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जवान हो, और सही काम चुनना है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। जैसे ठंड लगने पर लकड़ी को जलाया जाता है, मुझे ऐसा लग रहा है कि वैसे ही आप गंगा के किनारे ठंडे तट पर, मध्य रात्रि में बैठे हैं और हमारी समस्याओं को सुलझा रहें हैं। कहीं हम गुरु को भी अपनी रोशनी के लिए तो नहीं जला रहें हैं। यदि हम न करें तो ये हमारे प्रति अन्याय होगा और करते हैं तो इसमें मुझे हिंसा दिखती है। परन्तु हमारे पास ज़्यादा विकल्प नहीं हैं, मार्गदर्शन चाहूँगा, धन्यवाद।

आचार्य प्रशांत: देखो, लकड़ी यदि बची रहना चाहती हो तो उसके प्रति हिंसा होगी, उसको जला देना। लकड़ी का यदि स्वभाव हो बचे रहना तो उसके प्रति हिंसा होगी, उसे जलाने की कोशिश करना। कोई अगर इसी में अपना स्वार्थ मानता हो कि वो तुम्हें देना ही चाहता है, तो उससे ले लेने में कोई अन्याय या हिंसा नहीं कर दिया। जो न देना चाहता हो, उससे लेना हिंसा हो सकती है। जो देने के लिए तत्पर ही हो, जिसका उद्देश्य ही हो देना, उससे लेने में कोई हिंसा या क्रूरता वगैरह नहीं है।

हो सकता है कि इस वक़्त यहाँ बैठकर मुझे ठंड वगैरह लग रही हो। मुझे अगर लग रही होगी तो आप सबको भी लग रही होगी। हो सकता है कुछ तकलीफ़ हो रही हो। प्रश्न ये है कि ज़्यादा बड़ी तकलीफ़ कौनसी होगी, ये बातचीत करने में या ये बातचीत न करने में? विकल्प तो मेरे पास भी है कि मैं कह दूँ कि रात बहुत हो गयी, ठंड बहुत हो गयी, चलते हैं फिर कभी।

और हर आदमी अपने अनुसार, अपने हित का ही काम करता है। मैं अगर कह रहा हूँ कि नहीं अभी बात करेंगे, तो उसमें कहीं-न-कहीं मुझे अपना हित दिख रहा है, तभी कह रहा हूँ कि बात करते हैं। तो इस तरह की कोई ग्लानि अपने मन में मत डालिए। आपने कोई हिंसा इत्यादि नहीं कर दी। ये जो तकलीफ़ है, जो हम यहाँ बैठ के झेल रहे हैं, ये छोटी तकलीफ़ है और साझी तकलीफ़ है।

पहली बात, तो इतनी बड़ी तकलीफ़ नहीं है कि किसी का शरीर जम ही जाए या अकड़ ही जाए। मेरे साथ तो इतना नहीं हो रहा, आपके साथ हो रहा है क्या? (श्रोताओं से पूछते हुए) इतना ज़्यादा तो नहीं है। और दूसरी बात, अगर है भी तो किसी एक के साथ नहीं है, सबके साथ है। और तीसरी बात, ये है कि अगर ये न करें तो क्या करें? ये न करें तो क्या करें?

मैं क्या करूँ, जब मुझे करना ही यही है तो मैं और क्या करूँ? अगर जो काम ज़रूरी है और ज़रूरी होने के नाते उसे चुना गया है, वो काम होता ही इसी तरीक़े से हो, तो ऐसे न करे तो कैसे करें? और वो काम हमने चुना है, हमें उसमें हित दिखता है तो अपने ही लिए चुना है न।

सही रास्ते पर चलते हुए जो भी कठिनाइयाँ आयें, उनको लेकर अपने प्रति दीनता मत रख लेना, एकदम भी नहीं! अपनेआप को कभी बेचारा मत घोषित कर देना, एकदम भी नहीं! मन करेगा, क्योंकि बुरा लगता है। कुछ करने निकले थे, उसमें कोई तकलीफ़ आ गयी, चोट लग गयी, वो होगा निश्चित रूप से होगा। अपनेआप से पूछना, ‘विकल्प क्या है?’ दूसरी बात, कोई ज़बरदस्ती करा रहा है क्या, स्वयं ही तो चुना है न रास्ता, ये कहकर कि यही सही रास्ता है।

