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जवानी अकेले दहाड़ती है शेर की तरह || आचार्य प्रशांत (2013)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: मुझे बड़ी ख़ुशी होती इस सवाल का कोई सकरात्मक जवाब देकर। सवाल तुमने इस तरीके से पूछा है कि लगता है, “लक्ष्य ‘मेरे’ हैं और दुनिया उनमें बाधा डाल रही है। तो मैं क्या करूँ?” लेकिन बात थोड़ी-सी इससे अलग है। बात असल में यह है कि वो लक्ष्य भी तुम्हारे नहीं हैं, वो लक्ष्य भी दुनिया ने ही दिए हैं, इसी कारण दुनिया उनमें बाधा डाल पा रही है।

जो लक्ष्य पूर्णतया तुम्हारा होता है, दुनिया उसमें कभी बाधा डाल ही नहीं सकती।

दुनिया तुम्हारे लक्ष्यों में बाधा डाल देती है न? तुम लक्ष्य बनाते हो तो लक्ष्य बदल भी जाते हैं। उसका कारण यह है कि वो जो लक्ष्य हैं, वो तुम्हारे हैं ही नहीं, वो भी तुम्हें दुनिया ने ही दिए हैं। तुम उन्हें बस अपना मान कर बैठ गए हो कि ‘मेरे’ लक्ष्य हैं। पर वो मूलतः तुम्हारे लक्ष्य हैं ही नहीं, वो दुनिया ने ही तुम्हें दे दिए हैं और तुमने धोख़े से उन्हें अपना मान लिया है।

इस पर ग़ौर करना ईमानदारी से – जब दुनिया के दिए हुए लक्ष्यों को हटा दोगे तब शायद कुछ ऐसा मिलेगा, ऐसा बचेगा जो पूर्णतया तुम्हारा है। फिर उसमें दुनिया कोई दख़ल नहीं डाल सकती।

अभी तो तुम देखो न तुम किन बातों को अपना लक्ष्य मान कर बैठे रहते हो। तुम कहते हो कि, “मुझे अंक ज़्यादा लेकर आने हैं।” यही कहते हो न कि, "अंक ज़्यादा लाने हैं, यह मेरा लक्ष्य है"? अभी परिणाम निकले थे, तो सब घूम रहे थे। कुछ लोग निरुत्तीर्ण हुए तो उदास घूम रहे थे, महीने भर पहले की बात है। तो मैंने पूछा कि उदासी का कारण क्या है? जवाब मिला कि परिणाम खराब आ गया है, अंक अच्छे नहीं आए हैं।

मैंने पूछा कि यह जो मार्कशीट है, अगर इसको कहीं पर ले जा कर बस रख दिया जाए, छिपा कर और यह पूरा आश्वासन हो कि ज़िन्दगी भर कोई इसे माँगेगा नहीं, किसी को दिखानी नहीं पड़ेगी, ना माँ-बाप को, ना दोस्तों को, ना किसी एम्प्लॉयर को, नियोक्ता को, किसी को यह दिखानी नहीं पड़ेगी, तो क्या तब भी इतने ही उदास रहोगे? तो वो बोले, “नहीं, तब काहे की उदासी है, तब तो कोई दिक्कत ही नहीं है। अभी दिक्कत ही यही है कि यह मार्कशीट घर पर दिखानी पड़ेगी।”

तो पढ़ने का भी जो उद्देश्य बनाया कि अंक लेकर आने हैं, वो उद्देश्य क्या तुम्हारे अपने लिए था? किसके लिए था? दूसरों को दिखाने के लिए था। वो भी तुम्हारा अपना कहाँ है? तुम कहते हो कि तुम्हें नौकरी करनी है। ईमानदारी से देखो, अगर तुमने नौकरी पाने का लक्ष्य बनाया हुआ है, तो क्या वाकई अपने लिए ही बनाया हुआ है?

तुम कहते हो पैसे कमाने हैं। तुम्हारा काम अभी ठीक चल रहा होगा, किसी का पाँच हज़ार में, किसी का चार हज़ार में, किसी का सात हज़ार में। इससे ज़्यादा तुम्हारे खर्चे होंगे क्या? पर तुम कहते हो कि इतने पैसे की नौकरी करनी है, उतने पैसे की नौकरी करनी है। वो जो पैसा तुम कमाना चाहते हो, क्या वाकई अपने लिए कमाना चाहते हो? नहीं, वो इसलिए कमाना चाहते हो ताकि तुम सबको बता सको, अन्यथा उस पैसे का तुम्हारे लिए कोई उपयोग ही नहीं है।

तुम जितने लक्ष्य बना रहे हो वो सारे-के-सारे लक्ष्य तुम्हें दुनिया ने दिए हैं और दुनिया को ही दिखाने के लिए तुम उन लक्ष्यों को पाना चाहते हो। यही कारण है कि दुनिया उनमें भाँजी भी मार जाती है।

अपने लिए तुम कुछ भी करते कहाँ हो? तुम तो जो करते हो दूसरों के लिए ही करते हो। अपने लिए तुम कुछ भी करते ही कहाँ हो, करते हो? कभी अपने लिए कुछ करके तो देखो, जो पूरे-पूरे तरीके से तुम्हारी अपनी समझ से निकला हो, फिर दुनिया परेशान नहीं कर पाएगी। बिलकुल परेशान नहीं कर पाएगी, यकीन मानो।

दुनिया अपनी राह चलती रहेगी, तुम्हें दुनिया से कोई शिकायत भी नहीं होगी तुम अपना काम करते रहोगे। बिलकुल बेपरवाह रहोगे। तुम्हें लड़ने की भी आवश्यकता नहीं पड़ेगी कि, "मैं दुनिया से लड़ रहा हूँ!"

पर पहले अपने लक्ष्यों की हक़ीक़त को देखो कि, “मेरे लक्ष्य क्या वाकई मेरे लक्ष्य हैं, या मैं किसी और के दिए हुए लक्ष्यों का पीछा कर रहा हूँ?” और अगर किसी और के दिए हुए लक्ष्यों का पीछा कर रहे हो तो तुम कभी खुश नहीं रह पाओगे। लक्ष्य किसी और के तो ख़ुशी तुम्हें कैसे हो सकती है?

मेरा एक नौकर है। मैं उसको बाज़ार भेजूँ और कहूँ, “जा ये लेकर आ।” उसने सामान लाकर अपना लक्ष्य पूरा भी कर लिया तो इसमें उसे क्या मिला? जो मिला, किसे मिला? मुझे मिला। जब लक्ष्य ही उसका नहीं तो उसे कुछ भी मिल कैसे सकता है?

अपने लक्ष्य ढूँढो। पहला लक्ष्य तो यही बनाओ कि हल्का होना है, मन को हल्का बनाना है।

प्रश्नकर्ता: सर जो हम लक्ष्य बनाते हैं वाकई में वे हमारे नहीं हैं, पर उससे भी तो हमारा फायदा हो रहा है।

आचार्य: तुम्हें कैसे पता कि तुम्हारा फायदा हो रहा है? एक छोटा-सा बच्चा होता है, उसे आवश्यकता होती है कि कोई दूसरा उसका फायदा-नुकसान सोचे। एक छोटा-सा बच्चा होता है, पाँच साल का, उसे बिलकुल ज़रूरत होती है कि कोई उसकी उंगली थामे। पर तुम में से कोई यहाँ छोटा-सा बच्चा नहीं है। तुम में से कोई नहीं है यहाँ पाँच साल का, आठ साल का। कोई अठारह का है यहाँ पर, कोई बीस का है। बीस से ऊपर वाले भी होंगे।

तुम्हारा फ़ायदा कहाँ है कहाँ नहीं, ये खुद जानो न, या अभी भी किसी उंगली पकड़ कर चलने का इरादा है? शारीरिक रूप से तो पूरी तरह युवा हो गए हो, पूरे तरीके से, पर मानसिक रूप से डरते हो कि, "हम बड़े कैसे हो जाएँ?" तो मानसिक रूप से अभी पाँच साल का बच्चा बने रहना चाहते हो कि, "कोई और आ कर बता दे कि मैं क्या करूँ और क्या ना करूँ।"

शरीर पूरी तरह से गवाही दे रहा है, चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि आप पूर्ण रूप से बड़े हो गए है, आप पुरुष हैं, आप स्त्री हैं, लेकिन मन धोखे में रहना चाहता है। मन कहता है, “नहीं, नहीं कोई और हमारे हाथ थाम कर चले, तभी ठीक है।”

तुम्हारी उम्र में भगत सिंह फाँसी पर चढ़ चुके थे। वो किसी से पूछने गए थे कि, “मैं बम फेंकूँ तो इसमें मेरा फ़ायदा है या नुकसान है?” और तुम्हारे तर्क पर चले होते तो हो गया था काम। तुम्हारे तर्क पर चले होते तो फिर फ़ोन मिला रहे होते कि, "पापा, बम फेकें या ना फेकें?"

अपने पाँव पर खड़े हो, अपनी आँखों से देखो, अपने दिमाग से समझो। कोई बहानेबाज़ी नहीं चलेगी। पर क्या करें आदतें बिगड़ गई हैं। ज़िन्दगी भर बैसाखी पर चले हैं, अब अपने पाँव पर खड़ा होने को बोलो तो बड़ा कष्ट होता है। हम तो बच्चे ही बने रहना चाहते हैं। बच्चे बने रहने में बड़ा सुख है।

बहुत पहले एक फ़िल्म आई थी, ‘राजा-बाबू’। उसमें शक्ति कपूर क्या बोलता है? “मैं तो नन्हा-सा, मुन्ना-सा, छोटा-सा बच्चा हूँ”, और यही तुम्हारा नारा है। यह तुम्हारे जीवन का नारा है। उसका जो चरित्र था वो यही कहता रहता है, “मैं तो नन्हा-सा, मुन्ना-सा, छोटा-सा बच्चा हूँ।”

तो रोज़ सुबह उठा करो और यही नारा लगाया करो- “हम तो शिशु हैं अभी, शिशु छोटे-छोटे।” मानसिक रूप से तुम बच्चे ही बने रहना चाहते हो। मानसिक रूप से बड़े नहीं होना चाहते। और कोई बड़े होने की बात करे तो भाग और लोगे।

जवानी यह सब बातें नहीं करती कि दूसरे हमारा फ़ायदा देखें। जवानी अपना रास्ता खुद बनाती है। वो आलसी नहीं होती, पहाड़ काट डालती है। झुंड में नहीं चलती जवानी, शेर की तरह चलती है। अकेले होने के डर से दोस्त-यार नहीं इकट्ठा नहीं करती।

शेर देखा है कभी? शान से अकेले चल रहा होता है। और भेड़ें क्या करती हैं? (व्यंग्य करते हुए) “आओ, आओ, आओ, सब मिल कर मास बंक करते हैं।” शेर बनना है? बनना है शेरनी, जवान शेरनी?

इंसान शेरों का शेर होता है। शेर तो फिर भी अपनी आदतों का ग़ुलाम होता है। इंसान में तो यह ताक़त है कि वो आदतों का भी ग़ुलाम ना हो। शेरों का शेर है इंसान।

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