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इच्छाशक्ति वासना की पीड़ा, आत्मबल आत्मा की क्रीड़ा || आचार्य प्रशांत (2015)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जो आत्मबल है उसमें आत्म का तो पता है, पर यह बल कहाँ से आएगा?

आचार्य प्रशांत: आत्मा का बल कभी आत्मा स्वयं प्रदर्शित करने नहीं आती। वो अपना बल किस पर प्रदर्शित करे, उसके अतिरिक्त तो कुछ है नहीं। तो आत्मा कभी स्वयं नहीं आएगी अपने बल का उपयोग करने के लिए। आत्मबल मानसिक बल है। आत्मा का बल मन के द्वारा अभिव्यक्त होता है। आत्मा का बल तुम्हारी संकल्पशक्ति के रूप में दिखाई देता है।

पर यहाँ पर बात को समझने की ज़रूरत है। तुम्हारे ज़्यादातर संकल्प आत्मा से नहीं आते। शाम का समय है, तुम संकल्प ले सकते हो, ‘ठंड ख़ूब है, आज ज़रा बैठ कर शराब पी जाए, फिर उत्तेजनाओं के मज़े लिए जाएँ'। यह संकल्प ले लिया पर यह आत्मा से नहीं उठा, यह संकल्प तो अहंकार से उठ रहा है। इसके पीछे कारण है।

एक दूसरा संकल्प भी होता है, जिसके पीछे कोई कारण न हो। जिसके पीछे जब देखो तो कुछ दिखाई न पड़े। समझ में ही न आ रहा हो कि मन क्यों इस दिशा में जा रहा है। पूरी ताकत से खोजने, सोचने के बाद भी दिखाई न पड़ रहा हो कि क्यों इधर को जा रहे हैं। और स्थिति ऐसी आ गयी हो कि खोजने, सोचने में कोई सार भी न दिखाई पड़ता हो। पता ही चल गया हो कि कितना खोजो, कितना सोचो, इसके पीछे क्या है, कभी दिखाई पड़ेगा नहीं।

यह दोनों घटनाएँ एक साथ घट रही हों — पहला, संकल्प भी उठ रहा है; दूसरा, उस संकल्प के पीछे का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ रहा। बड़ा सहज संकल्प है। न उसका आगा है, न उसका पीछा है। पीछा नहीं है, यह तो समझ रहे हो। पीछा नहीं है माने कारण नहीं है, आगा भी नहीं है। आगा नहीं है, इससे क्या अर्थ हुआ? आगा नहीं है, इससे यह अर्थ हुआ कि कोई वादा भी नहीं है, फिर भी निभा रहे हैं।

पीछे क्या होता है? कारण। तुम यदि कोई कर्म करते हो, उसके पीछे क्या होते हैं? कारण। और आगे के लिए जब कोई कर्म निर्धारित करते हो, तो वहाँ क्या होते हैं? वादें, आश्वासन, उम्मीदें। न कोई उम्मीद है, न किसी से किया कोई वादा निभाना है, फिर भी उस दिशा में चले ही जा रहे हैं।

याद रखना अपनेआप से भी यह वादा नहीं किया है कि सदा इधर को चलते ही रहेंगे। उदाहरण देता हूँ। मनजीत (संस्था में एक स्वयंसेवक) एक दिन रात में अकेले आया। तो हम लोग अपना ज़रा आधी रात के बाद दो बजे चाय पीने के लिए निकले। मैं था और मनजीत था। हम ही दोनों थे, ख़ूब कोहरा था। मनजीत ने कहा, ‘आचार्य जी, मैं अपने घर गया था। घरवाले कह रहे थे कि तू चल नहीं पाएगा इस रास्ते पर। कभी-न-कभी तुझे हार माननी पड़ेगी, रुकना पड़ेगा। तू जितनी बातें बोल रहा है, हमें ठीक लग रही हैं, पर ये बातें व्यवहारिक नहीं हैं। कभी-न-कभी तू टूट जाएगा।’ — मैं सुनता रहा।

फिर बोला, ‘आचार्य जी, वो कह रहे होते तो कह रहे होंते, मुझे भी लगता है कि मैं कब तक चलूँगा। मुझे डर लगता है। मुझे लगता है कि कभी-न-कभी मैं हार मान जाऊँगा।’ मैंने कहा, ‘तुम हार मान जाओगे, इसके लिए तुम्हें कोई युद्ध दिखाई देना चाहिए। इसके लिए तुम्हें कल्पना करनी पड़ेगी। इसके लिए तुम्हारे पास भविष्य की कोई छवि होनी चाहिए, तुम्हारे पास कोई वादा होना चाहिए। तुम्हारे मन में तभी यह कल्पना उठ सकती है कि मेरा वादा पूरा नहीं हो पाया या मेरी उम्मीद पूरी नहीं हो पायी।’

वो बोला, ‘आचार्य जी, कल का पता नहीं कि कहाँ नौकरी करूँ, कहाँ जाऊँ, क्या करूँ और शादी-ब्याह भी करना पड़ सकता है।’ मैंने कहा, ‘अब तुम आ रहे हो मुद्दे पर। तुमसे कहा किसने है यह वादा करने को कि तुम यह सब नहीं करोगे। और तुम यह क्यों सोचते हो कि आज यहाँ होने का अर्थ है, आगे के लिए कोई प्रण ले लेना। तुमसे कौन कह रहा है कि आगे के लिए कोई कसम उठाओ। तुम आज में पूरे रहो, मेरी बस तुमसे इतनी इच्छा रहती है। तुमसे कह कौन रहा है कि तुम लगातार इस पर चलो।’

पर यह डर हमारे यहाँ बहुत लोगों को रहता है। वो जब भी भविष्य की ओर देखते हैं, उन्हें यही दिखाई देता है कि एक-न-एक दिन तो आएगा जब हमें अद्वैत से या आचार्य जी से टूटना पड़ेगा। यहाँ कोई ऐसा नहीं बैठा होगा जिसने अगर आगे का सोचा हो, तो उसको यह ख़्याल न आया हो कि सदा तो नहीं रह सकता, कि यहाँ रहना सुंदर है पर सपने की तरह सुंदर है, कभी टूटेगा ज़रूर।

और, तुमने बहुत लोगों को जाते भी देखा है। तो तुम्हें यह ख़्याल अपने लिए भी आता होगा कि एक-न-एक दिन हमारी भी विदाई हो ही जाएगी। मैं नहीं कह रहा हूँ कि तुम्हारी विदाई कभी होगी कि नहीं होगी, मैं कह रहा हूँ, ‘यह ख्याल ही गड़बड़ है कि आगे क्या होगा।'

मेरी बात को समझना।

यह ख़्याल ही सहज संकल्प में बाधक है। कैसे? समझो, यदि तुम्हें यह बार-बार ख़्याल आता रहा कि भविष्य के किसी बिंदु पर तुम्हें हट जाना है, यदि तुम्हें यह बार-बार ख्याल आता रहा कि मैं कितनी भी बार बुधवार को और रविवार को आचार्य जी के पास चला जाऊँ, एक बुधवार तो ऐसा ज़रूर आएगा जिस दिन मैं नहीं जाऊँगा। एक रविवार तो ऐसा ज़रूर आएगा जो मेरा आख़िरी रविवार होगा। उसके बाद मैं कहीं और चला जाऊँगा, कुछ और करूँगा।

यह जो तुम्हारे मन में ख़्याल आ गया, यह भविष्य का ख़्याल है। तुम्हारे मन में यदि आ गया, तो तुम आज भी नहीं आ पाओगे। टूट गया सहज संकल्प!

बात समझ रहे हो, मैं क्या कह रहा हूँ?

सहज संकल्प में आगे का कोई ख़्याल नहीं हो सकता। जब आगे का ख़्याल होता है, तब आज कर पाने का बल क्षीण हो जाता है। इसी को मैं आत्मबल कह रहा हूँ। जब पीछे कोई कारण नहीं और आगे कोई उम्मीद नहीं, तब जो काम करते हो उसके पीछे बल आत्मा का होता है। मन का बल या तो संस्कारों का होगा या लालच का होगा। मन का बल इन दो जगहों से निकलता है। मन के पास भी बल होता है, ख़ूब बल होता है। ऐसा नहीं है कि मन के पास बल नहीं है। मन माने अहंकार — उस अर्थ में मन की बात कर रहा हूँ। उसके पास भी ख़ूब बल होता है।

तुम्हें अगर अभी पता चल जाए कि कहीं पर तुम्हारे लिए दस करोड़ रखे हुए हैं, तो तुम अपनी पूरी ताकत से दौड़कर जाओगे वहाँ। वहाँ भी बल है। पर वो जो बल है, वो लालच का बल है। उसमें समय है, लोभ है, डर है।

एक दूसरा बल होता है, वो आत्मा का बल है, जो मन के माध्यम से प्रदर्शित हो रहा है। उसमें आगा-पीछा, लालच, डर, कुछ नहीं होता। उसमें बस सहजता होती है कि कर रहे हैं। पर क्यों कर रहे हैं? किसी वजह से नहीं कर रहे हैं, आगे की सोच के नहीं कर रहे हैं। सच तो यह है — मैं दुहरा रहा हूँ इस बात को — कि अगर आगे-पीछे की सोचोगे तो वर्तमान में जो करना है, वो बाधित हो जाएगा। और वर्तमान का करना बाधित होता ही इसीलिए है क्योंकि तुम आगे-पीछे की सोच रहे होते हो।

अभी थोड़ी देर पहले मैं कह रहा था कि हम लोग बैठ कर वहाँ बाहर जो चर्चा कर रहे थे कि कुछ लोगों को यहाँ होना चाहिए, वो आये नहीं हैं। वो नहीं आये हैं, उनसे यदि जाकर पूछो तो उनके पास उनके अनुसार वैध कारण होंगे। और वो सारे वैध कारण आगे-पीछे के होंगे।

तुम उनसे कहो, ‘ठीक है, सारे कारण ठीक हैं। अब यह बताइए, अभी आने में कोई आपत्ति है? आगे को काटो और पीछे को काटो, सिर्फ़ अभी बताओ, अभी बैठने में कोई आपत्ति है?’ पक्का बता रहा हूँ वो कहेंगे ‘नहीं, अभी बैठने में कोई आपत्ति नहीं है। हम अच्छे से जानते हैं कि जो हो रहा है, हमारे लिए बड़ा उपयोगी है।’

और वो ज़ोर दे के कहेंगे कि हमें पता है कि जो हो रहा है, वो उपयोगी है। फिर भी आये क्यों नहीं? आगे-पीछे का कारण है। तो यह जो आगे-पीछे का होता है, यही तुम्हारे सहज संकल्प को रोक देता है। आगे-पीछे को हटाने के बाद फिर मन जिस दिशा में गति करे वो आत्मबल की दिशा है और उसमें बड़ा ज़ोर होता है।

तुमने बहुत लोगों को इच्छाशक्ति पर बात करते सुना होगा। इच्छाशक्ति और आत्मबल बहुत अलग-अलग हैं — इन बातों को ध्यान में रखना। आत्मबल इच्छाशक्ति नहीं है। इच्छाशक्ति तो संस्कारों की शक्ति है, इच्छाशक्ति तो माया की शक्ति है। इच्छाशक्ति तो तुम्हारे मन पर जो आवरण पड़ा हुआ है, तुम्हारे मन के जो दूषण हैं, उनकी शक्ति है। मैं इच्छाशक्ति की बात नहीं कर रहा हूँ।

आत्मबल बिलकुल दूसरी बात होती है। उसमें कोई इच्छा नहीं होती। आत्मबल में कोई इच्छा नहीं है। तुम कुछ चाहते नहीं, फिर भी कर रहे हो। तुम्हें क्या मिलेगा, नहीं जानते, फिर भी कर रहे हो और ताकत से कर रहे हो। जब यह हो तो जान लो कि यह आत्मबल है।

और आत्मबल तुम्हारे माँगे नहीं मिलता। आत्मबल तुम्हारे समर्पण से मिलता है — इच्छाशक्ति और आत्मबल में एक अंतर यह भी समझ लेना। इच्छाशक्ति तुम जुटाओगे तो जुट जायेगी। इच्छाशक्ति तुम जुटाओगे तो जुट जायेगी पर जितना जुटेगी उतना तुम्हारा नुकसान करेगी।

तुम हत्या करना चाहते हो किसी की। उसके लिए तुम ख़ूब इच्छाएँ इकट्ठी कर लो और तुम अपनेआप को ख़ूब तर्क दो। उसके बाद तुम जाकर के हत्या कर सकते हो, इच्छाशक्ति जुटा सकते हो। तुम बार-बार उन दृश्यों को याद करो जिनमें घृणा है, तुम बार-बार याद करो कि तुम्हारे साथ क्या-क्या ग़लत हुआ था, तुम्हारे भीतर आग उठेगी और उस ऊर्जा के आवेग में तुम जाकर हत्या कर सकते हो।

इच्छाशक्ति जुटायी जा सकती है। आत्मबल जुटाया नहीं जा सकता, आत्मबल उठता है तुम्हारे समर्पण से। दोनों का अंतर समझना। इच्छाशक्ति आती है तुम्हारे कर्तृत्व से और आत्मबल आता है तुम्हारे समर्पण से। इच्छाशक्ति आती है तुम्हारी स्मृतियों और आकाँक्षाओं से और आत्मबल आता है तुम्हारी वर्तमान में उपस्थिति से। दोनों का अंतर स्पष्ट समझो।

अब दिक्कत क्या है कि अंग्रेज़ी भाषा में दोनों के लिए करीब-करीब एक ही शब्द है — विल पावर। अंग्रेज़ी ऐसी दरिद्र भाषा है कि उसमें आत्मबल के लिए कोई उचित सम्यक् शब्द ही नहीं है। वो आत्मबल को भी विल पावर ही समझती है, जबकि वो विल पावर नहीं है। या तो उसको कहो कि फ्री विल पावर या ऐसा कुछ और। कुछ अलग नाम देना ज़रूरी है। क्योंकि जो हमारी साधारण विल है, वो तो पूरी तरह कंडीशन्ड (संस्कारित) है।

बात समझ रहे हो?

आत्मबल के लिए एक अलग शब्द होना ही चाहिए। अब एक नया शब्द गढ़ा जाए इससे अच्छा यह है कि जैसे ‘गुरु’ शब्द को अंग्रेजी ने आयातित कर लिया है, इसी तरीके से आत्मबल को भी अंग्रेज़ी के शब्दकोष स्वीकार कर लें — ‘आत्मबल’ बस।‌ वरना तुमको लिखना पड़ेगा, पावर ऑफ द सेल्फ़ और ‘सेल्फ़’ कैपिटल एस के साथ। ये सब गड़बड़ बातें हैं।

बात थोड़ी अजीब-सी है न? जो कर रहें उसका कोई कारण नहीं और कारण है भी तो ऐसा है कि हमारी समझ से बड़ा विराट, हम नहीं जान सकते। और जिस रास्ते चल रहें, वो कहाँ को जायेगा, हम जानते नहीं, और जानने की इच्छा भी नहीं। हम नहीं जानते कि कहाँ को जायेगा रास्ता। बस चल रहे हैं। इस चलने का जो बल है, उसको बोलते हैं आत्मबल। हम नहीं जानते कि कल क्या होगा, हम नहीं जानते कि रास्ता कहाँ को जाता है, तुम कहाँ को जाते हो, और हम कोई वादा नहीं कर रहें कि हम कल तुम्हारे साथ चल ही रहे होंगे। हम कल के बारे में कुछ नहीं जानते। न हम तुमसे कोई वादा माँग रहे हैं कि कल तुम हमारे साथ चल रहे होंगे कि नहीं चल रहे होंगे। बस चल रहे हैं। यूँ चलने के लिए जो ऊर्जा है, उसे आत्मबल कहते हैं।

मज़ेदार है न और थोड़ी-सी खौफ़नाक भी! दिक्कत यह हो जाती है कि इसका जो मज़ेदार पक्ष है, वो हमें कम दिखाई पड़ता है, ख़ौफ ही ज़्यादा दिखाई पड़ता है। इसमें जितना मज़ा है, जितनी गुदगुदी है, थोड़ा उस पर भी ध्यान दें — हल्की-हल्की। उसी के लिए जो सुसंस्कृत शब्द है, वो आनंद है। आम भाषा में उसे मीठी गुदगुदी भी कह सकते हैं। (श्रोतागण हँसते हैं)

प्र२: आचार्य जी, आप आत्मबल के बारे में बता रहे थे। हमें अपना जीवन जो है वो आत्मबल से चलाना चाहिए या इच्छा से चलाना चाहिए? इच्छा तो ख़ैर ग़लत चीज़ है जैसा आपने बताया। तो हमें अपना जीवन आत्मबल से ही चलाना चाहिए या कैसे चलाना चाहिए?

आचार्य: मैंने कहा, आप जब भी चलाएँगे इच्छा से ही चलाएँगे क्योंकि मात्र इच्छा ही जुटाई जा सकती है। आप आत्मबल कभी जुटा न पाएँगे। आत्मबल तो तब आता है जब आप का जुटा-जुटाया हट जाता है। वो समर्पण का फल है। आप तो जब भी करेंगे इच्छा के ज़ोर से ही करेंगे। आत्मबल तो अपनेआप को स्वयं प्रदर्शित करता है, जब आप रास्ते से हट जाते हैं।

आपको अपनी ताकत का अंदाज़ा नहीं है। आपने तो सिर्फ़ आज तक अपने संस्कारों की ताकत देखी है आज तक। आप जो भी कुछ करते हो उसमें आपका ज़ोर नहीं रहता, उसमें या तो प्रकृति का ज़ोर रहता है या समाज का।

आप बड़े गुस्से में, कामवासना में या किसी और उद्वेग में दौड़े जा रहे हो, यह प्रकृति का ज़ोर है। प्रकृति आपसे यह सब करवाती है। इन सब कामों के लिए हम सब जेनेटिकली (आनुवांशिक रूप से) संस्कारित होते हैं। आप किसी बलात्कारी को देखें, आपको क्या लगता है वो बलात्कारी का ज़ोर है? न! यह तो उसके शरीर में जो केमिकल्स हैं, उन रसायनों का, हाॅर्मोन्स का ज़ोर है। उसी क्षण में यदि एक इंजेक्शन लगा कर ये हाॅर्मोंस कम किये जा सकें तो उसे बलात्कार में रुचि नहीं रहेगी।‌

आपके दिमाग में डोपामिन नाम का रसायन होता है। उसे लगातार बस मज़ा चाहिए — प्लेज़र , ख़ुशी। यह सब तो इनका ज़ोर है। आप डोपामिन का ज़ोर जानते हो — ‘चलो ज़रा घूम के आते हैं, चलो ज़रा कुछ खरीदते हैं मॉल में, चलो ज़रा पर्यटन करते हैं।' आप डोपामिन का ज़ोर ख़ूब जानते हो। आप टेस्टोस्टेरॉन का ज़ोर जानते हो और आप सामाजिक संस्कारों का ज़ोर जानते हो। यह सब तो प्रकृति की बातें हुई। आपके शरीर में हैं। इसके अलावा समाज का भी ख़ूब ज़ोर होता है। आप सामाजिक संस्कारों का ज़ोर जानते हो।

‘मैं हिंदू हूँ। किसी ने मेरे मत की उपेक्षा कर दी, कुछ विरुद्ध बोल दिया, मैं लड़ जाऊँगा। मैं मुसलमान हूँ, किसी ने मेरे पैगंबर का चित्र बना दिया, मैं हत्या कर दूँगा।' आप उसका भी ज़ोर ख़ूब जानते हो। आप जितने भी ज़ोर जानते हो‌, वो या तो आपकी प्रकृति के हैं या आप के संस्कारों के हैं, समाज के हैं। आप अपना ज़ोर नहीं जानते और आपका ज़ोर ऐसा है कि बड़ा ज़ोरदार है।

जब वो प्रकट होता है तो दुनिया हिल जाती है। फिर वो रोके नहीं रुकता है। लेकिन वो तभी प्रकट होगा, जब आप पहले सिर झुका करके हट जाओगे। जब तक आपको अभी यह अकड़ है कि मैं ही ज़ोर लगाऊँगा, तब तक वो ज़ोर, वो आत्मबल कभी प्रकट नहीं होगा। तब तक आपको बस इच्छाशक्ति का दर्शन होता रहेगा।

और हमें ख़ूब सिखाया भी यही गया है न, काम न बन रहा हो तो इच्छाशक्ति जुटाओ। मैं जो कह रहा हूँ, वो बात ही बड़ी अजीब लग रही होगी। मैं कह रहा हूँ, जब काम न बन रहा हो तो रास्ते से हट जाओ। जब किसी रास्ते पर चल रहे हो और वो रास्ता बड़ा कंटकाकीर्ण हो, चढ़ाई बड़ी गड़बड़ हो, तो तुम कोशिश करना छोड़ दो चढ़ने की।

संस्कारित मन में तुरंत यह ख़्याल उठेगा — ‘इसका मतलब यह कि हम चढ़ना छोड़ दें?’ मैं कह रहा हूँ, ‘न, तुम कोशिश करना छोड़ दो।' आप फिर हैरान होंगे, कहेंगे, ‘अरे! हम तो जब भी चढ़े हैं, कोशिश कर-करके ही चढ़े हैं।' मैं कह रहा हूँ, ‘न, जब भी चढ़ाई भारी पड़ रही हो, जब भी रास्ते में पत्थर हों और काँटें हों, तुम कोशिश करना छोड़ दो।' तो आप पूछेंगे ‘ठीक है, तो इससे चढ़ जाएँगे?’ मैं कह रहा हूँ, ‘तुम यह सोचना भी छोड़ दो।’ (श्रोतागण हँसते हैं)

कहेंगे, ‘यार, यह तो हद हो गयी। न चढ़ें, न चढ़ने की कोशिश करें, न ये ख़्याल करें कि अब किस विधि आगे बढ़ें तो होगा क्या?’ अब जो होगा वो आत्मबल से होगा। तुम कोशिश छोड़ो, तुम्हारी कोशिश से नहीं होगा। ‘अच्छा, जो होगा अच्छा ही होगा न?’ पता नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता।

अब आपको दिख रहा होगा कि क्यों हमें इच्छाशक्ति भाती है और क्यों हमें आत्मबल कभी उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि आत्मबल बड़ी ख़तरनाक चीज़ है — जांबाज़ों के लिए है, कबीर के सूरमा के लिए है जो अपना सिर पहले कटाता है, फिर लड़ने जाता है। क्या होगा, हमें क्या पता! हम न देख रहे हैं, न सुन रहे हैं, न सोच रहे हैं। न आँखें हैं यह देखने के लिए कि हमें कितने घाव लगे, न सिर हैं यह सोचने के लिए कि जीत रहे हैं कि हार रहे हैं।

आप तर्क करेंगे — ‘तो फिर, लड़ कहाँ रहे हैं?’ हमें क्या पता! जो सिर कटा के लड़े, वो सूरमा; जो सिर बचाके लड़े, वो सूरमा भोपाली! (श्रोतागण हँसते हैं) एक चरित्र था ‘शोले’ फ़िल्म में। वो कभी लड़ ही नहीं पाया। बातें बस ख़ूब थीं उसके पास। बातें बहुत थीं। ख़्याल-ही-ख़्याल, विचार-ही-विचार, वाक्य-ही-वाक्य। याद है? भरा हुआ था वो। तो हम सूरमा भोपाली हैं।‌

हमने कभी सिर कटाया नहीं, हमने बातें ख़ूब करीं हैं बस। बातें हम जानते हैं। कबीर का सूरमा है जो बात कहाँ से करे, उसके पास अब सिर ही नहीं है बात करने के लिए! वो बोलता नहीं है, वो सोचता नहीं है। 'कबीर रण में आय के पीछे रहे न सूर।' वो तो रण में है। ‘क्या बोलना, क्या सोचना, हम हैं।’ वो तर्क वगैरह नहीं करता।

समझ में आ रही है बात?

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