और ज़्यादा तकलीफ़ लग रही है इस रास्ते पर, तो बदल दो ये रास्ता। तब कहोगे, ‘नहीं, बदल तो नहीं सकते, क्योंकि यही सही रास्ता है।’ ठीक वैसे जैसे हम कह रहे हैं, ‘नहीं, जब तक प्रश्न ख़त्म नहीं हो जाते, हम उठ कर नहीं जा सकते, क्योंकि यही सही बात है, यही सही काम है।’

तो दोनों चीज़ें एक साथ नहीं चल सकती कि सही काम भी करेंगे, उसका रस भी लें और साथ-ही-साथ ये भी कहें कि देखो, मैंने कितनी तकलीफ़ें सहीं या मैं वीरगति को ही प्राप्त हो गया, इत्यादि। नहीं। न अपने लिए ऐसा सोचो न मेरे लिए ऐसा सोचो। हमने स्वयं चुना है, ये करना और चूँकि हमने चुना है तो इसमें जो तकलीफ़ें आऍंगी भी वो भी हम ही ने चुनी हैं। हमें कोई अधिकार नहीं है फिर शिकायत करने का।

न तुम स्वयं ऐसा सोचो कि तुम बहुत भारी तकलीफ़ झेल रहे हो, न मेरे विषय में ऐसा सोचो कि मैं भारी तकलीफ़ झेल रहा हूँ। और अगर दिखाई ही देने लगे कि नहीं तकलीफ़ तो झेल ही रहे हैं, तो पूछ लो, ‘विकल्प क्या है, ये न करें तो और क्या करें, क्या करें? बहुत लोगों की सुबह बस है, कुछ लोगों की दोपहर में ट्रेन है, अभी न बात करें, तो कब करें?’ है न?

गुरु को अगर तुम लकड़ी की तरह जला भी रहे हो तो कुछ बुरा नहीं कर रहे, क्योंकि शायद वो चाहता ही है कि तुम उसे लकड़ी की तरह जला दो — जलने में उसका विरोध नहीं है, जलना ही उसका उद्देश्य है‌।

प्र: आचार्य जी, आप कर्म के बारे में बताते हैं और सही कार्य चुनने पर ज़ोर देते हैं। आप ये संस्था वेदान्त को केन्द्र में रखकर चला रहे हैं। मैं जिस कम्पनी के साथ हूँ उसमें बिक्री बढ़ाने के लिए प्रलोभन देने पड़ते हैं। मुझे मेरे ग्राहकों की वृत्तियाँ दिखती हैं। चीज़ों को बेचने के लिए और व्यापार के लाभ को बढ़ाने के लिए मुझे उनकी वृत्तियों के साथ थोड़ा खिलवाड़ करना पड़ता है। क्या ये मुझे सत्य की तरफ़़ जाने से रोक रहा है या फिर मैं अपने केन्द्र से हट रहा हूँ? मुझे समझ नहीं आ रहा कि मुझे कैसा कार्य चुनना चाहिए।

आचार्य: देखो, वृत्तियों के पार तो वृत्तियों से होकर ही जाया जाता है। जैसे अगर जंगल से बाहर निकलना हो तो जंगल से गुज़र के ही जंगल से बाहर निकल सकते हो। जंगल में अगर फँसे हुए हो और जाना है जंगल से बाहर तो जंगल से गुज़र के ही बाहर जाओगे। बात ये नहीं है कि तुम किसी की वृत्तियों का उपयोग कर रहे हो, तो सही किया या ग़लत। बात ये है कि क्यों उपयोग कर रहे हो, क्या चाहते हो, उद्देश्य क्या है, किस हेतु?

