प्रश्नकर्ता: कभी-कभी यह जो वक्तव्य आता है कि सब स्वचलित है, स्वघटित है मन को देने के लिए, अब जिसने यह समझ लिया कि न समाधि पाने की चीज़ है न विक्षेप पाने की चीज़ है, तो अब विचार तो आने बंद हो नहीं जाएँगे, लोग भी बाते करेंगे, वहाँ वो भी सुनना होगा, तो मन की तो यह वृत्ति है कि वो कुछ-न-कुछ तो सोखेगा, तो ऐसे इच्छा मुक्त तो हम नहीं हो सकते, समझना और जानना तो अलग बाते है न?
आचार्य प्रशांत: अब ज़रा कुछ बातों पर ध्यान दीजिएगा, विचार न करने का बहाना होते हैं, न करने का एक मात्र कारण होता है, कोई भय, यदि समझ में और कर्म में कोई फासला नहीं रह जाए तो विचार के लिए जगह बचती ही नहीं है, आप कुछ कह रही हैं, और मैं तुरंत जो मुझे कहना कह दे रहा हूँ, तो मैं सोच कर करूँगा क्या? और कब सोचूँगा?
आप ने कुछ कहा, मुझे जो कहना था मैंने तुरंत कह ही दिया। अब बताइए मैं सोचूँ कब और सोच कर करूँगा क्या? जब कह ही दिया, काम ही पूरा कर दिया, जब घटना ही बीत गई, तो सोचूँगा ही क्यों? और कब सोचूँगा? कर चुकने के बाद?
लेकिन यदि आप मुझसे कुछ कहें, और समुचित जवाब देने में मुझे कोई बाधा दिखती हो, कोई भय हो, कोई अवरोध हो, तो मैं बोल तो पाऊँगा नहीं, मैं करूँगा क्या बैठ कर? सोचूँगा। सोच कर आप करोगे क्या? जीवन जब समाधि में ही स्थित है, सब ठीक-ठाक ही है, तो जो आपको करना है, आप वो कर रहे हो, अब सोच कर क्या करोगे? जो करना है वो कर रहे हो न, स्वचलित है, वो चल ही रहा है। जब मामला स्वचलित नहीं रहता तब सोच सिर उठाती है, स्वचलित जब रहे ही तो सोच आएगी कब?
सोच को समय चाहिए, कब आएगी?
नदी मेरे अंदर बह रही है, सोच सोचेगी भी तो कब सोचेगी? उसके लिए मुझे रुकना पड़ेगा, थमना पड़ेगा, उसके बहाव में कोई अंतराल ही नहीं है, सोचें भी तो कब सोचें? जीवन भी यदि नदी की तरह बहे तो सोचने की जगह कब बचेगी?