आचार्य प्रशांत: हम देखते हैं तो एक तो यह है हमारा आम, रोज़-मर्रा का देखना कि नदी को देख रहे हैं; यह बड़ा खण्डित देखना है, आधा-अधूरा देखना है।
अनमने होकर देखना है, मन यहाँ भी है, मन कहीं और भी है–तो यह जो देखना है, यह अन्यमनस्कता है। और ऐसा नहीं है कि मन के साथ कोई ज़बरदस्ती की जा रही है कि ‘तू यहाँ भी देख और तू वहाँ भी देख’। मन की कोई विशेष इच्छा ही नहीं है नदी को देखने की। मन की कोई विशेष चाहत ही नहीं है कि समझ ले। यह है हमारा रोज़-मर्रा का देखना–चाहे नदी हो, चाहे पेड़ हो, चाहे व्यक्ति हो, चाहे जो भी हो–जिसको भी हम देख रहे हैं ऐसे ही देख रहे हैं। अनमने होकर, खण्डित मन से।
और एक दूसरा देखना है जो ध्यान में देखना है।
ध्यान क्या है–इसको समझेंगे।
ध्यान मन की इच्छा है समझ में उतरने की।
विचारों का गहरा प्रभाव है और मन इसमें इधर-उधर भटक रहा है। यह प्रभाव ही वो प्रवाह है, इसी प्रभाव से निकलता है वो प्रवाह। वही मन का खण्डित होना है। पर यह खण्डित होना कभी दिखाई देगा नहीं, कभी भी नहीं। मन एक विचार से दूसरे पर कूद रहा है, जल्दी-जल्दी, प्रतिक्षण, वो ऐसा संयुक्त हो गया है इस मानसिक प्रवाह के साथ, कि उसको इस प्रवाह का कुछ पता ही नहीं है। और फिर मन कहता है कि ‘ठहरो! ज़रा समझने दो कि हो क्या रहा है’। जहाँ मन यह कहता है कि ‘समझने दो कि हो क्या रहा है’, वहीं मन की इच्छा है समझ में उतरने की। जहाँ मन यह कहता है कि ‘ज़रा देखूँ तो कि हो क्या रहा है वास्तव में!’, तो उसे सबसे पहले यह देखाई देता है कि एक ‘प्रवाह’ है।
यह प्रवाह मन को तभी दिखेगा जब मन स्वयं स्थिर हो जाए। ये जो अस्थिरता है, यह मन को तभी दिखती है जब मन स्वयं स्थिर हो जाए। जब तक मन अस्थिर के साथ अस्थिर है, तब तक कोई प्रवाह नहीं है। कोई व्यक्ति बीस-किलोमीटर-प्रति-घण्टा की रफ़्तार से भाग रहा है और आप भी उसी रफ़्तार से भाग रहे हैं, तो कहीं कोई रफ़्तार नहीं है, कहीं कोई गति नहीं है। उसकी गति तभी दिखती है जब आपकी गति शून्य हो जाती है। तो समझ में जहाँ मन उतरता है और शांत हो जाता है, तब उसे वो सब दिखने लग जाता है जो प्रवाहमान है। वो सब कुछ जो गतिशील है, वो मन को स्पष्ट दिखने लग जाता है। और जो गतिशील है, गतिशील रहना उसकी प्रकृति है, उसको गतिशील रहने ही दिया जाए, उसके गतिशील होने में कोई दिक़्क़त नहीं है। ‘मन की गतिशीलता’ थम जाती है।
तो खण्डित मन है, ध्यान है, और समझ है। खण्डित मन है, विचारों से घिरा हुआ, विचारों के प्रभाव में, बहता हुआ विचारों के साथ। और मन की अपनी ही इच्छा है, मन का अपना ही संकल्प है। क्या? कि जानूँगा, समझूँगा। मन का अपना ही संकल्प है। बड़ा दैवीय संकल्प है। आसानी से ये संकल्प उतरता नहीं। एक प्रकार की अनुकम्पा है ये, कृपा। कि मन ये संकल्प करे तो कि ‘मुझे जानना है’। यही संकल्प ध्यान है।
भूलिएगा नहीं, ध्यान की शुरुआत तो संकल्प-बद्धता के साथ है परन्तु उसका अंत समझ के खुले आकाश में है। वहाँ पर वह किसी से भी बद्ध नहीं है। कहता तो मन है कि ‘जानूँगा’, पर जो जानता है, जब जानता है, तब वह संकल्प करने वाला मन ही शेष नहीं रहता। संकल्प मन ही करता है कि ‘मुझे समझना है, आवश्यक है, महत्वपूर्ण है समझना’। यह विचार ही है, पर यह विचारों में बड़ा श्रेष्ठ विचार है। यह उसी कोटि का विचार है कि–कोहम्। बिलकुल उसी श्रेणी का विचार है ये कि ‘हूँ कौन मैं’–जानना है। इसकी भी शुरुआत ऐसे ही होती है कि ‘मुझे’ जानना है। पर अंत कहाँ होता है? मात्र ‘जानने' में। ‘मुझे’ नहीं बचता।
हमने कुछ समय पहले बात की थी कन्शियसनेस (चेतना) की और अंडरस्टैंडिंग (समझ) की। तो ऐसे समझ लीजिए– अटेंशन इज़ द ब्रिज बिटवीन कन्शियसनेस एंड अंडरस्टैंडिंग (ध्यान चेतना और समझ के बीच का पुल है)।
ध्यान, विचार और समझ के बीच का सेतु है।
शुरुआत उसकी कहाँ से होती है? विचारों से ही। पर वह मन को ले जाता है विचारों के पार। बड़ी दिक़्क़त हो जाती अगर ध्यान हमारे बस में न होता। ये बड़ी कृपा की बात है कि ध्यान की शुरुआत पूरे तरीके से हमारे वश में है। वह कहाँ ले जाएगा हमें, वो हमारे वश में नहीं है, उसका हम कुछ नहीं जानते। हम नहीं जानते अर्थात् विचार रूप में नहीं जानते। पर ध्यान लगे, यह हमारे वश में है। मन को ऐसी स्थितियाँ देना, मन में यह संकल्प जागृत करना कि ‘मैं समझूँ, मैं जानूँ’, यह हमारे ही बस में है। यहाँ (बोध स्थल) पर आना, आने से पहले पढ़ कर आना, आ करके शांत बैठ जाना, सही समय पर आना–यह समझ के लक्षण नहीं हैं, पर यह संकल्प के लक्षण ज़रूर हैं। मन ने इतना तो कहा ही है कि ‘कुछ महत्वपूर्ण है’, उसकी आहट मिल रही है। शुरुआत हो गई है। सेतु के एक सिरे पर आकर आप खड़े हो गए हैं–अब यात्रा होगी। दूसरे सिरे तक भी पहुँचेंगे।
तो जैसे रमण महर्षि बार-बार कहते थे कि "पूछो कि ये सब किसके साथ हो रहा है, पूछो कि चिंता किसको उठ रही है, पूछो कि विचार कौन कर रहा है, पूछो कि पिता कौन है, पति कौन है, पूछो कि ये जो बार-बार ‘मैं-मैं’ करता रहता है, यह कौन है?" वैसे ही वो बार-बार ये भी कहते हैं कि "कहो मन को कि ‘ध्यान, ध्यान’।" बातें दोनों एक हैं। ‘मैं कौन हूँ’ भी विचार है और ध्यान का संकल्प भी विचार है। पर दोनों ही ऐसे हैं जो शुरू यहाँ होते हैं और ले कहीं और जाते हैं। दोनों बड़े विशेष हैं। दोनों का उद्भव तो इस आयाम में है और अंत किसी और आयाम में है। इसी कारण दोनों दैवीय हैं।
देखिए, परम कौन है? परम वो है जो आयामों को बदलने की ताक़त रखता हो। जो ना-कुछ से, कुछ पैदा कर देता हो। ना-कुछ एक आयाम है, शून्यता। जो निर्विशेष से, विशेष पैदा कर देता हो। जो एब्सेंस (अनुपस्थिति) से प्रेसेंस (उपस्थिति) पैदा कर देता हो, और जो प्रेसेंस (उपस्थिति) को एब्सेंस (अनुपस्थिति) करने की ताक़त रखता हो। जो निराकार से आकार पैदा कर दे, जो निर-अवयव से अवयव पैदा कर दे। तो ध्यान वैसा ही है। जो शुरुआत तो विचार से करे पर ले जाए निर्विचार में। आयाम ही बदल गया। दोनों अलग-अलग आयाम हैं। ऐसा नहीं हुआ है कि वो एक विचार से दूसरे विचार पर ले गया है। आयाम ही बदल गया है। वो किसी दूसरी दुनिया में ले गया है आपको, जिसको दुनिया कह भी नहीं सकते। तो इसीलिए यह जो विचार है, यह जो संकल्प है, यह बड़ा दैवीय संकल्प है।