दुनिया के हर काम में वृत्ति का तो उपयोग करा ही जाएगा, क्योंकि वृत्ति के अलावा कुछ है ही नहीं। ये पूरा जो संसार देख रहे हैं, ये वृत्ति का ही फ़ैलाव है। उसी का उपयोग करोगे जो भी काम करोगे। मैं भी तुमसे बात अगर कर रहा हूँ, तो तुम्हारी वृत्ति को ही सम्बोधित कर रहा हूँ। हम जो बात कर रहे हैं, ये जो झालरें हैं, इनके बिना भी हो सकती थी न। (सत्र की जगह पर पेड़ों पर लगी झालरों को इंगित करते हुए)

ये झालरें क्यों चाहिए हमको? क्योंकि मन की वृत्ति होती है, किसी सजी हुई जगह को ज़्यादा महत्त्व देने की, किसी सजी हुई जगह पर ज़्यादा उत्साहित अनुभव करने की। अन्यथा ये बातचीत तो हम ये जगमग झालर वगैरह के बिना भी कर सकते हैं। प्रश्न ये है कि आपको यहाँ उत्साहित क्यों किया जा रहा है? आपकी वृत्ति का उपयोग किस कारण, किस उद्देश्य किया जा रहा है?

सन्त भी अपनी बात बोलते हैं और बाज़ार में कोई विक्रेता होता है, वो भी अपनी बात बोल रहा होता है। बात तो दोनों बोल रहे हैं और दोनों अपनी बात किसी दूसरे से ही बोल रहे हैं, पर क्यों बोल रहे हैं? गीत सन्तों ने भी लिखें और गीत शराब घरों में भी चलते हैं। सन्त ने गीत किस हेतु लिखा और शराब घर में गीत किस वजह से बजता है, ये देखना होगा।

गीत तो माध्यम की तरह उपयोग किया जाता है, सन्तों के द्वारा भी, क्योंकि गीतात्मक तरीक़े से जो बोला जाता है, वो हमें ज़्यादा रुचता है। तो सन्तों को भी पता है कि अगर संगीत के साथ कुछ बताएँगे तो आप ज़्यादा आसानी से सुन लेंगे। बाज़ार भी जानती है कि अगर संगीत के माध्यम से बताएँगे तो आप ज़्यादा आसानी से सुन लेंगे। लेकिन सन्त क्या बताना चाहते हैं और बाज़ार क्या बताना चाहती है, इन दोनों बातों में अन्तर है न।

वृत्ति ऐसी है, समझ लो जैसे तुम्हारा हाथ। अगर मुझे तुम्हें अपनी ओर खींचना है तो मुझे तुम्हारा हाथ पकड़ के ही तुम्हें खींचना है। वृत्ति तुम्हारा हाथ है, जिसे पकड़कर तुम्हें अपनी ओर खिचूॅंगा। प्रश्न ये है कि तुम्हें मैं क्यों खींच रहा हूँ अपनी ओर। कोई तुम्हें अपनी ओर खींच सकता है, तुम्हें लूटने के लिए भी। कोई तुम्हें अपनी ओर खींच सकता है, तुम्हें बचाने के लिए भी।

तो बिलकुल तुम अपने ग्राहकों या अपने डीलरों की वृत्तियों के साथ खेलो, लेकिन ये तो पूछ लो कि किस लिए, क्या चाह रहे हो, उद्देश्य क्या है? और सुनो, ऐसा आदमी ख़तरनाक हो जाता है जो वृत्ति से खेलना भी जानता है, लेकिन मुक्ति से बचना भी। वो बहुत गड़बड़ आदमी हो जाता है। वो फिर पूरी दुनिया का इस्तेमाल कर लेता है, क्योंकि उसने सीख लिया है दुनिया का इस्तेमाल कैसे किया जाता है। लेकिन वो दुनिया का इस्तेमाल करता किसी बहुत छोटे स्वार्थ के लिए है।

जैसे कोई विज्ञापन दाता होता है न। वो बिलकुल समझ गया है कि विज्ञापन कैसे बनाएँ कि लोगों के मन के सारे ताले हम खोल दें। वो ये जान गया है। और बहुत चतुराई से वो ऐसा विज्ञापन बना रहा है, जो देखने वाले के मन को बहुत गहराई से पकड़ लेगा। बड़ी चतुराई दिखाई, लेकिन किस उद्देश्य से? क्या करा कुल इतना ज़बरदस्त विज्ञापन बनाकर? क्या करा? टोपी बेच ली। (मुस्कुराते हुए) कुल उद्देश्य था, टोपी बेचना और उसके लिए आपने ज़बरदस्त चतुराई दिखा दी।

