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अहंकार, प्रार्थना और 'दुनिया का सबसे बड़ा पागल' || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं आपको करीब-करीब सात-आठ महीनों से सुन रहा हूँ। करीब आपके बीस-पच्चीस कोर्सेज़ भी किये। मेरे तीन बच्चे हैं। एक अट्ठाइस साल का बेटा है, एक बाईस साल की और एक अठारह साल की बेटीयाँ है। तो आपसे मिलने के पहले मैं बच्चे से ये कह रहा था कि अट्ठाईस साल‌ के हो गये हो तो शादी कर लो। जब मैंने आपको सुना, अब उससे मैं ये बोलता हूँ, 'चाहो तो करना, इच्छा हो तो करना, नहीं तो मुझे दिक्कत नहीं है।'

और जो दो बच्चियाँ हैं जो पढ़ रही हैं, उनको भी मेरा कहना यही है कि शादी करना हो तो करना, अन्यथा मुझे कोई दिक्कत नहीं है। मेरी पहले भी ऐसी सोच नहीं थी की दहेज दे कर या विशेष चर्चा करके शादी करना चाहूँगा। पढ़ाई के लिए मैं तैयार हूँ कि कहाँ तक जा सकते हो? सक्षम बनाने के लिए तैयार हूँ। और बड़ी बच्ची है उसको रोहित जी से चर्चा करके कोर्स दिलवाया था, उसको बहुत अच्छा लग रहा है। उसकी भी इच्छा बनी हुई थी आपसे मिलने क़ी।

मेरा पहला प्रश्न ये था कि क्या अहंकार समस्या की जड़ है, क्या अहंकार अच्छा नहीं हो सकता? दूसरा प्रश्न ये है कि ये जो प्रार्थना की बात आती है, तो ये प्रार्थना जाती कहाँ है और काम कैसे करती है? किसके पास जाती है?

आचार्य प्रशांत: अहंकार ही अच्छा हो सकता है। अहंकार के अलावा कुछ और अच्छा हो ही नहीं सकता। अहंकार ही अच्छा है और अहंकार ही बुरा। अहंकार के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। सब उसी का खेल है। वही चलता है, वही रुकता है। वही समझदार हो जाता है, वही नासमझ हो जाता है। तो फिर अच्छा अहंकार कौनसा हुआ? जो समझ की ओर बढ़ने को आतुर हो, वो अहंकार अच्छा! जो समझ से घबराये, जो समझ का विरोध करे, वो अहंकार बुरा।

अमृतबिंदु उपनिषद् में कहा है — मन आप ही अपना दुश्मन है, मन आप ही अपना दोस्त है। अगर मुझे सूत्र सही याद है तो “मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।” मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष, दोनों का कारण है। तो अच्छा अहंकार आप समझ गये न कौनसा होता है? जो आपको बार-बार मुक्ति की तरफ़ ले जाये, वो अच्छा अहंकार है।

यही 'मैं' जब बोले, 'मैं आज़ादी चाहता हूँ', तो ये अच्छा है। यही 'मैं' जब बोले कि अरे छोड़ो न! बंधनों में भी बड़ा मज़ा है, तो ये बुरा है।

दूसरा आपने प्रार्थना के विषय में कुछ पूछा। देखिए, प्रार्थना अहंकार की विनम्रता की स्वीकृति होती है। 'मैं विनम्रतापूर्वक अपनी सीमाएँ स्वीकारता हूँ। मैं वहाँ पर आ गया हूँ जहाँ मेरा अपना सामर्थ्य पर्याप्त नहीं होगा आगे बढ़ने को' – ये प्रार्थना है। आगे तो जाना है पर आपने बूते अब जाया नहीं जा रहा। इसी से आप ये भी समझ गये होंगे कि सच्ची प्रार्थना क्या है।

सच्ची प्रार्थना में दो बातें होती हैं। पहली बात, जिधर को जाना है, अर्थात् जो मांग रहे हो, जो कामना है, वो सही होनी चाहिए। और सही प्रार्थना यही होती है कि मैं न रहूँ। अभी रामप्रसाद बिस्मिल जी की हम पंक्तियाँ पढ़ रहे थे न उस दिन कि 'मैं न रहूँ बस मैं यही चाहता हूँ', यही प्रार्थना है।

