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हमारे काल्पनिक लक्ष्य || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्न: सर, अपना लक्ष्य निर्धारित करते हैं भविष्य के लिये। तो वो कैसे करते हैं?

वक्ता : कल्पना कर कर के।

श्रोता : कल्पना तो कुछ नहीं है।

वक्ता : कुछ नहीं है? तो लक्ष्य भी कुछ नहीं है। अगर तुमने ये देख ही लिया है कि वो जो लक्ष्य है जिसको निर्धारित करते हो, चाहे वो सिविल सर्विसिस का हो, चाहे वो प्लेसमेंट का हो, चाहे कुछ और हो। चाहे इतना सा ही लक्ष्य हो कि आज यहाँ से वापिस जा कर के कुछ कर डालना है। ये सारी कल्पनाएँ हैं। ये सब कल्पनाएँ हैं लेकिन तुम्हारी ऐसी आदत हो गई है कल्पनाओं में जीने की कि जब ये कहा जाता है कि ये सब मात्र कल्पनाएँ हैं, तुमको बड़ा झटका लग जाता है।

श्रोता : पर ज़्यादातर बातें कल्पनाओं में ही होती हैं। कहीं भी जाते हैं इंटरव्यू के लिए तो वो यही पूछेंगे ना कि आपका लक्ष्य क्या है ?

वक्ता : पर क्या तुम उस वक़्त ये समझ रहे होते हो कि ये काल्पनिक बात है? इंटरव्यूअर जब तुमसे पूछ रहा होता है कि तुम्हारा लक्ष्य क्या है तो क्या उस समय तुम समझ रहे होते हो कि ये जो बात पूछ रहा है, ये बड़ी काल्पनिक सी बात है। अगर तुम उस वक़्त ये समझ जाओ तो तुमको बहुत मज़े आएँगे। तुम्हें हल्की सी मुस्कान आ जाएगी, तुम्हारा मन हल्का रहेगा और तुम सहज भाव से उत्तर दे पाओगे पर, उस वक़्त तो तुम ये सब कुछ नहीं समझ रहे हो न कि ये सब काल्पनिक बात है। उस समय तो तुम्हें लग रहा होता है कि ये दुनिया की सबसे खास बात है। उस वक़्त तुम्हें लग रहा होता है कि इससे ज़्यादा संजीदा मुद्दा और कुछ हो ही नहीं सकता। फ़िर क्या होता है? फ़िर तुम्हारे पसीने छूटते हैं, फ़िर तुम्हारे पाँव काँपते हैं, फ़िर तुम्हारा दिल धड़कता है। तुम ये जान ही जाओ अगर, कि ये सब जो चल रहा है इंटरव्यू में, ये सब खेल बस है, नकली है, काल्पनिक है तो तुम तो बिलकुल बादशाह हो जाओगे न फिर। पर जान कहाँ पाओगे? पर जानना उसी वक़्त होता है, बाद में नहीं।

श्रोता : तो हम भविष्य के लक्ष्य को वर्तमान में स्थापित कर सकते हैं क्या?

वक्ता : वर्तमान में कोई लक्ष्य नहीं होता। जब तक लक्ष्य बनाओगे, वर्तमान बीत जाएगा। वर्तमान, बस जीना होता है।

श्रोता : तो अगर कोई पूछे कि आपका लक्ष्य क्या है तो उसका उत्तर कैसे दें?

वक्ता : कैसे दोगे? ये भी अभी से लक्ष्य बना लोगे? कभी हँस के, कभी रो के। कभी बैठ के, कभी चल के। कभी चुप रह के, कभी चिल्ला के। कैसे इसका एक निर्धारण हो सकता है कि कोई पूछे तो क्या है? तुम्हारी गर्ल फ्रेंड पूछेगी, “क्या लक्ष्य है?”, तो गले लग के। कोई इंटरव्यूअर पूछेगा तो मुस्कुरा दो। माँ-बाप पूछेंगे, तो पाँव पकड़ कर रोना शुरू कर दो। दोस्त पूछेंगे, तो उसको चमाट लगा दो। वजह है कि क्या बोला जा सकता है। देखो, समझने के उपरांत तुम क्या करोगे, इसका कोई पूर्व निर्धारण संभव नहीं है।

