तुम हो ही, सबके दास बनो इस से अच्छा है कि एक के दास हो जाओ और बाकि पूरे जहाँ के बादशाह। चुनाव तुम्हें करना है, या तो एक के सामने समर्पण कर दो, और पूरी दुनिया के राजा हो जाओ या उस एक को भुलाए रहो और पूरी दुनिया के गुलाम बने रहो।

कहाँ से लेना है फ़तवा, उस दरबार से, या इस संसार से?

दास तो हो ही, किसके दास होना है, उस दरबार का, या इस संसार का?

-बुल्ले शाह की काफ़ी की व्याख्या पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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