Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
इच्छा अपूर्ण, मौज पूर्ण
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
21 min
141 reads

प्रश्नकर्ता: उपनिषद् भी कहते हैं “एकोहम् बहुष्यामि”

तो क्या ये जो कल्पना होती है, वो ईश्वर के मन में होती है? कि, "मैं एक हूँ और बहुत हो जाऊँ?"

आचार्य प्रशांत: ये उसके मन में होती है जिसे बहुत दिख रहे हैं और जिसे एक दिख रहा है। ईश्वर न बहुत है न एक है। जब हम कहते हैं कि ईश्वर कह रहा है, "हूँ एक, बहुत हो जाऊँ”, तो हमने पहले ही गिनतियों की दुनिया में प्रवेश कर लिया है – एक और बहुत; ये संख्याएँ हैं, ये गिनतियाँ हैं। ये गिनतियाँ कहाँ हैं? कहने वाले के मन में। तो ये वही बोल सकता है, जो पहले ही गिनतियों की दुनिया में आ चुका है।

गिनतियों की दुनिया में आया हुआ मन, उसके विषय में कल्पना करने की कोशिश कर रहा है, जो संख्यातीत है। ये जो अभी आपने वक्तव्य बोला, ये कुछ भी नहीं है, मात्र कल्पना है - मन की, मनातीत के बारे में। चाहे ‘कुन-फ़ाया-कुन’ हो, चाहे तैत्रिय उपनिषद् का २.६, चाहे बाइबिल का वक्तव्य कि लेट देअर बी लाइट (प्रकाश हो!) ये क्या सत्य है? ये जो वक्तव्य है कि- “उसने कहा कि मैं कई हो जाऊँ और वो हो गया है” ये वक्तव्य क्या सत्य है? क्या 'सत्य' आकर के इसकी उद्घोषणा कर रहा है? कि मैंने कहा कि मैं कई हो जाऊँ’?

ये कौन कह रहा है?

ये हमारे-आपके जैसे लोग कह रहे हैं। हम अपने सीमित मन का प्रयोग करके किसी प्रकार असीम को जानने की चेष्टा कर रहे हैं। सत्य नहीं कहने आता कि, "एक हूँ, कई हो जाऊँ," न उसके पास भाषा है या यूँ कहिए कि उसको भाषा की आवश्यकता नहीं है और न उसके पास गिनती है या यूँ कहिए कि उसको गिनती की आवश्यकता ही नहीं है। ये तो हमारी भाषा है, हमारी कल्पना है।

प्र: परन्तु ये कह तो वही पाएगा न जो उस स्क्रीन (पर्दे) से बाहर आ चुका है?

आचार्य: देखिये जितना कुछ भी कहा जा रहा है वो सत्य नहीं है, कोई पर्दा कहीं नहीं है। जब आप कहते हैं कि एक पर्दा है और पर्दे से बाहर कोई है और पर्दे के अंदर कोई है और पर्दे के बाहर कोई है, तो ये दोनों भी कहीं हैं क्या?

कहीं कोई पर्दा है? और कहीं कोई पर्दे से बाहर है क्या? पर्दा कब तक है? जब आप कहते हैं कि एक फिल्म का पर्दा है और उस पर इतने सारे चरित्र हैं, पात्र हैं, अभिनय चल रहा है; ये आप कब कहते हैं?

प्र: जब तक आप मौन में हैं?

आचार्य: कब तक दिखाई देता है कि ये सब चल रहा है? तभी तक दिखाई दिखाई देता है न, जब तक की उसकी पड़ताल नहीं करी, ध्यान नहीं है। ध्यान के अभाव में ही तो भ्रम रहता है न? ध्यान है, फिर कहाँ कोई पर्दा है? इसीलिए पूछना हमेशा बहुत ज़रूरी होता है कि ये बात कह कौन रहा है? पर्दा नहीं है, पर्दे के भीतर जो संसार है वही सत्य है, ये कौन कह रहा है? ये 'द्रष्टा' कह रहा है। "पर्दा है, और मैं पर्दे से बाहर खड़ा हूँ, देख मात्र रहा हूँ" ये कौन कह रहा है? ये साक्षी कह रहा है। न द्रष्टा सत्य है, न साक्षी सत्य है। कहने में ऐसा लगता है कि जैसे साक्षी मन को देख रहा हो पर भूलियेगा नहीं कि साक्षी भी मन की कल्पना ही है।

