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हम‌ ‌धोखे‌ ‌से‌ ‌नहीं‌ ‌बहकते,‌ ‌मज़ा‌ ‌लेते‌ ‌हैं‌ ‌बहकने‌ ‌में‌
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: जब मेरे दिमाग में कोई भी विचार आता है, थॉट आता है, मुझे खुद भी नहीं पता होता कि मैं क्यों सोच रहा हूँ यह सब। जब भी मैं कोई काम करने जा रहा होता हूँ या पढ़ रहा होता हूँ, वह मेरे को फ़ोकस नहीं करने देता, कंसंट्रेशन नहीं हो पाता। मैं उन सारे थॉट्स को रोक तो नहीं सकता तो मैं ऐसा क्या करूँ कि वह सारे थॉट्स कंस्ट्रक्टिववे में मेरे साथ रहे ताकि मेरा कंसंट्रेशन बना रहे और मेरा मन विचलित न हो?

आचार्य प्रशांत: तुम सड़क पर कहीं की ओर चले जा रहे हो और रास्ते में तुमको दिखाई दे रहे हैं- पेड़, घर, वाहन, लोग, दुकानें, पशु-पक्षी। किसी भी रास्ते पर चलो तो यह सब दिखाई देते हैं न? अब तुम पूछ रहे हो मैं कोई काम करता हूँ, मैं किसी दिशा चलता हूँ तो यह सब क्यों दिखाई देते हैं? वो हैं इसलिए दिखाई देते हैं, उनका काम है होना तुम उन्हें रोक नहीं सकते लेकिन जिन्हें मंज़िल पर पहुँचना होता है उन्हें रास्ते में अगर कोई पेड़-पहाड़ दिखाई दे रहा है तो क्या वो उसको देखने लग जाते हैं? गाड़ी जब चलाते हो तो रास्ते में जो भी दृश्य होते हैं वो क्या विलुप्त हो जाते हैं? बोलो मिट जाते हैं? मिट नहीं जाते तो तुम आकर तब क्यों नहीं शिकायत करते कि हम गाड़ी चला रहे हैं, मंज़िल की ओर जा रहे हैं और रास्ते में बहुत सारे दृश्य आ जाते हैं? आ जाते हैं तो आ जाते हैं! तुम्हारी नज़र किस पर रहती है? उन दृश्यों पर या मंज़िल पर?

तुम बखूबी पचा गए कि तुम्हारी नज़र मंज़िल पर नहीं है। उस बात का तुमने ज़रा भी जिक्र ही नहीं किया। तुम कह रहे हो "मैं गाड़ी चलाता हूँ आचार्य जी, रास्ते में यह पेड़-पर्वत क्यों दिखाई देने लग जाते हैं? सड़क पर ठेला क्यों दिखाई देने लग जाता है, ट्रक आ रहा है सड़क पर वह मुझे दिखाई क्यों देने लग जाता है, पेट्रोल पंप क्यों दिखाई दे गया, ढाबा क्यों दिखाई दे गये आचार्य जी?"

भाई वो हैं तो दिखाई दे गए उन पर किसी का बस नहीं चलता, वो हैं! और तुम्हारे चाहने से वो विलुप्त नहीं हो जाएँगे। तुम्हें एक्सप्रेसवे भी बनाकर दे दिया जाए तो भी एक्सप्रेसवे के दोनों तरफ दृश्यों की भरमार रहेगी।

राही को चाहिए कि उसकी नज़र सही जगह रहे। दृश्य को नहीं दृष्टा को बदलने की बात करो न! पर शिकायत तुमने किसकी कर दी? दृश्यों की! कि रास्ते में यह दिखाई दे जाता है, वह दिखाई दे जाता है। यह तुम बिल्कुल नहीं कह रहे हो कि जो मुझे दिखाई दे जाता है मैं झटपट उस में लीन हो जाता हूँ। समस्या क्या है? विचारों का आना या तुम्हारा विचारों में लिप्त हो जाना? समस्या क्या है? राह में दृश्यों का दिखाई देना या तुम्हारा उन दृश्यों में लिप्त हो जाना? बोलो?

प्र: लिप्त हो जाना!

आचार्य: और लिप्त तो वही हो जाएगा जिसको अपनी मंज़िल से कोई प्यार नहीं है या जिसके पास कोई मंज़िल ही नहीं है। जो सड़क पर तो हो पर जिसके पास कोई मंज़िल न हो, उसके लिए तो बड़ा प्राकृतिक होगा जो कुछ भी उसको दाएं-बाएं दिखाई दे रहा है वो उसी में लिप्त हो जाए, उलझ जाए। होगा न ऐसा?

तो मूल समस्या फिर क्या है इन दृश्यों का होना या तुम्हारा लक्ष्यहीन होना, प्रेमहीन होना?

पहली बात तो मंज़िल होनी चाहिए और दूसरी बात उस मंज़िल के प्रति प्रेम होना चाहिए। फिर दाएं-बाएं जो कुछ भी चल रहा होता है कौन उसको बहुत महत्व देता है? यह तो छोड़ दो कि सड़क के इस तरफ और सड़क के उस तरफ जो दृश्य है तुम उनमें उलझ जाओगे, सड़क पर भी कुछ चल रहा होगा तो तुम उसमें नहीं उलझोगे। सड़क पर दो लोगों की लड़ाई हो गई, गाड़ियाँ एक दूसरे से रगड़ गई, दोनों उत्तर करके सड़क पर ही लगे भिड़ने, आमतौर पर यह बड़ा तमाशा होता है- दो लोग अगर बहसा-बहसी कर रहे होते हैं, किसी ने किसी को तमाचा मार दिया तो वहाँ पर बीस-चालीस लोग और इकट्ठा हो जाते हैं। हो जाते हैं न? यह जो बीस-चालीस अपनी गाड़ियाँ रोक कर उतर गए और सड़क किनारे के तमाशे में लिप्त हो गए यह निश्चितरूप से वह लोग हैं जिन्हें अपनी मंज़िल से कोई प्यार नहीं।

ऐसा हो सकता है कि तुम एंबुलेंस में अपने किसी दोस्त को लेकर जा रहे हो, आकस्मिक स्थिति है बिल्कुल, दोस्त की हालत खराब है और तुम देखो की सड़क किनारे कुछ बहस चल रही है तो तुम कहो "हम भी ज़रा मज़ा लूट लें" और एंबुलेंस रुकवाओ और दोस्त तुम्हारा आखिरी साँसें गिन रहा हो बिल्कुल और तुम कहो अजी रुको! नीचे क्या चल रहा है ज़रा उसका तो रस लूट आएँ। ऐसा करोगे? ऐसा नहीं करोगे क्योंकि तुम्हें मालूम है कि तुम्हारा पहुँचना ज़रूरी है। नहीं करोगे न?

तो जो लोग नीचे उतर के इन सब धंधों के मज़े ले रहे होते हैं वो कौन लोग होते हैं? जिन्हें कहीं पहुँचना नहीं, जो न खुद को जानते हैं, न अपनी तड़प को जानते हैं, न मंज़िल को जानते हैं, न मंज़िल से कोई प्रेम रखते हैं उनको फिर हर चीज़ अपने में लिपटा लेती है, वो बड़ी आसानी से फिर गुत्थम-गुत्था हो जाते हैं और फिर वो आकर शिकायतें करते हैं- "आचार्य जी क्या करें सड़क पर तो चल रहे थे, मंज़िल की ओर ही जा रहे थे और सड़क किनारे नींबू का पेड़ दिख गया और आप जानते ही हैं नींबू मुझे कितना पसंद है? यह नींबू हाईवे के किनारे क्यों पाए जाते हैं? क्या हम कोई नियम-कानून पारित नहीं कर सकते कि हाईवे के किनारे जितने नींबू के पेड़ हैं सब कटवा दिए जाएँ। भाई! हमें बाधा होती है, बड़ा विक्षेप होता है, हम चल रहे होते हैं नींबू दिख जाता है। हम बह जाते हैं तो आचार्य जी कोई ऐसी युक्ति नहीं बताई गई है गीता आदि ग्रंथों में कि सड़क किनारे नींबूओं को कैसे अदृश्य किया जाए?" तुम्हें नींबूओं को अदृश्य करना है या अपनी दृष्टि ठीक करनी है?

ऐसे ही कुछ लोग आ जाते हैं- "ये 'विचार' बहुत आते हैं।"

पागल! विचार क्या हैं? विचार भीतर की रासायनिक प्रक्रिया है और कुछ नहीं है विचार। भीतर के सर्किट में करेंट कम-ज़्यादा दौड़ने लग गया, अलग-अलग तरीके से दौड़ने लग गया यही विचार है और कुछ नहीं है और जब तुम्हारा मस्तिष्क विचाररत होता है तो एक-एक विचार को नापा जा सकता है, विद्युत बहती है। तुम क्या खा रहे हो? क्या पी रहे हो? उस चीज़ से तुम्हारे विचार प्रभावित हो जाते हैं। तो क्या हैं विचार?

