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हिम्मत हो, तो दुनिया आपकी है || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमस्ते।

आचार्य प्रशांत: नमस्ते।

प्र: मेरा नाम हंसवीर है। कबीर साहब को मैं वो मीनार मानता हूँ जो आपने पिछले सत्र में कहा था। आपने कहा था, ‘वो मीनार जो हमें बाहरी दुनिया से जोड़ते हैं।’ तो मेरे लिए वो मीनार कबीर साहब हैं। उनका शब्द है, “कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ।”

आचार्य: “जो घर फूँके आपनौ, चले हमारे साथ।”

प्र: “जो घर फूँके आपनौ, चले हमारे साथ।” आचार्य जी, मिशन के संदर्भ में इस उलटबाँसी का क्या अर्थ है?

आचार्य: ये उलटबाँसी नहीं है। ये तो बहुत सीधी है। उलटबाँसी तब होती है जब “बरसे कंबल भीगे पानी”।

प्र: दूसरा, मैं पिछली बार दो किताबें लेकर गया था — कर्मा और गीता; मैंने तो दोनों खोलकर भी नहीं देखी। दो किताबें ज़िद में अब फिर ले लीं। क्या ये अहंकार है? मन की मक्कारी है? या वो कॉलेज वाली आदत है कि आख़िरी के दो महीने में ही सबकुछ करना है?

आचार्य: तो दो भाग हैं प्रश्न के।

प्र: जी।

आचार्य: धन्यवाद, बैठिए। पहला कि “कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ। जो घर फूँके आपनौ, चले हमारे साथ।।” इसी का एक दूसरा संस्करण भी है। “मैं मेरा घर जालिया, लिया पलीता हाथ। जो घर जारे आपना, चलो हमारे साथ।।” इसमें तो उलटबाँसी जैसा भी कुछ नहीं है। घर माने क्या? जहाँ आप रहते हैं।

जिस बिंदु को, जिस स्थान को आपने अपना स्थायी आसन बना लिया है, आवास बना लिया है, उसको आप कहते हैं घर। ये जो शब्द है ‘रह’, ये आया है ‘रक्ष’ से। ठीक है! उसी से ‘रख’ भी आया है। जहाँ रक्षा होती है और रक्षा के कारण जहाँ आप पड़े रहते हैं, आसीत रहते हैं, उसको कहते हैं घर।

थोड़ा विचित्र लग रहा होगा कुछ लोगों को कि घर तो हम जानते ही हैं क्या होता है। आधार कार्ड पर पता लिखा हुआ है, उसे घर बोलते हैं। जब तक अपना नहीं बनवा लिया, तो चीज़ किराये की होती है और फिर अपना बन जाता है ईंट-पत्थर का घर।

नहीं। वो बड़ा स्थूल घर है। जब कबीर साहब ‘घर’ कहें या अध्यात्म में कहा जाए कि सत्य अनिकेत है, उसका कोई घर नहीं होता, कोई निकेतन नहीं होता तो उस घर की बात नहीं हो रही है जो ईंट-पत्थर वाला होता है। बात हो रही है मानसिक घर की। वो मानसिक घर जहाँ अहंकार इसलिए रहना पसंद करता है क्योंकि वहाँ वो रक्षा पाता है। वो मानसिक बिंदु जिसे आप इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि वहाँ आपको लगता है कि अब मुझे कोई यहाँ क्षति नहीं होने वाली।

किसको लगता है क्षति नहीं होने वाली? कौन है जो घर में अपनेआप को सुरक्षित मानता है और इसलिए बार-बार घर लौट-लौटकर, लौट-लौटकर आता है? उसे ही अहंता कहते हैं, उसे ही झूठा ‘मैं’ कहते हैं। वो हमारी छद्म अस्मिता है। वही वहाँ रहना पसंद करती है।

समझ रहे हैं बात को?

अहंकार ठिकाने खोजता है, अहंकार सुरक्षा खोजता है। और घर में क्या होता है आपके पास? वो सब सामग्री जो आपको सुविधा देती है। घर से बाहर निकलते हैं तो कई तरह के कष्ट शुरू हो जाते हैं। घर में वापस आते हैं तो सबकुछ अपने अनुकूल पाते हैं। अनुकूल; किसके अनुकूल? यही प्रश्न मौलिक है।

किसको सुविधा चाहिए? कौन वहाँ सुरक्षा पा रहा है? किसके लिए सबकुछ अनुकूल है घर में? किसके लिए? वो, जिसके लिए सबकुछ ठीक-ठाक है घर में, उसे ही अहंता कहते हैं। उसी को जलाने की बात कर रहे हैं कबीर साहब। कह रहे हैं, ‘जब तक आप अपने मानसिक घरौंदे में सुविधापूर्वक विश्राम कर रहे हो, सबकुछ लगता है ठीक है, बढ़िया है, कम्फ़र्टेबल (आरामदायक) है; तब तक आप अपना जन्म ही व्यर्थ कर रहे हो।’

तो कहते हैं, ‘मैंने तो अपना घर जला दिया है और हाथ में जलती हुई लकड़ी है या मशाल है। और जो कोई तैयार हो अपना घर जलाने को, वो आये हमारे साथ। वही हमारे साथ चले।’ जो लोग वैसे ही जीवनयापन करते रहना चाहते हैं जैसे उनकी सुविधा है, आदत है, ढर्रा है, अतीत है, उनके लिए कोई आशा नहीं। उन्हें हमारी संगत रुचेगी भी नहीं। वो न आयें हमारे साथ।

संसारी के लिए घर बहुत आवश्यक जगह होता है और सच्चे आदमी के लिए घर एक क़ैदखाना होता है।

मैं फिर कह रहा हूँ, मैं आपसे अपने ईंट-पत्थर के घर को आग लगाने के लिए नहीं कह रहा; कुछ अनर्गल मत कर लीजिएगा। इसीलिए जब ये सारी बातें प्रकाशित होती हैं, तो पहले उनमें एक बड़ा सा डिस्क्लेमर लगाना पड़ता है, अस्वीकार का दस्तावेज़ —

‘अगर आप हमारी कही हुई बात को समझ नहीं पा रहे हैं, तो उसके परिणामों की ज़िम्मेदारी लेना हम अस्वीकार करते हैं। क्योंकि हम तो अधिकार रखते हैं बस उस बात पर जो हम कह रहे हैं। आप ध्यानपूर्वक न सुनें और कुछ भी मनगढ़ंत अर्थ निकाल लें, तो हमारी उसमें ज़िम्मेदारी नहीं है।’

तो बड़ा सतर्क होकर बोलना पड़ता है कि मैं क्या बोल रहा हूँ और क्या सुना जाएगा। कहीं आज साँझ ही ख़बर न आ जाए कि किसी का घर, कह रहे हैं, ‘बढ़िया लंकादहन का वीडियो आ गया है, देखिए। सब यहाँ राक्षस-ही-राक्षस रहते थे लंका में, हमने आग ही लगा दी।’

किस घर की बात हो रही है? मन का वो क्षेत्र — घर भी एक क्षेत्र होता है न, घर का भी एक परिमाण होता है। एक एरिया (क्षेत्र) होता है कि नहीं होता है? तो मन में भी एक क्षेत्र होता है जहाँ आप बहुत मस्ती से बैठे रहते हैं।

जैसे घर में चीज़ें होती हैं जो आपको सुविधा देती हैं — आपकी पसंद का सोफ़ा, आपकी पसंद की अलमारी, आपकी पसंद के कपड़े, छोटी-छोटी चीज़ें भी आप अपनी रुचि मुताबिक़ अपने घर में रखते हैं। चाहे वो गैस का बर्नर ही क्यों न हो, दीवारों का रंग क्यों न हो, बिस्तर की चादर क्यों न हो, बाथरूम में शॉवर (फव्वारा) या बाल्टी ही क्यों न हो! वो आप कहते हो, ‘देखो, मेरे हिसाब से होना चाहिए।’

ये जो चीज़ है — मेरे हिसाब से, इसको ही अहंकार कहते हैं। पूछना पड़ेगा न, किसके हिसाब से चला रहे हो। आप कहते हो, ‘अपने हिसाब से।’ ये जिसे आप ‘अपना हिसाब’ कहते हो, ये नक़ली है। क्योंकि वो आपका है नहीं। वो आपने भी कहीं से पकड़ लिया है। और इसका प्रमाण ये है कि जो आज आपका हिसाब है, वो कल आपका नहीं था और आने वाले कल में भी नहीं होगा। पर आज आप कहते हो, ‘मुझे तो यही पसंद है।

‘फ़लानी टाइल्स लगनी चाहिए। वो वाला मार्बल चाहिए मुझे।’ उस वाले मार्बल को अपने जीजा जी के घर में नहीं देखा होता तो आप बोलते लगवाने के लिए? दीवार पर पेंट का फ़लाना डिज़ाइन फ़लाने पेंटर ने आपको न सुझा दिया होता तो आप बोलते कभी कि लगा दो? शयनकक्ष में व्यवस्था कैसी करनी है, वो आपने किसी फ़िल्म में न देख ली होती तो आप बोलते क्या कि ऐसा होना चाहिए मेरा भी? पर अब वो सबकुछ देख लिया है तो कहते हैं, ‘मेरी पसंद, मेरी पसंद।’

वो चूँकि आपकी है ही नहीं इसीलिए समझाने वालों ने ज़ोर देकर समझाया है, ‘क्यों उसे अपना बोलते हो जो तुम्हारा है नहीं? तुमने कहीं से सोख लिया है और इतने बेहोश हो तुम कि तुम्हें पता भी नहीं कि तुम कहीं से सोखे बैठे हो।’ किसी और चीज़ को, किसी और की दी हुई चीज़ को अपना बोल रहे हो। और अपनी जान, अपनी ज़िंदगी, अपनी ऊर्जा पूरी उसके पीछे लगा रहे हो।

आज से बीस साल पहले, मारुति एट हंड्रेड ही ज़्यादा चलती थी। सबके पास वही होती थी। सड़क पर अगर आप दस गाड़ियाँ देखें तो उसमें से आठ क्या होती थीं? वही माचिस की डिबिया! और उसमें भी सबसे ज़्यादा रंग कौनसा चलता था? सफेद। याद आ रहा है? जो बहुत जवान लोग हैं, उन्हें कुछ याद नहीं आएगा। जो कम-से-कम तीस पार के हैं, उन्हें याद आएगा।

अब एक सी मारुति एट हंड्रेड खड़ी हुई हैं, लाइन से पार्किंग में। और ये मैंने दो-चार बार देखा, लोग जाते थे, किसी और की गाड़ी को अपनी वाली समझकर उसे खोलने की कोशिश कर रहे हैं। एक-आध-दो दफ़े तो खुल भी जाता था मारुति। वो अंदर बैठ भी जाते थे।

हँस क्यों रहे हैं? हम भी यही कर रहे हैं दिन-रात। इसी को अहंकार कहते हैं। किसी और की चीज़ को अपना मान रहे हो। वहाँ तो कोई-न-कोई आकर बोल देता था, ‘ये आपकी नहीं है, बाहर निकलिए।’ लेकिन हमने जो विचार, मान्यताएँ, धारणाएँ और भावनाएँ पकड़ ली हैं, हमें कोई बताने वाला नहीं है कि ये आपकी नहीं हैं, छोड़िए इन्हें। बाहर निकलिए इनसे।

इसलिए उस घर को जलाना ज़रूरी है क्योंकि वो आपका घर है ही नहीं। तो माने वास्तव में जलाना क्या है? जलाना है झूठी चीज़ के साथ अपना रिश्ता। जो आपका नहीं है, उसके साथ क्यों तादात्म्य बनाए हुए हो? ‘मेरा है!’ ममत्व क्यों रखे हुए हो? उसी झूठे रिश्ते को जलाना है। किसी चीज़ को मत जला देना।

जो कुछ हमें बुरा लगता है वो हमें बुरा इसलिए लगता है क्योंकि हमें सिखा दिया गया कि बुरा है। जो हमें अच्छा लगता है, इसलिए लगता है क्योंकि हमने देख लिया कि हमारे आसपास वाले सब ऐसा ही कर रहे हैं तो अच्छा है।

बहुत उदाहरण आते हैं। आज सुबह ही एक सज्जन से बात हुई। बोले, ‘आप परंपराओं के विरुद्ध इतना बोलते रहते हैं।’ मैंने कहा, ‘मैं परंपराओं के विरुद्ध नहीं बोलता। मैं खोखली और अर्थहीन परंपराओं के विरुद्ध बोलता हूँ।’

बोले, ‘आपकी बात बिलकुल समझ में आती है। और हम जानते हैं आप जो कह रहे हैं ठीक है। लेकिन इन सब परंपराओं का पालन करते हुए हमने अपने माँ-बाप, अपने दादा-दादी, नाना-नानी को देखा है। और दादा-दादी, नाना-नानी से हमें बड़ा प्यार है। तो हम कैसे मान लें कि वो जो कुछ कर रहे थे, वो मूर्खता थी?’

मैंने कहा, ‘अभी तो तुमने कहा कि तुम जानते हो, ये मूर्खता है।’ बोले, ‘हाँ है। पर बड़ी चोट लगती है ये मानते हुए कि आजतक हमने अपने बड़ों को, बुज़ुर्गों को जो करते हुए देखा, वो सबकुछ वे बिलकुल अज्ञान और अंधकार में कर रहे थे।’

आप जो कर रहे हो, वो इसलिए कर रहे हो क्योंकि आपने किसी को करता हुआ देख लिया है। आप जो नहीं कर रहे, इसलिए नहीं कर रहे हैं क्योंकि आपने किसी को करता हुआ नहीं देखा है। आपका क्या है इसमें?

जो लोग शाकाहारी हैं, वो अधिकतर शाकाहारी इसलिए हैं क्योंकि उनके घर में शाकाहार चलता था। ऐसा शाकाहार दो कौड़ी का है। आप ब्राह्मण हो, आप जैन हो, आपने घर में ही यही देखा है कि कभी मांस क्या, अंडा वगैरह भी नहीं बना तो आप नहीं खाते हो। कोई मूल्य नहीं इस बात का।

और यही वजह है कि ऐसे घरों से निकले हुए लड़के-लड़कियाँ जैसे ही हॉस्टल (छात्रावास) जाते हैं, वो सबसे पहले बकरा चबाते हैं। क्योंकि उनके शाकाहार में कोई दम था ही नहीं। वो तो शाकाहारी बस इसलिए थे क्योंकि मम्मी ने हमेशा आलू और गोभी बनाया। हॉस्टल पहुँचते नहीं हैं कि तुरंत कहते हैं, ‘कहाँ है? बताओ। चिकन की टाँग दिखाओ।’

जो मांसाहारी हैं, वो भी इसीलिए मांसाहारी हैं कि बचपन से ही देखते थे कि त्यौहार में भी क़ुर्बानी हो रही है और त्यौहार में भी, धर्म में भी मांस खिलाया जा रहा है तो उनको मांस खाने की लत लगी हुई है। ऐसा नहीं है कि उन्होंने बहुत विचार करके, बड़े बोध से, बड़े विवेक से निर्णय लिया है मांस खाने का। उन्हें भी बचपन से मांस खिला दिया गया तो वो खाये जा रहे हैं। जिन्हें नहीं खिलाया गया वो नहीं खाये जा रहे हैं।

कुछ भी हमारा नहीं। बच्चा पैदा होता है, तुरंत बोलते हैं, ‘शक्ल बाप पर गयी है।’ हमारी तो शक्ल भी हमारी नहीं। और फिर कहते हो, ‘मेरा मुँह, मेरा चेहरा।’ ‘आँखें माँ पर गयी हैं। आँखें ही ठीक हैं बस।’ आपका क्या है?

यहाँ जितने लोग बैठे हुए हैं, सब साँवले से लेकर के गेहुँए तक के हैं। कोई भी बिलकुल दूध की तरह गोरा नज़र क्यों नहीं आ रहा? क्यों भाई? बताइए क्यों नहीं? चाहते तो आप सभी हैं! हिंदुस्तानी दिमाग, सब कुछ गोरा चाहिए। हैं क्यों नहीं गोरे? इतना गोरापा चाहिए, तो गोरे क्यों नहीं हो जाते? क्योंकि हमारा रंग भी हमारा नहीं है।

आप कितना भी घिस लीजिए, मुँह चमक सकता है — जैसे जूते को पॉलिश करो तो वो काला-काला चमक जाता है बिलकुल — लेकिन गोरा नहीं होगा। कभी हुआ है ऐसा कि चेरी ब्लॉसम घिसते जा रहे हैं, घिसते जा रहे हैं तो जूता गोरा हो गया? क्योंकि वो जूता आपका है ही नहीं।

किस जूते की बात कर रहा हूँ? इस चमड़े की (मुँह की ओर संकेत)। ये भी जूता ही है जो पहन रखा है और मुँह बोलते हैं इसको। ये भी हमारा नहीं है। न विचार हमारे, न भावनाएँ हमारी, न चमड़ा हमारा। काहे उसको मैं-मैं-मैं करते रहते हो?

अब जब इस बिंदु पर मैं आ जाता हूँ तो लोग फिर डरना शुरू कर देते हैं। कहते हैं, ‘कुछ हमारा नहीं? हम तो बेघर हो गये फिर। घर-वर जला दिया। पूरी अस्मिता नष्ट कर दी। हमारा तो कुछ बचा ही नहीं। हम ही नहीं बचे। गये!’

इस बिंदु पर आकर आत्मा से परिचय प्रारंभ होता है इसलिए डर जाते हो। सच्चाई से ज़्यादा डरावना कुछ नहीं। लेकिन सच्चाई शून्य नहीं है; सच्चाई मौत नहीं है। जहाँ वो सबकुछ ख़त्म होता है जो झूठा है, वहाँ मौत नहीं आ जाती, वहाँ से नयी ज़िंदगी शुरू होती है; सच्ची ज़िंदगी, अच्छी ज़िंदगी। डर मत जाइए।

वास्तव में जो बात कबीर साहब कह रहे हैं और जिसपर मैं थोड़ा-बहुत समझाना चाह रहा हूँ, वो इतनी सीधी है कि उसको न समझने का सवाल ही नहीं पैदा होता। समझ तो आप सब गये हैं। और एक बार नहीं समझे हैं, आपमें से अधिकांश लोगों से हमारा रिश्ता पुराना है, आप बार-बार समझ चुके हैं।

आप बार-बार समझकर के नासमझ बन जाते हैं क्योंकि डर जाते हैं। आप कहते हैं, ‘जो हाथ में है या जो दिमाग में है, वो छोड़ दिया तो बचेगा क्या? ऐसा लगता है जैसे मौत आ गयी। जब कुछ बचता ही नहीं तो मृत्यु है।’ नहीं, मौत नहीं आ गयी। जो कुछ झूठा था, वो हटा। झूठा हटने का ये अर्थ नहीं है कि अब कुछ बचा नहीं। अब क्या बचा?

श्रोतागण: सत्य।

आचार्य: जो सच्चा है वो बचेगा। सच्चाई को कौन हटा सकता है! और आप क्यों ऐसा सोचते हैं कि सिर्फ़ झूठ-ही-झूठ के अधिकारी हैं आप? जब आप कहते हैं कि सारे झूठ, सारी दुर्बलताएँ, सारी मूर्खताएँ अगर जीवन से हटा दीं तो शेष क्या रहेगा, तो आप जानते हैं न क्या कह रहे हैं?

आप कह रहे हैं, ‘न मेरे पास कुछ सच्चा है, न मेरे पास कुछ सच्चा पाने की संभावना है।’ आप अपनेआप को बहुत छोटा करके देख रहे हैं। आप अपने ही अधिकार से परिचित नहीं हैं। सच्चाई हक़ है आपका। हक़ का हम प्रचलित अर्थ अधिकार जानते हैं न; हक़ का वास्तविक अर्थ होता है सत्य, सच्चाई। वही हक़ है। वही अधिकार है। वो है आपका, आप डर क्यों रहे हैं?

झूठ से आप मोहग्रस्त नहीं हैं, झूठ से आप आतंकित हैं। हाँ, ये मानना बुरा लगता है कि हम डरे हुए हैं, तो कह देते हैं, ‘अरे! ममत्व बहुत है, मोह है, माया है, ममता है।’ कुछ नहीं है, डर है। देखिए, कैसे बेधड़क होकर कह रहे हैं, “जो घर फूँके आपनौ, चले हमारे साथ।।”

मज़ेदार बात ये है कि उन्होंने जो बात कही, उस बात ने न जाने कितने घर सँवार दिये। और जो ईंट-पत्थर के घर सँवारते रह जाते हैं, वो पाते हैं कि कितना भी सँवार लें, उनके घर में आग लगनी ही लगनी है। है कोई घर ऐसा जो बचा रह जाता है? न, तुम कितना भी सँवार लो, वो ख़त्म होना ही होना है।

अभी कहीं मैं पढ़ रहा था कि सन् दो हज़ार तीस में सिर्फ़ भारत मात्र में जितनी इमारतें होंगी, उसमें से नब्बे प्रतिशत अभी बनी ही नहीं हैं। उनकी बुनियाद ही नहीं डाली गयी है। मतलब समझिएगा।

दो हज़ार तीस कितनी दूर है, सिर्फ़ नौ साल। दो हज़ार तीस में जो इमारतें होंगी, उनमें से नब्बे प्रतिशत की अभी बुनियाद ही नहीं डली है। इसका मतलब आज की सारी इमारतें क्या होने वाली हैं? या तो ध्वस्त होने वाली हैं या बदलने वाली हैं या अल्पमत में आ जाने वाली हैं। आज की एक रहेगी तो नयी पाँच खड़ी होंगी।

लेकिन आज जो कुछ भी दिखाई देता है, इस पूरे परिदृश्य से हमें ऐसा मोह हो जाता है कि यही तो सच है। यही तो बने रहना है। आपके देखते-देखते पाँच साल, दस साल के भीतर दुनिया बदल जाएगी। और ये पहली बार नहीं हो रहा है। पिछले दस साल में भी जैसी दुनिया थी, वो बदल ही जानी है। लेकिन मोह बहुत है।

डर हमसे कुछ भी करवा सकता है। डर आलस है। गीता में जिसे ‘षड्-रिपु’ कहा गया है, छः शत्रु हमारे, वो सब डर ही हैं। हमारी मूल समस्या है डर।

समझ रहे हैं बात को?

थोड़ा विश्वास तो करके देखिए। मिट नहीं जाएँगे आप अगर आपने जो झूठ है, फ़रेब है, आडंबर, मिथ्या है, उसको मिटा दिया तो। वो सब मिटेगा, आप नहीं मिटेंगे। आप हैं। अपनी हस्ती पर भरोसा करिए। आप अपनेआप को जितना जानते हैं, आप उससे कहीं ज़्यादा सामर्थ्यवान हैं। अपना आंकलन आप बड़ी हीनता में करते हैं, अंडरएस्टिमेशन (कम आँकना)।

छोटे नहीं हैं आप, विश्वास करिए। उसी ऊँचे विश्वास को श्रद्धा भी कहते हैं। कि जाने दो जो जाता है, हम तब भी जी लेंगे। और मौज में जिएँगे। और पक्का भरोसा है कि अगर किसी छोटी चीज़ को छोड़ेंगे तो कुछ ऊँचा, अच्छा और बड़ा ही मिलेगा। भरोसा पक्का है। बुरे-से-बुरा क्या हो सकता है, एक सही उपक्रम में शरीर को मौत आ जाएगी, यही होगा। वो भी बेहतर है एक क्षुद्र जीवन जीने से।

और हमसे अस्तित्व की दुश्मनी है क्या? कि ख़ासकर हमें ही मौत आ जाएगी? मौत अगर हमें आएगी भी तो सबको आनी है। मैं ईमानदारी की ज़िंदगी जीकर के, बुरे-से-बुरा ये होगा कि मर जाऊँगा। तो क्या जो बेईमान हैं, वो अमर बैठे हैं? मरना तो बेईमानों को भी है न! मरना तो सब कायरों को भी है न! या कायरता दिखाकर के अमर हो जाते हो?

‘आचार्य जी, हम मरने से नहीं डरते, हम तो कई तरीक़े के कष्टों से डरते हैं। और हम अपने ऊपर वाले कष्टों से भी नहीं डरते, आचार्य जी। हम बहुत अच्छे आदमी हैं। हमारे अपनों को कुछ नहीं होना चाहिए। अपने लिए तो मैं जीता ही नहीं। मैंने तो अपनी ज़िंदगी ही दूसरों के नाम रखी हुई है। उन्हें कुछ नहीं होना चाहिए, आचार्य जी। इसलिए मैं झूठी ज़िंदगी जीता हूँ।’

तुम जैसी ज़िंदगी जी रहे हो, इसमें तुम्हारे अपनों को भी क्या मिल रहा है? तुम्हारे जितने भी तर्क हैं एक कमज़ोर, झूठा, खोखला जीवन जीने के समर्थन में, वो सारे तर्क कितने बेबुनियाद हैं। ये भी अगर कहते हो कि डरी हुई, कमज़ोर ज़िंदगी जी रहा हूँ अपनों की ख़ातिर, तो मुझे बताओ न, अपनों को भी तुमने क्या दे दिया आज तक? अधिक-से-अधिक एक औसत जीवन।

वो जो अपने हैं न आपके, वो भी एक बहुत ऊँचे जीवन के अधिकारी हैं, हक़दार हैं। और छोटी ज़िंदगी जीकर के आप उन्हें भी कुछ नहीं दे पा रहे हो। आप उनके साथ भी अन्याय कर रहे हो। कोई तर्क नहीं चलेगा, सब मिथ्या हैं। सच के ख़िलाफ़ कौनसा तर्क चल सकता है, बताइए।

बस एक चीज़ है जो मैं प्रमाणित नहीं कर सकता, कोई भी प्रमाणित नहीं कर सकता, कि झूठ के आगे भी जीवन है। मैं आपको प्रेरित कर सकता हूँ कि झूठ छोड़ दो। लेकिन उसके आगे भी जीवन है और सुंदर, सच्चा, ऊँचा जीवन है, ये मैं प्रमाणित नहीं कर सकता। आप माँगते हो गारंटी!

बोलते हो, ‘हाँ, हाँ, ये सब छोड़-छाड़ देंगे। बेकार जीवन जी रहे हैं, हमें भी पता है। लेकिन गारंटी दीजिए कि इसके बाद कुछ बहुत अच्छा मिल जाएगा।’ वो नहीं दे सकता। मैं तो बस आपको प्रेरित ही कर सकता हूँ कि करके देखो, हो जाएगा।

और पहले नहीं हो तुम कि मानवजाति में आप अचानक नये-नये खड़े हुए हैं कि मैं अपने सब झूठ को और कूड़े-कचरे को जलाऊँगा। मुझसे पहले तो किसी ने ये किया ही नहीं।

आपसे पहले सैकड़ों-हज़ारों लोगों ने ये किया है। और वही हैं जो जिये हैं। और उन्हीं के नाम से आज मानवता ज़िंदा है। आप पहले नहीं हैं। सही और सच्चे रास्ते पर आपसे पहले हज़ारों-लाखों लोग चल चुके हैं। तो ये भी मत कहियेगा कि हम ही तुर्रम खाँ हैं क्या? हम कैसे कर लें? कोई भी नहीं करता।

कोई भी नहीं करता माने आप उनको जानते नहीं जिन्होंने किया। क्योंकि आप अच्छा साहित्य पढ़ते नहीं। आप बस देखते हो अपने गली-मोहल्ले में, अपने सोसाइटी अपार्टमेंट (रिहायशी भवन) में आप देखते हो, ‘यहाँ तो सब ऐसे ही झूठे-झूठे हैं।’

और फिर आपको तर्क भी यही दे दिया जाता है कि तुम ही आये बड़े फन्ने खाँ! देखो, ताऊ जी की लड़की भी वही कर रही है जो हमने कहा। रीता भाभी की लड़की भी वही कर रही है जो सब करते हैं। तुम ही उड़न परी निकलोगी?

आप कहिएगा, ‘हम ही नहीं निकल रहे हैं उड़न परी। हमसे पहले हज़ारों-लाखों निकल चुके हैं। बस आपका अज्ञान इतना है कि अच्छे लोगों के बारे में आपको पता नहीं। आपको सब घटिया ही लोगों की जानकारी होती है, तो आपको लगता है सब घटिया ही हैं।’

अगर मुझे जानकारी में ही जो सौ, दो सौ, हज़ार लोग हों, वो सब एक ही तरह के हों तो मुझे क्या लगेगा? पूरी दुनिया इसी तरह की है। है न? इसलिए ऊँचा साहित्य पढ़ना चाहिए, ऊँची संगति रखनी चाहिए ताकि आपको दिखता रहे कि नहीं, बहुतों के साथ हुआ। सभी के साथ हो रहा है। जो भी कोई सही जीवन जीना चाहता है, वो सफल हो रहा है। वो सब सफल हो रहे हैं, तो मैं भी सफल होऊँगा।

और ग़लत जगह जियोगे, ग़लत लोगों की संगति रखोगे — दो सौ छप्पन लोगों का व्हॉट्सएप ग्रुप है, उसमें से दो सौ पचपन बिलकुल एक ही तरह के हैं, ‘हैलो जी! गुड मॉर्निंग जी!’ और बना दिये दो फूल सुबह-सुबह। ऐसे व्हॉट्सएप ग्रुप में रहोगे तो वहाँ यही सुनने को मिलेगा कि…

संगति से अलग कुछ नहीं है। संगति से ऊँचा कुछ नहीं है। आपकी जैसी संगति है, आप वैसे ही हो जाओगे। उससे अलग आप नहीं हो सकते।

और तुर्रा ये रहेगा कि आप कहोगे, ‘पूरी दुनिया ही ऐसी है।’ पूरी दुनिया वैसी नहीं है, पूरा इतिहास भी वैसा नहीं है, बस आप जिन लोगों को जानते हो, वो वैसे हैं। तो अपने तर्कों को थोड़ा काबू में रखिए।

डर इतनी केंद्रीय बीमारी है कि हमारे उच्चतम ग्रंथ भी ये नहीं कहते कि वो आपको मोक्ष दिलाने के लिए हैं या वो आपके भीतर से मोह कम करने के लिए हैं या क्रोध या काम कम करने के लिए हैं। वो भी ये कहते हैं कि वो आपके भीतर से डर कम करने के लिए हैं। हमारे चेहरों पर डर लिखा रहता है।

किसी ने पूछा था मुझसे एक बार कि सुन्दर किसको मानूँ? मैंने कहा सिर्फ़ एक है उसका पैमाना — चेहरे पर डर नहीं होना चाहिए। डर आपको बदसूरत बना देता है, फिर कितना भी मेकअप (श्रृंगार) कर लीजिए। और जिसके चेहरे पर डर नहीं है, वो सुंदर है। सौंदर्य की शायद इससे सटीक परिभाषा हो भी नहीं सकती। जहाँ डर नहीं है, वहाँ सौंदर्य है।

बड़े-से-बड़े ख़तरे के सामने, नुक़सान की स्पष्ट संभावना के सामने भी आपका चेहरा चमकना चाहिए। मूर्ख लोग नहीं आएँगे आपको ‘मिस्टर इंडिया’, ‘मिस यूनिवर्स’ देने लेकिन आप जानेंगे। और जो भी कोई ढंग का इंसान होगा, वो जानेगा कि आपसे ज़्यादा उस पल में ख़ूबसूरत कोई नहीं।

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