जनता के मन के साथ खेलना आ गया, जनता के मन में घुसना सीख लिया, लेकिन ये नहीं जाना कि किसी के मन में यदि घुसो तो उसके मन को साफ़़ करने के लिए, गन्दा करने के लिए नहीं, तो तुम क्या करोगे? अब तुम ख़तरनाक हो जाओगे। तुम लोगों के मन में घुसोगे और उन्हें गन्दा करोगे। इसलिए ये तो कर ही मत देना कि साइकोलॉजी सीख लो और स्पिरिचुयलिटी नहीं सीखी। मनोविज्ञान घातक हो जाता है अध्यात्म के अभाव में।

प्र: पर आचार्य जी मैं सिर्फ़ पैसे के मुनाफ़े के लिए उनकी वृतियों के साथ खेल रहा हूँ। मैं अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए उनका कोई नुक़सान करना नहीं चाहता। पर क्या पता मैं फिर द्वंद्व में आ जाऊँ और सत्य से दूर होने लग जाऊँ, तो इस स्थिति में अन्तर कैसे करें? और बार-बार अपने केन्द्र पर वापस कैसे आया जाए?

आचार्य: देखो, मुनाफ़ा एक ही होता है, इन्सान का। तुम्हारा किस चीज़ में मुनाफ़ा है, इसके लिए पहले बताओ तुम कौन हो?

प्र: अतृप्त चेतना।

आचार्य: तो तुम्हारा एक मात्र मुनाफ़ा क्या?

प्र: चेतना की तृप्ति की ओर बढ़ना।

आचार्य: तो तुम किस मुनाफ़े की बात कर रहे हो? दूसरों की वृत्तियों से खेलकर, तुम्हारी चेतना तृप्ति पा रही है? तो कौनसा मुनाफ़ा? बैठो। (मुस्कुराते हुए)।

प्र: प्रणाम आचार्य जी। आज के सत्र में एक सवाल आया था कि किस क्षेत्र में कर्म करना चाहिए, तो आपने बताया था कि जहाँ कमज़ोरियाॅं ख़त्म होती हों और विश्व के लिए कुछ भला होता हो, तो ये कमज़ोरियाॅं क्या हैं?

जब हम दस-पन्द्रह साल औपचारिक शिक्षा से गुज़रते हैं, तो अलग-अलग विषय हमारे सामने रखे जाते हैं, तो कोई किसी विषय में निपुण हो जाता है, कोई गणितज्ञ बन जाता है, तो अगर वो गणितज्ञ बेहतर काम करे तो?

आचार्य: वो संसाधन हैं। वो कमज़ोरियाँ या ताक़त नहीं हैं। वो संसाधन है। ज्ञान संसाधन होता है। हम सांसारिक ज्ञान की बात कर रहे हैं, जैसे गणित। किसी ने कॉमर्स पढ़ लिया, किसी ने कुछ और इकोनॉमिक्स, इंजीनियरिंग पढ़ ली किसी ने। ये संसाधन हैं, रिसोर्स हैं, इसका इस्तेमाल कर सकते हो। मैं जिस कमज़ोरी को हटाने की बात कर रहा हूँ, वो आन्तरिक कमज़ोरी है। हम काम करने के लिए ही पैदा हुए हैं। पर काम की परिभाषा क्या है? हम कौन हैं?

श्रोतागण: गिरी हुई चेतना।

आचार्य: तो हमें क्या काम करना है?

श्रोतागण: चेतना को ऊॅंचा उठाना है।

आचार्य: चेतना को ऊँचा कैसे ले जाऍं? उन ज़ंजीरों को काटकर जो चेतना को ज़मीन से बाँधे हुए हैं। जैसे कोई बड़ा भारी हाइड्रोजन बैलून हो। देखें हैं, हाइड्रोजन, हिलियम के बड़े-बड़े गुब्बारे होते हैं। अब ये तो बड़ी हल्की गैस है, दोनों ही, हाइड्रोजन भी हिलियम भी, वो उड़ क्यों नहीं जाते? पाँच-सात या दस मोटी-मोटी रस्सियों से उनको नीचे बाँधा जाता है, जैसे खूटों से बाँधा गया हो, टैथरिंग की जाती है। तो चेतना को ऊँचाई कैसे देनी है? कैसे देनी है? रस्सियों को काटकर। इसी को वर्क बोलते हैं। यही काम की सम्यक परिभाषा है।

काम वो चुनो जो तुम्हारी रस्सियों को काटता हो। रस्सियों को काटने में मान लो चाकू लगता है, वो चाकू क्या है, संसाधन। तुम्हारे पास जो कुछ भी है, तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा बल, तुम्हारी डिग्री, जो भी तुम्हारी कलाएँ हैं, प्रतिभाएँ हैं, जो कुछ भी है ये सब, ये संसाधन हैं। इनके उपयोग से तुमको अपनी रस्सियों को काटना है। इसको काम बोलते हैं, यही वर्क है। वर्क माने ये नहीं कि पैसा कमाने गये। वर्क माने जो कुछ मेरे पास है, उसका इस्तेमाल करके मैंने अपने बन्धनों को काटा। वही वर्क है और वो जीवन भर चलना होता है। उसको ज़िन्दगी भर चलाना होता है। आख़िरी सॉंस तक काम करना होता है।

प्र: मैं बैंक में काम करता हूँ। जब मैं बैंकिंग उद्योग को देखता हूँ, तो कोई विचार नहीं बना पाता हूँ। मैं देखता हूँ कि ये, तम्बाकू, माँस, कुक्कुट पालन और डेरी उद्योगों को भी पूँजी देता है। वहीं दूसरी तरफ़ गरीब महिलाओं का सेल्फ-हेल्प ग्रुप बना कर उनको रोज़गार देने, किसानों और शिक्षाक्षेत्र को भी पूँजी दी जाती है, तो कैसे देखें इस इंडस्ट्री को, ये क्या है?

आचार्य: देखो, बात तो सीधी-सी यही है कि इस पूरी अर्थव्यवस्था में जितनी भी इंडस्ट्रीज़ हैं, उन सबका उद्देश्य अन्ततः तुमको ज़्यादा कन्ज़म्प्शन की ओर ढकेलना है। क्योंकि इस समूची अर्थव्यवस्था का ही वही केन्द्रीय और एकमात्र उद्देश्य है। वो कहती है कि आदमी की भलाई, आदमी की खुशी, हैप्पीनेस ही इसी में है कि वो और ज़्यादा कन्ज़्यूम करे। तो कोई भी इंडस्ट्री हो, चाहे बैंकिंग हो, एजुकेशन हो, कोई हो, यहाँ तक कि फार्मास्यूटिकल्स इंडस्ट्री उसका भी यही उद्देश्य है — तुम्हें इस लायक़ रखना कि तुम और ज़्यादा भोग सको।

हमनें परिभाषित ऐसे करा है कि वेलफ़ेयर ईक्वल कंज़म्पशन — इकॉनोमिक्स इज़ द स्टडी ऑफ़ मैक्सिमाइज़िग वेलफ़ेयर एंड वेलफ़ेयर ईक्वल्स कंज़म्पशन' (कल्याण उपभोग के बराबर है — अर्थशास्त्र कल्याण को अधिकतम करने का अध्ययन है और कल्याण उपभोग के बराबर है) इसके मूल में दर्शन क्या है, फिलोसॉफ़ी क्या है? कि हम वो लोग हैं जिनकी भलाई हो जाएगी, अगर वो ज़्यादा खाऍं-पिऍं, ओढ़ें-पहनें।

वो ये मानते ही नहीं कि आपकी पहचान है, अतृप्त चेतना। वो ये नहीं मानते। वो चेतना के तल पर बात नहीं करते। वो ये नहीं कहते कि आप में चेतना की कमी है। वो कहते हैं, 'आप में हैप्पीनेस की कमी है, जो कन्ज़म्प्शन से पूरी हो जाएगी।'

समझ रहे हो बात को?

ये पूरी दुनिया ही इस दर्शन पर चल रही है। दुनिया का उद्देश्य मैक्सिमाइज़ेशन ऑफ़ कांशियसनेस नहीं है। दुनिया का उद्देश्य मैक्सिमाइज़ेशन ऑफ़ हैप्पीनेस है और ये दोनों बहुत अलग-अलग चीज़ें हैं। मैक्सिमाइजेशन ऑफ़ कांशियसनेस अधिकतम चेतना तक पहुँचना और मैक्सिमाइज़ेशन ऑफ़ हैप्पीनेस अधिकतम प्रसन्नता तक पहुँचना। दोनों अलग-अलग तो हैं ही, अधिकतर मामलों में ये दोनों विपरीत भी चलते हैं।

तो दुनिया की सारी इंडस्ट्रीज़, मैक्सिमाइज़ेशन ऑफ़ कन्ज़म्प्शन के लिए काम करती हैं, क्योंकि उसी में मैक्सिमाइज़ेशन ऑफ़ हैप्पीनेस लगता है। कांशियसनेस जैसी कोई चीज़ इनके लिए है नहीं। क्यों? क्योंकि अहंकार ये नहीं चाहता कि चेतना उठे। वो उठना नहीं, भोगना चाहता है। और हमारे विश्व की सारी व्यवस्थाऍं अहंकार द्वारा संचालित हैं।

इसीलिए तो जब आप बोलते हो विकास, तो उसका मतलब क्या होता है? जब आप कहते हो देश का विकास हो रहा है। इसका मतलब होता है देश के लोग अब ज़्यादा सच्चे, सरल, अहिंसक और प्रेमी हैं? आप कभी पूछते क्यों नहीं हो उन लोगों से जो विकास की बातें करते हैं कि देश माने देशवासी। तो देश के विकास का तो यही मतलब होना चाहिए कि देशवासी ज़्यादा बोधवान हो रहे हैं, ज़्यादा प्रेमपूर्ण हो रहे हैं, सरल और सच्चे हो रहे हैं।

पर वो ऐसी कोई बात ही नहीं करते। वो कहते हैं, ‘देशवासी आन्तरिक तौर पर जैसे होंगे सो होंगे, विकास का अर्थ है सड़कें बननी चाहिए। टू लेन का फ़ोर लेन होना चाहिए।’ जैसे अभी ये पूरा हो रहा है यहाँ चारधाम वाला हाइवे , ये विकास है। भले ही उस फ़ोर लेन की वजह से अब और ज़्यादा लोग अपनी गाड़ियों पर बैठकर जाऍं कि पहाड़ों पर एसी चल रहा है, वहाँ शराब पीने में ज़्यादा मजा आएगा।

पर हम उसको विकास मानेंगे और होना यही है। जैसे ही सड़क और ज़्यादा चौड़ी होगी, पर्यटकों की संख्या में ज़बर्दस्त इज़ाफ़ा हो जाएगा। और हम जानते ही हैं कि पर्यटक पहाड़ पर क्यों आते हैं। वो वास्तव में विकास नहीं होगा, वो विनाश होगा। लेकिन हम उसे विकास मानेंगे क्योंकि सड़क तो चौड़ी हो गयी न! और चूॅंकि ज़्यादा पर्यटक आने लगें, इसलिए ज़्यादा होटल भी बन गये न! उसको हम विकास मान लेंगे।

पूरी हमारी अवधारणा ही एंटी कॉन्शियसनेस (चेतन विरोधी) है। कोई मतलब ही नहीं चेतना से, कोई मतलब ही नहीं कि इंसान की मूल पहचान क्या है। तुम भीतर से सड़ रहे हो, गल रहे हो, अगर तुम बाहर अच्छे-अच्छे कपड़े पहने हुए हो तो ये विकास कहलाएगा। मैं नहीं कह रहा हूँ कि बाहर अच्छे कपड़े नहीं होने चाहिए। लेकिन इस प्रश्न पर बड़ा विचार होना चाहिए कि मनुष्य के विकास में कितना महत्व बाहरी सुख-सुविधा और भोग का है और कितना महत्व आन्तरिक स्पष्टता और सफ़ाई का है; ये विचार नहीं किया जाता। हमने विकास का शत-प्रतिशत अर्थ बना दिया है भोग। और ये बात ऐसा नहीं कि भारत में ही हो रही है। ये पूरी दुनिया में चल रहा है।

समझ रहे हो?

प्र: प्रणाम आचार्य जी, दो चीज़ों में मार्ग दर्शन चाहूँगा। पहली चीज़ जो मुझे तंग कर रही है, सीधे बोलें तो वो है कामवासना। मेरे मन ने ये बना लिया है कि जब तक वो अनुभव नहीं होगा, तो मैं उससे फ़्री नहीं रहूँगा।

आचार्य: जो अनुभव हो गये हैं, उनसे फ़्री हो गये हो क्या? तो वो अनुभव भी तुम ले लोगे दस-बीस-सौ-पचास बार तो क्यों उससे फ़्री हो जाओगे? ये तर्क कैसे आया? अगर अनुभवों को लेने या दोहराने से अनुभवों से मुक्ति मिलती, तो जो अनुभव तुम सौ-पचास बार ले चुके हो, उनसे तो मुक्त हो गये होते न, ऐसा हुआ है? ऐसा तो नहीं हुआ होगा। तो ये चीज़ बस सेक्स या कामवासना पर ही क्यों लागू होगी, भाई! बात ख़त्म हो गयी उसकी।

प्र: आचार्य जी, एक और सवाल था। मुझे हमेशा से, बचपन से ही पढ़ाना था, विषय बदलते रहे, अन्ततः मैं कोचिंग में गणित पढ़ा रहा हूँ। अब मैं वो कर पा रहा हूँ जो हमेशा करना चाहता था, लेकिन एक इनकम्प्लीटनेस (अधूरापन) अभी भी महसूस होता है।

आचार्य: इनकम्प्लीटनेस (अधूरापन) है इसलिए अनुभव होती है। वो तो है ही। ख़तरनाक बात तब होती, जब इनकम्प्लीटनेस फ़ील नहीं होती। ये तो शुभ बात है कि तुम्हें सच्चाई अनुभव हो रही है। गड़बड़ लोग वो होते हैं, जिन्हें लगता है कि सब पूरा है एकदम ठीक-ठाक। तुम्हें लग रहा है अधूरा है, अच्छी बात है।

दो-चार तरीक़े आज़मा लो उसके बाद भी अधूरापन अनुभव होता रहे और अच्छी बात है। फिर समझ में आता है कि अधूरापन हटाने का जायज़ और कारगर तरीक़ा एक ही है, फिर आदमी उसकी ओर बढ़ता है। अधूरेपन का अनुभव करना कोई अशुभ बात नहीं है, वो ईमानदारी की बात है, क्योंकि अधूरे तो हम सभी हैं। ताज्जुब ये है कि कुछ लोगों को क्यों नहीं अधूरापन सालता।

प्र: नमस्ते आचार्य जी, मैं आर्किटेक्चर का छात्र हूँ। धरती इस वक़्त बहुत बड़ी त्रासदी से गुज़र रही है। मैंने अपने तल पर शोध करी और पाया कि पर्यावरण पर टिकाऊ, पर्यावरण के अनुरूप इमारतें कम-से-कम प्रभाव डालेंगी। तो इस समाधान को लागू करता हूँ, तो दो विरोध उठते हैं, बाहरी और भीतरी। बाहरी में लोगों से बात करता हूॅं तो वो अपनी बेहोशी में बात करते हैं कि छोड़ो न क्या करना है, इन्वायरमेंट ख़राब हो रहा है तो होने दो और भ्रष्टाचार भी बहुत है।

एक भीतरी दिक्क़त ये भी है कि आलस और काम वासना घेरती है। जैसे आपने बताया कि किसी भी वृत्ति का समाधान प्रेम है, मेरी समझ है कि ये एक सार्थक काम है, मैं इस सार्थक काम से प्रेम करना चाहता हूँ पर किसी कारणवश हो नहीं पा रहा, तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ?

आचार्य: अपनेआप को बाँधना पड़ता है फिर। हम इतने सच्चे लोग नहीं हैं न कि सच्चे काम से प्रेम हो ही जाए। पर अगर बौद्धिक तल पर भी जान गये हो कि वो काम सही है और इस योग्य है कि उससे प्रेम किया जाए, तो अपनेआप को उससे बाँध दो। धीरे-धीरे प्रेम भी होगा। तत्काल ही ये उम्मीद रखोगे कि प्रेम हो जाए पहले उसके बाद काम शुरू करूँगा, प्रेम होगा कैसे? प्रेम सही चीज़ से तब होगा न, जब पहले तुम सही होओगे। तुम सही तब होगे जब सही चीज़ के साथ चलोगे। तो फिर मुर्गी आयी पहले या अंडा, उसमें फँसे रह जाओगे। कहीं से तो शुरुआत करनी पड़ेगी। शुरुआत यहीं से कर दो कि सही काम के साथ अपनेआप को बाँध दो। सही काम तुम्हें सही कर देगा। जब तुम्हें वो सही कर देगा तो तुम्हें सही काम से फिर प्रेम भी हो जाएगा। शुरुआत बँधने से होगी।

प्र: सर, जो बाहरी विरोध उठता है कि भ्रष्टाचार हो गया है, तो ये सब कैसे क्या करूॅं?

आचार्य: हर चीज़ को एक साथ नहीं निपटा सकते, हर समस्या का एक साथ नहीं सामना कर सकते। मैं यहाँ बैठा हूँ, इस वक्त ऋषिकेश में कई ऐसे काम हैं जो किये जाने चाहिए, गंगा मैली हो रही हैं, लोग तट पर गन्दगी डाल देते हैं, नहा-धो लेते हैं, जंगल कट रहे हैं, पेड़ कट रहे हैं और संस्कृति ख़राब हो रही है, घाटों पर उछल-कूद मची है, बहुत सारे काम हो सकते हैं। एक काम पकड़ो जो तुम्हें पता है कि सही है और उसे पूरे जतन से करो। एक काम अगर सही कर रहे हो, तो फ़ैलते-फ़ैलते और पाँच काम को सही कर देता है।

प्र: ये आपके हिसाब से सार्थक काम है?

आचार्य: तुम्हारे हिसाब से, मैं इसके तथ्यों से परिचित नहीं हूँ, पर अगर तुम कह रहे हो कि आर्किटेक्चर में बहुत सम्भावना है क्लाइमेट चेंज को एड्रेस करने की।

प्र: वो जो तीस-चालीस प्रतिशत है जो प्रभाव डाल रही है।

आचार्य: बिलकुल फिर तो एकदम जायज़ है, आवश्यक है बल्कि कि तुम इस चीज़ को करो। और होगा भी, मैं समझता हूँ बिलकुल होगा। क्योंकि बिल्डिंग डिज़ाइन (इमारत की बनावट), कंस्ट्रक्शन (निर्माण) उसका जो पॉवर कंज़म्पशन (बिजली की खपत) है बिल्डिंग का, उसका जो कार्बन फ़ुटप्रिंट है, वो सब निश्चित रूप से। ठीक-ठीक, बहुत फ़र्क पड़ता होगा।

प्र: बस वो प्रेम का ही पूछ रहा था कि कैसे होगा?

आचार्य: प्रेम, फिर बोल रहा हूँ न, हम इतने अच्छे लोग नहीं हैं कि हमें अच्छाई से तत्काल प्रेम हो ही जाए। हमें पता भी होता है कोई चीज़ अच्छी है तो हमें नहीं उसकी ओर खिंचाव होता। खिंचाव हमें बुराई की ओर रहता है। तो खिंचाव का इन्तज़ार करोगे तो बैठे रह जाओगे। एक बार जान गये कोई चीज़ सही है, उससे अपनेआप को बाँध दो, कमिट (प्रतिबद्ध) हो जाओ। फिर वो चीज़ ही तुम्हें इस लायक़ बना देगी कि तुम उस चीज़ से प्रेम कर सको।

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