प्र: यही प्रश्न पूछा था किसी ने कि साक्षी मन के बाहर थोड़ी न है।

आचार्य: मन है कहाँ? तुम बात को समझो। उदाहरण को ही जब सत्य बनाते हो, तब अटक जाते हो, ये सारी बातें इसलिए नहीं कही जा रही हैं कि इन बातों में कोई सत्य है; ये सारी बातें इसलिए कही जा रही हैं ताकि जिसको तुम सत्य समझते हो उसको सत्य न समझो।

न पर्दा सत्य है, न साक्षी सत्य है, कुछ नहीं होता साक्षित्व। कोई अगर तुमसे ये कहने आ रहा है कि साक्षी बहुत बड़ी बात है और साक्षी होना चाहिये तो वो कुछ जानता नहीं, साक्षी जैसा कुछ होता ही नहीं। किसका साक्षी? उसका, जो है ही नहीं। तुम कहते हो, मन अनित्य है, मन भ्रम है और साक्षित्व में तुम मन को, दृश्य को, द्रष्टा को दोनों को एक साथ देखते हो।

जो है ही नहीं, उसको देखने वाला तो कोई नशेड़ी ही होगा। कोई नशेड़ी ही होता है, जो उसको देख ले जो है ही नहीं। ये पूरी प्रक्रिया सिर्फ़ नेति-नेति की है। दिक्कत तब होती है जब नेति-नेति के दौरान जो उदाहरण लिए जाते हैं, उनको तुम सत्य मानना शुरू कर दो कि पर्दे में जो चल रहा है सब झूठा है, ये समझाने के लिए उदाहरण के तौर पर एक साक्षी को खड़ा करना पड़ा, सिर्फ़ ये समझाने के लिए कि पर्दे के भीतर जो है उसकी नेति-नेति करो। अब पर्दे के भीतर वाले की नेति-नेति हुई कि नहीं हुई ये मुझे नहीं पता, हाँ इतना ज़रूर हो गया कि एक साक्षी और जुड़ गया मन में।

ये गड़बड़ हो गयी न?

कि संसार का अपना कोई आधार नहीं है, वो किसी स्रोत की तरंग मौज़ मात्र है, ये कहने के लिए कहा गया कि उस एक ने कहा कि, "मैं एक हूँ, मैं अनेक हो जाऊँ" उपनिषदों का वक्तव्य है- "मैं एक हूँ, मैं अनेक हो जाऊँ, मुझे फैलने दो, मुझे विस्तार लेने दो।" ये समझाने के लिए ये बात कही गयी है कि ये संसार नित्य नहीं है। दृश्य, द्रष्टा पर आश्रित है; द्रष्टा, दृश्य पर आश्रित है। दोनों में से कोई भी अपनी बुनियाद पर नहीं खड़ा है। दोनों ही आश्रित हैं, दोनों में से अनाश्रित कोई नहीं। ये बात सिर्फ ये समझाने के लिए कही जा रही है कि किसी और ने कहा कि संसार पैदा हो जाए तो संसार आया, संसार को काटो।

संसार को काटने की बात की जा रही है, ये नहीं कहा जा रहा है कि उस ‘एक’ में विश्वास करना शुरू कर दो; बड़ी गड़बड़ हो जाती है। संसार में जो हमारा झूठा यकीन है, वो यकीन हटाने के लिए ईश्वर नामक एक तत्व की कल्पना करनी पड़ती है- अब ये तो पता नहीं कि होता हैं कि नहीं होता है, कि संसार से आपके विश्वास हटे। हाँ, आप इतना ज़रूर करते हो कि अपने संसार में एक ईश्वर को और शामिल कर लेते हो। इतनी चतुराई होती है हमारे मन की; खुद तो हटा नहीं, एक चरित्र और जोड़ लिया ईश्वर। और ईश्वर के भी आगे जा सकते हो, उसको ब्रह्म बना लो, स्रोत बना लो।

जो अचिंत्य है, उसे अचिंत्य रहने दो। उसको अपनी कहानियों का हिस्सा मत बनाओ।

हज़ार कहानियाँ हमारे पास पहले से हैं और कहानियाँ हम उसमें जोड़ लेते हैं कि हिरण्यगर्भ, कि ६ दिन में सृष्टि का निर्माण और सातवें दिन आराम; ये कहानियाँ हैं। कि प्रलय और बाढ़, और नोवा और उसकी नाव – ये कहानियाँ हैं। कि ब्रह्म और उनके मुख से वेद- कहानियाँ हैं।

कहने वालों ने ये कहानियाँ इसलिए कहीं ताकि ये कहानियाँ तुम्हारे मन में पहले से बैठी ऊल-जुलूल कहानियों को साफ़ कर सकें। मन तो कहानियों में ही जीता है। उसमें तो प्रवेश ही कहानियों का होना है, तो तुम्हें एक नयी तरह की कहानी दी गयी ताकि तुम्हारी पुरानी कहानियाँ साफ़ हो सकें। पुरानी तो तुमने साफ़ करी नहीं, नयी वाली को पुरानी का हिस्सा बना दिया, जोड़ दिया दोनों को। तो तुमने क्या कहा? पहले तुम कहते थे कि "ये संसार है और ये सत्य है" और अब तुम्हारी कहानी क्या हो गयी? "ये संसार है, जिसको एक ईश्वर ने बनाया है और ये बात सत्य है"

गज़ब हो गया!

पहले तो इतना ही भर कहते थे कि संसार है, अब तुम्हारे पास संसार के अलावा, इसको बनाने वाले का भी पूरा कच्चा-चिट्ठा मौज़ूद है। बड़े होशियार हो! कहानी मिटने की जगह और प्रगाढ़ हो गयी। मिटी तो नहीं, उसमें लेख़क का नाम और जुड़ गया। पहले कहानी भर थी, अब वो एक प्रमाणिक कहानी है – वैधता। देखो किसने लिखी है, हमें वो भी पता है, लिखने वाले का भी पता चल गया तो कहानी असली ही होगी। और ये भी पता चल गया कि उसने क्यूँ लिखी थी, ये देखो ये रहा “वो अकेला बैठा था, वो बोर हो रहा था, तो उसने कहा कि मैं एक हूँ, मैं अनेक हो जाऊँ’- तो देखो हमें उसकी मंशा भी पता चल गयी।

अब तो पक्का है कि ये कहानी सच्ची है- कहीं कोई बैठा है, वो एक है, उसके अलावा कोई दूसरा होता नहीं है ‘एकोऽहं द्वितियो नास्ति’, फिर उसके तरंग उठती है, वो कहता है कि मुझे विस्तार लेना है और फिर उससे पूरा संसार आ जाता है। अब बिल्कुल ऊपर से लेकर नीचे तक कहीं संदेह की कोई गुंजाईश नहीं बची। अब आप सब कुछ जानते है। अब आप पंडित हो गये हैं। अब आपको पूरा पता है। "उसने बनाया, प्रभव हुआ, फिर आगे बढ़े, फिर समय चलते जाएगा और आगे प्रलय हो जाएगी और सब कुछ वापस उसी में लीन हो जायेगा।"

बस! सब समझ में आ गया, हम सब जानते हैं!

ये सारा खेल क्यों हो रहा है? सिर्फ़ अपने-आपको ये बताने के लिए कि ‘"मैं सब जानता हूँ, मुझे आदि से लेकर अंत तक सब कुछ पता है।"

आदमी का क्षुद्र अहंकार अपने खालीपन का सामना न करने के लिए, कितनी भी बड़ी-बड़ी कहानियाँ गढ़ सकता है। और क्यों गढ़ रहा है? सिर्फ इसलिए क्योंकि जीवन में प्रेम नहीं है, शांति नहीं है। तुम तरीके देखो अहंकार के- वो सीधे ये नहीं कहेगा कि ये मेरे आस-पास के लोग हैं, इनसे मेरी कोई दोस्ती नहीं है, ये मेरे आस-पास बच्चे घूमते रहते हैं मैं इनके सर पर हाथ नहीं फेर पाता, जानवर दिखाई देते हैं तो मेरे मन में बस हिंसा उठती है। वो ये सब बातें नहीं करेगा, बस अपने खालीपन को भरने के लिए वो दुनिया भर कि कल्पनाएँ गढ़ेगा। वो सीधे ये नहीं कहेगा कि मेरे जीवन में एक स्त्री है और मुझे पता है कि मुझे उससे कोई प्रेम नहीं, वो बड़ी लम्बी-चौड़ी-सी बात करेगा।

विपत्ति का सिद्धांत, कर्मफल का सिद्धांत, पुनर्जन्म की बातें और क्यों कर रहे हो पुनर्जन्म की बातें? सिर्फ इसलिए क्योंकि आज सुबह सो कर के उठे थे और बीवी से झगड़ा हो गया था। ये जन्म सुहा नहीं रहा है तो अगले जन्म की सोच रहे हो। इस जन्म ने तुम्हें कुछ दिया नहीं है तो अगले जन्म की सोच रहे हो पर ये बात स्वीकार नहीं कर सकते। तो लंबी-चौड़ी कहानियाँ गढ़ रहे हो।

क्या करना है?

पुस्तकालयों में हज़ारों उपन्यास भरे हुए हैं, कोई भी उठा लो, कहानियाँ ही कहानियाँ है, तुम्हें और क्यों जोड़नीं हैं?

प्र: आपने कहा कि जो भी पदार्थ है, सिर्फ़ उसी की इच्छा सकती है। तो ये उसकी(ईश्वर) इच्छा कैसे हो सकती है कि मैं अनेक हो जाऊँ?"

आचार्य: उसको इच्छा नहीं कहा जाता, उसको मौज़ कहा जाता है। कहने वाले भी जब उसको कहते हैं, तो मौज़ कहते हैं। मौज़ एक दूसरे तल पर होती है, मौज़ इच्छा नहीं होती।

इच्छा में अपूर्णता है, मौज़ में पूर्णता है।

प्र: एक बात स्पष्ट कीजिये, जो बात समझ में आ रही है वो ये है- जो मन संसार में घूम रहा है वो संसार से हट सके इसके लिए स्रोत की बात करना ठीक है परन्तु नेति-नेति की जो प्रक्रिया स्रोत को भी काटेगी, तो हम स्रोत की भी बात नहीं कर सकते?

आचार्य: हाँ, बिलकुल। किसी भी प्रकार के स्रोत की बात, ध्यान से अगर आप समझें तो सिर्फ़ नेति-नेति की प्रक्रिया का अंग ही है। अगर आपने स्रोत को भी वास्तविक मान लिया तो भूलियेगा नहीं कि ‘वास्तविक’ शब्द में ही, वस्तु छिपी हुई है। (ज़ोर देते हुए) वास्तविक, वस्तु। मन के लिये वास्तविक क्या होता है? सिर्फ वस्तु। तुमने स्रोत को भी वस्तु बना लिया। संसार को काटने निकले थे, वस्तुओं को काटने निकले थे और कर क्या बैठे? एक नयी वस्तु बना बैठे, जिसका नाम है? स्रोत।

हो गयी न गड़बड़?

तो इसीलिए स्रोत की बात, जिन्होंने हमारा भला चाहा है, उन्होंने कहा है कि बात करो ही मत। क्यों इतना बकते हो? बुद्ध कहते थे ये सवाल तो कभी मत पूछना मुझसे कि कोई परम है कि नहीं है? और है तो कैसा है? बाकि सारी बातें पूछो, वो कहते थे वो बातें पूछो जो तुम्हारे काम की हैं, वो कहते थे कि पूछो कि, "मैं दुखी क्यों हूँ?" इस एक प्रश्न में बुद्ध को गहरी रुचि थी- दुःख। कहते थे “सही-सही बताओ, पंडित बनकर न बैठ जाओ, दिल का राज़, दिल का हाल खोलो। तुम दुःखी हो न? दुःख की चर्चा करो। ये क्या तुम परम की और ब्रह्माण्ड की चर्चा कर रहे हो? अपनी छोटी-सी दुनिया की बात करो”। दुःख! दुःख की बात करो, कहानियाँ सारी दुःख से निकलती है।

प्र: सर, उस दिन जब बाइबिल डिस्कस हो रही थी तो आपने ग्रैंड प्लान का डिस्कशन किया था कि जो हो रहा है तुम क्यों चेंज करते हो? उसने बनाया है, वही करेगा चेंज। सर, वो सब सुनने के बाद थोड़ा सा लक्ष्यहीन-सा अनुभव हो रहा था, ऊपर से आज ये सब देखा, जो मैं देख रहा हूँ, वो भी मैंने ही बनाया है, जो मैं सोच रहा हूँ वो भी मेरे अन्दर से ही आ रहा है, तो सब कुछ मिश्रित होकर एक लक्ष्यहीन-सी फीलिंग आ रही है।

मैं क्यों हूँ?

आचार्य: तुममें से किसी ने उस व्हाट्सैप ग्रुप पर एक बात मैंने कभी कही होगी वो डाली थी कि

“हम बीमारी के इतने आदि हो चुके हैं कि स्वास्थ्य के कुछ क्षण हमें बेचैन कर देते हैं।’’

* * पर्पसफुल (सोद्देश्य) होना एक बिमारी है, जो तुमने सारी ज़िंदगी भर ढोयी है, पर तुम्हें उसे ढोने की आदत लग गयी है, अब पर्पसलेस (निरुद्देश्य) हो रहे हो तो ये मुक्ति है तुम्हारी, पर जब मुक्ति मिल रही है तो तुम परेशान हो रहे हो * *

प्र: यानि ये मेरा वही दुर्लभ क्षण है स्वास्थ का?

आचार्य: बेशक़!

(सभी हँसते हैं)

कितना अविश्वसनीय है!

प्र: सर, जैसे ये सारी बातें हो रहीं हैं, तो हम कहीं न कहीं 'हम हैं' ये मान कर बात कर रहे हैं कि हमारा अस्तित्व है, तो अगर उसको नकार दें बिना बात किए, बिना कुछ समझे, बिना कोशिश किए, तो आपकी बात तो हम तक कभी पहुँचेगी ही नहीं, अगर बात न करें। इसको बताएँ या बात कैसे करें? मतलब आप जो बोल रहे हैं, ठीक है, उस दिन जो बातें मिली उसकी आपने आज नेति-नेति कर दी, उसको भी मत पकड़ो। तो मतलब वही है कि मन पकड़ने की कोशिश कर रहा है किसी चीज़ को पर बात कैसे करें? बात करने के लिए तो उसी का सहारे लेंगे न जो मन से निकला है?

आचार्य: करो! सारी बात इसलिए की जाती है कि वो पुल बन सके, बातचीत- पुल है। हम कह रहे थे न वहाँ पर? कि पर्दे में और पर्दे से बाहर आने के लिए सीढियाँ लगी हैं, बीच-बीच में छिपी हैं, पहेली में बीच-बीच में हिंट्स हैं, कहानी में बीच-बीच में एक छोटी-सी सीढ़ी होती है अगर देख लो तो बाहर आ सकते हो, और चूक गये तो चूक गये, बीत जाएगी। ये सारी बातचीत इसलिए नहीं है कि तुम किसी स्रोत को पकड़ के बैठ जाओ या तुम कुछ बातें कागज़ पर उतार लो, या तुम बहुत बिलकुल याद कर लो, स्मृति में डाल लिए कुछ शब्द।

यहाँ हम जो कर रहे हैं, वो थ्योरी नहीं प्रैक्टिकल है। मतलब समझो बात को, हम यहाँ कुछ ग्रहण करने के लिए नहीं बैठे हैं, हम यहाँ से कोई ज्ञान लेकर जाने के लिए नहीं बैठे हैं, हम ‘ठीक अभी’ कुछ हो सके इसलिए यहाँ बैठे हैं। प्रैक्टिकल में, जब तुम जाते हो प्रयोगशाला में, तुम दो रसायनों को मिलाते हो फिर क्या होता है? जो घटना घटनी होती है, वो तत्क्षण होती है या पांच-सात दिन बाद होती है?

प्र: तत्क्षण।

आचार्य: अभी जो है ये जगह, ये कमरा, ये क्षण, ये प्रयोगशाला है और तुम इसको थ्योरी क्लास की तरह इस्तेमाल करते हो इसीलिए चूक रहे हो लगातार। तुम यहाँ आ जाते हो कि कुछ ज्ञान इकट्ठा कर लेंगे और मैं चाह रहा हूँ कि जो हो, वो अभी हो, तुम यहाँ से बस्ता भर के न ले जाओ बाहर, अभी हो, ये प्रयोगशाला है, अभी तुम ध्यान में उतरो, अभी जो होना है वो हो जायेगा, अभी के अलावा कभी कुछ होता नहीं। पर ये बात समझायी नहीं जा सकती, ये तभी होगी जब ‘हो’

और वहाँ मज़बूरी है, धक्का नहीं दिया जा सकता। क्योंकि तुम उतने ही मुक्त हो, ‘न’ होने देने के लिए जितना मैं मुक्त हूँ प्रयास करने के लिये। हम दोनों की मुक्ति बिलकुल एक जैसी है, एक बराबर की है, एक ही है क्योंकि हम दोनों एक हैं। तो मेरी मुक्ति और तुम्हारी मुक्ति जब टकराएगी तो कोई नतीजा नहीं निकलेगा। वो ऐसा ही होगा जैसे एक विशाल अनादि पुरुष का एक हाथ दूसरे हाथ से टकरा रहा हो; उसमें खेल हो जाएगा, मौज़ हो जाएगी, मनोरंजन हो जाएगा, पर कोई गति नहीं होगी।

एक हाथ से दूसरे हाथ को तुम हरा नहीं सकते, तुम्हारे ही दोनों हाथ हैं। ठीक उसी तरीके से मेरे कोशिश करने से कुछ नहीं होगा तुम मेरे ही बाएँ हाथ हो। ये प्रयोगशाला है पर प्रयोग तब होगा- जब दोनों मिलें। तुम इसे थ्योरी क्लास बना देते हो। तुमने देखा नहीं है कि तुमने जितनी भी बार बोला है कि “बाहर ये गड़बड़ हो जाती है, बाहर ये हो जाता है, बाहर क्या करे? कल क्या करें?” मैंने तुमसे बार-बार कहा है कि बाहर की छोड़ो, यहाँ वापस आओ, जो होना है अभी होगा, यहीं होगा, अभी होगा।

यहाँ तुम होने नहीं देते, बाहर की फ़िक्र करते रहते हो। और यहाँ तब होगा जब तुम थोड़ा ध्यान में उतरो; ध्यान में डूबी आँखें बिल्कुल दूसरी होती हैं। अभी मैं कह रहा था न वहाँ पर- आँखें बता देती हैं कि क्या चल रहा है, जो आँखें अंतर्गमन कर चुकी होती हैं, वो किसी वस्तु या व्यक्ति पर केंद्रित नहीं होती हैं। तुम अगर इतनी सघन तरीके से, इतनी ‘तीखी’ नज़रों से अगर मुझे देख रहे हो, तो बहुत नुकसान कर रहे हो, या तो आँखें बंद करो या आँखों को भीतर उतरने दो। इन दो के अलावा तीसरा विकल्प नहीं है।

या तो बंद करो कि वो कुछ देखे ही न क्योंकि आँखें तो व्यक्ति को ही देखेगी, मेरे चेहरे को क्या देख रहे हो? व्यक्ति का चेहरा है, उसमें क्या मिल जायेगा तुम्हें? बंद करो आँखें। या एक आँख ऐसी भी होती है, जो खुली भी होती है पर भीतर को मुड़ गयी होती है, अंतर्गमन कर गयी होती है, जिसको कबीर साहब कहते हैं-

आँख जो पलटे कबीरा साईं तो सम्मुख खड़ा।

आँख को पलटा दिया, पीछे गयी।

समझ में आ रही है बात? ये दशा ठीक नहीं है आँखों की।

ये सारी बात सच नहीं है। हाँ, तुम्हारा ध्यान सच होगा।

जितनी बातें हमने करी हैं, सारी बातें काटी जा सकती हैं। अपनी ही कही एक-एक बात को मैं काट दूँ क्योंकि उसमें से कुछ भी सच नहीं है। तुम्हारा ध्यान सच होगा। मैं बोलता इसलिए नहीं हूँ कि तुम बातों को सच मान लो, बोलता इसलिए हूँ कि तुम ध्यान में उतर सको। मैं इसलिए नहीं बोलता हूँ कि मेरा खूबसूरत चेहरा तुम्हारी आँखों में घुस जाए। आ!हा!हा! क्या गंजा हो रहा है! क्या दाढ़ी सफ़ेद हो रही है! तुम मुझे क्या देख रहे हो, आँखें बंद करो अपने-आपको देखो।

बातों को नहीं पकड़ना है, व्यक्ति को नहीं पकड़ना है, ध्यान में जाना है और तुम्हारी आँखें बता देती हैं कौन ध्यान में जा रहा है और कौन इधर-उधर भटक ही रहा है। अब जो भटक रहा है, हो सकता है कि उसकी याद्दाश्त अच्छी हो, ये तो प्रकृति का गुण है, याद्दाश्त वगैरह, हो सकता है कि उसे बहुत बातें याद रह जाएँ, वो याद रहने से कुछ नहीं होगा। स्मृति क्या होती है? चित्त का बोझ! और भर लो स्मृति को! क्या मिल जायेगा तुम्हें? गधे हो; और बोझ लेकर घूमोगे।

ध्यान होती है असली चीज़, बोलता इसलिए हूँ कि ये शब्द तुम्हें शांत कर सकें, इसलिए नहीं बोलता हूँ कि इन शब्दों में कोई सत्य है। मेरे क्या, कभी किसी के शब्दों में कोई सत्य नहीं होता। कभी मत सोचना कि उपनिषदों में सच लिखा हुआ है, कभी मत सोचना कि अभी हम जीज़स के साथ थे तीन दिन तक, कि जीज़स हमें सच बता गये हैं।

जीज़स को भी पता है, मुझे भी पता है, तुम भी जान लो- कोई सच-वच नहीं है इसमें। आई ऍम द सन ऑफ़ गॉड (मैं ईश्वर का पुत्र हूँ) चुटकुला है। तुमसे खूब बात करी दो घंटे तक कि - सन ऑफ़ गॉड का क्या मतलब है? उसके बाद पिछवाड़े जाकर के, संडास के बगल में जीज़स खूब हँस रहे थे कि ‘हा!हा!हा! अच्छा बेवकूफ़ बनाया; कुछ नहीं होता *सन ऑफ़ गॉड*।

शांत हो जाओ, उतना काफ़ी है उसके अलावा कुछ होता नहीं। मुझे कोई ख़ुशी नहीं होती है कि बड़े बेहतरीन किस्म के सवाल पूछ रहे हो; बड़ी उत्तम दर्जे की चर्चा चल रही है। उद्देश्य ये है कि सवाल पूछो ही नहीं;

सवाल क्या है? मन की ख़ुजली है।

उद्देश्य ये है कि वहाँ आ जाओ जहाँ मन सवाल-अवाल करना ही बंद कर दे, मस्त हो, बैठे हो, क्या सवाल-अवाल? मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि आलसी हो गये हो और झक्की हो कि कुछ समझ में ही नहीं आ रहा तो सवाल क्या पूछोगे। मैं कह रहा हूँ कि इतने साफ़ हो गये हो कि सवाल बचा ही नहीं। यहाँ पर आना, सत्र में बैठना सार्थक तब मत मानो कि आज सवालों के जवाब मिले; अगर जब उठते हो यहाँ से साढ़े नौ बजे और जाँचना चाहते हो कि सत्र सार्थक रहा कि नहीं तो ये पूछो कि सवाल घुले कि नहीं घुले? ये न पूछो कि उत्तर मिले कि नहीं, ये पूछो कि सवाल घुले कि नहीं? उत्तरों का मिलना दो-कौड़ी की बात है, कोई उत्तर दे देगा तुमको, सबसे ज़्यादा उत्तर तो ‘गूगल’ देता है, उससे कुछ भी पूछो बता देगा; महापंडित है।

पर गूगल तुम्हारे सवालों को विगलित नहीं कर सकता; गये! भाँप बन गये! उड़ गये! जब वो हो, तब समझो की बात बनी आज, सवाल लेकर के आए थे, खाली हाथ वापस जा रहे हैं। हाथ भर के नहीं वापस जाना है, सवालों से भरे आए थे, कहाँ गये सवाल? नहीं पूछे तो नहीं, नहीं ऐसा तो नहीं कि उत्तर मिल गया, बस सवाल कहीं चला गया- तब समझो की बात बनी। थ्योरीज़ (सिद्धांत) नहीं पकड़नी है; ये विश्व किसने बनाया? कितने दिन होते हैं? क्या प्रकृति और पुरुष की रचना साथ-साथ हुई? कौन पहले आया था? क्या?

ये मॉडलिंग है। ये तुम मॉडल-फार्मेशन में उतर रहे हो। मॉडल सत्य होता है क्या?

शांत हो जाना है। बस, वही समाधि है।

न कोई स्रोत है, न समय है, न रचना है, न रचयिता है, न प्रक्रिया है।

गूँज है एक मौन की; मौन हो जाओ!

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles