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ध्यान की सबसे उत्तम विधि क्या?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: जब ध्यान राम के पास नहीं होता, तो उस समय नहीं पता चलता, बाद में होश आता है। कैसे हर पल पता रहे कि ध्यान कहाँ है?

आचार्य प्रशांत: एक छोटी सी कहानी सुनाऊँगा, अच्छा प्रश्न है। मैं कॉलेज में था तो ऐसा बहुत होता था कि जो लोग एक खेल में पारंगत थे वो आसानी से दूसरे खेल को भी सीख लेते थे। खासतौर से गेंद और बल्ले का जो खेल हो, और बहुत सारे खेल होते हैं अलग-अलग, जिनमें एक गेंद होती है और एक बल्ला होता है। तो किसी व्यक्ति को यदि गेंद-बल्ले का एक खेल आता था तो वो गेंद-बल्ले का जब दूसरा खेल उठाता था तो उस अपेक्षतया आसानी से सीख लेता था। टेबल टेनिस वाला हाथ चलाना जानता था, वो लॉन टेनिस में भी जाता था, तो उसका हाथ थोड़ा सधा हुआ है, पाँव नहीं सधे हुए हैं। लॉन टेनिस में उसे पाँव भी चलाने पड़ेंगे बहुत ज़्यादा, टेबल टेनिस में उतनी नहीं ज़रूरत। पर कुछ है जो सधा हुआ है। स्क्वाश है, क्रिकेट है इन सब में एक गेंद आ रही है और आपके हाथ में एक वस्तु है जिससे आपको उस पर प्रहार करना है। जिन्हें एक खेल आता था वो दूसरा भी आसानी से साध लेते थे।

ब्रह्मविद्या को वो विद्या कहा गया है, जो सबसे कठिन है। कहते हैं ब्रह्मविद्या को साध लिया तो बाकी सारी विद्याएँ बड़ी आसानी से आ जाती हैं। ब्रह्मविद्या वो खेल है जिसे साध लिया तो संसार में और जितनी चुनौतियाँ होती हैं वो आसानी से निपट जाती हैं।

आपने पूछा है, "जब ध्यान राम के पास नहीं होता, तो उस समय नहीं पता चलता, बाद में होश आता है। कैसे हर पल पता रहे कि ध्यान कहाँ है?" इसके लिए जानने वालों ने एक विधि इजाद की; उस विधि का नाम है गुरु।

खेल है गुरु, आखिरी सत्य नहीं। पर वो ऐसा खेल है जिसको यदि तुमने साध लिया, जिसमें तुम्हारा अनुशासन यदि बंध गया, तो उसके बाद बाकी सारे खेल खेल लोगे। गुरु के सामीप्य में ध्यान गुरु पर केंद्रित करो, और ये आसान इसलिए हो जाता है क्योंकि जिस गुरु की अभी बात हो रही है वो गुरु व्यक्ति रूप है। परम गुरु आत्मा है, परमात्मा है। उसपर ध्यान साधना हमारे स्थूल चित्त के लिए मुश्किल पड़ता है, तो जानने वालों ने विधि दी कि जब गुरु, सजीव, जीवित गुरु तुम्हारे सामने हो, तो बाकी सब कुछ भूल जाना। कुछ तुम्हें याद ही ना आए कि और कुछ है कि नहीं है, भूल गए। ये ध्यान है। अब साध लो। अब तुमने एक खेल खेलना सीख लिया। अब बाकी जगह भी तुम्हारा खेल चलेगा, ध्यान सधा रहेगा।

गुरु की मौजूदगी ध्यान को तीव्र करने का अनुपम अवसर होती है। तुमने वो अवसर गँवा दिया तो बड़े अभागे हो। बाकी सब बातें तुम नहीं साध पाए, माफी है। पर गुरु का कोई निर्देश था वो तुमने नहीं साधा, तो कोई उम्मीद नहीं तुम्हारे लिए बची। क्योंकि उसको तुमने साध लिया होता, तो बाकी सारे खेल खेल लेते। वो परम खेल है। वो ब्रह्मविद्या है। ध्यान नहीं सधता न, तो इतना ही अनुशासन बाँध लो कि जब गुरु समक्ष हैं, तब और कुछ ना दिखाई पड़ेगा ना सुनाई पड़ेगा। और अंतर नहीं पड़ता कि उस समय गुरु उपदेश दे रहे हैं, कि उपहास कर रहे हैं, प्रवचन चल रहा है कि प्रहसन चल रहा है, मीमांसा है या मज़ाक है। जो कुछ है गुरु से है न? तो ध्यान समग्रता से गुरु पर केंद्रित रहेगा, मेरी आँखे और कहीं जा ही नहीं सकती। होंगे बहुत दुनिया वाले अगल-बगल, लेकिन मुझे नहीं सुनाई पड़ते हैं ना दिखाई पड़ते हैं। गुरु सामने हैं, और जब गुरु नहीं सामने हैं तो गुरु का निर्देश सामने है, भूल कैसे गया मैं? तुम इतना साध लो, जीवन के अन्य अवसरों पर भी तुम सधे हुए रहोगे।

तुम चूकते इसलिए नहीं हो कि तुम्हें दूसरे खेल खेलने नहीं आते। तुम चूकते इसलिए हो क्योंकि तुम्हे पहला ही खेल खेलना नहीं आता। पहला खेल ठीक से खेला होता तो दूसरे, तीसरे, चौथे सब आसानी से सध जाते। अक्सर होता है कि जो सौ मीटर रेस का धावक होता है, वो दो सौ मीटर और चार सौ मीटर रेस में भी स्वर्ण पदक ले कर जाता है। पहली कौन सी है? सौ मीटर। तुमने उसी को नहीं साधा, कहाँ से दो सौ में तुम... क्यों कल्पनाएँ कर रहे हो?

गुरु पहला खेल है। उसको खेल लो, बाकी सब ले जाओगे। और गुरु सामने है, सशरीर सामने है, और तब भी दुनिया तुम्हें ललचाए ले रही है, तो तुम जाओ। तुम्हारे पास नरक का वीज़ा है।

और मौकों पर मुश्किल होता है न ध्यान साधना, तो अपने आप से बोलो, "बस एक मौके पर साधना है!" कब? गुरु के सामने या गुरु के निर्देश में। "हर जगह नहीं साध सकते, चौबीस घंटे नहीं सधता, तो चौबीस में से एक घंटा साध लूँ", उस एक घंटा साध लिया बाकी चौबीस अपने-आप ठीक हो जाएँगे। तुम्हारी दिक्कत ये है कि तुम उस एक घंटे में भी बेहोश रहते हो। तुम्हें गुरु के निर्देशों के बावजूद अपनी चलानी है। अपनी चला पाओगे नहीं, ना चला पाते हो, पर एक बेहयाई है, एक लतखोरी है, बेशर्मी है। पिट-पिट कर भी ना सुनते हो ना समझते हो। दूसरों के प्रति तुम्हारे मन में क्या प्रेम क्या करुणा होगी, तुम्हारे मन में अपने प्रति नहीं करुणा।

ये बात बस पकड़ लीजिए; हर समय बेहोश रहूँगी, कोई गुनाह नहीं हो गया। दो पैसे की सज़ा नहीं मिलेगी। किसी की नहीं सुननी है, कुछ नहीं मानेंगे। अपनी मर्ज़ी से दाएँ चलेंगे तो गिर पड़ेंगे, बाएँ जाएँगे तो भटक लेंगे। जितनी हम अपनी दुर्गति करा सकते हैं सब कराएँगे। पर जब एक बात होगी, तब हम उत्कृष्ता के ऊँचे-से-ऊँचे पैमाने को छुएँगे। जैसे किसी बच्चे ने कह दिया हो कि गणित से प्यार हो गया है, अब बाकी सारे विषयों में खाली, शून्य, हमें नहीं मतलब। पर जैसे ही गणित की बात होगी, जग जाएँगे कि यहाँ नहीं चूकना है। ऐसा जीवन जियो। भूल जाओ बाकी सब कुछ, कोई अपराध नहीं हो गया। जब गणित की बात आए तो जग जाना, यहाँ नहीं चूकना। बाकी तुम्हारी सारी भूल-चूक माफ हो जाएगी। एक खेल सीख लो, एक विद्या सीख लो।

तुम्हारी त्रासदी ये है कि तुम सब विद्याओं में एक से हो। पैंतीस-बटा-सौ, कि पचास-बटा-सौ। तुम्हें विवेक ही नहीं है, तुम समझ ही नहीं पा रहे हो कि कौन सा विषय पढ़ने लायक है और कौन सा नहीं। तुम हर विषय को एक सा पढ़ रहे हो। तुम्हारे लिए इंसान इंसान एक बराबर हो गया है। तुम्हारे भूगोल में भी पचास हैं, विज्ञान में भी पचास हैं, हिंदी संस्कृत में भी पचास हैं और गणित में भी पचास हैं। तुम उससे आगे निकल ही नहीं पा रहे हो। तुम अपने आधेपन से आगे जा ही नहीं पा रहे। संसार के जितने वादे करते हो उसमे से तुम कितने निभाते हो? आधे। ये तो नैतिकता की बात है आधे तो निभाने पड़ेंगे नहीं तो संसार जूते मारेगा। गुरु को भी जितने वादे करते हो कितने निभाते हो? तुमने सबको बराबर कर रखा है। तुम जान ही नहीं रहे कि कौन सा खेल खेलने लायक है, कौनसी विद्या साधने लायक है। बल्कि कई बार ये होता है कि तुम गुरु को किया वादा इसलिए तोड़ते हो ताकि तुम संसार को किया वादा निभा सको।

तने हुए रहो बिलकुल, सधे हुए रहो, सजग, सतर्क। गुरु इंद्रियों के दायरे में हो कि मन के दायरे में हो, कहीं भी हो, सारी इन्द्रियाँ उसकी सेवा में लग जाएँ। आँख, कान, शरीर और अब कुछ देख ही नहीं रहा। जैसे तनी हुई प्रत्यंचा। तीर ने दिशा अपनी पकड़ ली है। अब कोई हल्कापन नहीं, कोई ढीलापन नहीं। प्रत्यंचा तनी हुई है, खिंची हुई है। तीर बिलकुल बिंदु की तरफ जा रहा है, और कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा। अभी आए हैं दुनिया वाले इधर-उधर की बात करने। कोई खेल कर रहा है, कोई मज़ाक कर रहा है। तुम्हें सुनाई ही नहीं पड़ रहा। तुम्हारे मन पर गुरु छाया हुआ है।

वास्तव में जब मैं गुरु कह रहा हूँ तो मेरा आशय सत्य से, परमात्मा से है, पर वो बड़ी दूर की बात है, झीनी बात है। तुम ध्यान को सत्य पर नहीं केंद्रित कर पाओगे क्योंकि सत्य कुछ होता नहीं। तो इसीलिए एक विकल्प दिया गया है, जिसका नाम है गुरु। और वहाँ भी तुम चूक गए हो अगर वहाँ भी तुम निर्देशों का पालन नहीं कर रहे तो कहीं नहीं कर पाओगे। सीधे बैठो सामने देखो। अपनी मत चलाओ। सीधे, सामने। कितना मुश्किल हो रहा है न? तनी हुई प्रत्यंचा ऐसे ऐसे (हाथ को दाएँ-बाएँ हिलाते हुए) डोलती है? धनुर्धर की आँखे ऐसे ऐसे (आँखों को दाएँ-बाएँ घुमाते हुए) घूमती हैं? या जा कर निशाने पर अटक जाती हैं कि कहीं और नहीं। उसकी गर्दन सध जाती है, तन जाती है। अभी हिल नहीं सकते। कुछ है बहुत कीमती जो सामने है, हिलना-डुलना कैसा। हिले-डुले तो चूकेंगे। सधो, तनो। इस कक्ष में सधना सीख लिया तो जीवन भर सधे हुए रहोगे, जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में सधे हुए रहोगे। फिर कह रहा हूँ, ये आखिरी खेल है, ये कठिनतम है, और ये प्रथम है। इसको सीख लो, बाकी सारे खेल आसान लगेंगे। तुम दुनिया में इसीलिए पिट रहे हो क्योंकि यहाँ नहीं झुक रहे हो।

फिर कह रहा हूँ, गुरु का अर्थ है कि प्रवचन हो या प्रहसन हो, गुरु गुरु है। हर वक्त गुरु नहीं उपदेश दे रहा होगा, काहे मारते हो उस बेचारे को? वो भी खाएगा, पिएगा, हँसेगा, दौड़ेगा, शरीरी ही तो है। पर जब वो मज़ाक में भी कुछ बोले, तो तुम उतने ही तने हुए रहना। इंतज़ार मत करना कि वो प्राणों का ज़ोर लगाए, अपनी सारी ऊर्जा लगाए और तब तुम कान धरोगे, ना! उधर से एक मंद सी ध्वनि भी आए... कहता है गुरु ज्ञानी, गगन में आवाज़ हो रही है झीनी-झीनी। उधर से झीनी-से-झीनी भी आवाज़ आए, तुम पकड़ना। तुम में इतनी सजगता, इतनी संवेदनशीलता हो। बात इसकी नहीं है कि तुम किसके प्रति संवेदनशील हुए। गुरु के साथ हो गए संवेदनशील, तो अन्यथा भी संवेदनशीलता जान जाओगे। गुरु के साथ धर लिया ध्यान, तो अन्यथा भी ध्यान सधा रहेगा।

