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देह है तो वियोग रहेगा || आचार्य प्रशांत, भक्त मीराबाई पर (2017)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कहा जाता है कि मीरा जी को कृष्ण मिल गये थे, फिर भी वो वियोग के गीत क्यों गाती थीं?

आचार्य प्रशांत: क्योंकि शरीर है अभी भी। क्योंकि मीरा अभी मीरा है। जब तक शरीर रहेगा उनके पास, तब तक पूर्णतया कृष्ण न हो पाएँगी। तो जब तक शरीर है तब तक तो तुम्हें वियोग के गीत गाने ही पड़ेंगे। अच्छा है कि वियोग गाओ, शरीर की सार्थकता ही उसी में है।

समझ रहे हो बात को?

शरीर है ही इसीलिए कि तुम्हें पता चलता रहे कि जब तक शरीर है तब तक बाधा है, दूरी है। इस बात को समझना! जैसे मोमबत्ती होती है न, उसकी सार्थकता इसी में होती है कि वो जान जाए कि उसे जलना है। वो जितना जलती जाएगी उतना प्रकाश फैलता जाएगा। तो वैसे ही जन्म की सार्थकता इसी में है कि तुम जानते जाओ कि ये जो जन्मा है, यही मेरी मजबूरी है।

बुद्ध ने भी जब जाना, तो उसे कहा गया ‘निर्वाण’, और जब बुद्ध ने देह त्यागी, तो उसे कहा गया ‘महापरिनिर्वाण’। क्योंकि निर्वाण होने के बाद भी हो तो जगत में ही न, हो तो देहधारी ही न। लेकिन कम-से-कम निर्वाण तो पा लो — उसी में देह का सौन्दर्य है, उसी में शरीर की सार्थकता है।

कल-परसों शिव सूत्र करोगे। एक सूत्र कहता है, “शरीरं हविः।“ शरीर क्या है? हवि है। शरीर का प्रयोग यज्ञ की समिधा की तरह करो। हवन की हवि की तरह करो। शरीर इसलिए नहीं है कि दिन-रात शरीर-शरीर की ही रट लगाओ। शरीर इसलिए है कि उसे मोमबत्ती की तरह जलाओ और प्रकाश फैलाओ।

प्र: जैसे कुछ भी सुनने के बाद आप उसका अवलोकन करते हो।

आचार्य: (स्वीकारोक्ति में सिर हिलाते हैं) इसीलिए तुम इस दुनिया में बड़ा उलट खेल पाओगी। जितने मूर्ख हैं, जितने महामूढ़ हैं तुम उनको उतना प्रसन्न पाओगी। और जिसको पाओगी कि जानता जा रहा है, जिसमें भी बोध गहराता जा रहा है उसके चेहरे पर तुम एक उदासी, एक विषाद देखोगी। भीतर उसके आनन्द लहराएगा लेकिन मन में लगातार जगत की विद्रूपता देखकर, अपनी स्थिति की विषमता देखकर एक कष्ट रहेगा, एक पीड़ा रहेगी।

वो पीड़ा बुद्धों को प्रतीत होती है, वो पीड़ा सन्तों को प्रतीत होती है — मीरा को होती है, नानक को होती है। वो फिर भागते हैं, यात्रा करते हैं, लोगों से मिलते हैं, उनका दुख-दर्द बाँटते हैं। आम आदमी को कोई पीड़ा नहीं प्रतीत होती। आम आदमी हैप्पी (खुश) है।

इस हैप्पी समुदाय से बचना! इसीलिए कृष्णमूर्ति गम्भीरता पर इतना ज़ोर देते हैं। वो बार-बार पूछते हैं, 'आर यू सीरियस?' (क्या आप गम्भीर हो?) उस गम्भीरता का अर्थ ही यही है कि हैप्पी तो नहीं हो कहीं तुम?

गम्भीरता माने गहराई और हैप्पीनेस (खुशहाली) माने उथलापन। कि जैसे किसी ने गुदगुदी कर दी और तुम हें-हें-हें हँसने लगे। किसी ने आकर कोई उत्तेजित करने वाला द्रव्य दे दिया, कोई चित्र दिखा दिया, थोड़ी पॉर्नोग्राफी (अश्लील सामग्री) दिखा दी और तुम हँसने लगे, हें-हें-हें। गम्भीरता में एक गहराई होती है। गम्भीरता आत्मा को छूती है। उस कोटि में मत आ जाना जो जल्दी से दाँत फाड़ देते हैं; 'अच्छा, वनीला आइसक्रीम पर डेढ़ प्रतिशत डिस्काउंट (दाम में छूट) चल रहा है, हें-हें-हें-हें।'

प्र२: आचार्य जी, अगर कभी लगता भी है न कि कहीं परेशानी है, तो उसका कारण दे देते हैं, ताकि आगे कभी जाना ही न पड़े।

आचार्य: हाँ, ये भी बड़ी भूल होती है। भीतर जो समस्या है, वो आत्यंतिक है, वो अतल है। और तुमने उस समस्या का केन्द्रीयकरण कर दिया। तुमने उस समस्या को किसी व्यक्ति में बैठा दिया, किसी घटना में बैठा दिया। तुम कहने लग गये, 'मेरी इस हालत के ज़िम्मेदार तुम हो।' ल्यो! समस्या आयी इसलिए थी ताकि तुम सागर में गोता मार सको और तुमने समस्या को बना दिया एक छोटा सा नाला। अब कहाँ गया सागर, अब कैसे मारोगे गोता — सम्भावना ही ख़त्म।

ये ऐसी सी बात है कि रात में किसी को परमात्मा के सपने आते हों और वो कहे कि ये मच्छरों का काम है। ये मच्छर कान में भनभनाते हैं तो वही भजन जैसा लगता है। अब कहाँ गया परमात्मा? सपने इसलिए आते थे कि तुम परमात्मा की ओर बढ़ो और तुमने मार दिये मच्छर कि ये इनका उपद्रव था।

वास्तव में जीवन की हर समस्या इसीलिए आती है ताकि तुम परमात्मा से, अपने स्वभाव से परिचित हो सको। लेकिन तुम किसी और को उस समस्या का कारण बनाकर, झूठ बोलकर, जो तुम्हें अवसर दिया जा रहा होता है उससे साफ़ बच निकलते हो।

कोई नशे में गाड़ी चलाता हो और गाड़ी भिड़ जाए और आगे सब टूट-टाट जाए — बोनट, रेडिएटर, बम्पर — और वो कहे, 'इसमें दोष इस बात का है कि ये जो आगे बम्पर है ये मज़बूत नहीं था।' तो एक चीज़ तो उसने बचा ली, क्या? नशा। नशा क़ायम रहेगा। बम्पर बदल जाएगा, नशा नहीं बदलेगा।

हमारी समस्याओं का कारण कभी बाहरी नहीं होता। हमारी समस्याओं का कारण कभी कोई और नहीं होता। समस्या आती ही इसीलिए है ताकि आप देख पाओ कि आप कहीं-न-कहीं विसंगति में हो। आप ऐसी जगह बैठ गये हो जो जगह आपको शोभा नहीं देती, इसीलिए समस्या है।

आपकी समस्या ऐसी ही होती है कि जैसे कोई अपनी कमर से छः इंच कम माप की पतलून पहन ले। और तुम दोष देने लग जाते हो पतलून को। हर समस्या तुम्हें बताती है कि तुमने कुछ ऐसा धारण कर लिया है जो तुम्हें धारण नहीं करना चाहिए; तुम्हारी धारणाएँ ग़लत हैं।

प्र३: आचार्य जी, सन्तजन हमें जागने के लिए प्रेरित क्यों करते हैं?

आचार्य: दो तरह की नींद होती है। एक उसकी जिसने घर में बहुत काम फैला देखा, बहुत कचरा फैला देखा, तो आलस में, भय में सो गयी। वो सो ही इसलिए गयी क्योंकि काम बहुत बाक़ी था। 'इतना कौन करे, सो जाओ।' वो जब सो रही होगी, तो उसको दुःस्वप्न आएँगे। वो जब सो रही होगी तो उसके सपने में भी काम और कचरा आएगा। उसकी नींद, नींद नहीं है। और एक नींद वो होती है कि काम पूरा कर लिया अब निश्चिंतता से सो जाओ। अब ये नींद नहीं समाधि होती है। अब ये समाधि है क्योंकि अब उठना शेष नहीं रहा। जो काम छोड़कर सोया है उसे उठना पड़ेगा।

समाधि वो जब नींद अनवरत हो जाए, जब नींद सनातन हो जाए, जब नींद को विघ्न देने वाला कोई बचे न, तो निर्विघ्न हो जाए। काम छोड़कर अगर सोये हो तो विघ्न बाक़ी है। काम छोड़कर सोये हो, तो सोये ही नहीं हो। लगातार भय सताएगा कि उठना है, उठना है, उठना है। कोई भी आकर उठा देगा। तुम्हें ख़ुद ही उठना पड़ेगा। इसीलिए जागने पर इतना ज़ोर दिया गया है।

आध्यात्मिक साहित्य में और गुरुओं के द्वारा जो बार-बार तुमसे कहा जाता है न कि “जाग! काहे सोवत है, जाग”, वो जगने को तुमसे इसीलिए कहा जाता है क्योंकि काम अधूरा छोड़कर सोते हो तुम। तुमने ग़ौर नहीं किया, तुम्हें हैरत नहीं हुई। एक तरफ़ तो ये कहा जाता है कि समाधि ही जीवन का उत्कर्ष है, शिखर है। और समाधि माने गहन निद्रा, गहनतम निद्रा। और दूसरी ओर सन्त तुम्हें बार-बार जगाते हैं, तो ये कैसी बात?

'दिलानी समाधि है, तो जगाते क्यों हो? सो तो हम पहले ही रहे हैं।' इसलिए क्योंकि अगर आख़िरी नींद सोना है, तो पहले जगना पड़ेगा। काम फैला हुआ है, पूरा करो; सफ़ाई करनी है, तुम्हारा ही घर है। बात समझ में आ रही है जगना क्यों ज़रूरी है?

जगना अपनेआप में कोई मूल्य नहीं है। जगना इसलिए आवश्यक है ताकि अंततः सो सको। हमारी नींद झूठी है, हमारी नींद कच्ची है। इसीलिए सन्त हमें बार-बार जगाते हैं। वो जगाते इसलिए नहीं हैं कि तुम जगते ही रह जाओ। जगना भी अपनेआप में कोई बड़ी बात नहीं है। अंततः तो सोना है, पर सो सको, इसलिए पहले जगना है।

यही कारण है कि मीरा यहाँ पर एक बड़ी सारगर्भित बात कहती हैं — “मैं बिरहिन बैठी जागूँ, जगत सब सोवे री आली।“

मैं बिरहिन बैठी जागूँ जगत सब सोये री आली दुल्हन बैठी रंग महल में मोतियन की लड़ पोवे एक दुल्हन हम ऐसी देखी अँसुवन माल पोवे री तारे गिन गिन रैन बिहानी सुख की घड़ी कब आवे मीरा के प्रभु गिरिधर नागर जब उन्हें दर्श दिखावे री।

~ मीरा बाई

जगत सो रहा है, पर जगत की कौनसी नींद है? कौनसी नींद है? कच्ची वाली। जगत को उठना पड़ेगा। जगत की आस झूठी है, जगत की नींद टूटेगी। मीरा जग गयी हैं; जग गयी हैं तो अब सोएँगी। जो जगा है, सो सोएगा। और जो सोया है, उसे जगना पड़ेगा। तुम तय कर लो — जगना है कि सोना है?

सोना है, पर पहले काम निपटा के सोना है। जो सोने गये हैं काम निपटाये बिना, उनकी सज़ा ये है कि उन्हें बार-बार जगना पड़ेगा, उनकी नींद उचटेगी। जिन्हें सोना हो, वो जाग लें। इसीलिए सन्त तुम्हें बार-बार जगाते हैं ताकि तुम समाधि में सो सको।

कुछ आयी बात समझ में?

“मैं बिरहिन बैठी जागूँ, जगत सब सोवे री आली।“ इसका ये नहीं अर्थ है कि जगत ऐश कर रहा है और मीरा बेचारी दुखी हैं। इसका अर्थ ये है कि मीरा जगत से आगे हैं।

कुछ दिन पहले किसी से मैंने बोला था, 'डू योर होमवर्क एंड देन गो टू स्लीप।' (अपना गृहकार्य करो और फिर सोने जाओ।) सोने से पहले गृहकार्य निपटा लेना। घर गन्दा छोड़कर सोने मत जाना। हमारे घर अभी गन्दे हैं, हम अभी सो नहीं सकते। तो जागते रहो। पर जागने का ये नहीं अर्थ है कि जागकर और गन्दगी फैला दी।

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