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गुरु से सीखें या जीवन के अनुभवों से? || आचार्य प्रशांत, आजगर गीता पर (2020)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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इदमिदमिति तृष्णयाऽभिभूतं जनमनवाप्तधनं विषीदमानम् ।

निपुणमनुनिशाम्य तत्त्वबुद्ध्या व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ।।

जो ये मिले, वो मिले—इस तरह तृष्णा से दबे रहते हैं और धन न मिलने के कारण निरंतर विषाद करते हैं, ऐसे लोगों की दशा अच्छी तरह देख कर तात्विक बुद्धि से संपन्न हुआ मैं पवित्र भाव से इस आजगर-व्रत का आचरण करता हूँ।

(अजगर गीता, श्लोक 28)

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अपगतभयरागमोहदर्पो धृतिमतिबुद्धिसमन्वितः प्रशान्तः ।

उपगतफलभोगिनो निशाम्य व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥

मेरे भय, राग, मोह और अभिमान नष्ट हो गए हैं। मैं धृत, मति और बुद्धि से संपन्न एवं पूर्णतया शांत हूँ और प्रारब्धवश स्वतः अपने समीप आई हुई वस्तु का ही उपभोग करने वालों को देखकर मैं पवित्र भाव से इस आजगर-व्रत का आचरण करता हूँ।

(अजगर गीता, श्लोक 31)

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अपगतमसुखार्थमीहनार्थै रुपगतबुद्धिरवेक्ष्य चात्मसंस्थम् ।

तृपितमनियतं मनो नियन्तुं व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥

जिनका परिणाम दु:ख है, उन इच्छा के विषयभूत समस्त पदार्थों से जो विरक्त हो चुका है, ऐसे आत्मनिष्ठ महापुरुष को देखकर मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया है। अतः मैं तृष्णा से व्याकुल और असंयत मन को वश में करने के लिए पवित्र भाव से इस आजगर-व्रत चरण करता हूँ।

(अजगर गीता, श्लोक 33)

✥✥✥

प्रश्न: ब्राह्मण ने दूसरों को देखकर सीख ली है, परंतु मेरा मानना है कि यदि स्वयं अनुभव करें तो बेहतर सीख पाएँगे। क्या करें? संतों को देखकर जीवन में बदलाव किया जाए, या अंतस से बदलाव होना बेहतर है?

आचार्य प्रशांत: तुम क्या करोगे? अपनी आँखें मूँद लोगे? अगर तुम्हारे सामने ज़िंदगी संतों -ज्ञानियों को लाती है, तो तुम ज़बरदस्ती उनकी तरफ़ पीठ कर लोगे? सीखते सब जीवन से ही हैं। संतों से, ज्ञानियों से, गुरुओं से भी तुम्हारा जो साक्षात्कार होता है, वो जीवन का ही तो हिस्सा है।

तुम अजीब बात करते हो। तुम कहते हो, "नहीं, मैं ज्ञानियों से नहीं सीखूँगा, मैं जीवन से सीखूँगा।” मतलब क्या है इस बात का? जीवन तुम्हारा साक्षात्कार करा देता है, सामना करा देता है शराबियों से, कबाबियों से, उनका प्रभाव तुम अपने पर पड़ने देते हो। तब तो तुम नहीं कहते कि, “मैं इनका प्रभाव अपने ऊपर नहीं पड़ने दूँगा।” ठीक? माने शराबी-कबाबी सब मिल जाएँ तुमको तो इनको तुम जीवन का प्राकृतिक हिस्सा मानते हो, कहते हो, "ये तो जीवन है। मैं जीवन जी रहा हूँ।" और वही जीवनयात्रा तुम्हारी तुमको किसी गुरु के, किसी ज्ञानी के पास ले जाती है, तो तुम कहते हो, "नहीं, गुरु से नहीं, जीवन से सीखूँगा।” ये बड़ी अजीब बात है।

अरे, वो गुरु भी तो तुम्हें जीवन ने ही मुहैया कराया है। या वो जीवन से बाहर का है? तुम्हें गुरु क्या किसी और अंतरिक्ष में मिला है, या मरने के बाद मिला है? जी ही रहे थे, यूँ ही कोई मिल गया सरे राह चलते-चलते। गुरु वैसे भी कौन-सा तुमने अपनी बुद्धि से चुना है। ये तो तुम्हारे साथ संयोग हो गया, एक तरह की दुर्घटना हो गई कि तुम गुरु के पल्ले पड़ गए। जैसे तुम्हारे जीवन में हज़ार दुर्घटनाएँ होती हैं, वैसे ही एक घटना ये भी घट गई अकस्मात, कि तुम गुरु के संपर्क में आ गए।

तुम्हें अगर पूरी ख़बर पता होती, तुम्हें भली-भाँति पता होता कि गुरु के संपर्क में आकर तुम्हारे साथ क्या-क्या खौफ़नाक चीज़ें होने वाली हैं, तो तुम कभी गुरु के पास आना कबूलते या चुनते? वो तो तुम्हें कुछ पता नहीं था। जैसे धोखे से तुम्हारे साथ इतनी चीज़ें हो जाती हैं, वैसे ही धोखे से तुम्हारे साथ ये भी हो गया कि तुम गुरु के संपर्क में आ गए। वहाँ भी तुमने सोचा होगा कि, "गुरु है, बढ़िया है। कुछ मज़ा-वज़ा आएगा, कुछ होता होगा, तबला बजाएँगे, खीर खाएँगे," तो आ गए तुम टहलते हुए। फिर बाद में पता चला धीरे-धीरे; पता ही चलता जा रहा है बच्चू को कि मामला ख़तरनाक है। खीर तो पता नहीं, यहाँ तो रोज़ भगौना बजता है टनाटन।

ज़िन्दगी इतने सारे तुमको संयोग देती है, उन्हीं संयोगों में से एक संयोग का क्या नाम है? गुरु, या ज्ञानी, या संत, या तत्वदर्शी। तुम बिल्कुल ही मूर्ख होगे अगर ज़िंदगी जो कूड़ा-कचरा तुम्हें देती है उसको तो तुम 'ज़िंदगी' बोलकर स्वीकार कर लो।

कभी सड़क पर चल रहे थे, किसी ने गाली दे दी, कहोगे, "लाइफ़! ये तो ज़िंदगी है!" और सड़क पर चल रहे थे, वहाँ किसी ने तुम्हें कोई दो-चार पते की बातें बता दीं, तो कहोगे, "नहीं! तुझसे नहीं सीखूँगा, मैं ज़िंदगी से सीखूँगा।” काहे भैया? जब कोई तुम्हें गाली दे और जूता मारे, तभी ज़िंदगी है? और कोई तुम्हें ज्ञान दे दे, तो ज़िंदगी नहीं कहलाती वो? वो क्या कहलाती है फिर? तुम्हारी हुनरमंदी! तुम तो तुम हो न! तुम इस तरह के सवाल ना करो, तो गुरुओं में बेरोज़गारी ना फैल जाए? तुम ऐसी बातें उछालोगे, तभी तो फिर बेचारे गुरु लोगों को कुछ काम बचेगा, उनके ऊपर कुछ बोझ बना रहेगा। ये जो जमात है, ये बहुत बड़ी है, जो कहते हैं, "हम जीवन और अनुभवों से सीखेंगे।” ये मुझे समझ में ही नहीं आती।

तुम अनुभव किसको बोलते हो? तुम कुछ सुनते हो, ये अनुभव है या नहीं है? तुम कुछ देखते हो, ये अनुभव है या नहीं है? तो तुम गधे का रेंकना सुन लो, इसको तुम 'अनुभव' बोलते हो। पर तुम उपनिषदों की वाणी सुन लो, इसको तुम अनुभव नहीं मानते? उपनिषदों की वाणी तुम्हारे पास आती है, तुम कहते हो, "नहीं, ये नहीं सुनूँगा, मैं तो अनुभव से सीखूँगा।” अनुभव माने बस यही कि - गधा रेंके और दो लात मार दे, तो वो अनुभव है। वो तुम कहते हो ‘लाइफ़’ है, ‘अनुभव’ है। और तुम्हें कोई मिल जाए कृष्ण, अष्टावक्र, कबीर, वो तुमको कुछ ज्ञान बता दें, तुम कहोगे, "नहीं, ये अनुभव नहीं है।” ये अनुभव नहीं है तो ये क्या है फिर? ये क्या है? बताओ तो।

तुम्हें पता है तुम्हारी बात कैसी है? तुम्हारी बात ऐसी है कि कई बार जैसे मैं बोल रहा होता हूँ, तो वो रिकॉर्डिंग गई, लोगों के पास पहुँची , तो लोगों की प्रतिक्रिया आती है। वो कहते हैं, “गुरु जी, हिंदी में बोला करिए।” मैंने हिंदी ही बोली है! पर अगर कोई हिंदी उस तरह की बोले कि - "यू नो, गुरु जी बी लाइक!", "मैं तो बोल रहा था बट तुम तो समझे नहीं," तो ये तुम्हारी नज़र में हिंदी है। और मैं अगर तुमसे बोलूँ कि, "बेटा, समझ जाओ। शांति और तृप्ति तुम्हारे फूहड़पन, तुम्हारी बेवक़ूफ़ी में नहीं है," तो ये तुमको किसी और आकाशगंगा की भाषा लगती है।

ये तुम्हारी दिक़्क़त है कि जितनी भी घटिया चीज़ें होंगी, उनको तुम मान लोगे कि ये भाषा है और ये जीवन है, और जितनी भी ऊँची चीज़ें होंगी, उनको तुम कह दोगे कि - "ना ये भाषा है और ना ही जीवन है।" घटिया भाषा को तुम भाषा मानोगे, शुद्ध भाषा को तुम कह दोगे, "ये तो अजूबा है। पता नहीं क्या है।” समझने से ही इंकार कर दोगे, मज़ाक बना दोगे।

ये तुम्हारे सब सामान्य लोग और तुम्हारे सिनेमा के पात्र, जो भाषा बोल रहे होते हैं, वो कोई भाषा है ही नहीं; वो जानवरों का शोर है। पर उसको तुम बोल देते हो कि - "ये हिंदी है।"

"यू नो, आइ वाज़ तो गोइंग देयर," ये तुम्हारी नज़र में भाषा है। और मैं जो बोलता हूँ, उसको तुम बोलते हो, "गुरु जी, हिंदी कब बोलोगे?" तुम्हारी बात भी तुम्हारी जगह बिल्कुल सही है, क्योंकि अगर तुम्हारी नज़र में वो हिंदी है तो मैं जो बोल रहा हूँ वो तो कुछ और ही होगी। समझ में ही नहीं आएगा कि ये बोल क्या गए।

एक सज्जन थे, उनके पास मेरा अंग्रेज़ी का वीडियो पहुँचा तो वहाँ से उनका बड़ा रूष्ट-सा संदेश आया। बोले, "भारत है, यहाँ ज़्यादातर लोग हिंदीभाषी हैं, आप अंग्रेज़ी में बोलते ही क्यों हैं? आप हिंदी बोला करें।” जिन स्वयंसेवक के पास उनका संदेश आया कि - “ये आचार्य जी अंग्रेज़ी में क्यों बोलते हैं हिंदुस्तानी होते हुए,” उन्होंने जिस विषय पर वो अंग्रेज़ी वाला वीडियो गया था, उसी विषय पर हिंदी वाला वीडियो भेज दिया। थोड़ी देर में उनका संदेश आता है, कहते हैं, "नहीं, अंग्रेज़ी ठीक है, अंग्रेज़ी वाला ही भेजा करिए। अंग्रेज़ी ही ठीक है।” ये तुम्हारा हाल है।

कोई भी शुद्ध चीज़ तुम्हारे लिए अग्राह्य हो जाती है। ज़िंदगी के घटिया अनुभवों को तो तुम 'अनुभव' बोलते हो, और ज़िंदगी के ऊँचे और सुंदर अनुभवों को तुम 'अनुभव' ही नहीं बोलते। उनको तुम न जाने क्या बोलते हो।

उनको तुम जाने 'पाखंड' बोलते हो, या कुछ और बोलते होंगे — सपना बोल देते होंगे कि, “ये अनुभव नहीं, ये तो सपना है, ऐसा तो होता ही नहीं।” इससे तुम्हारी हीनभावना का भी पता चलता है कि — तुम्हें कोई जूता मारे तो उसको तो तुम बोलते हो कि एक्सपीरियंस हुआ, पर तुम्हें कोई प्यार से समझाए, तो उसको तुम कह देते हो, "नहीं नहीं, ये तो कुछ और ही है।”

जिस आदमी में आत्मसम्मान होगा, वो तो ये कहेगा न कि जब मुझे ऊँचे-से-ऊँचा कुछ मिल रहा है, वो हुआ कुछ अनुभव। ठीक? जिसमें आत्मसम्मान होगा, वो कहेगा, "कोई ऊँचा मिला अगर तो मैं उसको एक्सपीरियंस मानूँगा।”

तुम्हारे साथ उल्टा चलता है। ज़िन्दगी की जितनी निकृष्ट चीज़ें हैं, उनको तो तुम तुरंत मान लेते हो कि ये क्या है? अनुभव। और ऊँची चीज़ों को अनुभव मानते नहीं। इससे पता चलता है कि तुम्हारी आत्म-धारणा कैसी है। तुम ख़ुद को ही बड़ा गया-गुज़रा समझते हो।

समझ में आ रही है बात?

संसार सब कुछ देता है तुम्हें; संसार में सब कुछ उपलब्ध है। भूल-भुलैया है अगर संसार, तो संसार में ही उससे निकलने का दरवाज़ा भी है। अब ये थोड़े ही करोगे तुम कि जो भूल-भुलैया है पूरी, उसको तुम कह दो कि - "संसार है," और जो दरवाज़ा है, उसको तुम कह दो कि - "नहीं, ये बेईमानी है।" भूल-भुलैया में फंसने को स्वीकार कर लेते हो और भूल-भुलैया से निकलने के लिए जो दरवाज़ा है, उसको तुम कह देते हो, “ये बेईमानी है," या कुछ और है।

संसार में ही विवेक से अपने अनुभवों का चयन करना पड़ता है। चयन कैसे करना पड़ता है? ठीक है, संयोगवश तुम्हारे सामने एक चीज़ आ गई दाईं तरफ़ और एक चीज़ आ गई बाईं तरफ़।

ये बात सही है कि हो सकता है तुम्हारे सामने दो रास्ते खुल गए हैं: एक दाईं तरफ़, एक बाईं तरफ़; ये बात संयोग की हो सकती है। लेकिन तुम दाएँ को चुनते हो या दाएँ को चुनते हो, ये बात तो विवेक की है न। ये तो तुम्हारा जीवन, तुम्हारा विवेक निर्धारित करेगा।

संयोग तो तुम्हारे सामने बस खेल का मैदान खड़ा करता है। उस मैदान में जीतोगे या हारोगे या कैसे करोगे, ये तुम पर निर्भर करता है। संयोग तो तुम्हारे सामने बस चौराहे खोल देता है। उन चौराहों में से कौन सी राह चुनोगे तुम, ये तुम पर निर्भर करता है। सही राह चुनो। उसी सही राह का नाम अध्यात्म है, ज्ञान है, संत है, गुरु है—जो बोलना चाहो वो बोलो।

बात समझ में आ रही है?

और बाकी सब फालतू की राहें हैं। अगर तुम्हें वो हीं चुननी हैं, तुम्हें वही सब अनुभव लेने हैं, तो तुम लेते रहो। तुम्हारी मर्ज़ी है।

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