फिर प्रश्न उठता है कि गुरु के साथ ही क्यों? क्योंकि वो कहता है कि रखो ध्यान। दूसरे भी अनेक वस्तुएँ, व्यक्ति, विचार हैं संसार में, तुम कह सकते हो कि मैं उन पर खेल सीखूँगा पहले। उनकी उपस्थिति में ध्यानस्थ होना सीखूँगा। वो मुश्किल पड़ेगा, क्यों? क्योंकि वो स्वयं चाहते हैं कि तुम ध्यानस्थ ना हो। है तुम्हारा कोई प्रेमी, उसकी उपस्थिति में तुम हो जाओ ध्यानस्थ, फिर क्या होगा? अब वो चाहता है कि तुम में कामवासना उठे। वो देखना चाहता है तुम्हें लिप्त, लोलुप और तुम आ गए हो ध्यान में। वो ये बर्दाश्त करेगा? गए हो अपने सांसारिक प्रेमी से मिलने, पति या पत्नी से और उसके बगल में तुम ध्यानी होकर बैठ लिए, सजग, सतर्क, और उसकी हर बात को उतने ही ध्यान से सुन रहे हो जैसे गुरु की बात को सुनते हो, वो खीज जाएगा। क्योंकि उसकी बातों को ध्यान से सुन लिया तो उसकी बातों का झूठ दिख जाएगा। वो चाहता है कि तुम ध्यान से ना सुनो।

तो दूसरों की उपस्थिति में ध्यान धर नहीं पाओगे क्योंकि वो स्वयं ध्यान के दुश्मन हैं। दुकान में जा रहे हो और दुकान में बिकने वाले माल पर तुम ध्यान करने लग गए तो क्या हो जाएगा? दुकान बंद हो जाएगी। माल ही नहीं बिकेगा। तो ना माल चाहेगा ना दुकानदार चाहेगा कि तुम ध्यानस्थ रहो। गुरु अकेला है जो चाहता है कि तुम ध्यान में रहो। संसार नहीं चाहता कि तुम ध्यान में रहो। संसार का काम धंधा ठप्प पड़ जाएगा तुम्हें ध्यान आ गया तो।

गुरु के पास ध्यान सीखो। गुरु की उपस्थिति बड़ा व्यावहारिक अवसर है ध्यान सीखने का। और फिर उसी ध्यान को हर दिशा में प्रयुक्त करो। और जो सजीव गुरु की समीपता में भी ध्यान नहीं सीख सकते, उनके लिए फिर कोई संभावना नहीं है। जैसे कि ब्रह्मास्त्र असफल हो गया हो, अब कौन सा अस्त्र काम आयेगा?

प्र: क्या भय में ध्यान साधा जा सकता है?

आचार्य: बिलकुल!

प्रश्न प्रासंगिक है, पूछा है, "क्या भय में ध्यान साधा जा सकता है?"

भय की उचित परिभाषा पकड़ो, दिख जाएगा कि भय में ध्यान सधेगा। भय क्या है? खोने का डर। जब खोने का डर है तो, ध्यान दोगे। एक शब्द से भी चूक ना जाऊँ, अब तुम ध्यान दोगे। ये खोने का डर ही तो है। पर ये तुम कब कहोगे कि एक शब्द से भी चूक ना जाऊँ? जब अपने प्रति प्रेम होगा और शब्द का मूल्य जानोगे। दो शर्तें हैं- पहली बात, दिखे कि शब्द में मूल्य है और दूसरी बात ये दिखे की मैं उस मूल्य के लायक हूँ। अपने प्रति प्रेम, और शब्द का मूल्य, दोनों चाहिए।

इनके अभाव में अगर भय है तो तुम किसी निकृष्ट वस्तु के खो जाने से घबरा रहे हो। तुमने अनुराग किससे पाल लिया है? संसार से। कहीं कीचड़ को लेकर भयाकुल हो, ये ना खो जाए। जैसे कोई शूकरी (सुअरी) कीचड़ से नहा कर निकली हो और कहती हो, "अभी प्रसाधन लपेट कर आई हूँ।" और कोई उसे छू दे तो कहे, "ये क्या कर दिया! मेकअप गिरा दिया!" कीचड़ झड़ गया ज़रा सा। और बड़ा बच-बच कर निकल रही है दुनिया से। भय है उसे कि ये सुगंधित कीचड़ कहीं छिन ना जाए। तो भय तो वहाँ भी है।

जिन्हें ध्यान साधने में दिक्कत होती हो, वो इस व्यावहारिक विधि को आज़माएँ। बाकी सब विषयों में तुम्हारा शून्य आ गया कोई बात नहीं। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि शून्य ले आओ। मैं कह रहा हूँ बाकी सब विषयों में शून्य आ गया तो माफी मिल जाएगी। एक विषय को पकड़ लो, एक खेल को साध लो। बाकी खेल पीछे-पीछे सध जाएँगे। ध्यान सीख लोगे।

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