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जब अपने ही हत्यारे बनें || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: नमस्कार सर, अभी कुछ दिनों पहले ही दिल्ली से एक दुखद ख़बर आयी थी जिसमें एक प्रेमी ने अपनी प्रेमिका का क़त्ल कर दिया। तो जैसे मैं अपने रिश्ते के बारे में भी सोच रहा था और मैंने जो ऑब्ज़र्व (निरीक्षण) किया उसे भी देख रहा था तो मैं कहीं-न-कहीं उसकी साइकी (मानसिकता) समझ पा रहा था कि वो कौनसा बिन्दु रहा होगा कि पहले आपस में लड़ाई-झगड़ा हुआ और फिर कैसे इस सीमा तक बात बढ़ी होगी। जैसे रिश्ते में कई बार हम रियलाइज़ (अनुभव) करते हैं कि अभी चीज़ ग़लत जा रही है।

शुरूआत तो हमने इस उम्मीद से करी थी कि सब अच्छा होगा, लेकिन हमारी इतनी इनवेस्टमेंट (निवेश) हो चुकी होती है, मेंटल (मानसिक), समय का और कभी-कभी रुपये-पैसे का भी कि हमें लगता है कि ये चीज़ आज नहीं तो कल ठीक हो जाएगी। सिर्फ़ सम्बन्धों के विषय में ही नहीं बल्कि नौकरी के विषय में या फिर कुछ और इन्डेवर (प्रयास) उठा लिया आदमी ने तो इतना इंवेस्टमेंट हो गया हमारा कि अब इसी को सन्तुलित करते चलो।

तो क्या वो एक बिन्दु होना चाहिए कि जिस पर हम डिसाइड (निर्णय) कर सकें कि भले ही कितनी भी इंवेस्टमेंट हो चुकी है पर अब यहाँ से छोड़कर के इसको कोई दूसरी डायरेक्शन (दिशा) दी जाए। आपका मैंने एक वीडियो देखा था पहले, उसमें 'साहिर लुधियानवी' जी की एक लाइन थी, “वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।” तो इसी पर कुछ मार्गदर्शन चाहिए।

आचार्य प्रशांत: नहीं, आप कोई टैक्टिक (रणनीति) माँग रहे हो, जिसको साधारण भाषा में रूल ऑफ़ थम्ब कहते हैं, आप वो माँग रहे हो। आप कह रहे हो कि रिश्ता चल रहा है तो उसमें कैसे किसी बिन्दु पर या किसी समय पर जाकर पता कर लें कि अब बात ख़राब हो रही है और उसको शान्तिपूर्वक रिश्ते को वहीं पर समाप्त कर दें, आप ये पूछ रहे हो। यही पूछ रहे हो न आप?

प्र: जी।

आचार्य: बात इसकी नहीं है। अभी भी आप जो माँग रहे हो, वो एक तरह का सस्ता उपाय है। आप कह रहे हो, ‘मैं जो था, मैंने जिसने वो रिश्ता शुरू किया, जिस आधार पर शुरू किया, जिस आधार पर साथी चुना सम्बन्ध बनाने के लिए और जिस तरीक़े से मैं उसको तीन साल, पाँच साल तक चलाता रहा वो सब तो अपनी जगह यथावत रहे, क़ायम बिलकुल, जैसे था वैसा ही रहे, बस ये बता दीजिए कि जब चीज़ें गड़बड़ाने लगें तो किस तरीक़े से वहाँ बीच में ये कर देना चाहिए कि अब ये रिश्ता यहीं पर समाप्त हो जाए।' ये ऐसे नहीं होता न।

आप अपना केन्द्र बचाये रखना चाहते हो। रिश्ते की, बल्कि ज़िन्दगी की जो आपकी बुनियाद है, आप उसको बचाये रखना चाहते हो और उस बुनियाद पर ज़िन्दगी खड़ी करके जो केन्द्र आपने बना रखा है अपना, उस केन्द्र से चलकर जो नुक़सान होते हैं, आप बस ये पूछ रहे हो कि उन नुक़सानों से कैसे बच जाएँ। कि रिश्ता शुरू करने के मज़े भी ले लें, रिश्ते को भोगने का स्वाद भी ले लें और जब रिश्ता खटास देने लगे तो उसको फिर छोड़ना कैसे है, ग़र्क़ कैसे कर देना है, बस आप ये बता दीजिए सर! तो तुम मेरा इस्तेमाल बस ये जानने के लिए कर रहे हो।

रिश्ते की शुरूआत ही ग़लत हो तो? और रिश्ता छोड़ दो, तुम्हारी ज़िन्दगी की बुनियाद ही ग़लत हो तो? उन चीज़ों के बारे में आप कोई बात नहीं करना चाहते, आप बस ये कह रहे हो कि जब लड़ाइयाँ शुरू हो जाएँ, और गाली-गलौज़ मारपीट की नौबत आने लगे, दोनों एक-दूसरे को दुश्मन की तरह देखने लगें तो फिर किस तरीक़े से शालीनता के साथ सम्बन्ध समाप्त करना चाहिए, बस ये पूछ रहे हो क्योंकि डर गये हो। इस तरह के हादसे अब हर चौथे दिन सामने आ रहे हैं तो डर लग रहा होगा कि कहीं तुम्हारे साथ न कुछ हो जाए या कहीं तुम किसी के साथ न कुछ कर बैठो। और उसमें भी डर ये नहीं लगता कि जिसके साथ करेंगे वो मर जाएगा, डर ये लगता है कि बाद हम धरे जाएँगे। तो ये सब थोड़े ही ठीक है?

