Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
भगवान बुद्ध की शिक्षा || आचार्य प्रशांत, महात्मा बुद्ध पर (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
9 min
140 reads

आचार्य प्रशांत: अभी वहाँ से एक पत्ता गिरा नीचे। आम आदमी हरियाली में ही खोया रहता है, अपने पाँव के नीचे जो पत्ते हैं उनको थोड़ा कम ही देखता है। बुद्ध का मन ऐसा कि एक पत्ते को गिरता हुआ देखा और पूछने लगे कि सब पत्ते गिरेंगे क्या। जवाब मिला — हाँ। उन्होंने कहा, 'फिर किसके साथ रिश्ता बनाऊँ? किस पर उम्मीद टिकाऊँ? सब यदि नश्वर ही है, सबकुछ अगर जराजीर्ण ही हो जाना है, तो फिर सुख-चैन कहाँ है?' तमाम जगह उन्होंने सवाल पूछे, खोज करी और पाया यह कि दुख पत्ते के गिरने में नहीं है, दुख है इस कामना में कि पत्ता सतत् शाश्वत रहे।

हम उसमें अमरता चाह रहे होते हैं जो मरणधर्मा है। हम जान-बूझकर अपनेआप को धोखे में रखते हैं। एक पत्ते का गिरना काफ़ी होना चाहिए हमें ये बताने के लिए कि ये सब हरीतिमा नश्वर ही है। पर प्रमाण सामने होता है, हम प्रमाद में खोये रहते हैं। जब सुख मिल रहा होता है तो लगता है कि सुख अनवरत मिलता रहे। कामना बन जाती है कि जो जैसा है सुख के पल में, वो वैसा ही ठहर जाए, वो वैसा ही स्थिर हो जाए और वो वैसा रुकता नहीं, टिकता नहीं।

तो खोज की बुद्ध ने कि आदमी का ये आत्मघाती, आत्मप्रवंचना-युक्त व्यवहार आता कहाँ से है। आदमी जानता है कि उसका दुख उसकी झूठी कामना से उत्पन्न है, फिर भी वो कामना को क्यों पकड़ कर रखता है? क्यों पकड़ कर रखता है? आदमी अपनेआप को क्यों छलता है? आदमी अपनी कामना के समर्थन में क्यों खड़ा हो जाता है? माया है क्या?

बुद्ध ने बड़ी खोज के बाद कहा कि इनका उत्तर देने से कोई लाभ नहीं है। उन्होंने कहा, 'मैं चिकित्सक हूँ, मरीज़ ठीक होना चाहिए, यह प्राथमिक बात है। इस बात का बहुत महत्त्व नहीं है कि उसको सैद्धांतिक रूप से, किताबी तरीक़े से यह समझा दिया जाए कि उसकी बीमारी की उत्पत्ति क्या है।' उन्होंने कहा, 'कोई समझ जाए कि बीमारी का मूल क्या है, बीमारी की प्रक्रिया क्या है, तो अच्छी बात है; नहीं भी समझे तो भी इलाज़ तो ज़रूरी है न।' चिकित्सक ये प्रतीक्षा तो नहीं कर सकता कि रोगी बीमारी को पूरी तरह समझेगा, उसे तो उपचार करना है। तो बुद्ध ने फिर उपचार बताया और बुद्ध का उपचार था 'सम्यकता'।

हम जैसे जीते हैं हमारी ज़िंदगी ऊपर से नीचे तक समूची दुख में ही पगी हुई है। सुख भी इसीलिए भाता है क्योंकि वो दुख से थोड़ी देर के लिए राहत दे जाता है। सुख की हमारी माँग भी इसी बात की सूचना है कि हम दुख से कितने आक्रांत हैं। फिर कह रहे हैं बुद्ध कि दुख जीवन में नहीं है, संसार में नहीं है, दुख मन में है क्योंकि मन सुख को पकड़े रहने की कामना करता है। और फिर वो कह रहे हैं कि कामना के दंश से बचने का उपाय है सम्यकता। क्या अर्थ है सम्यकता का?

श्रोता: न अच्छा न बुरा मतलब सबकुछ, सबमें समान, अच्छे में भी ठीक है, बुरे में भी ठीक है।

आचार्य: नहीं, सम्यकता समता नहीं होती।

श्रोता: उचित कर्म।

आचार्य: उचित। अब कैसे पता चले कि क्या उचित है, क्या अनुचित है? बुद्ध ने तो कहा कर्म उचित होना चाहिए, विचार उचित होना चाहिए, ध्यान उचित होना चाहिए, वाणी उचित होनी चाहिए, श्रवण उचित होना चाहिए। अष्टांग मार्ग दे दिया। पता कैसे लगे क्या उचित है? कैसे पता लगे क्या उचित है? इसकी परवाह मत करो कि क्या उचित है, क्या अनुचित है। बस पता करो कि क्या है। समझना बात को। तुमने ये बस देख लिया कि क्या हो रहा है, तो फिर वही होगा जो सही है, जो होना चाहिए, जो सम्यक है, जो उचित है। अब बुद्ध कहते हैं — सम्यक कर्म, सम्यक वचन, सम्यक विचार।

एक तो तरीक़ा ये है अपने कर्म को देखने का कि तुम पहले से ही एक मन बना लो, धारणा बना लो कि ठीक कर्म ऐसा होता है और ख़राब कर्म ऐसा होता है, कि अच्छा ऐसा होता है और बुरा ऐसा होता है। और फिर तुम अपने कर्म को देखो और कहो कि अच्छा है या बुरा है। यह बुद्ध का तरीक़ा नहीं है। बुद्ध कहते हैं बिना धारणा के तुम बस देख लो कि तुम क्या कर रहे हो, कैसे जी रहे हो, क्या खाते हो, क्या पीते हो, कहाँ को जाते हो, क्या सोचते हो। तुमने देख लिया बिना इस पूर्वाग्रह के कि जीवन वचन, मन, कर्म कैसा होना चाहिए, तो तुम्हारे देखने भर से सबकुछ वैसा हो जाएगा जैसा उसे होना चाहिए। तुम देखते तो रहो। तुम जीवन के निरपेक्ष दृष्टा माने साक्षी रहो। तुम बिलकुल निष्पक्ष होकर अवलोकन करते रहो। इसी निष्पक्ष अवलोकन से सम्यकता अपनेआप उदित हो जाएगी।

तो बुद्ध जब कहते हैं सम्यकता, तो सम्यकता कोई पद्धति नहीं है, कोई धारणा नहीं है, कोई संस्था नहीं है, कोई विचार नहीं है, कोई परिपाटी नहीं है, किसी प्रकार की कोई नीति नहीं है, कोई उसूल नहीं है, कोई आदर्श नहीं है। सम्यकता मात्र होश है, जागरण है, कि जो कुछ तुम कर रहे हो, जो कुछ तुम्हारे भीतर-बाहर हो रहा है, तुम उसके प्रति सजग हो। तुम सजग हो तो फिर जो होगा शुभ ही होगा। दुख आता है बेहोशी से, बेहोश मत रहो बस। यंत्रवत् मत जियो। कामनाओं से अपनेआप मुक्त हो जाओगे अगर देख लोगे कि तुम्हारा कामनाबद्ध जीवन चल कैसा रहा है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी मेरा सम्यक कर्म क्या है?

आचार्य: तुम बताओ?

प्र: आपको सुन रहा हूँ।

आचार्य: बस।

प्र: आपको सुनना, बस इतना ही।

आचार्य: कोई और निर्णय कर देगा तुम्हारे लिए कि क्या ठीक है, क्या नहीं। बुद्ध कह रहे हैं निर्णेता होना तुम्हारा काम नहीं है, तुम्हारा काम है बस ख़बर रखना। तुम जानते चलो कि अभी हो क्या रहा है, निर्णय स्वतः हो जाएगा, निर्णय करने की तुम्हें ज़रूरत नहीं। तुम तो बस जानते चलो कि अभी हो क्या रहा है। अभी बैठे सुन रहे हो, शांत हो, मौन हो, तुम जानते रहो। बीच में विक्षेप आ जाए, बाहर से आती कोई आवाज़ तुम्हारा ध्यान खींच ले जाए, कोई और चीज़ आकर के तुम्हें बहका जाए, तुम जानते चलो बहक गया। तुम्हें शब्दों में भी कहने की ज़रूरत नहीं है कि बहक गया, बहुत सूक्ष्मता से बस तुम जान लो कि कुछ हुआ, ज्योंही तुमने जाना कि कुछ हुआ, त्योंही जो हो रहा है वो लय हो जाएगा। साधारण तरीक़े से कहें तो जो हो रहा है वो सुधर जाएगा, ठीक हो जाएगा।

कोई विचलन, कोई उपद्रव तुम्हारे साथ हो ही नहीं सकता, अगर तुम्हें उस घटना के समय ही साफ़ पता है कि ये घटना घट रही है। हमें पता चलता भी है तो घटना के बीत जाने के बाद। तो फिर बस पछता सकते हैं। जब घटना घट रही हो, उसी वक़्त अगर जान लो कि ये क्या घटित हो रहा है, तो पूरा खेल बदल जाएगा, नुक़सान से बच जाओगे। ये बुद्ध का संदेश है।

श्रोता: आचार्य जी, आप ये मन के प्रति ये कहना चाह रहे हैं जो घटना बाहर घटती है, अगर आप उसको जान लें तो...

आचार्य: क्या कर रहे हो, कुछ खा रहे हो तो क्यों खा रहे हो, (ये जानते रहो)। ममता उठी है तो जान जाओ ममता उठी है। ममता के पल में बिलकुल यंत्रवत न हो जाओ, ममता की लहर में बह न जाओ। क्रोध उठा है या लालच उठा है, उसी वक़्त बस जान जाओ। नियंत्रण करने की बात नहीं हो रही है, जानने की बात हो रही है, ईमानदारी से जानने की कि अभी तो भावना का बड़ा उद्वेग आया है, बस। और उसके बाद तुमको रोकना नहीं पड़ेगा, थामना नहीं पड़ेगा, निषेध नहीं करना पड़ेगा। तुमने जाना नहीं कि जिसको जाना उसका दंश ख़त्म हो गया, जिसको जाना उसकी ताक़त मिट गयी। वृत्तियाँ, आवेग, आंतरिक लहरें ये सब काम ही करते हैं अंधेरे में। उन पर तुम्हारी दृष्टि की रोशनी पड़ी नहीं, (कि इनकी ताक़त मिट जाती है।)

श्रोता: तो सजग होने के लिए फिर क्या करना पड़ेगा?

आचार्य: "धम्मम् शरणम् गच्छामि," धर्म की शरण में जाइए (मुस्कुराते हुए)। और धर्म की स्थापना और रक्षा के लिए जो संघ प्रतिबद्ध हो, उस संघ की शरण में जाइए, "संघम् शरणम् गच्छामी।"

श्रोता: आप व्यावहारिक तौर पर बताइए।

आचार्य: अब इससे ज़्यादा क्या व्यावहारिक तरीक़े से बताऊँ।

श्रोता: यदि अपने को पता है कि मेरा इगो एकदम ऊपर उठ गया। तो उसमें हम बह जाते हैं, हम पर इगो इतना हावी हो जाता है और घटना घटने के बाद लगता है ये क्या है! तो?

आचार्य: तो जब आप इस सीख को नहीं जानती थीं, तब आप क्रोध में बह जाती थीं। अब ये सीख आपको मिली तो कुछ अंतर पड़ेगा कि नहीं पड़ेगा? तो सीखते रहने से अंतर पड़ता है न। इसी को कहते हैं, "बुद्धम् शरणम् गच्छामी।" बुद्ध की शरण में रहो, अंतर पड़ता रहेगा। जो घटना पहले घटती थी वो शिथिल पड़ती जाएगी।

श्रोता: उसके लिए पहले साक्षी भाव में रहना ज़रूरी है, तो वो याद आएगा, नहीं तो भूल जाते हैं।

आचार्य: धर्म की शरण में रहो। संघ की शरण में रहो।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles