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बिना उम्मीद, बिना मतलब || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्न: सर, अहंकार शरीर से जुड़ा होता है। जब हम किसी भीड़ के सामने जाते हैं, तो उनसे हमें फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि वो कैसी प्रतिक्रिया दे रहे हैं। पर उनके हँसने से या कोई ग़लत व्यवहार करने से हमें बुरा लगता है। ऐसा क्यों होता है? जब ये सब नकली है, अहंकार की कोई कीमत नहीं है, तो हमें बुरा क्यों लगता है?

वक्ता: तुम अपने आप को वही बोलते हो न जो भीड़ तुम्हें बोल देती है। अभी वो भीड़ तुम्हें बोल दे कि तुम महान, तुम क्या बोलना शुरू कर देते हो? मैं महान हूँ। तो तुम जो हो, तुमने उसको भीड़ पर छोड़ रखा है। भीड़ पर निर्भर हो तुम अपनी पहचान के लिए। तुम्हारा नाम क्या है?

श्रोता १: चन्द्रनाथ ।

वक्ता: भीड़ अभी नारा लगा दे, ‘चन्द्रनाथ, हमारा नाथ’, तुम खुश हो जाओगे और तुम नाम भी यही दे दोगे अपना – नाथों के नाथ, चन्द्रनाथ। भीड़ अभी नारा लगा दे, ‘महा-अनाथ, चन्द्रनाथ’ तो तुम दुखी भी हो जाओगे कि ये मुझे क्या बोल दिया। अपनी पहचान ही तुमने दूसरों के कहने से जोड़ रखी है। एक बाहरी बात पर तुमने अपनी छवि को निर्भर कर दिया है। नहीं समझ में आ रही बात?

श्रोता १: तो सर बस अपने उपर ही निर्भर रहें? समाज से कोई सम्बन्ध ही न रखें ?

वक्ता: नहीं! सम्बन्ध रखो। मेरा तुमसे अभी कोई सम्बन्ध है या नहीं है?

(सभी श्रोता ‘हाँ’ कहते हैं)

क्या ये सम्बन्ध इस बात का है कि तुम यहाँ बैठ कर मेरी छवि तय करोगे? तो ये कौन सा सम्बन्ध है?

कुछ दूसरा भी है ना? सम्बन्धों का एक दूसरा आधार भी तो हो सकता है ना?

श्रोता १: लेकिन दूसरे इंसान तो इस सम्बन्ध को नहीं समझते ।

वक्ता: नहीं समझ रहे, चलो ठीक है। मैं कुछ बोल रहा हूँ और तुम नहीं समझ रहे, तो मैं क्या करूँ?

श्रोता १: तो फिर इस सम्बन्ध का मतलब क्या रह जाएगा?

वक्ता: तुम बताओ कि क्या मतलब हुआ। ये हमारे तुम्हारे रिश्ते का क्या मतलब है? क्या अभी एक रिश्ता है?

सभी श्रोता: हाँ सर ।

वक्ता: ये क्या है?

श्रोता २: आप कुछ दे रहे हो और मैं उसे ले रहा हूँ ।

वक्ता: ठीक है! तो?

श्रोता १: अगर हम नहीं लें, तो आप होंगे नहीं।

वक्ता: इतने सारे यहाँ बैठे थे। तुम्हें क्या लगता है कि सभी कुछ ले कर गए हैं? मेरा काम है बोलना तो मैं बोल देता हूँ । पर तुम्हें वाकई लगता है कि ज़्यादातर लोग कुछ ले कर गए हैं?

आप अपना काम कीजिये, आपके मन में प्यार है, आप कुछ देना चाहते हो, आप दे रहे हो, अच्छी बात है।

श्रोता १: सर, प्रतिक्रिया की उम्मीद तो रहती है।

वक्ता: प्रतिक्रिया की उम्मीद का क्या मतलब है? मेरी बड़ी उम्मीद है कि तुम्हें मेरी बात समझ में आ जाए। अब तुम्हें नहीं समझ आ रही तो क्या करें?

श्रोता १: आप किसी और तरीके से समझाने की कोशिश करेंगे।

वक्ता: ये कर सकता हूँ कि किसी और तरीके से समझाने की कोशिश करूँ, पर अगर उम्मीद रखूँ कि सभी को समझ आ ही जाए, तो बड़ी दिक्कत हो जाएगी। ये समझना दूसरी बात है कि समझ में आ रहा है या नहीं आ रहा, वो मुझे देखना पड़ेगा, मुझे सतर्क रहना चाहिए कि तुम्हें मेरी बात समझ में आ रही है या नहीं आ रही है। पर उम्मीद तो बिल्कुल दूसरी चीज़ है।

श्रोता १: सर अगर हमें आपकी बात समझ में नहीं आई, तो आपको लगेगा कि आपका समय ख़राब जा रहा है।

वक्ता: मेरा काम चल चुका अगर मुझे ऐसा लगने लगे।

श्रोता १: नहीं सर प्रश्न नहीं, मैं व्यवहारिक बात कर रहा हूँ।

वक्ता: मैं अव्यवहारिक बैठा हूँ यहाँ पर?

श्रोता १: नहीं सर।

वक्ता: तुम्हारी उम्र के लोगों से जैसे मैं रोज़ मिलता हूँ, दिन में दो बार, तीन बार और उन्हें कुछ समझ नहीं आता। मैं उम्मीद रख कर बोलूँगा तो मेरा काम तो चल चुका फिर। एक दिन मैं बिस्तर पर पड़ जाऊँगा कि छः घंटे बोल कर आया और उन्हें कुछ समझ में नहीं आया और मेरी सारी उम्मीदें टूट जाएँ ।

श्रोता १: तो आप यहाँ पर हो किसलिए?

वक्ता: तुम्हें इससे क्या मतलब।

श्रोता १: मतलब आप कुछ दे रहे हो और दूसरा ले नहीं रहा। तो मतलब क्या रह जाता है?

वक्ता: मतलब होना क्यों ज़रूरी है? ये हवा है इस कमरे में?

सभी श्रोता: हाँ सर।

वक्ता: क्यों है? क्या मतलब है? हटा देते हैं हवा को । ‘हट! तू क्यों है? क्या उद्येश्य है?’ बोलो!

श्रोता १: सोच रहा हूँ सर।

वक्ता: यही तो काम हवा करती नहीं इसलिए बची हुई है। ये सोचती नहीं है। ये सूरज की रोशनी देख रहे हो? इसका क्या उद्देश्य है?

श्रोता १: सर हर एक चीज़ का कोई उद्देश्य है ना?

वक्ता: बता तो दो इस हवा का क्या उद्देश्य है, जिसका इस्तेमाल किये जा रहे हो?

श्रोता १: यह हवा जीवन प्रदान करती है।

वक्ता: हवा ने तय किया कि तुम्हें जीवन प्रदान करे? तुम मर जाओ और हवा का कुछ नहीं जाता। पूरी दुनिया नष्ट हो जाए,हवा को एक पैसे का दुःख नहीं होगा।

श्रोता १: हवा चली जाएगी तो लोगों को ऑक्सीजन तो नहीं मिलेगी ।

वक्ता: लोगों को नहीं मिलेगी न। हवा का क्या जाता है।

श्रोता १: इसका मतलब आप भी इसी तरीके से सम्बद्ध कर रहे हैं खुद को?

वक्ता: मुझे क्या पता, तुम जानो।

श्रोता १: सर मतलब तो यही निकल रहा है ना।

वक्ता: मतलब ये निकल रहा है कि कुछ बातों का कोई मतलब नहीं होता। तुम फालतू मतलब खोज रहे हो जहाँ मतलब है ही नहीं। हवा का कोई मतलब नहीं, सूरज का कोई मतलब नहीं। मेरा यहाँ होने का कोई मतलब हो ज़रूरी नहीं है। निरुद्देश्य!

– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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