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बोध और परितोष || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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वक्ता: जब किसी को बहुत कुछ हासिल होता है, तो वो थोड़ा मिलने पर खुश नहीं हो जाता और थोड़ा जाने पर दुखी भी नहीं हो जाता| जैसे कि कोई करोड़पति नाचने नहीं लग जायेगा, अगर उसे दस रूपए मिल गए और रोने नहीं लग जायेगा, अगर उसके दस रूपए कम हो गए | ऐसी हालत जिसमें मन को लगातार यह एहसास है कि कुछ बहुत कीमती चीज़ उसके पास है| ‘है’ और छीनी जा नहीं सकती, पक्का-पक्का मिली ही हुई है, बहुत करीब है, स्वरूप जैसी है, स्वभाव जैसी है| इस स्थिति को कहते हैं, ‘समभाव’, ‘*एक्वानिमिटी*’|

उस कीमती चीज़ के एहसास से, दुनिया के प्रति समभाव आता है| समभाव माने, जो भी है, वो मेरे लिए एक समान है क्योंकि जो असली है, वो पहले से मेरे पास है| तो अब बाहर-बाहर जो भी हो रहा है, वो एक बराबर ही है| समझ रहे हो बात को? मेरे पास कुछ ऐसा है जो बहुत महत्वपूर्ण है| जो भी कुछ आख़िरी हो सकता था, ऊँचे-से-ऊँचा और कीमती-से-कीमती है, वो मुझे उपलब्ध है| वो मुझे मिल ही गया है| अब बाहर का नफ़ा-नुकसान, मुझे प्रभावित करता ही नहीं|

“तो किसी दिन खूब खाने को मिल गया, कोई बात नहीं, बहुत खुश क्या हो जाना है? और किसी दिन बिना जलपान के रह लिये, तो भी कोई बात नहीं| जो हमारी असली भूख थी वो मिटी हुई है|” समझ रहे हो? कुछ इसी तरीके से कोई अच्छी जगह रहने को मिल गयी, तो भी ठीक है और खुले मैदान में ही सोना पड़ गया तो भी ठीक है| क्यों? क्योंकि जिसका असली आसरा हो सकता है, वो हमें मिला हुआ है| गणित की भाषा में कहो तो इनफिनिटी में पाँच हज़ार जोड़ भी दो, तो भी क्या रहेगा?

श्रोता *(एक स्वर में)* : इनफिनिटी |

वक्ता: और उसमे पाँच हज़ार घटा दो, तो भी क्या रहेगा?

श्रोता *(फ़िर से एक स्वर में जवाब देते हुए)* : इनफिनिटी |

वक्ता: तो जिसको असीम मिल जाता है, वो महल मिलने पर खुश तो नहीं हो सकता| क्या करेगा वो महल का? असीम था मेरे पास, अनंत था; उसमें थोडा-सा और मिल गया तो मैं करूँगा क्या? महल भी असीम के आगे क्या है? पाँच हज़ार भी अनंत के आगे क्या है?

श्रोता १: कुछ नहीं!

वक्ता: मान लो कि दस रूपए का समान है और उसे अनंत से भाग दे दो, तो कितना बचेगा? शून्य बचेगा|

बात समझ आ रही है कि क्या कहा जा रहा है? ये दुनिया तुम्हें जो भी दे सकती, वो सीमित है| चाहे वो पाँच हो, पाँच हज़ार हो या पाँच अरब हो| पाँच को अनंत से भाग दिया, तो कितना बचा? कितना बचा?

श्रोता *(एक स्वर में)* : शून्य|

वक्ता: और पाँच अरब को भी अनंत से भाग दिया, तो कितना बचा?

श्रोता *(एक स्वर में)* : शून्य|

वक्ता: ये जो बोधवान मन होता है, यह उसकी दृष्टि होती है| पाँच अरब पर भी शून्य है, और अगर माइनस पाँच अरब हो तो? माइनस शून्य!

(सब हँसते हैं)

है तो शून्य ही! तो बहुत बड़ा नुकसान हो, या बहुत बड़ा फ़ायदा हो, उसके लिये सब क्या है?

श्रोता: शून्य!

वक्ता: शून्य| कुछ नहीं है| क्यों कुछ नहीं है? इसीलिए नहीं है क्योंकि उसने त्याग कर दिया है| इसीलिए क्योंकि अनंत उसे मिला हुआ है| इनफिनिटी उसे मिली हुई है|

और अगर तुम्हें अपने भीतर उस अनंत का एहसास नहीं होता, तो लगातार तुम्हें एक डर लगता रहता है| अनन्त माने जो कभी ख़त्म नहीं हो सकता| और तुम लगातार उन्हीं चीज़ों में जी रहे हो, जो ख़त्म हो जानी है| तो तुम लगातार डरे हुए रहोगे| क्योंकि जो कुछ भी है उसका आख़िरी बिंदु आ जाना है, सीमा आ जानी है| पाँच अरब की भी एक सीमा तो होती है और सीमा तुम्हें डराती है| कि “यहाँ मैं ख़त्म हो गया, इसके आगे अब मैं नहीं हूँ”| आ रही है बात समझ में? तो जो तुमने अभी भजन गाया संत कबीर का, वो समभाव पर था| बहुत खाने को मिला या नहीं खाने को मिला, बात बराबर| क्योंकि भूख हमारी पहले ही मिटी हुई है| कुटुंब-कबीले के साथ हैं या अकेले हैं, बात बराबर| क्यों? क्योंकि जिसका साथ महत्वपूर्ण है, उसका साथ हमें पहले ही मिला हुआ है|

बहुत बड़े महल में या कोठी में रह रहे हैं या यूँ ही विचर रहे हैं, बात बराबर| क्योंकि हम उसकी गोद में हैं, जो ‘बाप’ है हमारा, असलीवाला | हम बंगले में नहीं सोते, हम अस्तित्व की गोद में सोते हैं| अब उसमें तुम महल दे दो या यूँ ही ज़मीन है या सूखे पत्तों पर ही पड़े हुए हैं, क्या फ़र्क पड़ता है!

तुम जो इतना हिले-डुले रहते हो ना कि बाहर कुछ होता है कि दाएँ को हवा चली, तुम दाएँ को उड़ गए| बाएँ को हवा चली, तुम बाएँ को उड़ गए| एक फ़ोन कॉल आई और तुम हिल गए| दूसरी आई, दूसरी तरफ़ को हिल गए| ये जो तुम्हारी हालत रहती ही ना, वो इसीलिए रहती है क्योंकि तुम्हें अपने भीतर किसी पक्की, ठोस, न छिनने वाली चीज़ का एहसास नहीं है| और अगर वो एहसास नहीं होगा, तो ज़िंदगी ख़ौफ़ में ही बीतेगी| अगर वो एहसास नहीं होगा, तो ज़िंदगी ऐसे ही बीतेगी कि डरे-डरे हो, परेशान हो| कबीर अंत में इसीलिए कह रहे हैं कि आशा छोड़ो|और आशा उपदेश से नहीं छूटती, आशा का अर्थ होता है, आगे कुछ मिल जायेगा| और आगे कौन कुछ माँगता है, जिसको अभी लगता है कि अभी कोई कमी है| यह कहना भर काफी नहीं है कि “आगे की आशा छोड़ दो”| अरे, जिसको अभी भूख लग रही है, वो आगे की उम्मीद तो करेगा ही ना कि कल खाना मिल जायेगा| कल खाना मिलने की उम्मीद कौन छोड़ सकता है? जिसको ये दिख गया हो कि मेरा पेट तो भरा ही हुआ है, उसकी आशा छूटती है| और आम इंसान तो जीता ही आशा में है| कहते हो ना कि “उम्मीद पर दुनिया कायम है’|

श्रोता *(सब एक साथ)* : जी हाँ सर|

वक्ता: और जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है कि तुम्हारी उम्मीद ही तुम्हारा नर्क है| जब तक तुम उम्मीद नहीं छोड़ोगे, आशा नहीं छोड़ोगे, तब तक सड़ते ही रहोगे|

श्रोता: सर, ये सम्भव कैसे है?

वक्ता: यह सम्भव ही है| तुम यह पहले बताओ कि ये कैसे सम्भव हुआ कि तुम भूखे हो गए| तुम मुझे पहले यह समझाओ कि ये कैसे सम्भव हुआ कि जिसका पेट भरा हुआ है, वो अपनेआप को भूखा समझने लग गया? ये कैसे हुआ? किसने तुम्हें सिखाया कि तुम भूखे हो? किसने तुम्हें सिखाया कि तुममें कोई कमी है, जो तुम्हें कहीं आगे पूरी करनी है?

श्रोता: किसी ने सिखाया नहीं सर, ये तो बस अंदर से आ जाती है|

वक्ता: बचपन से पैदा हुए थे अंदर से ये लेकर कि “मुझे कुछ हासिल करना है, बंगला बनवाना है, इज्ज़त हासिल करनी है, पैसा होना चाहिए, तमगे मिलने चाहिए? पैदा होते ही यही बोला था क्या? तो किसने सिखाया? किसी ने तो सिखाया होगा|

श्रोता २: सर, परिवार वाले सिखाते हैं| कोई छोटा बच्चा रो रहा हो, तो उससे कहते हैं, “भूख लग रही है? अच्छा, ये लो”|

वक्ता: तो यही ना कि ये सब वो है जो तुमने इधर-उधर के प्रभावों से जो सीखा है| बोध का अर्थ होता है, अन-लर्निंग | जो तुमने इधर-उधर से सीखा है, उससे मुक्ति | संचित ज्ञान से मुक्ति, अन-लर्निंग | ये जो तुम इधर-उधर सीखते हो, उसी का नाम कंडीशनिंग होता है|

कबीर तुमसे कह रहे हैं कि तुमको व्यर्थ ही एक अंधी दौड़ में डाल दिया गया है, तड़पने के लिए छोड़ दिया गया है| तुम्हारे दिमाग में ये बात भर-भर के डाली गयी है कि “तुम्हें ये हासिल करना है और वो हासिल करना है| ये करो और वो करो नहीं तो ज़िंदगी व्यर्थ जाएगी”| कबीर कह रहे हैं “आशा छोड़ो”| और ये बात सिर्फ़ कबीर की नहीं है, एक से लेकर आख़िरी तक, जिसने भी जाना है, उसने बिल्कुल यही कहा है| तुम्हारे दिमाग को कचड़े से भर दिया जाता है और सारा कचड़ा तुमसे एक ही बात कह रहा होता है कि “तुम कूड़े हो, तुम कचरे हो, तुममें कुछ हीन-भावना है”| “तुममें कुछ हीनता है”, इस भावना से तुम्हें भर दिया जाता है|

श्रोता: सर, ये हटेगा कैसे?

वक्ता: आया कैसे?

श्रोता: सर, हटेगा कैसे? आया तो..

वक्ता: जैसे आया उसपर ध्यान दो, अपनेआप हट जाएगा| अभी तुम उससे चिपके इसलिए हो क्योंकि तुम्हें लगता है कि वो तुम्हारा है| जैसे ही ध्यान दोगे कि आया कैसे, तो तुम्हें पता चल जायेगा कि तुम्हारा नहीं है| बस हट गया| कोई किसी चीज़ से चिपका हुआ हो यह सोच कर कि ‘मेरी है’, और वो उसपर ध्यान दे और पता चले कि उसकी है ही नहीं, तो सारा मोह हट गया| ध्यान दो! बात जल्दी की नहीं है, बात ध्यान के गहराई की है| कितनी शिद्दत से तुम समझना चाहते हो, कितनी गहराई से तुम ध्यान देते हो कि “ये जो मैं कर रहा हूँ, ये आ कहाँ से गया मेरे भीतर? ये जो मैं सोच रहा हूँ, ये सोच किसने प्रविष्ट करा दी”?

तो ज़िंदगी पर, दुनिया पर, अपने ऊपर जितना ध्यान दोगे, जितने होश में जियोगे, उतनी जल्दी ये सारा कचड़ा अपनेआप हट जायेगा| और जितनी बेहोशी में जियोगे, उतना सारा कचड़ा अपने ऊपर लिए चलोगे और दुःख में रहोगे|

श्रोता: सर, जैसे आपने बताया कि भूख में ये मालूम रहता है कि इसके खत्म होने के कुछ समय बाद ही फ़िर दुबारा यही किसी न किसी रूप में वापस आना है| तो ऐसा क्यों है?

वक्ता: वो इसलिए होता है क्योंकि तुम जो खाना खाते हो वो सीमित होता है| पर एक ऐसा भी खाना होता है जो असीमित होता है| वो कभी चुकता नहीं है| मतलब बेटा ये हुआ कि भूख से आशय पेट की भूख से नहीं है| भूख से आशय मन की भूख से है| मन की भूख लगातार रहती है शांत हो जाने की, किसी ऐसे बिंदु पर पहुँच जाने की जहाँ उसकी दौड़ खत्म हो जाये| हर कोई यही चाहता है कि “इतना पा लूँ, इतना पा लूँ कि और न कमाना पड़े”| यही चाहते हो ना? इतना ऊपर पहुँच जाऊँ कि उससे ऊपर कुछ हो ही ना| तो वहीं बैठकर फ़िर शान्ति से रमता रहूँ, यही चाहते हो ना?

मन की भी आख़िरी इच्छा थम जाने की ही है| मन की आख़िरी इच्छा भी यही है कि थम जाऊँ | जब आख़िरी इच्छा उसकी यही है कि थम जाऊँ , तो थम ही जाओ| सारा जो बोध-साहित्य है, बस वो यही है कि अंततः तुम चाहते ही यही हो कि थम जाऊँ, तो थम ही जाओ ना! दौड़ क्यों रहे हो? जो जिस कारण भी दौड़ रहा है, क्यों दौड़ रहा है? कि कभी रुक सके| इसीलिए दौड़ रहा है ना? जब रुकना ही ध्येय है, तो रुक ही क्यों नहीं जाते?

तुम रुक इसीलिए नहीं जाते क्योंकि तुमसे कहा गया है कि ‘रुकना आगे है’| और जानने वालों ने तुम्हें समझाया है कि आगा-पीछा कुछ होता नहीं| जो है , वो यही है| रुकना है तो तत्क्षण रुको, इसी पल रुको| आगे सिर्फ आशा है और पीछे सिर्फ़ यादें हैं| रुकना या होना बस इसी पल है|

जो पाने के लिए तुम आगे-आगे, आगे-आगे दौड़े जाते हो, वो आगे नहीं मिलेगा क्योंकि ‘आगे’ कहीं है नहीं| और आगे का कोई अंत नहीं है| कितना आगे जाओगे? जितना आगे जाओगे, भूख उतनी बढ़ेगी, भूखे-बिलखते मरोगे| ‘लाख चौरासी’ यही है कि अगर भूखे मरते हो तो खाने के लिए दुबारा पैदा हो जाते हो| हर कोई भूखा मरता है! किसी को ऐसा देखा है मरते समय ये कहते हुए कि “मुझे जो पाना था, वो मैंने हासिल कर लिया, अब मर रहा हूँ”? हर कोई एक कहानी के बीच में ही मर जाता है| ये तुम्हारी कहानी चल रही है, चल रही है और अभी तुम्हारे पास कल के लिए योजना होती है| जो भी आदमी मरता है उससे पूछो कि तुम्हारी सारी योजनायें खत्म हो गयीं थी? तो वो कहेगा कि “अभी तो कल का प्लान था”| तो हर आदमी अपनी कहानी के बीच में ही मर जाता है| तो उसी को शास्त्र फ़िर सांकेतिक रूप में कहते हैं कि “जिस कहानी के बीच में तुम मर जाते हो, उसको पूरा करने के लिए फ़िर आते हो”|

आख़िरकार चाहते तो यही हो ना कि कहानी खत्म हो जाये और तुम विश्राम कर सको| तो करो ना विश्राम, कौन रोक रहा है?

श्रोता: सर, ऐसे तो कहानी चौरासी लाख जन्म में भी खत्म नहीं होगी!

वक्ता: नहीं खत्म होगी! वो चक्र है, घूमता रहता है|

श्रोता: तो सर, इसमें निश्चित समय कैसे दे दिया गया?

वक्ता: निश्चित समय दिया ही नहीं, कहा “अभी” | समय का मतलब तो होता है कम-से-कम, एक पल| एक पल भी नहीं, अभी! जो एक पल भी आगे देख रहा है, वो उम्मीद में जी रहा है| एक पल भी नहीं|

श्रोता: सर, इतनी ज़ल्दी कौन देख सकता है?

वक्ता: इतनी जल्दी नहीं, अभी ! इतनी ज़ल्दी का मतलब तो होता है कम-से-कम, एक सेकंड| इतनी जल्दी भी नहीं, अभी | जैसे कि अगर मुझे सुन रहे हो, तो अगर बात समझ में आनी है तो अभी आयेगी, विचार कर-कर के नहीं| जैसे ध्यान देना अभी है, ऐसे अभी | जो जानता है, वो समझ जाता है और वो समझना ऐसे होता है जैसे बिजली कड़की हो अभी| सब काला-काला, अँधेरा था, बिजली कड़क गयी और अचानक से रोशनी हो गयी, अभी | ट्यूब लाईट की तरह धीरे-धीरे नहीं| अभी!

श्रोता: सर, कहते हैं कि मृत्यु के बाद जो चीज़ चाहिए होती है, मिल जाती है| जैसे हमलोग ज़िंदगी -भर कोशिश करते रहते हैं बहुत कुछ पाने की, स्थिरता पाने की, तो वो मृत्यु के बाद मिल ही जाती है|

वक्ता: कुछ नहीं मिलता मौत से! कबीर ने कहा, “*जियत ना तरे, मरे का तरिहौ*’”| जो तुम जीतेजी नहीं हासिल कर पाए, तो मर कर क्या हासिल करोगे| मर के कुछ नहीं मिलता| अगर मर कर मिलता होता, तो आत्महत्या सबसे अच्छा विकल्प है| “फ़ेल हो गए, तो मर जाओ, मर के मिल जायेगा| टॉपर हो गए|” मरने से क्या मिला है? मरने से कुछ नहीं मिलता !

आई बात समझ में?

श्रोता *(सब एक साथ)* : जी सर|

~ संवाद पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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