तो पहली बात तो ये है कि सही दिशा जाने की कामना है और दूसरी बात उसमें ये कि सही दिशा जाना है, उधर अब अपने बूते जाया नहीं जा रहा — ये प्रार्थना है। ‌’अब अपने बूते जाया नहीं जा रहा’, जिसने ये स्वीकार कर लिया वो प्रार्थी हो गया।

कुछ भी यूँही जाकर के इष्टदेव से, भगवान से मांगने लग जाना, प्रार्थना नहीं कहलाता। प्रार्थना करने के लिए पात्रता चाहिए। पात्रता ये कि सर्वप्रथम अपने दम पर जो मैं अधिकतम कर सकता था, वो मैंने करा। और झूठ नहीं बोल रहा हूँ, जान लगा दी है पूरी, इससे ज़्यादा मैं कुछ नहीं कर पा रहा। पूरी अपनी जान लगा दी है, सही दिशा में लगा दी है, अब थक रहा हूँ — ये स्वीकार करना ही प्रार्थना है।

तो किसको जाती है प्रार्थना? स्वयं को ही जाती है प्रार्थना। आपसे बाहर कोई और नहीं है। स्वयं को जाती है माने? फिर लाभ क्या हुआ? आपके भीतर ही शक्ति के गुप्त भंडार छुपे हुए हैं। आप उतने ही नहीं है जितना आपको पता है कि आप हैं। आप डर इसीलिए जाते हो क्योंकि आपका अहंकार कहता है कि तुम इत्तु से ही तो हो!

आप आपसे बहुत ज़्यादा बड़े हैं। आप अहंकार भी हैं, आत्मा भी हैं। अहंकार इत्तु! (उंगलियों द्वारा छोटा सा आकार बताते हुए) आत्मा…! (अपने दोनों हाथों को फैलाकर आत्मा का आकार बताते हुए) तो प्रार्थना स्वयं को ही जाती है। अहंकार से उठती है और अहंकार की उच्चतम संभावना को जाती है।

प्रार्थना करके आप अपनेआप को ही जगा देते हो। आप अपनी शक्ति को ही झिंझोड़ते हो। लेकिन वो जो आपकी अपनी शक्ति है, वो अहंकार की शक्ति नहीं है। वो ऐसी शक्ति है जिससे आप अपरिचित हो। तो इसीलिए प्रार्थना करते वक़्त ऐसे करबद्ध होकर (दोनों हाथों को नमस्कार की मुद्रा में जोड़कर दिखाते हैं), नतमस्तक हो करके, सामने यदि कोई मूर्ति हो तो ठीक है, नहीं तो किसी भी दिशा में, कभी आकाश की ओर, कभी पृथ्वी की ओर….।

दिशा प्रार्थना की भले ही लगे कि बहिर्गामी है, वास्तव में प्रार्थना करी स्वयं से ही जाती है क्योंकि आत्मा के अतिरिक्त और कोई सत्य नहीं और आत्मा कहीं बाहर है क्या! तो प्रार्थना किसी बाहर वाले से कैसे करोगे?

समझ में आ रही है बात?

तो प्रार्थना करने का, हमने कहा, अधिकार सिर्फ़ किसको है? सिर्फ़ किसको है प्रार्थना का अधिकार? जिसने पहले अपना अधिकतम श्रम और सामर्थ्य दर्शा दिया हो। किस दिशा में? सही दिशा में, मुक्ति की दिशा में। 'सही दिशा समझ रहा हूँ और उस दिशा में जो अपनी ओर से कर सकता हूँ, सब कर दिया।’ अगर अपनी ओर से पूरा काम नहीं किया है तो प्रार्थना बेअसर है। उस प्रार्थना का कोई मतलब नहीं।

सबकुछ अपना झोंक दो सही दिशा में और फिर जब लगे कि अब रुक गये, टूट रहे हैं, तब प्रार्थना करने की ज़रूरत नहीं, प्रार्थना हो गयी।

कुल-मिलाकर बात ये निकली कि आपका अधिकतम श्रम ही प्रार्थना है। आपका अधिकतम श्रम ही प्रार्थना है। जो अपने काम में निरंतर डूबा हुआ है, वो सच्चा प्रार्थी है। और जो अपने काम में निरंतर डूबा हुआ है, वो पाता है कि जैसे एक जादू, चमत्कार सा हो रहा है। क्या? जितनी उसको पता नहीं थी कि उसमें ताक़त है, उससे ज़्यादा उसकी ताक़त उठने लगती है। लेकिन वो जो ताक़त है उसका लाभ सिर्फ़ उनको मिलता है जो सबसे पहले अपनी पूरी ताक़त झोंक दें।

जो ये कहते हैं कि मेरी ताक़त तो बस इत्तु-सी है, जो कहते हैं, 'मेरी ताक़त तो बस इत्तु-सी है, मैं शुरुआत ही नहीं करूँगा', उनको उस अतिरिक्त ताक़त का फिर लाभ भी नहीं मिलता।

जो कहते हैं, 'इत्तु-सी ही है, लेकिन जो भी मैं अपना गिलहरी श्रम कर सकता हूँ वो तो करूँगा। रेत का एक दाना ही सही, अगर ले जा सकता हूँ तो ले जाऊँगा। जो भी मैं कर सकता हूँ उतना तो पूरा-पूरा करूँगा', वो फिर पाते हैं कि उन्होंने इतनी सी (उँगलियों से छोटा सा आकार दिखाते हुए) ताक़त से शुरू करा था और शुरू करने के कारण ही उनकी ताक़त इतनी हो गयी (हाथों को पूरा फैलाकर आकार बताते हुए)।

ये प्रार्थना का असर होता है। लेकिन आप अगर अपनी इतनी सी भी ताक़त का पूरी तरीक़े से उपयुक्त नहीं करेंगे, लगाएँगे नहीं, डर के बैठे रहेंगे, 'मैं क्या करूँ, दुनिया बहुत बड़ी है, मुझे मसल देगी। हाय! मेरा क्या होगा? अरे! मजबूरियाँ बहुत होती हैं। आचार्य जी, आप समझते नहीं। मैं तो क्या करूँ, इत्ता सा हूँ, इत्ता सा, इत्ता सा', तो फिर आपके जीवन में कोई चमत्कार नहीं आने वाला। और अगर जीवन में चमत्कार नहीं है तो जीवन जीने लायक नहीं है।

मज़ा तो तभी आता है जब जादू होता है। आप कहते हो, 'अरे ये कैसे हो गया! ये तो हो ही नहीं सकता था।' और हो जाता है। ये हो ही नहीं सकता था, कैसे हो जाएगा? तो प्रार्थना करने के लिए बड़ी काबिलियत चाहिए।

आप यूँही सोकर के उठे, बिना मुँह धोये जाकर के खड़े हो गये, और बोलते हैं, 'आज न कम से कम पाँच लाख!' (आँख बन्द करके मंत्रों के उच्चारण का अभिनय करते हुए) ऐसे कुछ नहीं होता, ये बेकार की बात है।

सही काम में जी-जान से डूब जाना ही प्रार्थना है। प्रार्थना में इतने डूब जाओ कि प्रार्थना करने का समय ही न मिले। सही काम आपके चौबीसों घंटे लील ले, आपको प्रार्थना करने का समय ही न मिले — यही प्रार्थना है।

प्र: मेरी इच्छा है कि अपने शहर में आपकी पुस्तकों की एक लाइब्रेरी (पुस्तकालय) बनाऊँ। मैंने रोहित जी से भी चर्चा की थी। कुछ और भी विचार आये हैं। सामान्यतः लोग रामायण वगैरह पढ़ते हैं। आपके कोर्सेज़ हैं, वीडियोज़ हैं, तो मैं उनको बड़े स्तर पर, बड़े टीवी पर अधिक-से-अधिक लोगों को सुनाना चाहता हूँ। मेरे पास सौ-दो-सौ कांटैक्ट हैं। मैं सबको एकसाथ आपकी चीज़ें रोज़ पोस्ट करता हूँ। तो अपने शहर में इसको मैं बड़े स्तर पर करना चाहूँ तो उसके लिए मुझे क्या करना पड़ेगा?

आचार्य जी: बहुत चीज़ें हो सकती हैं। आप रोहित जी से सम्पर्क में हैं, तो इस बारे में और आगे बात करिएगा। ये काम आवश्यक है। हम ख़ुद इसको बढ़ा रहे हैं जितना कर सकते हैं। संसाधनों की अभी कमी है तो ऑनलाइन तरीक़े से ही ज़्यादा बढ़ाते हैं पर ज़मीनी काम भी होना आवश्यक है। आप इसको बढ़ाना चाहते हैं, तो शुभ बात है।

प्र: हाँ, मैं पूरे तरीक़े से चाहता हूँ। जिस तरीक़े से भी होगा — आर्थिक, शारीरिक, मानसिक — जो भी होगा। मेरा एक उद्देश्य बना हुआ था। घर के भी लोगों को पता है कि दो-हज़ार-तीस का मैंने समय निकाला हुआ था कि मैं छोड़ दूँगा। पैदल यात्रा करने का सोचा था मैंने, लेकिन अब लग रहा है उसकी भी ज़रूरत नहीं, आपके साथ हो जाएँ, बहुत है।

आचार्य: देखिए, जो शब्द है न छोड़ना, इसका कम-से-कम इस्तेमाल करें।

प्र: जी। छोड़ने का तात्पर्य वो नहीं था।

आचार्य: मैं समझ गया। मैं आपकी भावना बिलकुल समझता हूँ। लेकिन जो बाहर का आदमी इस शब्द को सुनता है….।

प्र: वो तकलीफ़देह हो जाता है।

आचार्य: हाँ, डर जाता है बिलकुल! छोड़नेवाली कोई बात नहीं।

प्र: हाँ, इसीलिए तो वो विचार मैंने छोड़ दिया। (आचार्य जी मुस्कुराते हैं और श्रोताओं के हँसते हैं)

प्र: आठ महीने से जो मेरी आपसे बात हो रही है वीडियो और कोर्सेज़ के माध्यम से तो यही समझ रहा हूँ। बल्कि एक बार तो मैंने आपका एक वीडियो देखकर कहा कि — अपनी बात कह रहा हूँ, वो ठीक है कि नहीं है मुझे नहीं मालूम — विश्व के इकलौते पागल आप हैं।

आचार्य: बढ़िया है, अच्छा है। यही तो सब जादू होता है कि सैकड़ों लोगों के सामने आपको कोई पागल बोले और ये बोल आपको मीठी भी लगे।

प्र: अब हमारा जो भाव है, वो बोल रहे हैं आपसे।

आचार्य: जी, बहुत मीठी बात है। बड़े प्रेम से बोल रहे हैं आप और बात सही भी है।

प्र: और एक चीज़ और। जितना आपसे मिलने की बेचैनी हुई मुझे, शायद अभी तक किसी चीज़ की नहीं हुई।

आचार्य: और लोगों को लगता है कि अध्यात्म रसहीन चीज़ है; जैसे सही ज़िन्दगी में रस नहीं होता, मज़ा नहीं होता। आप सही ज़िन्दगी जीना तो शुरू करें, दिल गदगद रहता है। ऐसा नहीं कि आप हर समय प्रफुल्लित ही रहेंगे पर भीतर एक ठसक रहती है कि सही जी रहे हैं। ग्लानि नहीं रहती, सिर झुका हुआ नहीं रहता, मजबूरी का भाव नहीं रहता, हीनता नहीं रहती, जिसे कहते हैं न दिल का छोटा होना, वो नहीं रहता। बहुत बड़ी बात है ये। इसके आप कितने अरब रुपये देंगे, तब भी नहीं मिलेगी ये।

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