दस लोग सो रहे हैं। सोते समय सब एक से लगते हैं। शरीर पड़े हुए हैं, स्थिर हैं, चेहरों पे कोई भाव नहीं है पर जगने के बाद वो क्या करेंगे, इसका कोई पूर्व निर्धारण हो सकता है क्या? सोये हुए आदमी का पूर्व निर्धारण किया जा सकता है कि ऐसे पड़ा हुआ है। तुम्हें भी पता है कि पड़ा हुआ है, ठीक है। अगर बहुत गहरी नींद में है तो करवट भी नहीं ले रहा। तुम्हें पता है कि ये आठ घंटे भी ऐसा ही रहेगा। पर जगे हुए आदमी का कोई पूर्व निर्धारण नहीं हो सकता। एक बार वो दस सोये हुए लोग जग गए तो कौन किस दिशा में जायेगा, क्या तुम ये बता सकते हो? नहीं बता सकते न। तो ध्यान में क्या करोगे, ये कभी बताया नहीं जा सकता और यही उसका मज़ा है, उसकी ये जो अनिश्चितता है। यही तो उसका मज़ा है और इसी में तुम्हारी स्वतंत्रता है कि तुम कुछ भी करने के लिए मुक्त हो। कुछ तुमने पहले से तय नहीं कर रखा है। पर अब इसमें ख़तरा आ गया। पहले से तय नहीं कर रखा तो मन कहता है “असुरक्षा, असुरक्षा”। मन कहता है “सब पहले से तय हो”। मन कहता है कि मुझे आश्वासन दो कि कुछ भी अनिश्चित तो नहीं है। मन ये ही कहता है न? घर से चलते हो, ताला लगाते हो तो मन कहता है ज़रा सुनिश्चित करो, आश्वासन दो। किसी यात्रा पर जाते हो, सामान तैयार करते हो तो मन क्या कहता है? फिर सुनिश्चित करो, कुछ छूट तो नहीं गया? मन हमेशा क्या चाहता है? भविष्य के लिए सुरक्षा। तो वो तो हल्ला करेगा।

श्रोता: सर, इंटरव्यूअर की क्या उम्मीदें हैं, ये स्पष्ट क्यूँ नहीं हैं?

वक्ता: देखो, जितने भी तुम लोग हो न, जितने किस्म के, उतने ही क़िस्म के इंटरव्यूअर होते हैं और उतनी ही क़िस्म की कम्पनीज़ होती हैं और उतनी ही क़िस्म के माहौल होते हैं। ये बता पाना असंभव है कि क्या उम्मीदें हैं और ये जानने से कुछ भी प्रयोजन होना भी नहीं चाहिए कि क्या उम्मीदें हैं। मैं यहाँ पर आया हूँ, तुम लोगों से बात करी। मैंने क्या तुमसे पूछा था कि तुम्हारी उम्मीदें क्या हैं? और बल्कि जहाँ तक मुझे लगता है, तुम्हारी उम्मीदें पूरी होने की जगह कुछ टूट ही गई होंगी। अगर तुम कुछ आशाएँ बना कर बैठे होगे कि ये पता चलेगा, तो वो आशाएँ पूरी तो कम हुई होंगी, उनपे झटका ज्यादा लगा होगा। जो तुमने सोचा होगा, उत्तर शायद उससे उल्टा ही आ गया हो, क्यों?

श्रोता: हाँ, सर।

वक्ता: तो वो क्या चाहता है, क्या नहीं चाहता है, उसको छोड़ो। क्या तुम ये जानते हो कि तुम क्या चाहते हो? क्या तुम ये जानते हो कि तुम्हारी सारी चाहतें कहाँ से आती हैं? तुम्हें बताऊँ तुम क्या चाहते हो, तुम खुद सिर्फ ये चाहते हो कि सामने वाले जो भी तुम से चाहते हैं, वो पूरा हो जाए। तुम सिर्फ दूसरो की अपेक्षाओं की पूर्ती करना चाहते हो और इस उदाहरण में इंटरव्यूअर की अपेक्षाओं की पूर्ती करना चाहते हो। हमेशा ये ही पूछते रहोगे कि इंटरव्यूअर मुझसे क्या चाहता है? अध्यापक मुझसे क्या चाहते हैं? दोस्त मुझसे क्या चाहता है? समाज मुझसे क्या चाहता है? या कभी ये भी समझोगे कि तुम ख़ुद से क्या चाहते हो? ये पूछा है कभी?

सारा जीवन दूसरों की चाहतें पूरी करने में लगाना है या कभी ये भी जानना है कि “मैं कौन हूँ?”

सर, ‘’जीवन तो त्याग का यज्ञ है, जिसमें मैं अपनी आहूति दे चुका हूँ। मेरी कोई चाह, कोई वासना है ही नहीं। मेरा जीवन तो दूसरों के लिए है, समाज कल्याण के लिए मैंने अपने आप को समर्पित कर दिया है’’। हाँ, ऐसा है? अगर नहीं कर दिया है ऐसा, तो जानो तो कि तुम क्या चाहते हो। और ये सब जो तुम कहोगे कि मैं चाहता हूँ, उसमें से कोई भी चाह तुम्हारी अपनी है या नहीं है? इंटरव्यूअर कहेगा मैं चाहता हूँ कि मेरी नाक पकड़ लो, या दो उँगलियाँ ऐसे नाक में डाल दो, तो उसकी तो चाहत कुछ भी हो सकती है। तो तुम्हें ऐसी कंपनी में डाल देगा, कंपनी कहेगी मुझे ‘वैल्यू फॉर मनी’ चाहिए। हम तुम्हें इतने पैसे देते हैं, इसके बदले में तुम हमें इतनी सारी उत्पादकता दो, इतना सारा ‘आउटपुट’ दो, तो उनकी चाह है। तुम्हारी कोई चाह है कि नहीं है? मम्मी-पापा ने चाहा इंजीनियरिंग कर लो, तुम इंजीनियरिंग करने लग गए। यूनिवर्सिटी चाहती है कि तुम पढ़ाई कर लो, तुम पढ़ाई करने लग जाते हो। समाज चाहता है कि तुम सभ्य, सुसंस्कृत, शालीन और पालतू नागरिक बनो, तो तुम शालीन और पालतू नागरिक बन जाते हो। तुम्हारी अपनी कोई चाहत है कि नहीं है?

श्रोता: सर, आपके हिसाब से चाहत मेरे से नहीं आई होगी?

वक्ता: मैं कह रहा हूँ कि चाहत या तो अपनी होती है या उधार की होती है।

श्रोता: नहीं, जैसे मेरी ख़ुद की विचारधारा है कि मान लीजिए कि कहीं जाएँगे, कुछ खेल खेलेंगे तो, मानसिक सुकून मिलेगा।

वक्ता: क्या ये चाहत तुम्हारी है?

श्रोता: नहीं, अगर इत्तिफ़ाक़ से किसी की हो।

वक्ता: मैं कह रहा हूँ, जिसकी भी है। क्या उसकी है? मान लो मैं बचपन से ही हिंसा प्रधान फिल्में देखता हूँ, मैं बचपन से ही एक ऐसे माहौल में पला-बड़ा हूँ जिसमें लूट-मार पर बड़ा ज़ोर है। मैंने देखा है कि मेरे पिताजी मेरी माँ को लूट-मार करते रहते थे, मैंने देखा है कि मेरे चाचा जी मेरे पिताजी को लूटते रहते थे और मेरे घर में सदा पिक्चरें भी ऐसी चलती थीं जिसमें गोलियाँ, बन्दूक, बम, धमाके, लूटमार और डकैती के अलावा कुछ था नहीं। अब कुछ सालों बाद जाकर मैं बैंक लूट रहा हूँ, तो क्या बैंक को लूटना मेरी इच्छा थी? या वो इच्छा मेरे अन्दर घुसेड़ी गई?

श्रोता: सर, किसी ने ज़बरदस्ती थोड़े ही की थी। वो तो हमने खुद से ग्रहण कर लिया था।

वक्ता: आपने नहीं ग्रहण किया था। एक ‘स्पोंज’ होता है। ‘स्पोंज’ जानते हो? उसका काम है पानी सोखना। चारों तरफ से तुम उस पर पानी की बौछार कर दो, वो पानी सोख ले तो तुम क्या कहोगे कि ‘स्पोंज’ ने खुद सोखा?

श्रोता : उसकी चारित्रिक विशेषता है सर, वो सोखेगा।

वक्ता : इसी तरह से मन की विशेषता है कि वो लगातार प्रभावों को ग्रहण करता रहता है। तुम्हारा मन, तुम्हारा होता ही नहीं है। वो बनता ही प्रभावों से है। जैसे ‘स्पोंज’ की विशेषता है पानी सोखना, वैसे ही मन की विशेषता है प्रभाव सोखना। इस विशेषता को मनोविज्ञान में ‘कंडीशनिंग’ कहा जाता है। तो अब तुम बचपन से इन्हीं प्रभावों को सोख रहे हो कि किसी के पैसे मार लेना अच्छी बात है। तुम बचपन में गए; दुकान पर खड़े हो, साथ में कोई थे दोस्त, यार। दुकानदार का मुहँ उधर को है, उन्होंने कहा जल्दी से ये तीन अंडे उठा ले, जेब में डाल ले। अब भले जेब में टूट जाएँ, पर डाल ले। तो लूट की तुम्हारी ट्रेनिंग बचपन से ही शुरू हो गई है, अब तुम बड़े हो कर के एक डकैती डालते हो, तो क्या ये तुम्हारी अपनी इच्छा थी। ध्यान से देखो। ये उस समाज की इच्छा थी, जिसमें तुम बड़े हुए हो। समाज ने अपनी इच्छा तुम्हारे भीतर आरोपित कर दी, तुम्हारे अनजाने में। तुम सोचते भले रहो कि मेरी इच्छा है, हर आदमी ये सोचता है कि मेरी इच्छा है, पर वो इच्छा तुम्हारी है नहीं।

अभी घोषणा हुई कि जो लोग जाना चाहते हैं जाएँ और जो रुकना चाहते हैं रुकें। क्या ये जो सब लोग गए हैं, वास्तव में जाना उन सब की इच्छा थी? पर रुकने वाले हैं शायद 15 या 20 और जाने वाले हैं 80 या 90। तो जब 80-90 लोग जा रहे हों, तो दो लोग जिनकी इच्छा भी हो रुकने की, वो क्या करते हैं? चल देते हैं साथ में। अब ये जाना क्या उनकी अपनी इच्छा है या उन पर प्रभाव पड़ा है?

श्रोता : प्रभाव पड़ा है।

वक्ता : प्रभाव पड़ा है न। इच्छा, अच्छी या बुरी नहीं होती। देखना बस ये होता है कि वो इच्छा आ कहाँ से रही है।

श्रोता : सर, बचें कैसे फिर उससे?

वक्ता : देखो ना, वो इच्छा कहाँ से आ रही है। तुम यहाँ से बाहर निकलते हो, सड़क पर एक बहुत बड़ा विज्ञापन लगा हुआ है। एक नया मोबाइल फ़ोन आया है बाज़ार में और तुमने उसको देखा और तुम घर गए और पापा से कहा कि नहीं-नहीं पैसे दो-पैसे दो, ख़रीद के लाना है। मेरी इच्छा है, मुझे नया मोबाइल फ़ोन खरीदना है। वो इच्छा तुम्हारी है या तुम्हारे भीतर आरोपित की गई है? तुमने यहाँ विज्ञापन देखा, अपने घर गए, अखबार खोला, उसमें भी वही विज्ञापन देखा। फिर टीवी चालू किया, आई.पी.एल देखा, आई.पी.एल में भी वही विज्ञापन आ रहा है। अब वो इच्छा क्या तुम्हारी है, या तुम्हारे भीतर डाली गई है?

श्रोता: अब सर, वो तो निर्भर करता है न कि मैं क्या चाहता हूँ?

वक्ता: इस बात को यदि ध्यान से देखोगे, मैं तुम्हें पहले से ही निष्कर्ष देना नहीं चाहता, पर सुन लो। जब तुम ध्यान से देखोगे, तो ये पाओगे कि तुम्हारी जितनी इच्छाएँ हैं, सब तुममें डाली गई हैं।

तुम्हारी जो सबसे करीबी इच्छाएँ भी हैं, तुम्हारी जो सबसे आंतरिक इच्छाएँ भी हैं, वो भी तुम्हारी अपनी नहीं हैं। वो भी तुम्हारे भीतर आरोपित की गई हैं, प्रत्यारोपण की गई हैं। जिसे तुम अपना लक्ष्य बोलते हो, वो लक्ष्य भी तुम्हारा नहीं है।

श्रोता: सर, तो फ़िर तो लाइफ़ बेकार है?

वक्ता: ऐसी लाइफ़ बेकार है। पर लाइफ़ कुछ और भी हो सकती है कि नहीं, वो तुम पता करो। जो जी रहे हो, ये तो बेकार है।

श्रोता: सर, हम लाइफ के बारे में जानना चाहते हैं। तो वो कहाँ से जानेंगे? अपने आस-पास से ही तो जानेंगे।

वक्ता: अपने आस-पास से जानोगे? कैसे अपने आस-पास से जानोगे?

श्रोता: सर, हमें क्या करना है?

वक्ता: जीवन कौन जी रहा है?

श्रोता: हम जी रहे हैं।

वक्ता: तुम जी रहे हो। जीवन को यदि जानना है तो आसपास से जानोगे, या जो जी रहा है, उससे जानोगे।

श्रोता: सर, तो फिर सब वीरान लगेगा सर।

वक्ता: वो वीरान है, ये कौन जान रहा है?

श्रोता: हम जान रहे हैं।

वक्ता: तुम जान रहे हो न। तो वो वीरान है, ये कहने के लिए भी तुम्हें ही जानना पड़ेगा। वो जानने वाला कौन है, उसे जानो।

श्रोता: अगर वीराने में गुम गए हैं और जानना चाहते हैं तो फिर क्या करेंगे?

वक्ता: ये जान रहे हो न कि वीराना है। इससे क्या अर्थ है कि जानने वाला मौजूद है। अगर जानने वाला सोया हो तो क्या वो ये जान सकता है कि ये वीराना है? कोई सोये आदमी को वीराने में पटक दो, क्या वो जानेगा कि ये वीराना है? नहीं जानेगा न। इतना जान रहे हो न कि वीराना है। इसी प्रकार ये भी जानो कि कौन उस वीराने को जान रहा है।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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