बिल्कुल भौतिक, बिल्कुल मटेरियल बात है विचार! ठीक बिल्कुल वैसे ही कि जैसे सड़क किनारे का नींबू उग आता है न कहीं पर, जहाँ पर भी उसको अनुकूल स्थिति दिखी, नींबू उग आता है या फिर किसी ने कहीं पर जाकर रोप दिया तो भी नींबू उग आता है। विचार भी ऐसा ही होता है उसे आंतरिक अनुकूल स्थिति मिली, वह खड़ा हो जाएगा या फिर किसी ने आकर के तुम्हारे मन में रोप दिया तो भी विचार खड़ा हो जाएगा। अब तुम्हें नींबू की शिकायत करनी है तो करते रहो।

कल को बोलना "वो सड़क किनारे भुट्टे वाली बैठी थी, तीन घंटा मैं वहीं उलझ गया क्या भुट्टे थे भुट्टे वाली के। आचार्य जी! सड़क किनारे भुट्टे बेचने पर निषेधाज्ञा लागू होनी चाहिए, 6 वर्ष का कठोर कारावास और आर्थिक दंड भी और खासतौर पर महिलाओं को तो बिल्कुल भी अनुमति नहीं होनी चाहिए सड़क किनारे भुट्टे बेचने की। मुझे जैसे सात्विक छोकरे बहक जाते हैं आचार्य जी!" हम भुट्टों पर प्रतिबंध लगाएँ या तुम अपनी बुद्धि सुधारोगे पहले? विचार ऐसे ही हैं भाई बिल्कुल जैसे शरीर में तमाम अन्य प्रवाह होते हैं न वैसे ही विचार हैं वह भी प्रवाह मान रहते हैं। जानते हो तुम्हारी साँस भी सदा एक जैसी नहीं चलती, दिन में कितनी ही दफ़े साँस का प्रवाह बदलता रहता है। यही नहीं कि जब क्रोधित हो गए या दुखी हो गए तभी साँस बदलती है, सामान्य परिस्थितियों में भी साँस का प्रवाह कुछ-कुछ बदलता रहता है। इसी तरीके से शरीर में रक्त का प्रवाह हो, मल-मूत्र का प्रवाह हो या तुम्हारी आँतों में जो अन्न है वो पचता हुआ आगे को प्रवाहित हो रहा है उसका प्रवाह हो, यह सब बदलते रहते हैं तुम इनका क्या कर लोगे? प्राकृतिक घटनाएँ हैं! वैसे ही विचार हैं एक प्राकृतिक घटना मात्र, उसकी इतनी बात क्यों करनी? बात जिसकी होनी चाहिए उसकी बात तुम करते नहीं। किसकी बात होनी चाहिए? जाना कहाँ है? वह जगह जाने योग्य है कि नहीं? और जहाँ पहुँचना है उस जगह से कोई प्रीत-प्यार है कि नहीं? कौन हो तुम? जाना कहाँ है तुम्हे?

वैसे ही हो जैसे कोई अनमना छात्र, जिसको स्कूल जाने से कोई अर्थ न हो, कोई रुचि न हो, उसको घर से सुबह-सुबह धकेल दिया है घरवालों ने जा! स्कूल जा! और वह रास्ते में रुक करके जगह-जगह कहीं गाय-भैंसों को देख रहा है आह! बढ़िया गाय- भैंसे चर रही हैं, कूड़े का ढेर दिख गया वो उसी को देख रहा है, क्या विविधता पूर्ण कूड़ों के भेद हैं? सात्विक कूड़ा, तामसिक कूड़ा, राजसिक कूड़ा! कहीं रास्ते में उसे पतंग उड़ती हुई दिख गई, वो पतंग को ही निहारता रह गया। कुछ भी दिख गया उसे रास्ते में, वह उलझ गया क्यों? क्योंकि उसे जिस मार्ग पर धकेल दिया गया है वह मार्ग उसका है ही नहीं, उसे स्कूल जाना ही नहीं है पर उसको धकेल दिया गया है वैसे ही हम जिंदगी जी रहे होते हैं, जिन रास्तों पर चल रहे होते हैं उन रास्तों से हमारी प्रीत नहीं होती, हमें उन पर धकेल दिया गया होता है अब धकेल दिया गया है तो उस रास्ते पर बढ़ने की कोई अंतःप्रेरणा तो है नहीं, तो सड़क किनारे के फिर जितने भी विछेप दिखाई देते हैं, डिस्ट्रेक्शन हम उनमें सब में उलझना चाहते हैं क्योंकि पहली बात हमें मंज़िल से प्यार नहीं और दूसरी बात हमें यह डर भी है कि मंज़िल पर पहुँच गए तो और कष्ट मिलेगा तो हम जानबूझकर मंज़िल तक की यात्रा और लंबी कर देना चाहते हैं। यह सब हमारी ही कोटियाँ हैं- एक वह जिसे मंज़िल का पता नहीं, एक वो जिसे मंज़िल से प्यार नहीं और एक वो जिसे मंज़िल से सीधे-सीधे विरोध है।

यह तीनों ही, रास्ते के विषयों से, दृश्यों से खूब उलझेंगे। नहीं तो विचार आते जाते रहते हैं तुम अपना काम करते रहते हो और जब तुम उन विचारों से उलझते नहीं तो वह विचार तुम्हारे लिए 'बड़े' बनते नहीं। इस बात को साफ़-साफ़ याद रखना- तुम्हारे लिए जगत में कुछ भी वस्तुगत, ऑब्जेक्टिव नहीं है। तुम्हारे लिए कोई भी चीज़ उतनी ही बड़ी है जितना तुम उसको महत्व दो। हिमालय होगा बहुत बड़ा और तुम्हारी उंगली की अंगूठी होगी बहुत छोटी लेकिन तुम्हें अच्छे से पता है कि किसके न दिखने पर धड़कन रुक जाएगी तुम्हारी? एक दिन हिमालय नहीं दिख रहा, कोहरा छाया हुआ है, बादल है घने, वह नहीं दिखाई दे रहा तुम्हें फर्क नहीं पड़ेगा। 6 घंटे, 8 घंटे, हफ्ते भर तुम्हें हिमालय नहीं दिखाई दिया तुम्हें फर्क नहीं पड़ेगा और हफ्ते भर तुम्हारी अंगूठी गुम गई हो तो तुम्हारी क्या हालत होगी? बात 'आकार' की नहीं है, बात उस मूल्य उस महत्व की है जो तुम वस्तुओं के साथ जोड़ते हो। विचार आदि भी तुम्हें परेशान और प्रभावित इसीलिए करते हैं क्योंकि तुम उन विचारों से लिप्त हो जाते हो, उन्हें मूल्य और महत्व दे देते हो। उनसे लिप्त इसलिए होते हो क्योंकि कोई और धंधा नहीं तुम्हारे पास। कम देखो 'विचारों' की ओर, विचारों को ऊर्जा नहीं मिलेगी। एक तरह से अवमानना हो जाएगी विचारों की। वह खुद ही धीरे-धीरे शिथिल पड़ जाएँगे।

पलकों का प्राकृतिक काम है न झपकना? तुम पलकों को दोष देते हो क्या झपकने के लिए? तुम कहते हो क्या- "हम देख रहे होते हैं, पलक झपक जाती है, तो देखना रुक जाता है।" कहते हो क्या? जबकि होता तो यही है- तुम देख रहे हो, पलक झपक गई, उतनी देर के लिए तुम्हारी दृष्टि बाधित हो गई, हुई कि नहीं? पर दोष देते हो क्या? पलक और करेगी क्या? झपकेगी! वैसे ही खोपड़ा और करेगा क्या? सोचेगा! तो उसको काहे इल्ज़ाम देते रहते हो?

पलक झपकती रहती है, तुम देखते रहते हो, ऐसा ही चलता रहता है न? वैसे ही खोपड़े का काम है वह सोचता रहे, तुम वो करो जो तुम्हें करना चाहिए। तुम और मस्तिष्क एक नहीं हो, मस्तिष्क शरीर मात्र है, मस्तिष्क बुद्धि मात्र है, मस्तिष्क स्मृति मात्र है, तुम वास्तव में चेतना हो, तुम और मस्तिष्क एक नहीं हो। जब तुम और मस्तिष्क एक नहीं हो तो तुम और विचार भी एक नहीं हो। तुम्हें अनावश्यक रूप से विचारों के साथ संलग्न होने की ज़रूरत है नहीं।

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