श्री प्रशान्त: विचार बाहर से आते हैं। निर्णय बाहर से आते हैं। और अंतर्भाव भी बाहर से ही आते हैं। हाँ, विचार सचेत होता है, दिखाई पड़ता है। पर अंतर्भाव का हमें पता ही नहीं चलता कि वो कहाँ से आ रहा है। तो हमें ऐसा लगता है कि शायद यह कहीं दूर की चीज़ है। कहीं दूर की चीज़ नहीं है ये।
क्या तुम्हें यह अंतर्भाव हो भी सकता है कि तुम स्पेनिश बोल रहे हो? चूँकि स्पेनिश तुम्हारे अनुभव में नहीं है तो तुम्हारे अंतर्भाव में भी नहीं आएगी। तुम्हारे सारे अंतर्भाव भी, विचार की ही तरह भूतकाल से ही शासित होते हैं।
प्रश्न: फ़िर बोध क्या है?
वक्ता: बोध अंतर्भाव नहीं है। जिन लोगों को यह लगता है कि बोध का मतलब अंतर्भाव है, वो बड़ी गलतफ़हमी में हैं। बोध अंतर्भाव नहीं है। बोध तुम्हारी भावनायें भी नहीं है।
प्रश्न: बोध कहाँ से आता है?
वक्ता: (मुस्कुराते हुए) यह तुमने काफ़ी आगे की बात पूछ ली। बड़ी गहरी बात है यह।
बोध कहीं से नहीं आता और न कहीं को जाता है। वो सदा से था और जब तुम नहीं रहोगे तब भी रहेगा।
“न हन्यते हन्यमाने शरीरे”
उसका आना-जाना मत पूछो। वो बस है। वो कभी अभिव्यक्त होता है और कभी अभिव्यक्त नहीं होता। जब तुम तय ही कर लेते हो कि तुम्हें बेहोश रहना है तो बोध कहता है कि “ठीक है, रहो बेहोश”।
पर जब भी तुम उसको पुकारोगे, जब भी तुम उसके लिए सही स्थितियाँ बनाओगे, वो आ जाएगा।
तुम्हें बस उसे पुकारना है।
वो कहीं दूर नहीं है, तुम्हारे भीतर ही है।
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।