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होश में आओ! यही एकमात्र धर्म है || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत : हम जो कुछ करते हैं, उसमें मन के कितने सूक्ष्म खेल चल रहे हैं, इसकी हमें खबर ही नहीं होती। हम सोचते हैं की हम मदद कर रहे हैं। नहीं, कोई मदद नहीं कर रहे, सिर्फ अपने अहंकार को प्रोत्साहन दे रहे हो।

श्रोता : सर, हर चीज़ के पीछे स्वार्थ होता है|

वक्ता : इसी चीज़ को जानना कि इसमें मन का खेल चल रहा है, ये ही बोध है। अगर इस बात को उस क्षण जान लो, जब भीख देने की कोशिश कर रहे हो, कि इसमें स्वार्थ मेरा ही है| फूल कर चौड़े न हो जाओ, कि मैं तो दानवीर कर्ण हूँ। बिलकुल जान जाओ उस क्षण में, जब मदद कर रहे हो, भीख दे रहे हो, अगर इस बात को सीधे उस क्षण जान जाओ की उसके लिए नहीं कर रहा, ये तो मैं अपने स्वार्थ के लिए कर रहा हूँ, तो समझो की मन से अलग कुछ हुए। तब तुम मालिक हुए।

पर हम ये उस वक़्त नहीं जानते। तब हम क्या कहते हैं? नेकदिल हूँ मैं, सुपरमैन हूँ।

श्रोता : सर, जो अपना स्वार्थ है, वो तो अहंकार हो गया ना?

वक्ता : वो तो है ही। कभी उसको जान पा रहे हो, और कभी नहीं जान पा रहे हो| वो तो है ही लगातार, निरंतर | बस यही है की कभी तुम उसे जान पाते हो और कभी वो चुपके चुपके अपना काम कर जाता है।

श्रोता : सर, अहंकार तो देने के बाद आया ना, देने के पहले तो नहीं।

वक्ता : देने के पहले एक विचार है ना कि, दूँ। वो विचार क्यों उठेगा?

इसका तुमसे भी ताल्लुक है। हमने क्या कहा था? जबतक मैं खुद को नहीं जानता कि… एक शराबी अगर मदद भी करेगा तो क्या करेगा? नाली में गिरा देगा| तुम उससे रास्ता भी पूछोगे तो वो रास्ता भी उल्टा सीधा ही बता देगा| बेचारा अपनी तरफ से तो मदद कर रहा होगा, पर बड़ी गड़बड़ हो जाएगी।

शराबी कौन? जिसे सबसे पहले अपना होश न हो। जिसे अपना होश न हो, वो दूसरे की मदद नहीं कर सकता । और जो होश में हो, वो जो कुछ भी करेगा, उससे दूसरे की मदद ही होगी। चाहे वो कोई लक्ष्य ले कर के कर रहा हो, या अपनी सहजता में कर रहा हो। वो जो भी करेगा वो दूसरों के लिए मददगार ही होगा| तो ये भूल जाओ की दूसरे की मदद करनी है, तुम पहले खुद होश में आओ। क्योंकि बेहोश आदमी मदद करेगा तो किसी को नाले में ही डुबोएगा। ये दुनिया भरी हुई है ऐसे लोगों से, जो एक दूसरे की मदद कर रहे हैं, और मदद के नाम पर गले कट रहे हैं ।

माँ-बाप बच्चे की मदद करना चाहते हैं, धार्मिक नेता अपने समुदाय की; दोस्त, दोस्त की; पति, पत्नी की, और मदद के नाम पर खत्म ही कर दिया जा रहा है, एक दूसरे को। नीयत तो सब यही दावा करेंगे कि बहुत अच्छी है । पर तुम्हारी नीयत से क्या होता है, जब तुम्हें होश ही नहीं है।

पहले होश में आओ, जानो। जब जान जाओगे, तब तुम्हारी मदद का कोई अर्थ होगा। पहले जानो, वास्तविक रूप में जानो की बात क्या है| और जाना सबसे पहले किसे जाता है? जाना उसे जाता है, जो जानने का यंत्र है। तुम मन को जानो। अपने आप को जानो।

श्रोता : मन से मन को जानने की कोशिश करेंगे, तो भी मन हँसेगा क्योंकि हम उसी के अंदर तो उसको जानने की कोशिश कर रहे हैं|

वक्ता : कोशिश नहीं करनी होती है ना। कितने लोग हैं जो कोशिश कर कर के सुन रहे हैं अभी? और जितने भी लोग कोशिश कर कर के सुन रहे हैं, वो बस कोशिश ही करते रह जाएंगे। तो कोशिश करने को कह कौन रहा है तुमसे? जानने में कोशिश नहीं होती , सिर्फ सहज रूप से होना होता है | उपस्थिति होती है कोशिश नहीं , उपस्थिति । प्रेसेंस चाहिए, एफर्ट नहीं।

पर अब तुम करो क्या? तुम्हें बचपन से बताया ही यही गया है कि कोशिश करो। बिना श्रम के कुछ नहीं हासिल होगा। हार्ड वर्क इस द की टू सक्सेस। अब बड़ी दिक्क्त आ गयी, कि ये जब भी आते हैं, कुछ उल्टा ही बोल के जाते हैं, इसलिए हम सुनना नहीं चाहते इन्हें

(छात्र हँसते हैं)

“अगर ये जो बोल रहे हैं वो ठीक है, इसका मतलब हमें अट्ठारह साल से बेवक़ूफ़ बनाया जा रहा था?”

हो सकता है बनाया जा रहा हो| मदद करी जा रही थी तुम्हारी, और जो खुद नहीं जानता, वो जब दूसरे की मदद करेगा तो यही करेगा उसे भी उल्टा ही बताएगा, भ्रमित ही तो करेगा उसको

ये सब कुछ एक बुरे सपने की तरह भूल जाओ

(छात्र हँसते हैं)

बिलकुल लौट जाना, मेरे जाने के बाद अपनी उसी दुनिया में, जिसमें धर्म का मतलब है ‘बम बम भोले’, जिसमें प्रेम का अर्थ है वैलेंटाइन्स डे

श्रोता : सर, अगर हम हिन्दू धर्म की बात करें …

वक्ता : अरे धर्म हिन्दू, मुसलमान नहीं होता यार|धर्म, धर्म है – हिन्दू, मुसलमान कहाँ से आ गया।

श्रोता : सर, हमें बताया तो कुछ और गया है|

वक्ता : तुम्हें बस बताया ही गया, या तुमने कुछ समझा भी? तुमने कभी सवाल किये? तुम्हारी कोई इंटेलिजेंस है की नहीं है जो पूछे, कि ऐसा है तो क्यों? नहीं, हम तो स्वीकार करते कभी कहा तुमने ऐसा?

वैसे तो बड़े होशियार बनते हो, इतना नहीं देख सकते कि मैं जैसा हूँ, मैं वैसा ही अपने ईश्वर को बना देता हूँ और मैं जहाँ पर हूँ, वहीं पर अपने ईश्वर को प्रतिष्ठापित कर देता हूँ। तो भारत में बुद्ध होते हैं, तो मेरे जैसे दिखते हैं, और चीनी बुद्ध उनके जैसे ये तो, जिसको तुमने धर्म जाना है, जिसको ईश्वर जाना है, ये तो आदमी के दिमाग से निकली हुई चीज है। इसमें धर्म कहाँ?

श्रोता : तो इसका मतलब ये, कि जो इतिहास लिखा गया है, वो एक झूठ था?

वक्ता : वो इतिहास है, धर्म नहीं और इतिहास को इतिहास जानो। तुम उसे धर्म जानने लगते हो। वो इतिहास है, वो पुराण है। पुराण, इतिहास से अलग होता है। तुम इतिहास को इतिहास जानो , पुराण को पुराण जानो , इन दोनों में कुछ भी धर्म नहीं है

पर अभी , अगर तुम ठीक ध्यान में हो , तो ये धर्म है

सर ये बात तो बड़ी फीकी-फीकी हुई। धर्म तो तब हुआ ना जब बम फटे, फुलझड़ियाँ चले, कुछ मंगल गान हो, तब जाके धर्म हुआ ये क्या धर्म हुआ कि हम खड़े हैं, आप खड़े हैं, और धर्म चल रहा है। ये तो बहुत रूखा सूखा धर्म है। इसमें तो कुछ मज़ा नहीं आया। कुछ दंगे हों, फसाद हों, दो-चार का सर फोड़ें, तब धर्म हुआ ।

श्रोता : सर, तो फिर अपने आप को जानना ही धर्म हुआ?

वक्ता : बस, इस बात को पकड़ के रखना

श्रोता : सर, तो धर्म तो तब हुआ जब एक्सेप्ट करो

वक्ता : तुम हो, इस बात को तुम जानते हो या एक्सेप्ट करते हो या जानते हो?

श्रोता : जानता हूँ|

वक्ता : धर्म भी ऐसा ही है एक्सेप्ट नहीं करना होता, जानना होता है। जो एक्सेप्ट करा जाता है, वो किसी न किसी दिन रिजेक्ट भी हो सकता है धर्म एक्सेप्ट और रिजेक्ट की चीज़ नहीं है। अभी तुम्हारे भाई ने बहुत बढ़िया बात करी है, कि अपने को जानना ही धर्म है तुम्हारा ‘ होना और इस बात को जानना कि मैं हूँ’ , सबसे अलग, ‘I’ इस नॉट फंक्शन ऑफ़ एनीथिंग यही धर्म है

मैं हूँ

श्रोता : सर, जैसे अब फॉर्म में दे रखा है “नाम” तो उसके आगे हम नाम लिखते हैं तो फॉर्म में “धर्म” लिखा हो, तो क्या लिखें?

वक्ता : लिख दो, जो वो चाहते हैं धर्म के आगे वास्तव में अगर पूछा जाए, तो दो ही चीज़ें लिखी जा सकती हैं । “यस” या “नो”। धार्मिक हूँ, या नहीं हूँ। उसमें कुछ भी और लिखना, बेवकूफी की बात है।

श्रोता : तो सर, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, ये क्या हैं?

वक्ता : ये सम्प्रदाय हैं जैसे तुम बोलते हो, मैं सरिता विहार में रहने वाला हूँ। पर ये समझना कि सम्प्रदाय, कम्युनिटी, और धर्म में बड़ा अंतर है ये समझने के लिए आँख चाहिए, और ये समझने के लिए जीवन चाहिए ये जो मुर्दा मशीन है, ये इस बात को कभी नहीं समझ सकती।

तो धर्म, हिन्दू या मुसलमान नहीं होता| धर्म, धर्म होता है; एक ही धर्म होता है

तो जिसको हम धर्म जानते हैं, वो समुदाय ही है। और जो वास्तविक धर्म है, वो बिलकुल अलग चीज़ है

तुम इसलिए देखते नहीं हो, कि हर धर्म किस कोशिश में लगा रहता है? अपनी संख्या बढ़ाओ, जैसे संख्या बढ़ाने से कुछ हो जाएगा। ये इस बात का लक्षण है, कि आप समुदाय ही हैं समुदाय में गिनती मायने रखती है। पर धर्म जो है, वो पूरे तरीके से, एक निजी चीज़ है। आत्यान्तिक, यहाँ पर (ह्रदय की तरफ इशारा करते हुए)। और मज़े की बात है कि जिस किसी ने वास्तव में, धर्म को जाना हो, उन लोगों को जाना हो जिन्होंने धर्म जाना वो बेहूदगियों में नहीं पड़ते।

बुद्ध, खुद कभी बौद्ध नहीं थे। वो किसी की शिक्षाओं का पालन नहीं कर रहे थे, उनकी रौशनी उनकी अपनी थी। उपनिषद कभी नहीं बोलते कि होली या दिवाली मनाओ। ये सब ऊल-जलूल बातें वही कर सकते हैं, जिसने कभी भी ज़रा भी स्वाध्याय न कर रखा हो ।

तुम धर्म जानना चाहते हो, तो जाओ और पढ़ो, अष्टावक्र गीता, तो जानोगे धर्म किसे बोलते हैं| तुम धर्म जानना चाहते हो तो, जाओ खुद पढ़ो ना बाइबल को। जाओ बुद्ध को खुद पढ़ो, तो जानोगे। फिर तुम कहोगे, “हे भगवान! बुद्ध तो यही बोल गए हैं, हम आज तक क्या सोच रहे थे?” और बुद्ध लगातार यही कह रहे हैं कि, खुद जानो, खुद जानो। “अप्प दीपो भव”, अपनी रौशनी खुद बनो। बुद्ध ये कह ही नहीं गए कि मेरा अनुसरण करो।

फिर तुम हैरान रह जाओगे| फिर तुम कहोगे, ये मुझे बचपन से क्या पढ़ाया गया, ये क्या चल रहा है समाज में, परिवार में? ये क्या बेवकूफी है? लेकिन फिर दिक्क्त आएगी। तुम कहोगे आँख खोलता हूँ, तो सच्चाई बड़ी भयानक दिखती है। तो चलो फिर आँख बंद ही रखूँ, क्या दिक्क्त है इसमें।

हम में से ज़्यादातर लोग, अंधे नहीं हैं, सामर्थ्य सबके पास है, वो बोध सबके पास है पर तुम आँख खोलने से डरते हो। क्योंकि जब भी तुमने आँख खोली है, उन क्षणों में तुमने एहि पाया है, कि जो कुछ भी मैं अपना संसार जानता था, तमाम दुनिया, रिश्ते नाते, सपने, ये सब कितने बेहूदे हैं। तो इसलिए तुमने डर के मारे, आँखें दोबारा बंद कर रखी हैं। वरना जानते तो तुम सब हो।

मुझे यहाँ पर चीखने-चिल्लाने की, या किसी और के कुछ कहने की, कोई विशेष आवश्यकता है नहीं। पता तो तुम्हें है ही।

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