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जिन निर्दोषों की जान गई, उनकी क्या गलती थी? || आचार्य प्रशांत (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: सगे-सम्बन्धियों में, मित्रों में बहुत लोगों को संक्रमण हुआ और कुछ लोगों की दुर्भाग्यवश मृत्यु भी हो गयी है। अब वो ताकत कहाँ से लाएँ कि जी पाएँ बिना बहुत गहरी पीड़ा, दुख के, और इस प्रश्न से मुक्ति कैसे पाएँ कि ईश्वर इसमें हमारी क्या ग़लती थी? (अभिषेक काला जी, चालीस वर्षीय, नोएडा से)

आचार्य प्रशांत: जो दो बातें आपने पूछी हैं कि हमारी क्या ग़लती थी और पीड़ा के बिना जी पाएँ। ये दोनों बातें बहुत हद तक अन्तर सम्बन्धित हैं। माने, आपस में जुड़ी हुई हैं। क्योंकि जितना ज़्यादा हमको लगता है कि इसमें हमारी क्या ग़लती थी, भीतरी हमारा दर्द उतना ही और बढ़ जाता है। कुछ तो दर्द बीमारी का होता है, कुछ दर्द नुक़सान का होता है, कुछ दर्द स्वजनों को खोने का होता है और एक बहुत बड़ा दर्द यही होता है कि मेरे साथ जो हुआ वो ग़लत था, ना-इंसाफ़ी थी।

अभिषेक, इस दौर में, इस पीड़ा में हम सब आपके साथ हैं। और वो कम हो सके दुख, इसके लिए कुछ बातें बोलूँगा। आपसे अनुरोध है, ध्यान से सुने।

देखिए! जन्म, जीवनकाल, मृत्यु, बीमारी, आदमी, औरत,पशु,पक्षी, जीवाणु, विषाणु ये सब प्रकृति के दायरे में आते हैं। ठीक है? ये सब किसके दायरे में आते हैं? प्रकृति के। ये प्रकृति का एक चक्र है। एक विधान है जो चल रहा है। और वो बिलकुल एक मशीन , यन्त्र की तरह है। वो बस इतनी परवाह करता है कि एक ये प्रजाति है, इस प्रजाति के जो जीव हैं वो पैदा होते रहे हैं, आगे बढ़ते रहे हैं। और एक दूसरी प्रजाति है, इस प्रजाति के जीव भी आगे बढ़ते रहें, पैदा होते रहें और पहली प्रजाति और दूसरी प्रजाति में कोई आपसी सम्बन्ध भी हो सकता है। ये भी हो सकता है कि दूसरी प्रजाति, पहली प्रजाति का आहार बनती हो, भक्ष्य हो उसके लिए। कोई भी सम्बन्ध हो सकता है।

तो प्रकृति इंडिविजुअल्स माने व्यक्तियों के तल पर काम नहीं करती। वो समूह के तल पर काम करती है। वो ये नहीं देखती है कि लोग अलग-अलग कैसे हैं। वो बस ये देखती है कि लोग कितने सारे हैं। हम इंडिविजुलाइजेशन करते हैं, हम व्यक्तित्व के तल पर काम करते हैं। हम इंडिविजुअल को गिनते हैं न। हम व्यक्ति को गिनते हैं। प्रकृति एक ख़ास व्यक्ति को, कोई गिनती नहीं देती। गिनती माने, कोई महत्व या किसी तरह की कोई उसको वो ख़ास अहमियत नहीं देती है।

मैं कहना ये चाहता हूँ कि प्रकृति के लिए अभिषेक जी, व्यक्ति का कोई महत्त्व नहीं है। ठीक है?

पाँच लोग खड़े हों, उसमे से किसकी चेतना कितनी ऊँची है, प्रकृति इस बात को एक ढेले की अहमियत नहीं देती। जैसे शेर हो कोई, पाँच लोग खड़े हों, अब पाँच लोग जो खड़े हैं प्रकृति की दृष्टि में वो शेर का आहार हैं। अब शेर आया उसके सामने पाँच खड़े हैं, शेर ये थोड़े ही देखेगा कि इसमें से कौन कितना होशियार है, ईमानदार है, कौन कितना साधु आदमी है, कौन कितना सच्चा और सरल आदमी है। वो ये नहीं देखेगा। शेर तो ये देखेगा कि किसको आसानी से आहार बनाया जा सकता है, किसमें माँस ज़्यादा है। वो झपट के पकड़कर खा जाएगा। प्रकृति ऐसे काम करती है।

अब हो सकता है शेर जिसको झपटकर खा गया हो, वो उन पाँचों लोगों में सबसे ईमानदार आदमी हो। तो हमारे-आपके भीतर फिर ये प्रश्न उठता है, बल्कि ये पीड़ा उठती है, एक तरह का विरोध कि जो सबसे अच्छा आदमी था, शेर उसको काहे को खा गया। उसने क्या करा था। ये जो बाक़ी थे चार चोर थे, शेर ने उनको कुछ करा नहीं। हमारे भीतर ऐसे ही अन्याय जैसी भावना उठती है कि ग़लत हुआ हमारे साथ। नहीं! फिर हम समझे नहीं हैं, हम समझे नहीं हैं। हम सोचते हैं कि जैसे प्रकृति का चेतना से कोई लेना-देना हो। जैसे प्राकृतिक चेतना को सम्मान देती हो। ये अन्तर हमें स्पष्ट ही नहीं हो रहा है।

भारतीय दर्शन के केन्द्र में यही भेद समझाने की कोशिश है कि तुम प्रकृति नहीं हो, नहीं हो, नहीं हो। प्रकृति से कोई उम्मीद मत रखो। वो अपना खेल खेलेगी हर तरीक़े से। वो पैदा करेगी, वो तुम्हारे भीतर तमाम तरह की वृत्तियाँ उकसाएगी। वो तुमको उन्हीं रास्तों पर ढकेलेगी जिन रास्तों पर उसने आज तक हज़ारों-हज़ार,अरबो-करोड़ों जीवों को ढकेला है। तुम क्यों सोच रहे हो कि तुम्हें जो प्राकृतिक रूप से मिला है, उसमें कुछ विशेष है। लेकिन हमें लगता नहीं, साहब! हम विशेष हैं। क्यों? क्योंकि प्रकृति से ही शरीर मिला है। इसी शरीर को हमने अपनी इंडिविजुअल आइडेंटिटी का आधार बना रखा है न। हम यही तो बोलते हैं, हम ख़ास हैं क्योंकि हम ये हैं, हम ये हैं। (दोनों हाथों को उठाकर अपने शरीर की ओर इशारा करते हुए) तुम ये हो, इसलिए तुम ख़ास नहीं हो। क्योंकि ये किसके पास है? सबके पास है, भाई! इसलिए तुम ख़ास नहीं हो।

लेकिन तुम देखो! हमारा जो पूरा मन है, वो कैसे काम करता है। हम कहते हैं, ‘मैं अलग हूँ सबसे। क्योंकि मैं, मैं तो ये हूँ।’ और वो? ‘वो दूसरा है। क्योंकि वो अपना हाथ उठाएगा तो वो अलग हो गया।’ आपसे जब कोई सवाल पूछा जाता है, तो आप हाथ उठाते हो। तो इसका क्या मतलब होता है? मैं दूसरों से अलग हूँ। किसी ने हाथ नहीं उठाया, मैंने हाथ उठाया। लेकिन ये जो आपका हाथ उठाना है, प्रकृति की दृष्टि में यही आपको बिलकुल दूसरों जैसा ही बना देता है। क्योंकि हाथ और हाथ प्रकृति की नज़र में बिलकुल बराबर है। आप अलग नहीं हो। आप एकदम अलग नहीं हो।

प्रकृति की नज़र में आप बिलकुल वैसे ही हो जैसे जंगल में किसी मादा खरगोश ने सात खरगोश के बच्चे को जन्म दे दिया हो। आप क्या उनको अलग-अलग नाम भी देते हो? उनकी कोई व्यक्तिगत पहचान, कोई इंडिविजुवल आइडेंटिटी होती है? नहीं होती न। तब तो आप नहीं कहते कि इन सातों को अलग-अलग नाम दो। इनकी अलग-अलग पहचान होनी चाहिए, तब तो नहीं कहते न। बस ये कहते हो कि एक मादा खरगोश ने सात बच्चों को जन्म दे दिया।

प्रकृति के लिए ये बड़ी अजीब सी बात है। हो सकता है आपको लगे खेद की बात है। लेकिन प्रकृति के लिए हम बिलकुल वैसे ही हैं जैसे मादा खरगोश के सात बच्चे। वो हमारा नाम भी नहीं गिनती, वो बस हमारी संख्या गिनती है। हमारा नाम नहीं गिनती। वो तादाद गिनती है। क्योंकि उसके लिए तुम एक शरीर से ज़्यादा कुछ हो ही नहीं। प्रकृति के लिए तुम एक शरीर से ज़्यादा कुछ भी नहीं हो। लेकिन अपने लिए हम शरीर से ज़्यादा कुछ हैं।

हम कौन हैं? बार-बार बोला करता हूँ, एक चेतना हैं हम। और एक अधूरी चेतना हैं हम, जिसको पूरा होना है। प्रकृति को, फिर दोहरा रहा हूँ, हमारी चेतना से दो धेले का मतलब नहीं। तुम ऊँचे आदमी हो, तुम नीचे आदमी हो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। दोनों मरोगे। बल्कि ये भी हो सकता है कि जो एक बहुत ही घटिया क़िस्म का आदमी हो, जो बहुत ही निचली चेतना का जीवन बिता रहा हो, हट्टा-कट्टा हो और कोई बहुत सीधा, सरल, प्रेमी आदमी हो उस बेचारे को सौ रोग लगे हों, ऐसा होता भी देखा है न बहुत बार?

फिर आप कहोगे, ‘ये तो अन्याय है, अन्याय है। जो आदमी एकदम गिरा हुआ है, वो हट्टा-कट्टा है। और जो आदमी इतना साधु जैसा जी रहा है उसको क्यों रोग लग रहे हैं?’ आपकी नज़र में ये अन्याय होगा, प्रकृति की नज़र में ये अन्याय नहीं है।

इतने सारे लेखक हुए हैं, विचारक हुए हैं, क्रान्तिकारी हुए हैं, सन्त हुए हैं, जो कम उम्र में ही सिधार गये। तो प्रकृति ने उन्हें इस बात का कोई विशेष लाभ दिया क्या कि देखो! साहब ये ऊँची चेतना का बन्दा है, इसको तो सवा सौ साल जीना चाहिए कम-से-कम। ऐसा होता है कभी? ऐसा होता है? क्यों नहीं होता? क्योंकि वो जो माँ है हमारी, प्रकृति जिसको माया भी बोलते हैं, वो तुम्हारी चेतना नहीं देखती, वो सिर्फ़ तुम्हें एक शरीर गिनती है, जिसका कोई नाम भी नहीं है।

मादा खरगोश के सात बच्चों का कोई नाम था? कोई नाम था जंगल में? तुम शहर ले आओं, नाम दे दो अलग बात है। पर वहाँ जंगल में कोई नाम था? कोई नाम नहीं था न। तो वैसे ही ये जो प्रकृति माँ है, उसकी नज़र में तुम्हारा कोई नाम भी नहीं है। तुम एक शरीर भर हो। सात में से दो मर जाएँगे। वो ये भी नहीं कहेगी कि नुन्नु और पुन्नु मर गये, वो कहेगी दो मर गये। संख्या हो तुम। दो मर गये। हम दूसरे तरीक़े से देखते हैं। हम कहते हैं नुन्नू और पुन्नु ही क्यों मरे। वो जो बाक़ी पाँच थे, वो तो घटिया लोग थे। वो क्यों बच गये। क्योंकि तुम लोगो का वर्गीकरण या विभाजन कर रहे हो किस आधार पर? चेतना के आधार पर। और प्रकृति चेतना के आधार पर तुमको नहीं देखती।

तुमने मूल भूल क्या करी है? तुम प्रकृति और चेतना को अलग-अलग करके देख नहीं पा रहे हो।

मैंने कहा था, अभी भारतीय दर्शन ने हमें लगातार यही सिखाया है। क्या? कि प्रकृति और पुरुष को अलग करना सीखो। वो अलग है। और उसका तुम्हारे इरादों से, तुम्हारे भीतरी छटपटाहट से बहुत कम लेना-देना है।

एक ओर तो तुम्हारी वो मानसिक छटपटाहट है, जो तुमको मनुष्य कहलाने का हक़दार बनाती है। और दूसरी ओर तुम पाते हो कि मन भले ही छटपटा रहा हो कि आज एक बहुत ऊँचे स्तर की कविता लिख दूँ या ज़बरदस्त आज एक सॉफ्टवेयर का कोड लिख दूँ। अब मन छटपटा रहा है कि आज कुछ ऐसा कर जाऊँ कि पूछो मत। अब पेट तभी क्या बोलता है? ‘खाना चाहिए, खाना चाहिए।’ प्रकृति के पास कोई सम्मान ही नहीं है, तुम्हारी जो आंतरिक छटपटाहट और जो तुम्हारी नियति है। और जो तुममें होना चाहिए उसके लिए।

समझ में आ रही है बात?

तुम बहुत बड़े लेखक हो सकते हो, तुम अपनी किताब का आख़िरी चैप्टर , आख़िरी अध्याय लिख रहे हो और तुम्हारी मौत हो सकती है। प्रकृति कोई सम्मान नहीं देती। वो माया माँ है ही ऐसी। प्रकृति को ही माया कहते हैं। वो है ही ऐसी। वो कहेगी ही नहीं कि इतना बड़ा ये लेखक होने जा रहा था, ये कुछ ऐसा लिखने रहा था, जो कालजयी हो जाता। इसको हम अभी क्यों उठा लिए जा रहे हैं। साफ़।

ये बात समझ में आ रही है?

तो जब एक वायरस लगेगा तो वो बन्दे और बन्दे में उसके मानसिक स्तर के आधार पर अन्तर नहीं करेगा। जिसको देशी में कहते हैं कि “गेहूँ के साथ घुन भी पिसेगा”। फिर तुम बाद में अगर शोक व्यक्त करो कि अरे! फ़लाने तो बड़े अच्छे आदमी थे। वो क्यों मारे गये। वो गेहूँ के साथ घुन भी पिस गया। ये होना है। क्योंकि प्रकृति व्यक्ति को नहीं, समूह को देखती है। समूह ने जो करा है, उसका कर्मफल पूरा समूह भुगतेगा।

अब हम इस सिद्धान्त पर आ गये हैं, इसको अच्छे से पकड़िएगा, अभिषेक जी।

तुम वही भर नहीं भुगतोगे जो तुमने करा एक व्यक्ति की तरह। तुम वो सब कुछ भुगतोगे जो तुम्हारे पूरे समूह ने, पूरी मानवता, एंटायर मैनकाइंड ने करा। समझ में आ रही बात? क्योंकि प्रकृति व्यक्ति को नहीं देखती, पूरी स्पीशीज को, पूरे समूह को देखती है। बल्कि पूरे अस्तित्व को ही देखती है।

समझ आ रही बात?

अब यहाँ से आप आ जाते हो की फिर मैं जिऊँ कैसे? ज़िम्मेदारी क्या? 'द क्वेश्चन ऑफ रिस्पॉन्सिबिलिटी।' इसका मतलब ये की तुम अपना तो कर्मफल भुगतने वाले सिर्फ़ हो नहीं। जो तुम करोगे उसका तो तुम्हें फल मिलेगा ही। तुम्हें और भी क्या मिलना है? जो सबकुछ समूह ने करा है।

तो आपके साथ जो कुछ होने जा रहा है, उसके अब दो हिस्से हो गये। जैसे दो अलग-अलग कर्व सुपरइम्पोज़ हो करके एक टोटल बन रहे हों। एक तो आपको उसका कर्मफल मिलेगा, जो साहब, आपने करा और दूसरा आपको उसका कर्मफल मिलेगा जो पूरी मानवता ने करा। तो फिर आपकी ज़िम्मेदारी, आपके रिस्पॉन्सिबिलिटी क्या है? सिर्फ़ ये देखना कि मैं तो अच्छा आदमी हूँ, मैं तो प्रदूषण करता नहीं, मैं तो वुहान और युनान गया नहीं था वो चमगादड़ से वायरस निकालने के लिए,मैं तो अच्छा आदमी हूँ। सिर्फ़ आपकी इतनी ज़िम्मेदारी है इंडिविजुवल रिस्पॉन्सिबिलिटी? मुझे बताइए। आप अगर इसी में पड़े रहेंगे तो फिर शिकायत मत करिएगा जब वायरस आकर के आपको आपके घर से उठा ले जाए। एक नहीं, न जाने कितने वायरस है जो इंतज़ार कर रहे हैं। उस पर अभी आएँगे हम।

क्या आप ये कह सकते हो, मैं तो अच्छा सात्विक हूँ, मैं तो बिलकुल शुद्ध सात्विक आहार लेता हूँ, जानवरों को मारता नहीं? अब पड़ोसी मार रहा है तो ये तो उसकी फ़्री विल है, ये तो फ़्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन या फ़्रीडम ऑफ़ फूड या जो भी बोल लीजिए। ये भी उसकी राइट है। वो कैसे भी जिए।’ साहब! वो जो कुछ कर रहा है, उसका कर्मफल आप भुगतने वाले हैं, ठीक वैसे जैसे अगर आपके घर के सामने एक व्यक्ति प्रदूषण करने वाला डीजल जनरेटर चला रखा हो। तो उसका धुआँ आप भी भुगत रहे हैं की नहीं भुगत रहे हैं। या आप ये कह देंगे कि ये तो उसका व्यक्तिगत मामला है। वो क्या करे। ‘मैं तो अच्छा आदमी हूँ न, मैं बहुत कम बिजली का इस्तेमाल करता हूँ।’ आप अगर ऐसा बोल भी देंगे तो क्या आप बच जाएँगे? क्या आप बच जाएँगे? आप नहीं बचेंगे न।

उसी तरीक़े से इस दुनिया में हर इंसान जो कुछ कर रहा है। ये बात हमें थोड़ी अजीब लग सकती है, ये बात हमें ग़ैर-वाजिब लग सकती है। लेकिन बात ऐसी ही है। इस दुनिया में कहीं भी कोई भी आदमी, जो कुछ कर रहा है उसका नतीजा, उसका परिणाम,उसका कर्मफल हममें से एक-एक को भुगतना पड़ेगा। इसीलिए समझाने वालों ने इतनी मेहनत करी सबको समझाने की। क्योंकि कहीं भी कोई भी कुछ भी करेगा, उसका अंजाम तो सब भुगतेंगे न? सब भुगतेंगे न।

तो अगर सबको बचाना है, तो सबको सिखाना पड़ेगा। आप ये नहीं कह सकते, ‘इतने लोग सीख गये, इतने लोग समझ गये, अब बाक़ी नासमझ हैं, भोंदू हैं। तो हम क्या कर सकते हैं!’ वो जो नासमझ लोग भी कर रहे हैं उसका अंजाम भी समझदार लोग भी भुगतेंगे। तो अगर कोई समझदार है, तो उसकी ज़िम्मेदारी हो जाती है कि वो नसमझों को भी समझाए। जिस भी तरीक़े से हो सके, उनको ग़लत काम करने से रोके। चीन में हो रहा था कुछ, मैं और आप क्यों बीमार हैं?

और जो चीन में हो रहा था बहुत भद्दा था, बहुत भद्दा था। दो ही विकल्प है वहाँ पर या तो जा-जाकर ज़बरदस्ती जंगलों में घुस-घुसकर के जानवरों को लाया गया खाने के लिए। उन जानवरों से वायरस सीधे लग गया। या दूसरा विकल्प ये है कि वो जो वुहान इंस्टीटयूट ऑफ वायरोलॉजी था, उसमें 'गेन ऑफ़ फंक्शन' रिसर्च हो रही थी।

'गेन ऑफ़ फंक्शन' ये होती है कि वायरस के किसी प्रॉपर्टी को, किसी गुण को कृत्रिम रूप से बढ़ा दिया जाए। जिससे वो और ज़्यादा लीथल हो जाए। लीथल माने, घातक। ये रिसर्च हो रही थी वहाँ पर बिना ठीक से सेफ गार्डस लगाए। जब ऐसी रिसर्च होती है तो बायोसेफ्टी लेवल फोर चाहिए होता है। और वो जो इंस्टीट्यूट था वो लेवल टू और लेवल थ्री पर ऑपरेट कर रहा था। वहाँ से वायरस बाहर निकला। यही दो विकल्प हैं। इन्हीं दो तरीक़ों से हो सकता है।

इन दोनों ही विकल्पों में साहब, हिन्दुस्तानियों की क्या खोट है? हमने क्या ग़लती करी? इतनी मौतें यहाँ क्यों हो रही हैं। इसलिए हो रही हैं क्योंकि चीनी भी जो कुछ करेगा न, उसका खामयाज़ा भी हिन्दुस्तानी को भुगतना है। ये है कलेक्टिव रिस्पॉन्सिबिलिटी। एक तरह का संयुक्त उत्तरदायित्व।

अब इसमें आप मुझे बताइए कि इंडिविजुअल फ़्रीडम की बात करना कहाँ तक उचित है? कहाँ तक उचित है, ये कहना कि मैं अपने घर में जो कुछ भी कर रहा हूँ? आपको क्या फ़र्क़ पड़ता है? कहाँ तक उचित है? ये तो ऐसी बात है कि चीनी बोलें कि हम अपनी लैब में जो कुछ भी कर रहे हैं, उससे बाक़ी दुनिया में क्या फ़र्क़ पड़ता है। पर पड़ गया न फ़र्क़।

कुछ भी ऐसा नहीं है जो इंडिविजुअल हो, 'द इंडिविजुअल हिमसेल्फ इज द बिगेस्ट मिथ' (व्यक्ति स्वयं सबसे बड़ा मिथक है।) जानते हो न ये? जिसको तुम व्यक्ति बोलते हो, जिसको तुम पर्सन बोलते हो, उससे बड़ा झूठ कोई नहीं है। क्योंकि तुम अपनी व्यक्तिगत सत्ता में यक़ीन करते हो, प्रकृति करती नहीं। प्रकृति भी नहीं करती और जब तुम्हारी चेतना का तल बहुत ऊँचा हो जाता है, तब तुम भी नहीं करते। न तो प्रकृति ये मानती है कि तुम अपने पड़ोसी से अलग हो। उसकी नज़र में तुम दोनों एक ही हो, संख्याएँ हो बस।

और अगर कभी तुमको आन्तरिक सच्चाई के दर्शन होते हैं, तो तुम भी समझ जाते हो कि तुम और जो दूसरा है, वो अलग-अलग है ही नहीं। ये तो बस जो बीच में अटके होते हो न, तब तुमको लग रहा होता है कि हमारी कोई इंडिविजुअल एग्ज़िस्टेंस भी है, हमारी कोई डिवाइडेड आइडेंटिटी भी है, जिसमें मैं और दूसरा अलग हैं। ऐसा है नहीं।

तो इसीलिए दुनिया में जहाँ कहीं भी जो कुछ भी हो रहा है, जो ग़लत है, उसे अपने तल पर अधिकतम जो कर सकते हो रोकने के लिए, ज़रूर करो। क्योंकि प्रकृति का कोड़ा तो सब पर ही पड़ना है। ग़लती चाहे किसी एक ने भी की हो और जिस ग़लती की हम अभी बात कर रहे हैं, वो ग़लती लगातार हुई जा रही है। मेरा जो ये जवाब है, ये लम्बा जा रहा है पर सब्र से सुनिएगा।

हम तमाम तरह की बातें कर रहे हैं, जब कोविड का जिक्र आता है, हम वैक्सीन की बातें कर रहे हैं। हम हर्ड इम्युनिटी की बातें कर रहे हैं। ठीक है? हम सरकारों की ग़लतियों की बात कर रहे हैं। हम कह रहे है इसने ये नहीं किया, उसने वो नहीं किया। हम कह रहे हैं ऑक्सीजन की कमी हो गयी, हम कह रहे हैं, ‘फ़लानी दवाई बेकार थी। वो क्यों दी गयी?’ ये ‘आईवरमेमेक्टिंग’, ये ‘रमदसविर’ ये सब जो आज एक महीने पहले ढूँढे नहीं मिल रही थी, आज डॉक्टर इनको प्रतिबन्धित करने के लिए कह रहे हैं की इनसे कुछ होता नहीं। ये सब बातें हम ख़ूब कर रहे हैं सुर्खियों में। जो असली बात है, वो हम नहीं कर रहे हैं।

असली बात क्या है?

असली बात ये है, हम जैसे जी रहे हैं ऐसे हज़ारों वायरस हैं जो और आएँगे। साफ़ समझिए क्यों। क्योंकि हम अपनी तादाद बढ़ाते जा रहे हैं। हम अपनी तादाद जब बढ़ाएँगे तो इंसान को कहाँ घुसना पड़ेगा रहने के लिए? जंगल में। और जब जंगल में घुसोगे तो तुम्हारा सम्पर्क,कॉन्टैक्ट किससे होगा? जानवरों से। और उन जानवरों के पास हज़ारों-लाखों ऐसे वायरस हैं, जो उनके पास लाखों-करोड़ों साल से हैं। जिनको वो लेकर के घूम रहे हैं। और उन वायरस का कभी इंसान से सम्पर्क नहीं हुआ। अब होगा।

क्लाइमेट चेंज हो रहा है, ग्लेशियर पिघल रहे हैं। जानते हो ग्लेशियरों के पिघलने का एक दुष्प्रभाव क्या होने वाला है? बर्फ़ के नीचे, बर्फ़ की मोटी-मोटी तहों के नीचे, कई-कई मीटर बर्फ़ के नीचे, दर्जनों मीटर बर्फ़ के नीचे बहुत सारे वायरस सोए पड़े हैं। साहब वायरस ऐसी चीज़ होती है, जिसको आप ज़िन्दा चाहो तो ज़िन्दा मान लो और उसे जड़ चाहो तो जड़ मान लो। आप उसको लाखों सालों तक एक डब्बे में बन्द करके रख सकते हो। वायरस बैक्टीरिया नहीं होता।

वायरस के बारे में ये कहना ही बहुत मुश्किल है कि वो एक जीवित जन्तु है या जड़ पदार्थ है। उसे केमिकल (रसायन) की तरह भी ट्रीट कर सकते हो, उसे लिविंग ऑर्गेनिज्म की तरह ही ट्रीट कर सकते हो। तो बर्फ़ के नीचे न जाने कितने तरह के वायरस सोये पड़े हैं! सोए पड़े माने, डोर्मेंट इनेक्टिव पड़े हैं।

ये जो क्लाइमेट चेंज हो रहा है, जो हमारी और आपकी भोगवादिता का कंज्म्प्सन का नतीजा है, वो उस बर्फ़ को पिघला रहा है। और वो सब वायरस वहाँ से अब बाहर आकर सक्रिय होंगे, जंगल से बाहर आएँगे, बर्फ़ से बाहर आएँगे। क्यों? क्योंकि हमारे जीने का तरीका ग़लत है। क्यों? क्योंकि हमें सिखाने और पढ़ाने वालों ने कुछ बहुत ग़लत बात हमें बता दी हैं। उन्होंने हमें बता दिया, जितना भोगोगे तुम उतने ऊँचे आदमी कहलाओगे। उन्होंने बता दिया कि जीवन का लक्ष्य ही हैप्पीनेस है। और हैप्पीनेस का क्या मतलब है? और भोगो और भोगो। हमें ये बता दिया गया है।

समझ में आ रही है बात?

तो ये वायरस अचानक, अनायास कहीं से नहीं प्रकट हो गया। ये कर्मफल हैं। ये ह्यूमेनिटी ने कलेक्टिव तौर पर जो करा है, उसका परिणाम है। और ये सिर्फ़ मुझे बहुत अफ़सोस हो रहा है कहते हुए, डर भी लग रहा है कि सिर्फ़ झाँकी है। हम प्रकृति का विनाश बहुत तेज़ गति से कर रहे हैं। बहुत ज़्यादा तेज़ गति से कर रहे हैं। और प्रकृति को एक एक्वेलिब्रियम , सन्तुलन बना कर रखना है। वो नहीं चाहती कि एक ही स्पीशीज बचे, बाक़ी ख़त्म हो जाए। उसके लिए आप सिर्फ़ एक स्पीशीज हो, अनादर स्पीशीज, होमोसेपिएंस।

प्रकृति का कोई इरादा नहीं है कि बस एक यही बची रहे और लाखों-करोड़ो जो बाक़ी स्पीशीज़ हैं वो ख़त्म हो जाएँ। नहीं! तो जब ये जो एक स्पीशीज है, ये ज़्यादा छाने लगेगी तो प्रकृति स्वयं ही क्या करेगी अपने संतुलन को बरकरार रखने के लिए? वो ख़ुद ही कुछ ऐसा कर देगी कि होमोसेपिएंस की तादाद घट जाए। आपको ये बात समझ में क्यों नहीं आ रही है कि आप पृथ्वी के राजा नहीं हो। पर हमने इस बात को तो धर्म का भी हिस्सा बना लिया है कि इंसान ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है। और उसको ज़मीन पर भेजा गया है, पृथ्वी को भोगने के लिए।

और कुछ धार्मिक धारा हैं, वो कहती हैं, ‘साहब! ये जो जितने जीव-जन्तु और प्राणी और पक्षी और मछली हैं। वो तो बनाए इसीलिए गये हैं ताकि इंसान उनको खाए।’ बेवकूफ़ो तुम्हारी ये सोच खा गयी न पूरी पृथ्वी को, तुम्हें भी। तुम्हें अभी भी अक्ल नहीं आ रही। तुम्हें अभी भी लगता है कि ये जितने जीव-जन्तु हैं, ये मुर्गे, ये बकरे, ये सुअर, ये गाय, ये मछलियाँ, ये पक्षी, ये इसलिए बनाए गये हैं कि तुम इन्हें भोगते रहो?

तुम्हें अभी भी लगता है कि जंगल इसलिए हैं ताकि तुम उनको लगातार नष्ट करते रहो? तुम्हें लगता है पहाड़ इसलिए हैं ताकि तुम उनका दोहन करते रहो, तुम्हें लगता है प्रकृति ऐसी चीज़ होने देगी? उसकी नज़र में तुम ख़ास नहीं हो भाई। अपनी नज़र में हम बहुत बड़े बादशाह, सिकंदर हैं। प्रकृति की नज़र में हम सिर्फ़ एक शरीर हैं। और शरीर और शरीर तो बराबर होता है। वही वायरस जो इंसान को लग रहा है। वही हाथी को भी लग गया, कुत्ते को भी लग गया, बिल्ली को भी लग गया। ज़्यादातर तो जो हमें वायरस लगते हैं, वो होते ही जुनोटीक ऑरिजन के हैं। जुनोटीक ऑरिजन समझते हो? जानवरों से आने वाले।

प्रकृति की नज़र में तुम वैसे ही हो, जैसे एक जानवर। जो भी वायरस जानवर को लगता है, वही वायरस तुम्हें भी लगता है।

समझ में आ रही है बात?

हम अगर अलग हैं वाकई, तो इसलिए अलग हैं कि हमारे पास एक चेतना है, जो प्रकृति से अलग है। उस चेतना में जिओ और उस चेतना में जीने का मतलब होता है, ध्यान में जीना, समझदारी में जीना, भीतर से जो सब प्राकृतिक वृत्तियाँ उठती हैं, उनसे ज़रा ख़बरदार रहना, उन्हें दबाना। भीतर से कौनसी प्राकृतिक वृत्तियाँ उठती हैं? ‘खाओ, खाओ, खाओ, सोओ, सोओ, सोओ, भोगो, भोगो, भोगो, मज़े करो, मज़े करो, मज़े करो और सो जाओ और ख़ूब सारा सेक्स करो। प्रकृति यही उठाती है हमारे भीतर से। ऐसे ही पैदा हुए हैं हम और उसने इसीलिए पैदा किया है कि तुम यही सब कुछ करते रहो, ख़ूब खाओ, ख़ूब सो, सेक्स करो, बच्चे पैदा करो, मर जाओ। कोई बीमारी फंगस, बैक्टीरिया कुछ लगेगा, खा जाए तुम्हें।

और अगर नहीं चाहते इसी तरह का जानवर जैसा जीवन जीना। तो शरीर भाव के साथ नहीं, चेतना भाव के साथ जियो। जो शरीर भाव के साथ जी रहा है, वो तो बस प्रकृति का पशु है। मनुष्य तुम तब हुए, जब ज़रा चेतना भाव में जीना सीखो। जब तुम जानो कि ज़िन्दगी शरीर और शारीरिक माँगों से आगे कुछ है।

समझ में आ रही है बात?

शरीर देखो माताजी का है। कौनसी माता जी? माया माता जी। उन्होंने दिया है, वो ले जाएँगी। और वो एक पैसे की रियायत नहीं करने वाली। शरीर उनका है। तुम कलपते रहने कि हाय! हाय! फिर से आ गया वायरस, ले गया हमें उठाकर। वो तो माया है, वो आयेगी ले जायेगी। जैसे उसने तुम्हें पैदा किया बिना तुम्हारी अनुमति के। वैसे वो तुम्हें मार देगी बिना तुम्हारी अनुमति के।

तुम्हारा अगर अपना निजी कुछ है तो वो क्या है तुम्हारी? अरे! कितना समझाऊँ? यही समझाए जा रहा हूँ दस साल से। शरीर नहीं तुम्हारा है। अभी आकर ले जाएगी माँ। चेतना तुम्हारी है,उसको बढ़ाओ। उसको वहाँ पहुँचाओ, जहाँ पहुँचाने के लिए पैदा हुए हो।

प्र २: ये जो इतना पापाचार बढ़ रहा है, मारामारी बढ़ रही है, हम इसीको तो विकास मानते हैं। हम सोचते हैं कि हम विकास कर रहे हैं। एक दिन विकसित देश बन जाएँगे। लेकिन मूल में विनाश हो रहा है।

ये कोविड, ये ग्लोबल वार्मिंग, ये नदियों का मर जाना, न जाने कितने उदाहरण रोज़ हमारे सामने हैं। लेकिन फिर भी हम उसी तरफ़ बढ़े जा रहे हैं। हम करें क्या?

शास्त्र तो कहते हैं कि भगवान जो कर रहे हैं, वही हो रहा है। इसका मतलब क्या समझा जाए? सब सही हो रहा है?

आचार्य: इसका मतलब ये है कि भगवान नहीं कर रहे हैं। जो हो रहा है, वो एक बहुत बँधे-बँधाए नियम-कायदे, विधान के अन्तर्गत हो रहा है। उसे प्रकृति का चक्र बोलते हैं। भगवान इसमें कुछ नहीं कर रहे हैं।

दुनिया में सिर्फ़ कर्मफल का सिद्धान्त चलता है। कोई जादू, चमत्कार, भगवान की मर्ज़ी वगैरह कुछ नहीं। और वो कर्मफल सिर्फ़ एक व्यक्ति का नहीं होता। आप ये कहते हो अच्छा! कर्मफल होता है। तो फिर एक बच्चा पैदा हुआ वो बच्चा अन्धा पैदा हुआ था। बताओ उस बच्चे की क्या ग़लती थी कि वो अन्धा पैदा हुआ अगर कर्मफल से ही सब कुछ होता है?

साहब! मैंने कहा था, कर्मफल के दो हिस्से होते हैं, एक जो तुमने व्यक्तिगत तौर पर करा है, उसका तुम्हें फल मिलता है। दूसरा, समस्त मानवता ने जो करा है, उसका भी फल प्रत्येक प्राणी को मिलता है। तो ये मत पूछा करो कि मैंने क्या करा, जो मेरे साथ इतना बुरा हुआ। तुमने नहीं करा, तुम्हारे पड़ोसी ने करा। उसका भी तुम्हें फल मिलता है। दोनों बाते होती हैं। तो भगवान ने कुछ नहीं करा। जो है, वो कर्मफल है।

प्र ३: भगवान गीता में कहते हैं कि जब पाप बहुत बढ़ जाता है तो मैं दुनिया में मैं आता हूँ। तो अब जब इतने पाप हो रहे हैं, पशुओं की हत्या हो रही है, वनों की अंधाधुंध कटाई। तो भगवान इसे रोकते काहे नहीं?

आचार्य: संदीप, भगवान ने ये थोड़े ही कहा कि वो जब भी आएँगे तो इंसान बनकर ही आएँगे। वो कुछ भी बनकर आ सकते हैं। वो कुछ भी बनकर आ सकते हैं।

पापाचार जब बहुत बढ़ जाता है, तो कह लो उसको रोकने के लिए, या कह लो उसके फलस्वरूप जैसे भी बोलना चाहो। ये निश्चित है कि एक दूसरी शक्ति का उदय होकर रहेगा और वो शक्ति कोई भी रूप ले सकती है। एक व्यक्ति नहीं हो सकता वो शक्ति, एक समुदाय हो, वो कोई प्राकृतिक शक्ति भी हो सकती है। अब समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है। इसी को मान लो की इसी रूप में भगवान आ रहे हैं। और यदि भगवान आ सकते हैं किसी भी रूप में, तो भगवान एक वायरस बनकर भी आ सकते हैं, हाथी बनकर भी आ सकते हैं।

ये तो हमारी सोच की सीमा है कि हमें लगता है कि भगवान अब इस बार भी जब आएँगे तो मोर-मुकुटधारी होकर ही आएँगे। आवश्यक नहीं न। आवश्यक है ये समझना कि तुम कुछ ख़ास नहीं हो। प्रकृति ने तुम्हारी एक सीमा और एक स्थान निर्धारित करा है। और तुम उससे ज़्यादा आगे बढ़ोगे तो परिणाम झेलना पड़ेगा।

प्रकृति ने ऐसा बिलकुल नहीं कह रखा है,तुम्हारी किताबों ने क्या रखा होगा कि तुम बहुत ख़ास हो। पर प्रकृति की नज़र में तुम कोई बहुत ख़ास नहीं हो। प्रकृति ने ऐसा बिलकुल नहीं कह रखा है की दुनिया में ये जो करोड़ो प्रजातियाँ हैं जीवों की, उसमें एक मनुष्य ही ख़ास है। नहीं! प्रकृति चींटी को भी पैदा करती है, हाथी को भी पैदा करती है, घास को भी पैदा करती है, पेड़ को भी पैदा करती है, इंसान को भी पैदा करती है और घोड़े और गधे को भी पैदा करती है। वो भेदभाव नहीं कर रही बाबा! तुम अपनी नज़र में होगे बहुत श्रेष्ठ। प्रकृति की नज़र में सब बराबर। सबको पैदा कर रही है,सबको मार रही है, सबको पैदा कर रही है, सबको मार रही है। बताओ तुम ख़ास कैसे हो गये। और कई तो ऐसे जीव-जन्तु तुमसे बहुत ज़्यादा जीते हैं। बहुत सारे पेड़ हैं जो सैकड़ों साल जीते हैं। तुम कैसे ख़ास हो गये, बताओ?

तुम जानते हो, अगर अस्तित्व की उम्र एक साल मानी जाए, एक साल। तो इंसान को अस्तित्व में आये अभी एक दिन भी नहीं हुआ है। अब तुम बताओ कि तुम कितने ख़ास हो गये! तुम तो बस प्रकृति का एक नवीनतम प्रयोग हो, लेटेस्ट एक्सपेरिमेंट। जो की अभी बहुत टेंटेटिव स्टेज में है।

टेंटेटिव समझते हो, ठीक हैं देखते हैं भाई! तीन सौ पैंसठदिन अगर पुराना है। पृथ्वी की बात कर रहा हूँ सिर्फ़। तीन सौ पैंसठ दिन अगर पुराना है जीवन। तो उसमें से ये जो होमसेपीएन स्पीशीज हैं, ये अधिक-से-अधिक कितनी पुरानी है। एक दिन भी नहीं। शायद एक घंटा भी नहीं। ये इतनी नयी है और तुम कह रहे हो, हम ही तो हैं इस दुनिया के केंद्र में। तुम केंद्र में नही हो। तुम अभी-अभी आये हो। लात मारकर के निकाल दिए जाओगे। तुम जब नहीं थे, तब भी जीवन था। तुम नहीं रहोगे, तब भी जीवन रहेगा। पृथ्वी तुम जैसों को कितनी बार साफ़ कर चुकी है। तुम आते हो तुम्हें साफ़ कर दिया जाता है। निकल लो यहाँ से।

समझ में आ रही है बात?

तो ये जो पाप वगैरह बहुत बढ़ रहा है। ये तो एक छोटी सी चीज़ है। आदमी जैसे बुलबुला। वो अपना बुलबुला फुला रहा है, फुला रहा है। बुलबुला अभी फट जाएगा। ख़त्म हो जाओगे। आ रही बात समझ में?

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