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दूसरों के तानों और व्यंग का क्या करें? (लोग क्या कहेंगे!) || आचार्य प्रशांत (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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स्वयंसेवक: (एक अज्ञात प्रश्न को पढ़ते हुए) आचार्य जी तानों को कैसे हैंडल करें? जैसे कि कोई परिवार में कहे कि तुम इतना तो हमारे लिए कर ही सकते हो न। अगर ताने क्लेश का कारण बन जाऍं तो क्या एक साधक को उन क्लेशों में पड़ना चाहिए या तानों और क्लेशों की वजह से उसे ऊपरी दिखावा कर लेना चाहिए या कोई अन्य मार्ग भी है?

आचार्य प्रशांत: जिन्होंने पूछा है उनका क्या नाम है लिखा है कुछ? महिला हैं या पुरुष हैं? (स्वयंसेवक ना में सिर हिलाते हुए) कुछ नहीं लिखा है। चलो कुछ भी मान लो, महिला ही मान लो। मान लो उनका नाम है सुशीला। ठीक है? अब सुशीला जी कहीं चली जा रही हैं, पीछे से कोई बोले, ‘अरे। ये नीला तो बेवकूफ़ है।’ इनको बुरा लगेगा? क्यों नहीं लगेगा? क्यों? क्यों नहीं लगेगा बुरा? क्योंकि इन्हें पूरा विश्वास है कि ये नीला नहीं हैं, पूरा विश्वास है कि ये नीला नहीं है। लेकिन अगर कोई पीछे से बोल दे कि सुशीला बेवकूफ़ है, तो बुरा लग जाता है क्योंकि आपको विश्वास है कि आप सुशीला हो।

आप बात समझ रहे हो कहाँ को जा रहे हैं हम?

आपको जब पक्का ही पता हो कि सामने वाला जो बोल रहा है उसका कोई सम्बन्ध आपसे नहीं है दूर-दूर तक भी, तो आपको बुरा नहीं लगता। आपको बुरा लगता ही तब है जब आपको कहीं-न-कहीं ये पता होता है, या कम-से-कम संदेह होता है कि उसकी बात में थोड़ा-बहुत तो सच है। आपको बुरा ये नहीं लगता कि उसने आपको कुछ ग़लत बोल दिया, आपको बुरा ये लगता है कि जो सच आपने छुपा रखा था उसने वो खोल दिया।

समझ में आ रही है बात?

अगर किसी को पूरा भरोसा हो कि उस पर जो इल्ज़ाम लगाया जा रहा है, उस पर जो ताना मारा जा रहा है वो व्यर्थ है, तो उसे बुरा लगेगा ही नहीं।

तुम अभी मुझसे बोलो, ‘आचार्य जी, आप ये अभी-अभी जो रशियन भाषा बोल रहे हैं ये अशुद्ध है।’ तो मैं क्या करूँ, मैं एकदम आहत हो जाऊॅं, मेरा सीना छलनी हो जाए और मैं आत्महत्या कर लूँ यहीं पर अभी? क्योंकि तुमने बोला कि मैं जो रूसी भाषा में इतनी देर से बोल रहा हूँ वो भाषा अशुद्ध है। मुझे बुरा क्यों नहीं लगेगा? क्योंकि मुझे भरोसा है कि मैं रूसी नहीं बोल रहा भाई। बल्कि तुम दो-चार बार बोलोगे कि आचार्य जी आपकी रशियन ठीक नही है। तो हो सकता है मैं हॅंसने और लग जाऊँ, मनोरंजन हो जाए मेरे लिए। ‘कितना फूहड़ आदमी है, देखो। कितनी फालतू की बात बोल रहा है। इसके दिमाग का इलाज कराते हैं।’

लेकिन अगर मैं बोल रहा हूँ यहाँ पर हिन्दी, बीच-बीच में संस्कृत और तुम बोल दो, ‘आचार्य जी, संस्कृत पर आपकी पकड़ कुछ गहरी नहीं है’ और भीतर-ही-भीतर मैं भी जानता हूँ कि ये तो बेटा सच्ची ही बात है, संस्कृत में तो हाथ हल्का है, और किसी ने पकड़ लिया। तो मैं बोल रहा हूँ ताना इसलिए नहीं बुरा लगता कि ताना मारने वाले ने झूठ बोला है, ताना तभी बुरा लगता है जब हमें पता होता है कि हमने कोई सच है जिसे छुपा रखा है, उसने अभी-अभी उसे खोला है।

आप कुछ ऐसा रखो ही नहीं न जो छुपाने वाली बात है। कमज़ोरियाँ भी हैं अपनी तो उनको एकदम उद्घाटित करके रखो; कोई क्या ताना मारेगा? ताना मारने वाला तो इन्तज़ार कर रहा होता है आपकी भीतर की ग्लानि का — कमज़ोरी का नहीं, कमज़ोरियाँ सबमें होती हैं। कमज़ोरी में और ग्लानि-भाव में अन्तर होता है — कमज़ोरी को जब तुम अपनी आत्मा से जोड़ देते हो तो वो ग्लानि-भाव बन जाता है। अन्यथा कमज़ोरियॉं तो प्राकृतिक हैं, कोई भी हर चीज़ में मज़बूत नहीं हो सकता, श्रेष्ठ नहीं हो सकता। लेकिन जब तुम अपनी कमज़ोरी छुपाना शुरू कर देते हो इसका मतलब होता है कि तुमने उस कमज़ोरी को बहुत महत्व दे दिया है, माने तुमने उसको आत्मिक बना लिया है, उसको ‘मैं’ से जोड़ लिया है।

तभी तो छुपाना पड़ रहा है, नहीं तो तुम खुलेआम उसका प्रदर्शन कर देते, साफ़-साफ़ कह देते कि हाँ भाई, इस चीज़ में तो हम बहुत कमजोर हैं। और जो आदमी अपनी कमज़ोरियों का खुला प्रदर्शन कर देता है उसको अब कोई क्या ताना मारेगा, ताने का क्या असर होगा?

तो ग़लती ‘अनात्म’ को ‘आत्म’ बना लेने में है। एक ऐसी चीज़ जिसको छुपाना ही नहीं चाहिए था उसे तुम छुपाये बैठे हो। तुम छुपाये इसलिए बैठे हो क्योंकि वो चीज़ तुमको लगती है बड़ी महत्वपूर्ण, तभी तो छुपा रहे हो। हल्की बातों को कोई छुपाता है क्या? और जहाँ तुमने छुपाया नहीं, तहाँ ताने मारने वाले को तुमने मौक़ा दे दिया; वो ताना मारेगा। मैं अभी इस पर जा ही नहीं रहा कि जो ताना मारने वाला व्यक्ति है वो अन्दर से कैसा है, उसको क्या झेलना पड़ रहा है, उसकी मानसिक अवस्था वग़ैरह क्या है — मैं उसमें नहीं जा रहा, मैं अभी आपकी बात कर रहा हूँ।

व्यंग्य, कटाक्ष ये आपको इसीलिए लग जाते हैं क्योंकि आप दूसरों के सामने अपना एक ऐसा चेहरा दिखाना चाहते हो जो सच्चा नहीं है और दूसरे ने ताड़ लिया। क्या? कि आप कोई झूठ है जो दूसरों को दर्शा रहे हो। वो खट से तीर मारेगा ताने का, आपका झूठ ढ़ह आएगा, आप आहत हो जाओगे।

तानों से बचने का तरीक़ा ही यही है — कुछ ऐसा अपने पास रखो ही मत जहाँ छुपा-छुपी है। इतने बेहतर हो जाओ कि छुपाने के लिए कम-से-कम रहे। और बेहतर होने के बाद भी जो कमज़ोरियाँ बची रहें उनको उद्घाटित रखो, प्रकट रखो।

सबको पता हो कि यहाँ पर आपकी फ़लानी कमज़ोरी है। कोई राज़ नहीं, कोई गुप्त क्षेत्र नहीं, कोई व्यर्थ गोपनीयता नहीं, कोई फुसफुसाहट नहीं। जो है धड़ल्ले से है, खुलेआम है, डंके की चोट पर है। अब कोई क्या ताना मारेगा? क्या ताना मारेगा?

किसी भी चीज़ को लेकर के अपने भीतर हीनता का भाव मत रखो क्योंकि बाहर की दुनिया में बहुत सारी चीज़ें होती हैं जो हीन होती हैं, आत्मा नहीं हीन हो जाती उनके कारण।

तो हीन भाव रखने की कोई ज़रूरत नहीं है। तुम्हारे पास पैसा कम है, तुम कम नहीं हो। तो झूठ-मूठ में पैसे का प्रदर्शन करोगे, कोई पकड़ लेगा कि ये देखो, हमको दिखाने के लिए किराये की गाड़ी लेकर आये थे और जता ऐसे रहे थे जैसे अपनी है। जैसे ही उसने ये पकड़ा नहीं, वैसे ही वो ताना मारेगा और फिर आपको चोट लग जाएगी, आप कहोगे, ‘अरे। ताना मार दिया।’ ताना मारा ही इसीलिए है क्योंकि तुम दिखावा कर रहे थे, नहीं तो काहे को ताना मारता?

कहीं-न-कहीं तुम अपनी किसी कमज़ोरी को दिल से लगाये बैठे हो इसीलिए तानों का असर तुम पर होता है। अपनी किसी भी कमज़ोरी को दिल से मत लगाओ। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि अपनी सब कमज़ोरियाँ तुम मिटा सकते हो। महामानव ऐसा कोई नहीं होता जो अपनी एक-एक कमज़ोरी मिटा दे।

प्रकृतिगत हो तुम, गुण-दोष तो कुछ रहेंगे ही। उनको बहुत महत्वपूर्ण मत बना लो; कुछ भी इतना महत्वपूर्ण नहीं होता कि वो तुम्हारी अस्मिता का आईना बन जाए, कि वो तुम्हारी पहचान का पर्याय बन जाए और तुम उसको दबाते-छुपाते-लुकाते फिरो। जैसे हो जो हो, सामने हो। क्या ताना मारोगे यार? मार लो। क्या ताना क्या है अब उसमें?

समझ में आ रही है बात?

ये मेरी बात उन सब लोगों से है जो व्यंग्य-बाणों से जल्दी आहत होते हैं, सबके लिए है। ‘फ़लाने ने व्यंग्य मार दिया, ऐसा हो गया, वैसा हो गया।’ पहली बात तो अगर एकदम खुला जीवन जियोगे, एक अस्तित्वगत नग्नता रहेगी अगर तुममें, तो ताना मारने वालों को मौक़ा बहुत कम दोगे, लाभ बहुत कम दोगे ताना मारने पर। और दूसरी बात, अगर वो फिर भी अपनी बेवकूफ़ी में छींटाकशी करता ही है तो तुम पर असर बहुत कम होगा।

जो जितना ज़्यादा दूसरों की नज़रों में अपनी एक झूठी छवि बनाकर रखना चाहता है, उस पर तानों का उतना ज़्यादा असर होता है। तानों से अगर बचाव करना है तो सबसे अच्छा तरीक़ा है कि दूसरों की नज़रों में अपनी छवि की परवाह करना छोड़ो।

अपनी एक सहज छवि बनने दो क्योंकि लोग तो छवि बनाऍंगे ही। तुम कोई विशेष प्रयत्न मत करो कि तुम्हारी कोई ऊॅंची, बड़ी प्रकाशित छवि बने दूसरों की नज़र में। जो तुम हो वही प्रदर्शित करो, वही दूसरों की दृष्टि में तुम्हारी छवि रहे। उसके बाद तुम्हारे पास छुपाने के लिए कुछ नहीं रहेगा और दूसरों के पास ताना मारने के लिए कुछ नहीं रहेगा।

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