मामला एक क्षण का नहीं है, मामला सनसनी का भी नहीं है। मामला उस मूल सिद्धान्त का है जिसको आप सही मानकर अपनी ज़िन्दगी ही जी रहे हो। आपने एक ग़लत सिद्धान्त पकड़ लिया है, उसको सही माने बैठे हो! और आपने सिद्धान्त पकड़ लिया है आकर्षण का, सुख का, भोग का, उथलेपन का। और वैसी ही फिर आप नौकरी भी चुन लेते हो और वैसे ही आप साथी बना लेते हो और फिर उस नौकरी में जो होना है वह होता है, उस साथी के साथ भी जो होना है वह होता है। कहीं हत्या भी हो जाए और हत्या भी बहुत दुखद, बहुत त्रासद तरीक़े से हो जाए और उसमें बहुत मामला सनसनीखेज़ रहे, नाटकीयता से परिपूर्ण, तो तब जाकर आपको लगता है कि कहीं कुछ ग़लत हो रहा है। लेकिन न हो हत्या तो? और हत्या हो भी और इतनी सनसनीखेज़ न हो तो? तो हमें फिर ज़्यादा कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

दो लोग हैं सामान्य मध्यमवर्गीय पति-पत्नी, और शादी भी कर चुके हैं, लिव-इन वगैरह नहीं। शादी कर चुके हैं, उनके बच्चे हैं, लेकिन दिन-रात एक-दूसरे का मुँह नोचते हैं, दोंनो एक-दूसरे से बिलकुल जले-भुने रहते हैं और दोनों का दम घुटता है उसमें। लेकिन साहब! एक आदर्श भारतीय मध्यमवर्गीय जोड़ा है, वो भी अब शादी को तीस-चालीस साल हो चुके हैं तो रहना तो अब साथ ही है और समाज के सामने दर्शाना भी यही है कि ठीक है, कोई ऐसी बात नहीं, कोई दिक्क़त नहीं। और एक-दूसरे को तनाव देते-देते ये होता है कि दोनों में से एक को डाइबिटीज़ हो जाती है, हाइपरटेंशन हो जाता है और एक दिन उसको दिल का दौरा पड़ जाता है और वह मर जाता है। अब आप कहोगे क्या कि क़त्ल हुआ है? कोई नहीं कहेगा कि क़त्ल हुआ है। क्या इसमें और किसी की जान ले लेने में बहुत ज़्यादा अन्तर है? आप किसी को इतना तनाव दो, एक ग़लत रिश्ते में, कि वो ख़ुद ही एक दिन हार्ट अटैक से मर जाए, ये हत्या नहीं है क्या? पर इसमें कोई कहेगा ही नहीं कि आपने हत्या करी है।

भारत में रिश्ते सबसे ज़्यादा स्थायी और चिरंजीवी होते हैं। यहाँ एक बार गाँठ लग गयी तो लग गयी, सम्बन्ध-विच्छेद कम ही होता है। यहाँ तो ये होता है कि शादी हुई हो या न हुई हो, चौदह साल वाली अपने सोलह साल वाले के लिए करवाचौथ रख रही होती है। और यही भारत जहाँ रिश्ते दुनिया में सबसे ज़्यादा स्थायी हैं, यहीं दुनिया में सबसे ज़्यादा मधुमेह के और हृदयाघात के मामले भी होते हैं। भारत को 'हार्ट-अटैक कैपिटल ऑफ़ द वर्ल्ड' कहा जाता है, कुछ बात तो होगी न? मारने का यही तरीक़ा नहीं होता कि चाकू उठाकर किसी की छाती में घोंप दिया या उसके जिस्म के टुकड़े कर दिये, मारने के तो इतने तरीक़े हैं। बस सब तरीक़े सनसनीखेज़ नहीं होते हैं। हर तरीक़े में खून बहता हुआ नहीं दिखता और हर हत्या में मीडिया की बहुत रुचि नहीं होती।

मैं कितनी बार बात कर चुका हूँ उन सब बच्चियों की जो जन्म लेने से पहले या जन्म लेते समय मार दी जाती हैं। उनकी हत्या की कोई बात करता है? वही लड़की बड़ी हो जाए, अट्ठारह या अट्ठाईस साल की हो जाए फिर उसकी हत्या हो जाए तो आप बहुत शोर मचाओगे। फिर तो आप उसको हत्या में भी, मृत्यु में भी, सम्मान से विदा नहीं होने दोगे। उसको डिग्निटी इन डेथ (गरिमापूर्ण मृत्यु) भी नहीं पाने दोगे। घुस-घुसकर पता करोगे, 'ये क्या करती थी, वो क्या करता था, दोनों का रिश्ता कैसा था, और क्या बातें हैं ज़रा कुछ बताओ! कुछ मसाला, कुछ चटपटा बताओ!' वहाँ बड़ी रुचि आ जाती है और जो लाखों-करोड़ों लड़कियाँ हमारे सम्माननीय, सुंस्कृत परिवारों में चुपचाप मार दी जाती हैं उनकी हम बात नहीं करना चाहते।

हत्या, हत्या होती है और सब हत्याएँ एक ही केन्द्र से आ रही हैं, एक ही मूल सिद्धान्त से आ रही हैं और मैं उसी की बात कर रहा हूँ। और आप उसकी बात नहीं करना चाहते। आप बस उस हत्या की बात करना चाहते हो जो रोशनी में आ गयी है, जो मीडिया में छा गयी है। और मीडिया में न छाये तो हत्या होती रहे, आपको कोई असर न होगा, क्योंकि आप ज़िन्दगी अपनी नहीं बदलना चाहते, आप अपना केन्द्र नहीं बदलना चाहते। आप बस ये चाहते हो कि लफड़े में न पड़ें, ‘भाई! झंझट नहीं माँगता अपुन।’ झंझट न हो, और ज़िन्दगी जैसी चल रही है वैसी चलती रहे तो कोई समस्या नहीं होगी आपको फिर।

और ग़लत, दूषित सम्बन्ध हत्या से भी बदतर होते हैं, ये अच्छे से समझ लेना! कोई उस दिन कह रहा था कि भारत में अनुमान है कि पिचानवे प्रतिशत शादियों में आज भी दहेज लिया-दिया जाता है और बढ़ ही रहा है दहेज का कारोबार। तो जो रिश्ता इस तरह से पैसे के लेन-देन की बुनियाद पर खड़ा हुआ है उस रिश्ते में दम नहीं घुटता होगा? वो रिश्ता मौत समान नहीं है क्या? हम उसकी नहीं बात करते, हम उसकी नहीं बात करेंगे।

कहीं ऐसा तो नहीं कि इतना ज़्यादा जो हम शोर मचाते हैं, जब कहीं कोई पति अपने पत्नी की या पत्नी अपने पति की या प्रेमी अपने प्रेमिका की हत्या कर देता है तो हम बहुत जो शोर मचाते हैं, वो शोर मचाकर कहीं हम ख़ुद को ही नहीं जताना चाहते कि हम ठीक हैं? 'हम ठीक हैं साहब! जितनी गड़बड़ हुई है, उधर हुई है। हम ठीक हैं!' उधर जो गड़बड़ हुई है वो तो हुई ही है निश्चित रूप से। पर उधर जो गड़बड़ हुई है उसका ढोल पीटकर आप जो अपनी तरफ़ भयानक गड़बड़ छुपाये हुए हैं, कहीं उसको तो नहीं बचाना चाहते?

'उधर बहुत ज़बरदस्त गड़बड़ हुई है।' क्यों? 'अरे! वो लिव-इन कर रहे थे न। या अलग-अलग धर्म के थे न इसलिए हुई है गड़बड़। हमारी ओर सब ठीक है। लिव-इन तो छोड़ दो, हमने तो बाल-विवाह कर लिया था, हमारी ओर कोई गड़बड़ नहीं हो सकती। बाल-विवाह किया था और चार ट्रक दहेज आया था, हमारी ओर कोई गड़बड़ नहीं हो सकती। उसके बाद सिर्फ़ तीन लड़कियाँ मारी हैं कोख में, हमारी ओर कोई गड़बड़ नहीं हो सकती। और सास और जेठानी मेरी इतने प्रेमी स्वभाव की थीं कि उन्होंने ट्रक भी नहीं वापस जाने दिये।'

बोलीं, 'ये भी तो दहेज में ही है न।' ट्रक भी बेचकर खा गयीं। अभी आजकल मुझसे कह रही हैं, 'पाॅंचवाॅं मॅंगवा दो ट्रक, नहीं तो रसोई में गैस के सिलेंडर का क्या है, कभी फट जाता है बेटा! तो जब कुछ दहेज वगैरह आएगा तो हम बेहतर सिलेंडर लेकर आएँगे ताकि तब तुम खाना बनाओ तो फटे न। और ये सरसों का तेल, इसमें बहुत मिलावट रहती है, ज़माना ही ख़राब है, घोर कलयुग! कहीं ऐसा न हो किसी दिन तुम पकौड़े तल रही हो और वो सारा उबलता हुआ तेल तुम पर ही आकर गिरे। हम तुमको बचाना चाहते हैं। जल्दी से पाॅंचवाँ ट्रक मँगवा लो बेटी! देखो! घोर कलयुग है, अभी-अभी गन्दे, विधर्मी लोगों ने मार-पिटाई कर दी, हत्या कर रहे हैं।'

रोज़ आता है न सूटकेस के अन्दर से लाश निकली, माँ-बाप ने बेटी को मार दिया, ऑनर किलिंग हो गयी, ये सब चलता है न? 'हम नहीं चाहते ये सब हमारे यहाँ हो, जल्दी से बेटी पाँचवाॅं ट्रक मँगवा लो। तब तक हम बढ़िया वाले सरसों के तेल का इन्तज़ाम करते हैं।'

हमारे समाज की, हमारे परिवार की और हमारे व्यक्तिगत जीवन की बुनियाद ही खोखली है। हम एक सड़े हुए केन्द्र से जीते हैं, जिसके अनुसार हम दुनिया में सिर्फ़ इसलिए आये हैं ताकि हम दुनिया को नोंच-खसोट सकें। जैसे गन्ने का आख़िरी बूँद तक रस निकाल लिया जाता है न, इसलिए है यह दुनिया, चूस डालो इसको बिलकुल! कुछ बचना नहीं चाहिए। जैसे कोई वहशी, हवसी आदमी बकरे की टाँग चबा रहा हो, और कह रहा हो माँस का आख़िरी रेशा तक हड्डी से छीलकर निकाल लूँगा। देखा है कभी उन लोगों को जो हड्डियाँ छील रहे होते हैं? ये हमारा दृष्टिकोण है जीवन के प्रति। हमको पढ़ा दिया गया है कि ज़िन्दगी इसीलिए तो है।

लड़की, लड़के के प्रेम में पड़ती है, क्या देख करके? लुक्स (बाहरी दिखावा)! या उसने दाढ़ी कुछ ख़ास तरीक़े से बनवा रखी है, ऐसे (दिखाते हुए) उसकी दाढ़ी आ रही है। आजकल तो तस्वीरों में देख ही रहे हैं ये सब, वही मामला छाया हुआ है। ‘ओ! दैट्स अ कूल कट!’ (क्या बढ़िया कट है दाढ़ी की!)। लड़का, लड़की में क्या देख रहा है? ‘आ! मज़ा आ जाएगा! शी विल बी टेरिफिक ऑन द बेड, वॉव! (ये बिस्तर पर बहुत अच्छी होगी)।’ लड़की ने भी अपनेआप को पूरे इसी तरीक़े से तैयार किया हुआ है कि उसको देखते ही देखने वाले के ढोल-नगाड़े बजने लग जाते हैं। एकदम पता चल जाता है कि ये माल तैयार ही किसलिए हुआ है। इस आधार पर तो रिश्ता बनता है।

बाहर-बाहर इतना मामला रंगीन और चिकना कर रखा है लेकिन भीतर वही पुराना जानवर है जो हिंसात्मक भी है और डरा हुआ भी है। हिंसा उसमें इतनी है कि सामने वाले को नोच खाये और डरा हुआ ये है कि जिसको नोच रहे हैं, कहीं वो भाग न जाए। तो फिर बन्दा, बन्दी को लेकर पजे़सिव (मालिकाना) हो जाता है। और लड़की को भी वही सब डर सताते हैं, चीटिंग (धोखा) तो नहीं कर रहा है! फिर लड़ाइयाँ होती हैं।

और प्रेम ऐसी चीज़ तो है नहीं कि माँ की कोख से लेकर पैदा होओगे, प्रेम तो सीखना पड़ता है। प्रेम कभी सीखा नहीं तो फिर थप्पड़-घूँसे चल जाते हैं। फिर रुपया-पैसा भी गिना जाता है, ‘अब यहाँ जब साथ लिव-इन कर रहे हैं तो तू कितना ख़र्च करती है और मैं कितना ख़र्च करता हूँ।’ लड़की को ये है कि मैं उतना ख़र्च क्यों करूँ, मैं तुम्हें फ्री सेक्सुअल सर्विस (मुफ़्त यौन सेवा) भी तो दे रही हूँ तो मैं अगर थोड़ा कम ख़र्च करती हूँ तो क्या बुरा हो गया। सर्विसेज़ (सेवाओं) की कॉस्ट (लागत) भी तो है।

लड़का कहता है, 'अच्छा, सर्विसेज़ बस एक ही तरफ़ से है, मैं नहीं देता क्या सर्विस ? सारी मोनिंग तो तू करती है और कह रही है कि सर्विस बस तू दे रही होती है।' और लड़की ये सुनते ही उबल जाती है। वो फिर कहेगी, 'अच्छा! हालत देख अपनी, आर यू इवन कैपेबल ऑफ़ प्रोवाइडिंग एनी प्लेज़र? (क्या तू कोई सुख देने में सक्षम भी है?) वो तो मैं हूँ, मेरा दिल इतना बड़ा है, एकदम साध्वी हूँ मैं कि तुझे सुख देने के लिए मैं बिछी रहती हूँ।' लड़के का भी पारा गरम!

ये तो वही सामान्य व्यापारिक लेन-देन की बात है न? ख़रीदने वाला पक्ष माल की क़ीमत कम आँकना चाहता है, बेचने वाला पक्ष माल की क़ीमत बढ़ा-चढ़ा कर बताता है। होता है कि नहीं होता है हर लेन-देन में? और फिर इसमें गड़े मुर्दे भी उखड़ने लगते हैं, ‘जा-जा! पता है पहले किस-किस के साथ रही है तू!’ ये सब क्यों? ये सब इसीलिए क्योंकि ये नया है ही नहीं, आप ऐसे ही जिये हो बचपन से। कुछ नया नहीं हो रहा है, बस भीतर की हिंसा को, अज्ञान को, खोखलेपन को प्रकट होने का एक नया मौक़ा मिल गया है। लड़की को लड़का मिल गया है, लड़के को लड़की मिल गयी है।

वही चीज़ जो वो आठ साल की उम्र में प्रकट करता था एक तरीक़े से, अब वो अठ्ठाईस की उम्र में प्रकट कर रहा है दूसके तरीक़े से। कुछ नया नहीं हो गया है। आठ की उम्र में भी उसे जो घटिया, गन्दी शिक्षा मिली थी हमारे समाज से, वो उस पर ही चल रहा था और आज भी वो उसी पर चल रहा है। वो कोई व्यक्ति नहीं है जो हिंसा कर रहा है, वो हमारे ही द्वारा दी गयी शिक्षा और संस्कारों का एक उत्पाद है, एक स्पेसिमेन (नमूना) भर है। उसे हमने ही तैयार किया है, वो कहीं बाहर से नहीं आ गया।

हाँ, अब जब हत्या हो जाए या कोई कांड हो जाए तो हम ख़ासतौर पर किसी एक व्यक्ति पर उँगली उठाकर के यूँ दिखाना चाहते हैं जैसे वही अकेला एक व्यक्ति तो एकमात्र दोषी है, 'बाक़ी हमसब तो पाक-साफ़ हैं, हम दूध के धुले हैं, इसको फाँसी दे दो।' साहब! 'इसको फाँसी दे दो' माने क्या? वो तुम्हारे ही घर से निकला है, वो तुम्हारी ही पैदाइश है। उसमें और तुममें कोई बहुत अन्तर नहीं है, बस परिस्थियों का खेल था कि उससे कांड हुआ। उसी की स्थिति में तुम होते तो तुम भी करते, शायद उससे दोगुना करते। लेकिन एक को दोषी ठहराकर के — कुछ हो जाए, हत्या हो जाए, बलात्कार हो जाए, कुछ हो जाए — एक को दोषी ठहराकर के आप बाक़ी सबको क्लीन चिट (निर्दोषिता का प्रमाण पत्र) दे देना चाहते हो, ख़ासतौर पर अपनेआप को।

अभी कल-परसों तो हुआ है, लड़की गयी कहीं चार-पाँच दिन रहकर के वापस आयी, बाप ने उसको गोली मारी माँ की सहायता से और फिर बाप-माँ दोनों ने उसको काटकर सूटकेस में या किसी अन्य चीज़ में डालकर के कहीं ले गये और फेंक दिया। पत्नी ने पड़ोसी के मदद से पति को मार दिया, फिर पड़ोसी के घर में गड्ढा खोदकर के वहाँ पति को गाड़ दिया। फिर जहाँ गड्ढा खोदा, उसके ऊपर सीमेंटिंग (पक्का) कर दिया और उसके ऊपर बिस्तर बिछा दिया। उस पर पत्नी और पड़ोसी अपना आराम से लेटा करते थे। नीचे पति को गाड़ रखा है। कहीं हो जाता है, कहीं तमन्ना, तमन्ना ही रह जाती है बस। हिंसक तो सभी हैं, चाह तो लगभग सभी एक ही चीज़ रहे होते हैं।

