Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
ज्ञानयोग और कर्मयोग || (2020)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
16 min
609 reads

यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते। एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।

ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्म योगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग फल स्वरुप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ५, श्लोक ५

प्रश्नकर्ता: श्रीमद्भगवद्गीता के पाँचवें अध्याय ‘कर्म-सन्यास योग’ को आज पढ़ा मैंने। उसमें पाँचवें श्लोक का जो भावार्थ था कि ज्ञानयोग से जो स्थान प्राप्त होता है, जो परमगति की प्राप्ति होती है, वही प्राप्ति कर्मयोग से भी होती है।

कर्मयोग का सीधा अर्थ मुझे यह समझ में आता है कि जो भी कर्म है, उसे निःस्वार्थ भाव से, फल की आसक्ति से रहित होकर होने दिया जाए। और ज्ञानयोग का अर्थ मुझे यह समझ में आता है कि जो परमात्मा का तत्वज्ञान गुरु से मिलता है अथवा जो परमात्मा का तत्वज्ञान उपनिषदों में वर्णित है, उसके अनुसार जो अपनी स्थिति सतत शरीर में है, वह स्थिति स्वरूप में हो जाए। सांख्य का वही अर्थ समझ में आता है।

तो मेरा प्रश्न यही है कि जो स्थान ज्ञान योग से प्राप्त होता है, वही कर्मयोग से प्राप्त होता है और दोनों को एक ही समझना चाहिए। तो क्या केवल ज्ञान योग से उसकी प्राप्ति हो जाए तो कर्मयोग की आवश्यकता नहीं है? यह मेरा प्रश्न है।

आचार्य प्रशांत: इतनी लंबी-चौड़ी बातें और परिभाषाएँ नहीं होती हैं। ज्ञानयोग हो, कर्मयोग हो, प्रेम-भक्ति योग हो, सबका सम्बन्ध मात्र अहम् से है। अहम् ही है जो वियोगी है और अहम् ही है जिसको किसी भी प्रकार के योग की आवश्यकता है।

तो योग की जब आप बात करें, उसमें अगर अहम् का कोई उल्लेख ही न हो तो निश्चित रूप से फ़िर बात किसकी हो रही है? योग किसके लिए? योग तो वियोगी के लिए ही होगा न? और वियोगी का तो आपने कोई उल्लेख ही नहीं किया। कौन है वियोगी?

प्र: अहम्।

आचार्य: अहम्।

ज्ञान का अर्थ है कि जो वियोगी है, वह अपने-आपको वियोगी मानना ही छोड़ दे। अहम् है ही तभी तक जब तक अपूर्ण है। अपूर्णता ही वियोग है। 'मुझमें कुछ कमी है, मुझे उसमें कुछ जोड़ना है'—इसी को वियोग कहते हैं न? कुछ जोड़ दो अपनी कमी में तो शायद कमी पूरी हो जाए, शायद अपूर्णता पूर्णता में तब्दील हो जाए।

ज्ञानयोग का अर्थ होता है कि अहम् अपने-आपको अहम् मानना ही छोड़ दे। वह कह दे कि मैं अहम् तभी तक हूँ, जब तक मैं प्रकृति के पीछे, संसार के पीछे भाग रहा हूँ। मुझे भागना ही नहीं।

प्रकृति और संसार के पीछे भागने को ही कर्म कहते हैं। अन्यथा प्रकृति स्वयं जो कुछ करती है, वो तो अकर्म है; वहाँ कोई कर्ता नहीं होता।

नदी बह रही है, कुछ गति है, कुछ होता हुआ प्रतीत होता है, पर वहाँ कोई कर्ता तो होता नहीं। जीव कर्ता इसलिए प्रतीत होता है क्योंकि अहम् देह से माने प्रकृति से जुड़ गया होता है। ज्ञानयोग का मतलब हुआ: जो करेगी, प्रकृति करेगी; मैं कुछ करूँगा ही नहीं। यही कर्म-सन्यास है: मैं कुछ करूँगा ही नहीं, मैंने कर्मों से सन्यास ले लिया। करने वाला कोई और है, वह करता रहे। करने वाली त्रिगुणात्मक प्रकृति है, उसके तीनों गुणों का खेल चलता रहेगा, उसको जो करना हो, करे; मैं कुछ नहीं करूँगा।

मुझे कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं क्योंकि करने की ज़रूरत उसको हो जिसको कुछ पाना हो, अपूर्ण हो। पाने की लालसा अपूर्णता से ही उठती है, और मैं अपूर्ण हूँ ही नहीं। जब मैं अपूर्ण हूँ ही नहीं तो मुझे कुछ करना ही नहीं।

इसका मतलब यह नहीं कि मैं कर्मों को रोक दूँगा, इसका मतलब मैं कर्मों में सहभागी नहीं बनूँगा—मैं नहीं करूँगा, जो हो रहा है, वह हो—क्योंकि मेरा स्वभाव ही नहीं कुछ भी करना। मेरा स्वभाव तो निरपेक्षता है, मेरा स्वभाव तो विश्राम और आनंद है। दौड़-धूप करना, छीना-झपटी करना, होड़ करना, कहीं पहुँचने, कुछ पाने की लालसा करना मेरा स्वभाव ही नहीं है।

जो कुछ भी हो रहा होगा, मैं उससे ज़रा दूर हूँ, मुझे उसमें सम्मिलित, शरीक नहीं होना है—ये ज्ञानयोग है।

ज्ञानयोग में अहम् ने अपने-आपको कर्म से काट दिया। याद रखिएगा, कर्म रोक नहीं दिया, कर्म बाधित नहीं किया, बस यह कह दिया कर्म हो तो अपने-आप हो; हम नहीं करेंगे। न करेंगे, न रोकेंगे—यह ज्ञान योग है। ज्ञानयोग स्पष्ट हुआ? कर्ताभाव का पूर्ण त्याग। मैं कर्ता हूँ ही नहीं और यह बात बिलकुल समझ में आ गई है। मैं आत्मा हूँ और आत्मा को कुछ करना ही क्यों है? मुझे कुछ पाने को नहीं, मैं तृप्त हूँ, पूर्ण हूँ, अनंत हूँ अपने-आपमें। न पाना है, न गँवाना है, न आना है, न जाना है। यह ज्ञानयोग हुआ।

अहम् ने अपना ही त्याग कर दिया, अहम् ने इस धारणा का ही त्याग कर दिया कि वह अहम् है। अहम् एक धारणा ही है, उससे ज़्यादा कुछ नहीं। यह ज्ञानयोग हुआ, यही कर्मसन्यास भी है।

कर्मयोग क्या है?

अहम् इस धारणा का त्याग कर ही नहीं पा रहा कि कुछ कमी है, कुछ खोट है, कुछ अपूर्णता है, कुछ पाना है। जब इस धारणा का त्याग कर ही नहीं पा रहा तो वह कुछ-न-कुछ करेगा भी; क्योंकि वह अधूरा है, वह बिना करे मानेगा नहीं। जिसको कुछ समस्या दिख रही है, वह समस्या के समाधान के लिए बार-बार कुछ करता फिरेगा। जिसको लग रहा है कि वह प्यासा है, वह पानी ढूँढता फिरेगा। जिसे लग रहा है अभी वह गंतव्य से दूर है, वह दौड़-धूप करेगा ही।

तो कर्मयोग का अर्थ है कि ठीक है, मैं अहम् हूँ। बेईमानी नहीं करूँगा, अहम् भाव का त्याग मुझसे हो नहीं रहा। मैं मानता तो यही हूँ कि मैं अहम् हूँ। लेकिन फ़िर एक काम करते हैं, खेल साफ-सुथरा रखते हैं। अगर मैं अहम् हूँ तो मेरा एकमात्र लक्ष्य क्या होना चाहिए? पूरा होना। यह कर्मयोग है।

कुछ और करूँगा ही नहीं, बस वह करूँगा जो मुझे पूर्णता दिलाए। उसी परिणाम की आशा रहेगी मुझे। परिणाम की उस एक आशा को रखने को ही कहते हैं सब कर्मों को कृष्ण को समर्पित कर देना। सब कर्म मेरे एक ही लक्ष्य के लिए होंगे। उस लक्ष्य का नाम है कृष्णत्व। कृष्णत्व अर्थात पूर्णता। मैं और किसी उद्देश्य के लिए फ़िर काम नहीं करूँगा।

देखिए, साहब, मैं अहम् हूँ। ज्ञानयोग मेरे काम आया नहीं। ज्ञानयोग ने कह ही दिया कि तुम भूल ही जाओ कि तुम अहम् हो। मुझसे भुलाया जा ही नहीं रहा, मैं मजबूर हूँ। मैं कौन हूँ? मैं अहम् हूँ।

अच्छा, ठीक है, आप अहम् हैं तो फ़िर आप याद रखिएगा कि आप अहम् हैं। अगर आप अहम् हैं तो दाएँ-बाएँ का विविध प्रकार का काम आप उठा मत लीजिएगा। आप अहम् हैं तो आपको एक ही काम फ़िर शोभा देता है अब कि पूर्णता की तरफ जाओ। अपने ही मुँह से कह रहे हो कि अपूर्ण हो, अहम् हो। अगर अपूर्ण हो तो नाना प्रकार के कामों में समय क्यों ख़राब कर रहे हो अपना? जो अपूर्ण है, उसकी तो एक ही अभीप्सा होनी चाहिए: पूर्णता। तुम दस दिशाओं में अपनी ऊर्जा क्यों लगा रहे हो? यह कर्म योग है।

कर्मयोग को दो तरीके से वर्णित किया जाता है। जो करो, उसको कृष्ण को अर्पित कर दो। उसी को कहा जाता है कि जो करो, उसको निष्काम भाव से करो। ये दोनों बातें एक हैं। समझिएगा, कामना सदा अधूरी होती है, अधूरी चीज़ की करी जाती है, छोटी चीज़ की करी जाती है। अब अहम् है अपूर्ण, उसको कोई छोटी चीज़ चाहिए क्या? उसको तो कुछ ऐसा चाहिए न जो उसको भर ही दे, छलछला दे उसको बिलकुल। तो फ़िर कामना से काम नहीं चलेगा, कामना तो हमेशा किसी छोटी चीज़ की होती है: जूता मिल जाए, लड्डू मिल जाए, घर मिल जाए, गाड़ी मिल जाए, इज़्ज़त मिल जाए, प्रशंसा मिल जाए। कामना इन्हीं चीजों की होती है न?

कर्मयोग का मतलब हुआ कि अब जब तुम अपने-आपको अहम् कह रहे हो तो अब बस एक ही कामना करना। कौन सी कामना? पूर्ण होने की। छोटी-मोटी कामना मत करना। छोटी-मोटी कामनाओं के त्याग को निष्कामता कहते हैं।

निष्कामता का अर्थ यह नहीं है कि अब कुछ नहीं चाहिए। निष्कामता का अर्थ है: अब बस पूर्ण ही चाहिए, उससे नीचे का कुछ नहीं चाहिए। उससे नीचे का अगर कोई लक्ष्य होगा तो हम छोड़ देंगे उसको। उसके नीचे की कोई कामना आएगी तो हम ध्यान ही नहीं देंगे उस पर। सब छोटी कामनाओं की उपेक्षा करते चलेंगे। जितनी भी छोटी-मोटी कामनाएँ आएँगी, उनकी अवहेलना करते चलेंगे, क्योंकि छोटी-मोटी कामना से मेरा काम बनना नहीं है। मेरी माँग बहुत बड़ी है। क्या है मेरी माँग? पूर्णता। उससे नीचे का कुछ चलेगा ही नहीं, भाई।

सब कर्मों को कृष्ण को समर्पित करने का अर्थ क्या हुआ? सब कर्म एक ही लक्ष्य के लिए हो रहे हैं। कृष्ण माने जो विराट है, जो अनंत है। निष्कामता का क्या अर्थ हुआ? छोटी-मोटी कामनाओं से कुछ लेना-देना नहीं। ये दोनों बातें एक हैं। समझिएगा।

कृष्ण को सब कर्मों का फल अर्पित करने का मतलब हुआ सब कर्म एक ही लक्ष्य के लिए करूँगा। और कोई लक्ष्य सामने आएगा तो ठुकरा दूँगा।

लक्ष्य है शारीरिक सुख मिल जाएगा। मैं कहूँगा कि इस लक्ष्य के पीछे हमें जाना ही नहीं है, इस लक्ष्य से मुझे कोई लाभ नहीं। कोई आएगा, कहेगा, “ये काम करो, इस काम से फ़लाना सुख मिलेगा।”

मैं पूछूँगा, “ठीक है, फ़लाना सुख मिलेगा। यह बताओ कि पूर्णता मिलेगी, मुक्ति मिलेगी, कृष्ण मिलेंगे?”

वह कहेगा, “नहीं, पूर्णता तो नहीं मिलेगी, कृष्ण तो नहीं मिलेंगे, दो लाख रुपये मिल जाएँगे।”

“नहीं, रुपए की मुझे अभी कोई विशेष ज़रूरत है नहीं। जिसकी है, वह मुझे दे सकते हो, तब तो मैं यह काम करूँगा; नहीं तो नहीं करूँगा। मैं वही काम उठाऊँगा जो मेरे काम का हो।” बात तो सीधी-सादी है न? मैं काम वो करूँगा जो मेरी ज़रुरत को पूरा करे।

कर्मफल कृष्ण को समर्पित करना और निष्कामभाव से कर्म करना, दोनों बिलकुल एक ही बात हैं। जब कहते हो कि कृष्ण चाहिए तो कहते हो कि ऊँचे की तरफ़ जाना है। जब कहते हो कि निष्काम कर्म करना है, तब कहते हो कि नीचे के लक्ष्यों पर ध्यान नहीं देना है।

दोनों एक ही बात तो हुई न? तो ज्ञानयोग और कर्मयोग में अंतर समझ में आया?

ज्ञानयोग उच्चतम है तकनीकी दृष्टि से। सैद्धांतिक रूप से देखो तो ज्ञानयोग से ऊँचा कुछ है ही नहीं। ज्ञानयोग कह रहा है कि लंबा-चौड़ा कोई प्रयत्न करने की ज़रूरत ही नहीं। तुमने अपने-आपको अहम् मान रखा है, तुम यह मानना छोड़ दो, खेल ख़त्म। उसके बाद जो होगा सो होगा, तुम्हें कुछ करना ही नहीं है; तुम न कर्ता, न भोक्ता। तुम गए।

कर्मयोग थोड़ा ज़्यादा व्यावहारिक है। कर्मयोग कहता है कि इतना आसान है ही नहीं तुम्हारे लिए अपने-आपको अहम् भाव से मुक्त कर देना। तुम्हें कितना भी समझाया जाए कि तुम अहम् नहीं आत्मा हो, यह बात तुम्हारे व्यवहार में उतरेगी ही नहीं। तो ऐसा करते हैं कि थोड़ा ज़्यादा सरल समाधान निकालते हैं। तुम्हारे लिए सरल उपाय यह है कि तुम कर्म करो; क्योंकि जो अहम् मान रहा है अपने-आपको, वो तो कर्म करेगा; अहम् की मजबूरी है कर्म करना। तुम कर्म करो पर छोटा कर्म मत करो; तुम कर्म करो पर क्षुद्रता से भरा कर्म मत करो—कर्म में एक विराटता हो।

फ़िर कृष्ण अर्जुन से स्वयं ही कहते हैं कि “देखो, दोनों का फल तो एक ही होता है, ज्ञानयोग का और कर्मयोग का, लेकिन इन दोनों में से श्रेष्ठ कर्मयोग ही है।“ क्यों कह रहे हैं कर्मयोग को श्रेष्ठ, जब दोनों का फल एक ही है? व्यावहारिक है। ज्ञानयोग बहुत ऊँचा है पर तुम्हारे करे होगा नहीं। और बल्कि ज़्यादा ज्ञानी बनोगे तो पाखंडी हो जाओगे। कहते फिरोगे, “मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ,” और ख़याल करोगे कि रसगुल्ला कहाँ है।

तो ज्ञान योग में यही होता है, सब घूम रहे होते हैं ब्रह्म बनकर, आत्मा बनकर ऊपर-ऊपर से और अंदर से अहम् भाव पूरा मौजूद होता है।

तो कृष्ण ने पहले ही कह दिया, “अर्जुन, देख, लेने-देने की बात करते हैं। ज्ञानयोग तेरे बूते का नहीं है। अहम् भाव तुझमें सघन है। तू एक काम कर, तू काम कर। बस छोटा काम मत कर; मुझे स्मरण रखते हुए काम कर। पूछा कर अपने-आपसे बार-बार कि मैं जो कर रहा हूँ, उसमें कृष्ण जैसा वैराट्य है क्या? मैं जो कर रहा हूँ कृष्ण के समक्ष भी करूँगा क्या? छुटपन में जीना छोड़।” स्मॉल लाइफ (क्षुद्र जीवन) नहीं बिग लाइफ (विराट जीवन)।

प्र२: आचार्य जी, प्रणाम। ज्ञान योग और कर्म योग में इतना अंतर क्यों बनाया गया है? क्या ये अलग-अलग समय या अलग-अलग व्यक्तित्व के लिए बनाया गया है?

आचार्य: हम अलग-अलग हैं इसलिए।

प्र२: आचार्य जी, ऐसा भी हो सकता है कि ज्ञानयोग और कर्मयोग साथ-साथ चल रहा हो?

आचार्य: ऐसा हो सकता है कि तुम अपने-आपको अहम् मानो भी और नहीं भी मानो? ज्ञानयोग उनके लिए है जो अहम् भाव का त्याग कर दें, कर्मयोग उनके लिए है जिनका अहम् भाव छूट नहीं रहा। तो ऐसा हो सकता है कि तुम दोनों ही श्रेणियों में हो? नहीं हो सकता न? हाँ, फल दोनों का एक ही होता है। कर्मयोगी की अहंता स्वयं ही धीरे-धीरे क्षीण होने लगती है।

यह मज़ेदार बात है, अहम् कहता है: ‘मुझे चाहिए, मुझे चाहिए,’ पर चाहने के फलस्वरूप कुछ बड़ा मिल जाए तो झेल नहीं पाता। कहता खूब है कि मुझे चाहिए, मुझे चाहिए, पर उसे जो कुछ चाहिए, छोटा-छोटा चाहिए। कुछ बड़ा मिल गया तो ख़त्म हो जाता है।

जैसे आग लगी हो और आग में अगर आप थोड़ी लकड़ी, थोड़ा कोयला डालें तो आग और भभकेगी। और आग लगी है और बोल रही है: ‘मुझे लकड़ी दो, मुझे कोयला दो’, और आप ला करके पूरा जंगल डाल दें उसके ऊपर, तो क्या होगा? तो आग बुझ जाएगी। यह कर्मयोग है।

“तुझे चाहिए था न? ले, अब छोटा नहीं दूँगा तुझे, अब बड़ा दूँगा। इतना दूँगा कि तुझसे पचेगा ही नहीं, तू ख़त्म हो जाएगा।“ अहम् हमेशा मुँह खोले भिखारी की तरह माँगता रहता है कि और दो, और दो। उसे इतना दे दो कि उसको हृदयाघात आ जाए, कि इतना मिला कि हार्टअटैक आ गया, वो मर गया।

यह जानते हो न कि अगर कोई मध्यम आयवर्ग का आदमी हो और उसकी लॉटरी लग गई हो तो उसको एक झटके में नहीं बताया जाता? गड़बड़ हो जाएगी उसे यदि बता दिया जाए कि सौ करोड़ की लग गई है। वो बचेगा ही नहीं सौ करोड़ के लिए। तो उसको पहले बताते हैं कि तेरे पच्चीस लाख आ रहे हैं, फ़िर दो दिन बाद बताओ पच्चीस और आ रहे हैं, फ़िर थोड़ा और आ रहा है, फ़िर थोड़ा और आ रहा है, तो वो पी जाएगा।

हम इतने छोटे लोग हैं कि हमें हमारा अभीष्ट भी छोटा ही चाहिए। इसीलिए हमने जो लक्ष्य रचे हैं, यहाँ तक कि अपने सब देवी-देवता रचे हैं, वो भी छोटे-ही-छोटे हैं। ब्रह्म मात्र अनंत है। बाकी हमने जब भी अपने लिए कुछ माँगा है, छोटा-ही-छोटा माँगा है। हम इतने छोटे लोग हैं!

कर्मयोग कहता है कि “दूँगा, बहुत सारा दूँगा। तू माँगने के लिए मुँह खोल, मैं तेरे मुँह में पूरा ब्रह्माण्ड दे दूँगा, क्योंकि तू माँगेगा तो है ही, तेरी अहम् भावना बड़ी सघन है। तेरी ज़िद्द है अपूर्णता। तो ले! और चाहिए? और ले!” यह अच्छा तरीका है।

उसे बार-बार कहो कि ‘मत माँग, मत माँग’, तो वो मानेगा ही नहीं। ज्ञानयोग क्या सिखाता है उसे? मत माँग। ज्ञानयोग ने खूब सिखाया है कि मत माँग, मत माँग। वह माँगना छोड़ ही नहीं रहा है, वह माँगे जा रहा है।

कर्मयोग क्या करता है? माँग, और माँग। ऐसा देंगे फल कि फल खाने वाला बचेगा ही नहीं। वही कर्म कर जिसके परिणाम स्वरूप कृष्ण मिलते हों।

जो भी कर्म करें आप, लगातार पूछते रहें अपने-आपसे कि, “मुक्ति मिलेगी इससे? नहीं मिलेगी तो कर क्यों रहा हूँ? यह मैं लगा हुआ हूँ चार घण्टे से कुछ करने में, यह जो कर रहा हूँ, यह मुक्ति की दिशा में सहायक होगा? होगा तो तन-मन से करूँगा और नहीं होगा तो बिलकुल उठ खड़ा हो जाऊँगा कि नहीं करना है यह काम। इससे मुझे क्या मिलना है?”

मैं अहम् हूँ, भाई। अहम् को क्या चाहिए? पूर्णता। मैं वियोगी हूँ, मुझे क्या चाहिए? योग। और मैं कर क्या रहा हूँ? मैं चार घण्टे से आलू तुलवा रहा हूँ। जब योग नहीं मिलना इससे तो यह काम करना ही नहीं।

सब काम को परखने का एक ही मापदंड। क्या? योग मिलेगा? योग मिलेगा तो जूझकर करेंगे, उस काम की ख़ातिर प्राण दे देंगे और नहीं मिलेगा तो ज़रा-सा नहीं करेंगे। यह कर्मयोग है। अहंता धीरे-धीरे क्षीण होती जाती है। ज्ञानयोग से जो फल मिलता है, वह कर्मयोग से मिल जाता है।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles