Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
अस्ति है समाप्ति,शून्यता है अनंतता || आचार्य प्रशांत, लाओत्सु पर (2015)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
10 min
201 reads

वक्ता: वैन हर वर्क इज़ डन, शी फॉरगेट्स इट।

डैट्स वाय इट लास्ट्स फॉरएवर।।

~ लाओत्सू

जब भी कुछ होगा उसकी हस्ती हमेशा मिटेगी। कर्म फ़ल का सिद्धांत यह तो कहता ही है कि तुम्हें कर्मफ़ल भुगतना पड़ेगा, साथ ही यह भी कहता है कोई कर्म फ़ल स्थायी नहीं होता। कर्म बदलते रहते हैं और उनके साथ में कर्मो के फ़ल भी बदलते रहते हैं। तुम आज जो कर रहे हो वो समय में आगे बढ़ता है तुम यदि समय में बने हुए हो तो तुम उसका फ़ल ग्रहण करोगे और ग्रहण कर के तुम एक नया कर्म पैदा करोगे जिसका फ़ल समय में आगे चला जाएगा। तो कर्म फ़ल लगातार बदलता रहता है। लाव त्जू कह रहे हैं –

वैन हर वर्क इज़ डन, शी फॉरगेट्स इट।

डैट्स वाय इट लास्ट्स फॉरएवर।।

यदि कर्म फ़ल होगा तो वो लगातार बना रहेगा। बना इस तरह से रहेगा कि बदलता रहेगा। आज कुछ है, कल कुछ और होगा, परसों कुछ और होगा। इस दुनिया में जिस भी चीज़ का अस्तित्व है, उस अस्तित्व की सीमा भी है समय में। वो अनंत नहीं हो सकता। अगर कहा जा रहा है कि ‘इट लास्ट्स फॉरएवर’ तो इशारा सिर्फ़ एक ही तरफ हो सकता है कुछ ना होने की तरफ़। जो है वो तो समाप्त होकर रहेगा। हस्ती यदि है किसी भी चीज़ की तो, हस्ती मिट कर रहेगी- यह दुनिया का नीयम है। यदि हस्ती नहीं मिटती तो उसका अर्थ इतना ही है कि वो चीज़ है नहीं। ‘वेन हर वर्क इज़ डन, शी फॉरगेट्स इट’ कर्म फ़ल है ही नहीं इसी लिए सदा है।

समझो बात को।

वाट लास्ट्स फॉरएवर? द फॉरगेटिंग लास्ट्स फॉरएवर, नॉट द रिज़ल्ट ऑफ़ द एक्शन। कुछ उसमें रिज़ल्ट है ही नहीं, कर्म फल है ही नहीं। एक ख़ालीपन है, वो हो सकता है अनंत। समझ रहे हो बात को? तुमने कहानी यदि शुरू कर दी है, तो वो कहानी लगातार बदलती रहेगी। कहानी का अर्थ ही यह है कि जिसमें निरंतर समय और स्थितियों के साथ बदलाव आ रहे हैं। कहानी तो लगातार बदलती ही रहेगी और एक दिन ख़त्म भी हो जाएगी। कोई कहानी अनंत तक नहीं चल सकती। यदि कुछ ऐसा है जो ना बदल रहा हो और न ख़त्म हो रहा हो, तो वो कहानी के पीछे का मौन ही हो सकता है। बड़ी से बड़ी संख्या भी घिस-घिस के छोटी हो जानी है और अंततः विलुप्त हो जानी है। शून्य अकेला ऐसा है जो घट-घट के छोटा नहीं होगा ,जो बढ़-बढ़ के बड़ा नहीं होगा और जिसकी विलुप्ति का कोई प्रश्न नहीं पैदा होता।