ऐसे जो मामले सामने आते हैं उन मामलों को आप ख़ास, विशिष्ट, स्पेसिफिक (विशेष) केसेज़ (मामले) न समझें। वो हमारी व्यापक सामाजिक रुग्णता के लक्षण भर हैं। पूरे शरीर में, समाज के पूरे शरीर में गन्दगी फैली हुई है। वो गन्दगी बस प्रकट कहीं-कहीं हो जाती है। जैसे खून गन्दा हो गया हो किसी इन्सान का तो फोड़े-फुंसियाँ निकलने लग जाते हैं। अब ऐसा थोड़े ही है कि जहाँ फोड़ा हो गया है बस वहीं पर खून गन्दा है, खून तो सिर से लेकर पाँव तक गन्दा है। लेकिन जहाँ फुंसी, फोड़ा, मुहाँसा आ गया है, आप उसी जगह को दोषी ठहराते हैं, कहते हैं, ‘ये पापी जगह है।’ क्या पापी जगह है? हर घर की यही कहानी है। हाँ, अब यह बात सुनने में नागवार हो जाएगी, ‘ऐसा थोड़ी है, हर घर की यही कहानी थोड़ी है? देखिए, हमारा बहुत सभ्य, शिष्टाचारी, शालीन, सांस्कृतिक घर है, हमारे घर में ये सब नहीं होता। हमारा तो जी ‘सूरज बड़जात्या’ वाला घर है, राजश्री प्रोडक्शन्स। सब लोग सुबह-सबुह एकसाथ बैठकर नाश्ता करते हैं — बहुत सारा नाश्ता।’

रिश्तों की एक ही स्वस्थ बुनियाद हो सकती है, वह है ‘प्रेम’। प्रेम के नाम पर हम बस पशुता जानते हैं क्योंकि प्रेम तो आध्यात्मिक ही होता है। अध्यात्म से हमारा कोई लेना-देना नहीं। प्रेम के नाम पर हम बस बन्धन जानते हैं। बन्धनों में प्रेम हो नहीं सकता है, प्रेम मुक्ति का दूसरा नाम है। मुक्ति से हमारी रूह काँपती है। प्रेम ऐसी चीज़ नहीं है कि आप कटघरे में करवा लें किसी से।

बड़ी समस्या आ जाती है, जंगली जानवर जो विलुप्त हो रहे होते हैं उनकी आबादी बढ़ाने के लिए कई बार एक ही बाड़े में नर और मादा को डाला जाता है कि ये संयोग करेंगे तो उससे बच्चे पैदा होंगे और इनकी कुछ आबादी बढ़ेगी, चाहे वो चीते की आबादी हो या अन्य विलुप्त हो रही प्रजातियों की आबादी हो। बड़ी दिक़्क़त आती है। नर होगा, मादा होगी, वो आपस में मिलते ही नहीं। जंगली जानवर को भी पता है कि कुछ काम सिर्फ़ आज़ादी के होते हैं। तुम बाड़े में करवाओगे, हम करेंगे ही नहीं, हम नहीं करते!

आदमी अकेला है जिसकी सुहागरात का बिस्तर भी घर के भाई-बहन, भाभियाँ तैयार करते हैं और पड़ोस की औरतें आकर तैयार करती हैं और तब भी कार्यक्रम चल जाता है। कैसे चल जाता है? तुम्हारी आत्मा कुछ है या नहीं है? जीवन में कुछ निजता है या नहीं है? कुछ नहीं है, इसलिए प्रेम नहीं है। और जब प्रेम नहीं होता तो सम्बन्ध ऐसे ही होते हैं, कारोबारी, लेन-देन के, जिसमें पूरी कोशिश यह रहती है कि दूसरे पक्ष से अधिक-से-अधिक उगाह कितना लो।

जब तक रिश्ते चल रहे होते हैं तब तक तो फिर भी ठीक है। देखा है, जब रिश्ते टूटते हैं उसके बाद जो रायता फैलता है, मुक़दमेबाज़ी चल रही है दस-दस साल तक! वो कह रही है मुझे तुमसे कम-से-कम डेढ़ करोड़ चाहिए। रिश्ता टूट गया उसके बाद अब एक-दूसरे की फ़ोटो लीक (उजागर) कर रहे हैं। जो पहले एसएमएस था वो एमएमएस बन जाता है और सीधे पॉर्नसाइट (अश्लील वेबसाइट) पर पहुँच जाता है। वो बदला निकाल रहा है, वो कह रहा है, ‘ले! तू बोलकर भागी है न कि अब मैं उतना तेरे लिए आकर्षक नहीं हूँ, काम का नहीं हूँ, तो ले! तेरा सारा कार्यक्रम मैंने वहाँ पहुँचा दिया, सुपर पाॅर्न डॉट काॅम।’

ये सम्बन्ध-विच्छेद होते ही आदमी दूसरा हो जाता है क्या? आदमी तो दूसरा नहीं हो गया? माने जब सम्बन्ध चल रहा था तब भी आदमी वही था। मैं बताऊँ, सम्बन्ध से पहले भी आदमी वही था। बस जब रिश्ता टूट जाता है उसके बाद आपको उसका वो चेहरा दिखायी देता है जो पहले आप नहीं देख पाये क्योंकि आपमें भी बराबर का लालच और कामवासना थी। तो आपको दिखा ही नहीं कि ये कितना घटिया, दरिन्दा है जिसके साथ आप रिश्ता बनाये बैठे हो। वो जब टूट जाता है तब पता चलता है।

फिर गुंडई चल रही है, एक-दूसरे को पिटवाने की कोशिशें चल रही हैं, मीडिया में इधर-उधर के बयान दिये जा रहे हैं। इसको कहते हैं 'वाशिंग योर डर्टी लेनिन इन पब्लिक' (अपनी गन्दगी को सार्वजनिक तौर पर धोना)। ऐसी-ऐसी बातें मीडिया में बोली जा रही हैं, ज़ाहिर की जा रही हैं जो कभी सार्वजनिक होनी नहीं चाहिए। स्त्री-पुरुष के आपस की बात है, वो जाकर के कहाँ तुम मीडिया में उछाल रहे हो? पर वो सब होता है फिर। वो औरत बदल गयी? वो आदमी बदल गया? नहीं। वो हमेशा से ऐसे थे, पर जब तक रिश्ता चल रहा था तब तक वो हूर परी थी और वो राजकुमार था। तब तक तो यही था, 'जाने तमन्ना!' वो जाने तमन्ना एक दिन अचानक डायन कैसे बन गयी? क्योंकि वो पहले से ही डायन थी। ये अलग बात है कि जो तुम्हें अब दिख रहा है कि डायन है, आजकल किसी और की जाने तमन्ना है। कैसे!

हम ‘लोग’ ही ग़लत हैं! और उस पर तुर्रा ये कि जब हमारे ग़लत होने के इतने वीभत्स, इतने करुण, इतने दर्दनाक प्रमाण सामने आते हैं तो भी हम चेतते नहीं। तब हम ऐसे कहते हैं, 'अरे! वो लड़का मुसलमान था न और मुसलमान तो हिंसक होते ही हैं इसलिए उसने मार दिया लड़की को।' अच्छा, तो बाप ने बेटी को क्यों मारा? 'अरे! वो मनोरोगी था, मनोरोगी! इसलिए उसने मार दिया।' माने जिन्होंने भी मारा, जहाँ भी ऐसी घटनाएँ हुईं, वो कुछ अलग लोग थे। नहीं, वो अलग लोग नहीं हैं वो आपमें से ही एक हैं! वो हम हैं, हमने ही मारा है, हम ही मारे जा रहे हैं।

ये आज से लगभग पन्द्रह साल पहले का आँकड़ा है — अब बदल गया हो तो बदल गया हो, इधर मैंने खोजा नही — कि पिचहत्तर-अस्सी प्रतिशत भारतीय परिवारों में जो सबसे छोटा बच्चा होता है वो लड़का होता है। ये भी हो सकता है कि वो पन्द्रह साल में बढ़ भी गया हो, तब पिचहत्तर था अब पिच्चासी हो गया हो। इसका आशय समझते हैं? कोई बात नहीं कर रहा इसकी, न अख़बार, न न्यूज़ चैनल, क्योंकि यहाँ खून बहता हुआ दिखायी नहीं दे रहा न आपको! तो सनसनी नहीं मच रही, आँकड़ा भर है इसमें सनसनी कैसे मचेगी? किसी ने कहा था, “एक व्यक्ति की मौत त्रासदी होती है और एक लाख व्यक्तियों की मौत सिर्फ़ स्टेटिस्टिक्स , आँकड़ा।”

एक बड़ा हाई प्रोफाइल केस है, बम्बई का, वो चले ही जा रहा है, दस साल हो रहे होंगे शायद, जहाँ माँ ने अपनी बेटी को मार दिया! इल्ज़ाम है, अभी अदालत ने कोई फ़ैसला नहीं दिया है। वो बड़े उच्च वर्ग का केस है, जिसको आप कहोगे समाज का अभिजात्य वर्ग, हाईएस्ट, इलीट स्टेट ऑफ़ सोसाइटी , वहाँ से आ रहा है, कोई ग़रीबों का मामला नहीं। और माँ ने अपने हाथों से मारा बेटी को और ले जाकर के उधर डाल दिया, जला ही दिया शायद लाश को, कुछ ऐसा हुआ था। खिंच रहा है वो, और ये सिर्फ़ वो मामले हैं जो सामने आ जाते हैं।

हर आदमी घुट-घुटकर मर रहा है क्योंकि रिश्तों से बड़ी फाँसी दूसरी नहीं होती। बस हम उस घुटन के साथ थोड़े सुव्यवस्थित हो जाते हैं, थोड़े समायोजित हो जाते हैं, उस घुटन को अपनी आदत बना लेते हैं, एडजस्ट कर लेते हैं। ये जो लोगों के चेहरे ऐसे श्मशान से होते हैं, ये बात मौत की नहीं है क्या? एक आदमी है जो चल रहा है सड़क पर, होगा पैंतीस-चालीस साल का, उसका मुँह देखो, ऐसा लगता है जैसे सुबह-सुबह चार थप्पड़, पाँच लात खाकर आया है ठीक चेहरे पर। तुम्हें पता नहीं है उसके साथ क्या हो रहा है? ये रिश्तों की बात है। और रिश्ता आवश्यक नहीं कि पत्नी के साथ ही हो, वो पिता के साथ भी रिश्ता हो सकता है, वो उसके बॉस के साथ भी रिश्ता हो सकता है। बात बस ये है कि ये जो भी रिश्ता है वो तुम्हारा है, तुमने चुनाव किया है और तुम आदमी ही ग़लत हो, तुम्हें नहीं पता कि क्या चुनाव करने हैं ज़िन्दगी में। तुम्हारे सारे चुनाव भय, लोभ, वासना इसी केन्द्र से आते हैं या फिर अज्ञान से आते हैं।

'हमें तो जी कुछ पता नहीं था, वो परदादी थीं, परदादी ने यूँही पकड़कर विवाह करा दिया, हम तो बच्चे थे।' कितने साल के? 'बाईस साल के बच्चे थे।' आमतौर पर स्त्रियाँ आती हैं, गाँव और छोटे क़स्बों वगैरह से, वो ऐसे ही बोलती हैं, ‘हम तो कुछ जानते भी नहीं थे, हमारी तो शादी ऐसे ही करा दी बस।’ क्या उम्र थी? कैसे आप कुछ भी नहीं जानती थीं? और नहीं भी जानती थीं तो इससे यही तो प्रमाणित होता है कि आपके रिश्ते का आधार अज्ञान है। अज्ञान में सम्बन्ध में बनाओगे तो और क्या पाओगे? आ रही बात समझ में?

और अभी तक हमने जितनी बात करी है उसमें हमने बस मनुष्यों के प्राण, उनके जीवन, उनकी हत्या की बात करी है। आप जानते हो दुनिया की आबादी अभी कितनी है? आठ-सौ करोड़। ये आठ-सौ करोड़ लोग प्रतिदिन कितने जीवों की हत्या करते हैं, उसका कुछ हिसाब है? ये आठ-सौ करोड़ लोग अलग-अलग तरीक़ों से, खाने के लिए, शोध के लिए, दवाई के लिए, अपने मनोरंजन के लिए, अपने सामान के लिए कितने जीवों को प्रतिदिन मारते हैं, कुछ थोड़ा अनुमान लगाओ। मछलियों को भी शामिल कर लो तो हम सैकड़ों-अरबों में जीवों को मारते हैं प्रतिदिन। थोड़ा एक मिनट उस हत्या की भी बात कर लें या उनकी जान बिलकुल ही मुफ़्त की है?

और ये प्रकृति का कैसा विद्रूप मज़ाक है। तुम जिस मामले की बात कर रहे हो, जहाँ शव को पैंतीस टुकड़ों में काटा गया, उसको काटने के लिए जिस चाकू का इस्तेमाल किया गया वो चाकू बना है जानवरों का माँस काटने के लिए। अस्तित्व तुमसे बोल रहा है, ठीक वो उपकरण जो तुमने तैयार करा है जानवर को काटने के लिए, देखो! उसी से इंसान भी कटेगा। और ठीक वो मन जो तुमने तैयार कर रखा है जानवर को काटने के लिए, ठीक वही मन इंसान को भी काटेगा।

मेरे ख़याल से आज से लगभग तीस साल पहले की बात होगी, दिल्ली में एक तन्दूर काण्ड हुआ था। जहाँ पर काँग्रेस का ही कोई प्रभावशाली नेता था उसने ले जाकर के अपनी पत्नी को तन्दूर में ही डाल दिया। बोला, 'यहाँ पर कुछ नहीं बचेगा। बाक़ी और कुछ भी करूँगा तो कहीं से हड्डी-वड्डी तो मिल ही जाती है, कई साल बाद भी हड्डी मिल जाती है। तन्दूर में डाल दो, यहाँ कुछ नहीं मिलेगा!' उसने तन्दूर में ही डाल दिया।

उसकी चाल सफल भी हो गयी थी, बस उससे धुआँ इतना उठा कि लोगों ने कहा कि आज कौनसा बड़ा जानवर पक रहा है भाई! इतना बड़ा कौनसा जानवर है कि इतना धुआँ उठ रहा है। तो किसी को शक हो गया, उसने इधर-उधर कुछ देखा-ताका, बात पुलिस तक पहुँच गयी तो ये फँस गया आदमी। और वो तन्दूर बनाया ही किसलिए जाता है, तन्दूर में ज़्यादातर क्या पकता है? आलू?

श्रोता तन्दूरी रोटी।

आचार्य: नहीं, तन्दूरी रोटी छोड़ दो, उसके अलावा तन्दूरी चीज़ें ज़्यादातर क्या होती हैं? माँस ही होता है न।

तो कबीर साहब इसीलिए बोल गये हैं, “जाका गला तुम काटिहो, सो फिर काटै तुम्हार।” हमने सोचा कि अच्छा शायद कोई परलोक होता है, वो मुर्गे, बकरे हमने जिनका गला काटा था वो परलोक में हमारा गला काटेंगे। नहीं, परलोक में नहीं काटेंगे, तुम्हारा गला इसी लोक में कट रहा है। ये जो बचपन से ही हमारे भीतर हिंसा स्थापित की जाती है, वही हिंसा फिर हमारे एक-एक सम्बन्ध में दिखायी देती है और हम उसको नॉर्मल (सामान्य) मान लेते हैं, ‘ऐसा ही तो होता है, ऐसा ही तो होता है और कैसे होगा!’

अभी एक-दो दिन पहले ही, आप लोगों ने भी देखा होगा एक छोटा सा वीडियो है, जिसमें एक बैंगलोर का आईटी प्रोफ़ेशनल है, वो शायद बच्चे का बर्थडे मना रहे हैं, बच्चे का है या बच्चे की माँ का है, पता नहीं किसका है। तो वो वीडियो बना रहा है, ख़ुद वो वीडियो सेट कर रहा है और अभी पूरे तरीक़े से कैमरा सेट नहीं हुआ है, कैमरा लगा रखा है वहाँ पर। केक रखा है और बच्चा बैठा है छोटा और उसकी माँ बैठी है और उसी फ्रेम में ये पिताजी भी आ रहे हैं। यही तीन लोग हैं। छोटा बच्चा है, माँ है और बाप है। वो फ्रेम सेट कर रहा है, माँ इतनी देर में समझ नहीं पाती है कि राइट टाइम क्या है वो मोमबत्ती बुझाने का, वो इतनी देर में बुझा देती है। शायद माँ का ही होगा जन्मदिन।

अब वो रिकॉर्डिंग हो रही है, उसी फ्रेम में वो उठकर आता है और दनदना कर दो झापड़ मारता है उसको। वो वहीं बिस्तर पर बैठ जाती है, वहाँ से कुछ बोलती है। जब वह बोलती है तो इस बार वो झापड़ नहीं मारता, इस बार पास जाकर उसको घूँसे मारता है, एकदम बॉक्सर की तरह पंचेज़ (मुक्के) मारता है धाड़-धाड़-धाड़! और आगे, दिल दहल जाएगा आपका आगे का सुनकर! इसके आगे का ये है कि वो जो छोटा लड़का है, वो अपनी माँ को मारता है। ये बैंगलोर का कोई आईटी प्रोफ़ेशनल है।

पढ़ने-लिखने से भीतर की हिंसा नहीं चली जाएगी उसके लिए एक बहुत ख़ास क़िस्म की शिक्षा चाहिए। ये जो होमोसैपीअन्स (इंसान का वैज्ञानिक नाम) नाम का जानवर पैदा होता है, उसको इंसान बनाने के लिए एक बहुत ख़ास शिक्षा चाहिए होती है, वो शिक्षा हम नहीं दे रहे। और हम गन्दे-से-गन्दा काम ये कर रहे हैं कि हम धर्म का अर्थ ही अब ख़राब करे दे रहे हैं। भारत में ये चीज़ पिछले दस-बीस सालों से बहुत ज़्यादा हो रही है। धर्म का अर्थ ही विकृत किया जा रहा है। एकदम ग़लत हाथों में फिसलता जा रहा है धर्म। धर्म जो कि प्रेम का दूसरा नाम है, उस धर्म का मतलब हिंसा बनता जा रहा है। अगर आप धार्मिक हैं तो इसका अर्थ ही ये बनता जा रहा है कि आप हिंसात्मक होंगे। आप धार्मिक हैं ही तभी जब आपमें अनुदारता हो, कट्टरता हो और आप दूसरे पक्ष के लोगों को पीटने के लिए तैयार खड़े हों, तो आप धार्मिक हैं।

आप ट्वीटर पर चले जाइएगा, वहाँ कवर पिक होती है, डिसप्ले पिक होती है, बैनर होता है पीछे, जिस किसी ने वो धार्मिक क़िस्म के लगा रखा हो — और जिन्होंने धार्मिक क़िस्म का लगा रखा हो, साफ़ पता चल जाता है — जिस किसी ने धार्मिक क़िस्म का ऐसा कुछ लगा रखा हो, आप फिर उसकी टाइमलाइन देखिएगा, और देखिएगा कि वहाँ क्या मिलता है आपको। ज़हर-ही-ज़हर, टॉक्सीसिटी (विषाक्तता) ज़बरदस्त क़िस्म की, यही मिलेगा। ये हमने धर्म का अर्थ बना दिया है और बनाते जा रहे हैं बहुत तेज़ी से। और ये नयी चीज़ है, थी हमेशा से, पर दबी हुई थी, पिछले दस सालों में बहुत तेज़ी से बढ़ी है कि धर्म का अर्थ है कि मार डालूँगा। धर्म का अर्थ ही अगर हिंसा हो गया तो अब प्रेम कौन सिखाएगा? और प्रेम अगर नहीं है तो सम्बन्ध का मतलब ही होगा एक-दूसरे की जान लेना। आपको दिख नहीं रही इतनी साधरण सी बात?

सम्बन्ध हम बनाते हैं बस दो तरीक़े से। एक तो ये कि हमें मजबूर कर दिया जाए, तो ग़ुलामी के, दमित, दबे-घुटे से सम्बन्ध बनाते हैं। या तो ऐसे बनते हैं हमारे सम्बन्ध। या फिर एकदम वासनामूलक सम्बन्ध, क्योंकि जब किसी आदमी को बहुत दमित करके रखोगे तो उसकी वासना कहीं जाकर फटती है। तो ये दो ही तरीक़े के हमारे सम्बन्ध बनते हैं। जो पहले तरीक़े का दबा-घुटा सा, दमित सम्बन्ध होता है उसका प्रतीक है घर की गृहणी, जिसके साथ मजबूर कर दिया जाता है एक आदमी को रहने को। वो अपना रह रहा है वहाँ पर, चल रहा है, ठीक है। 'कौन हैं ये?' 'ये हैं श्रीमती जी, घर की लक्ष्मी!'

और जो दूसरे तरीक़े का सम्बन्ध है, जिसमें वासना का पाशविक विस्फोट है, उसका प्रतीक है बाज़ार की वेश्या! ये दोनों साथ-साथ चलते हैं और इन दोनों में ही प्रेम कहीं नहीं है। गृहणी के साथ भी जो तुम सम्बन्ध बना लेते हो उसमें भी प्रेम नहीं है, मजबूरी ही है ज़्यादा। मजबूरी, मर्यादा, विवशता, सामाजिक मान, रख-रखाव यही सब है। कहाँ से प्रेम आएगा घर में, होता है प्रेम? कहाँ होता है! और जो बाहर जाकर के इधर-उधर सम्बन्ध बना लेते हैं, जो वेश्या के साथ बनते हैं, उसमें तो प्रेम का सवाल ही नहीं, वो तो सीधा लेन-देन है। कितनी ख़ौफ़नाक बात है! तो हम जी कैसे रहे हैं फिर? कर क्या रहे हैं हम?

हाँ, और कहीं किसी तरीक़े से, सब प्रतिकूल परिस्थियों के बावजूद, अनायास, कहीं सच्चे, वास्तविक प्रेम का फूल अगर खिल जाता है तो हमारी ईर्ष्या की कोई सीमा नहीं रहती। पूरा समाज आतुर हो जाता है उसको कुचलने को, ‘ये आ कहाँ से गया?’ उस फूल का खिलना हमारे लिए बड़े अपमान की बात है। वो फूल हमें बता रहा है कि उसकी सम्भावना हमारे भी ज़िन्दगी में भी थी पर हम वंचित रह गये, हम उस फूल, उसकी सुगन्ध, उसके सौन्दर्य के क़ाबिल सिद्ध न हुए।

तो कहीं गाहे-ब-गाहे हज़ारों-लाखों में से किसी एक मामले में कहीं अगर प्रेम अंकुरित हो जाता है, पुष्पित हो जाता है तो पूरा समाज दौड़ पड़ता है उसको कुचलने के लिए, क्योंकि वास्तविक प्रेम न तो आपके घर के नियम-क़ायदे मानेगा, न आपके बाज़ार के। न वो मर्यादा पर चलता है, न वो लेन-देन, व्यापार पर चलता है। वो तो बस अपनी पर चलता है और ये बात हमारे बिलकुल नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त है। और वास्तविक प्रेम में ऐसी भी कोई बाध्यता नहीं होती कि वो स्त्री और पुरुष के बीच ही होगा। वो तो बस होता है। एक प्रेमी मन होता है जो जी ही प्रेम में रहा होता है और ऐसे से दुनिया बहुत चिढ़ती है।

आप किसी को भी माफ़ कर सकते हो, आप किसी ऐसे को नहीं माफ़ कर पाओगे जो प्रेम में है। उसकी हस्ती ही आपके लिए अपमान की बात हो जाती है।

दफ़्तरों में, ख़ासतौर पर सरकारी दफ़्तरों में जहाँ हर आदमी ग़लत कारणों से ही नौकरी कर रहा होता है, वहाँ पर कोई आदमी ऐसा हो जो अपने काम में डूबने लगे, वो मज़ाक का विषय बन जाता है। मान लीजिए कोई वर्मा जी हैं, किसी दफ़्तर में। उन्हें मन लगाकर काम करना अच्छा लगता है। उन्हें जो काम, जो प्रोजेक्ट मिला है, उन्हें ये बात भाने लगी है कि मैं इसको अच्छे से करूँ। बट ऑफ़ जोक (हँसी का विषय ), पूरा दफ़्तर हँसेगा उन पर। ऐसे कहेंगे, 'अच्छा! अपना भी काम इनको दे दो भई, इन्हें काम बहुत पसन्द आता है, हाहाहा!' आप किसी को भी बर्दाश्त कर लोगे, लेकिन कोई आदमी प्रेम में पड़ गया, आप चिढ़ उठोगे, जल उठोगे।

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