कर्म फ़ल बनाना एक नयी कहानी को जन्म देने के समान है।

हम जो कुछ भी करते हैं लगातार एक नयी कहानी पैदा कर रहे होते हैं। क्या देखा नहीं है? तुम किसी से मिलते हो, वो मिलना ही एक नयी कथा का जन्म होता है। तुम किसी से कुछ कह आते हो, वहाँ से एक धारा बह पड़ती है। कुछ भी हमारे जीवन में कभी ख़त्म नहीं होता। शुरुआतें हम करते रहते हैं। उन शुरुआतों का जब अंत होता है तो वो भी पूर्ण अंत नहीं होता। उन अंतों से चार नयी धाराएँ फूट पड़ती हैं। जीवन हमारा ऐसे ही है। लाव त्जू कह रहे हैं – जब कर्म फल की आकांक्षा नहीं होती ‘ वेन हर वर्क इज़ डन, शी फॉरगेट्स इट’। क्या याद रहता है आपको? आपको कर्मों का फल ही तो याद रहता है न कर्मोपरांत। कर्म के उपरान्त आप क्या याद रखते हो? यही तो याद रखते हो अब इसका क्या मिलेगा? जब उसकी अभीप्सा नहीं होती है तो कर्म विलुप्त हो जाता है। अभी, कोई नयी कहानी नहीं आगे बढ़ेगी। मौन शेष रह जाएगा और वो मौन चिर-स्थायी है *‘इट लास्ट्स फॉरएवर*’। कर्म का फल तो मिलता है ,दिक्कत यह भी तो है न कि उस फल को खा-पी कर ख़त्म कर देते हो। तुमने बहुत अच्छा काम किया, ये लो सेब।

श्रोता: जब नया शुरू हो जाता है तब? जब फिर से शुरू हो गया तब? यह क्या निरंतर होता रहता है?

वक्ता: यही तो कह रहे हैं।

श्रोता: तो शांत कब होगा? ख़त्म? कभी नहीं होगा?

वक्ता: जब फ़ल हो ही ना। जब कर्म के साथ फल की उम्मीद न जुड़ी हुई हो।

जब कर्म किसी वजह से ना किया गया हो। फ़ल तो जब भी होगा तो उस फ़ल से पाँच नए फ़ल निकलेंगे। कर्म किया, उसका सेब मिला, सेब को खा-पी लिया उसके बीजों से पाँच नए पेड़ तैयार कर लिए। अब उनको भुगतते रहिए और सेब तो ऐसा सुनने में लगता है कि पौष्टिक है। यहाँ तो विष फ़ल मिलते हैं! जब भी किसी वजह से कुछ किया जाएगा तब करने के बाद उसको भूलना असंभव रहेगा क्यूँकी करना प्रमुख था नहीं, प्रमुख था उसका फ़ल पाना। फ़ल अभी मिला नहीं तो करे को भूल कैसे जाएँ।

श्रोता: ज्ञान के साथ किया हुआ कर्म बहुत जल्दी आदमी भूल जाता है? ऐसे नहीं भूल पाता है। उस का उपाय बताइए?

वक्ता: फ़र्क। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप जानकारी के साथ कर रहे हो या बिना जानकारी के कर रहे हो। यह बात नहीं होती है कि आप जिसे दे रहे हैं, आप जिसके साथ कर्म कर रहे हैं आप उसे जानते हैं या नहीं जानते हैं। आपको कर्म फ़ल की अपेक्षा है या नहीं? यह इस पर निर्भर नहीं करता कि कर्म का विषय क्या है। कर्म किसके सन्दर्भ में किया है यह निर्भर इस पर करता है कि विषयी कौन है? आप कौन है? जिसका मन अर्थ-लोलुप होगा, वो चाहे हुए के साथ कर्म करे, या अनजाने के साथ कर्म करे वो उसमें अर्थ ही खोजेगा। वो उसमें फल की ही आकांक्षा करेगा पर दृष्टि हमारी कुछ ऐसी हो गई है कि अपनी ओर नहीं देख पाती भीतर मुड़ने के सारे दरवाज़े ही हमने बंद कर लिए हैं। हमें लगता है कि फ़ल का लेना-देना दुनिया से है, कि सामने वाले से है कि हम किसके सन्दर्भ में कर्म कर रहे हैं। वो जाना हुआ है या अनजाना है। नहीं, फ़र्क नहीं पड़ता कि किसके सन्दर्भ में कर्म हो रहा है। फ़र्क इससे पड़ता है कि कर्म करने वाला कौन है? जब कर्म करने वाला काम-लोलुप है तब तो वो किसी के साथ भी कर्म करे सिर्फ फ़ल के लालच में ही करेगा।

यह सब जो बातें होती हैं कि कुछ विशिष्ट लोग हैं, इनके साथ तो हम बिना फ़ल की अपेक्षा के कर्म करते हैं और बाकी पूरी दुनिया से हमें फ़ल की उम्मीद होती है। ये बेहूदी बातें हैं! और जो ये बातें करे वो मन को समझता नहीं। यदि आपका मन परिष्कृत नहीं है तो आप अपने बेटे को भी यदि एक गिलास पानी दोगे तो फल की उम्मीद में ही दोगे। बिना फ़ल की उम्मीद के आप एक कदम नहीं बढ़ा सकते क्यूँकी आपका मन अपूर्णता के भाव के कारण लगातार किसी मंजिल की तलाश में है। उस मंजिल को वो पाना चाहता है कर्म फ़ल के माध्यम से। उसको पता भी नहीं है कि वो जिस मंजिल की तलाश में हैं वो कर्म के फ़ल के द्वारा नहीं मिल सकती। वो कर-कर के पहुँचना चाहता है। वो सोचता है कुछ और करूँ तो इसके फ़ल स्वरुप वहाँ तक पहुँच जाऊँगा। कर-कर के उस मंजिल तक पहुँचा नहीं जाता। वहाँ तक तो करने वाले को जान कर के और उसके विसर्जन से पहुँचा जाता है।

मैं इस बात को दोहरा रहा हूँ जो व्यक्ति दफ्तर में कुछ नहीं करता यदि उससे उसे दो पैसे का लाभ न हो रहा हो, तो वो घर में भी कुछ नहीं करेगा यदि उससे उसे लाभ न हो रहा हो क्यूँकी उसके मन को पूरे तरीके से लाभ के लिए ही संस्कारित कर दिया गया है। लोग यह सोचते हैं कि नहीं-नहीं, दफ्तर में तो हम मुनाफ़े के लिए काम करते हैं, घर में तो हम बच्चों के लिए निःस्वार्थ भाव से काम करते हैं। ऐसा हो नहीं सकता। जब आप दफ्तर में लगातार अर्थ का पीछा कर रहे होते हो तो घर में भी निःस्वार्थ नहीं हो सकते। निःस्वार्थ होना तो मन का एक माहौल है। वो माहौल जगह के साथ बदल नहीं जाता।

जो कर्म फ़ल का पीछा नहीं कर रहा है, वो कर्म फ़ल का ख्याल न बाज़ार में करेगा, न घर में करेगा, न दफ्तर में करेगा, न मंदिर में करेगा, न अकेले में करेगा, न भीड़ में करेगा। उसे नहीं करना वो नहीं ही करेगा, वो कहीं नहीं करेगा और जिसका मन संस्कारित है फ़ल का ही पीछा करने को, वो सदा फ़ल का ही पीछा करेगा। वो नौकरी भी इसी लिए करेगा कि फल मिल जाए, वो शादी भी इसी लिए करेगा कि फल मिल जाए, वो बच्चे भी फ़ल के ही लालच में पैदा करेगा। वो बच्चों को भी यदि किसी प्रकार की सुविधा और सहूलियत देगा तो इस लालच में ही देगा कि इनसे फ़ल मिलेगा और दुनिया भर के माँ-बापों ने इसके अतिरिक्त कुछ किया नहीं है।

प्रमाण इसका ये है कि उनकी पूरी ज़िन्दगी जब फ़ल केंद्रित है, तो अपनी औलादों से उनका व्यवहार फ़ल-मुक्त कैसे हो सकता है। तुम्हारी पूरी ज़िन्दगी तुम फल का ही पीछा करते रहे, तो अपनी बेटी-बेटे से भी तो फल ही चाहते हो और फ़ल नहीं मिलता तो नाराज़ हो जाते हो; तुम्हें बेचैनी आ जाती है। तुम अपने भाग्य को कोसते हो कि हमने तो इतना कुछ किया तुम्हारे लिए और तुमने हमारे कुर्बानी का यह सिलाह दिया? फ़िर तुम अचरज में पड़ जाते हो कि ज़िन्दगी दुःख से क्यूँ भरी हुई है। यह दुःख तुम्हारे ही द्वारा रचित है। कहीं और से नहीं आ रहा। लाव त्जू तुम्हें समझा रहे हैं वही जो कृष्ण तुम्हें समझाते हैं। कोई अलग बात नहीं कह रहे। जीवन ऐसा जीयो जिसमें पूर्णता पहले ही विद्यमान हो ताकि तुम्हें कर्म के माध्यम से पूर्णता न तलाशनी पड़े।

जीवन पूर्णता के भाव में जीयो ताकि भिखारी जैसी हालत न रहे कि कुछ करेंगे तो कुछ मिल जाएगा। जीवन ऐसे जीयो कि जो मिलना है वो मिला ही हुआ है। अब कर्म-फ़ल की उम्मीद नहीं रहेगी। अब इस आस में नहीं जीयोगे कि कल सुनहरा होगा। तुम कहोगे कि जो सुनहरा होना है, वो तो है ही। बाकी तो खेल है, खेल रहे हैं।

शब्द-योग’सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles