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आत्महत्या क्या? शांति कैसे मिले? || गुरु कबीर पर (2018)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: सर, कोई आदमी कब सुसाइड (आत्महत्या) करने के बारे में सोचने लगता है? हम लोगों के दिमाग में तो आता भी नहीं है यह ख़याल।

आचार्य प्रशांत: यह किसके दिमाग में आया अभी-अभी?

प्र: कुछ लोग मर जाते हैं सुसाइड करके, क्यों?

आचार्य: बेटा, हर आदमी लगातार दुःख से मुक्ति पाना चाहता है। सुसाइड का मतलब है कि किसी तरीके से मेरा कष्ट कम हो।

प्र: बीस-बाइस साल के लड़के को कौन-सा कष्ट है?

आचार्य: बारह साल के लड़के को भी हो सकता है। तुमने कभी पाँच साल के लड़के को देखा है जब वह पछाड़ मार कर रोता है? और कई बार ऐसा होता है कि ऐसा रोता है कि उसकी ज़बान उलट जाती है। छोटे-छोटे बच्चे को देखा है, वे कैसे रो रहे होते हैं, वैसे तो बड़े नहीं रोते। सुना नहीं है रोते हुए?

जो जिस तल पर है, जिसकी जैसी मानसिकता है, उसको वहीं पर दुःख हो जाता है। बीस साल वालों को लगता है कि, "अरे! साठ साल वालों को क्या दुःख हो सकता है?" साठ साल वालों को लगता है कि बीस साल वालों को क्या दुःख हो सकता है। और यह सोचकर और हैरानी है कि तीन साल वालों को क्या दुःख हो सकता है। पर जो जहाँ है वहीं दुखी है, और दुःख से निकलने की, दुःख को ख़त्म करने की सबकी कोशिश है। वही कोशिश फिर आत्महत्या की शक्ल में बाहर आती है।

पर जो होशियार आदमी होता है, वह कहता है कि दुःख ही तो ख़त्म करना है, शरीर तो नहीं ख़त्म करना। क्या ख़त्म करना है? दुःख। दुःख ही तो ख़त्म करना है न, तो हम दुःख ख़त्म करेंगे, शरीर नहीं। नहीं समझे तुम? जो होशियार आदमी होता है, वह कहता है, "क्या ख़त्म करना है? दुःख।" शरीर तो नहीं ख़त्म करना था, अब यह तो ऐसी बात है कि लड़ाई हमारी इससे है, और मार किसको दिया? बगल वाले को। बुरा हमें क्या लग रहा था? दुःख। और मार किसको डाला? शरीर को। यह तो बड़ी अजीब बात है।

जो समझ नहीं पाते, वे शरीर को मारते हैं, और जो समझदार होते हैं, वे सीधे दुःख को मारते हैं। संत दुःख को मारता है, संसारी शरीर को मारता है।

प्र: दुःख मतलब क्या?

आचार्य: दुःख मतलब वही जो हम सब लगातार अनुभव ही करते रहते हैं—जलन, तनाव, ईर्ष्या; यह पाना है, वहाँ पहुँचना है, इससे आगे निकल जाऊँ, उससे छुड़ा लूँ, मेरा कुछ छिन तो नहीं जाएगा, तमाम तरह के डर—यही सब दुःख हैं। उलझन, संशय, मोह—यही सब दुःख हैं।

प्र: गुरुजी, कभी-कभी बहुत ज़्यादा  टेंशन (तनाव), बहुत ज़्यादा परेशानी, कई सारी चीज़ें मन में आती रहती हैं। इसको शांत करने का सबसे बेहतर तरीका क्या हो सकता है?

आचार्य: कुछ भी हो सकता है। जान गए एक बार मन को, यही कह दिया करो कि —"इसकी तो आदत है।" क्या? "इसकी तो आदत है।" परेशानी आ रही है ख़ूब, तो बोल दिया करो। क्या? "इसकी तो आदत है।" या फिर यह कि—"कोई पहली बार हो रहा है?"

एक कहानी है जिसमें बिलकुल यही सवाल पूछा गया है। एक राजा गया था एक सूफ़ी के पास कि कुछ ऐसा मुझे दे दीजिए मंत्र कि जो मेरे सारे तनाव को दूर रखे। तो उसने एक ताबीज़ दे दिया, कहा कि—"यह है तुम्हारे पास, रखो अपने पास, पर इसे खोलना तभी जब हालत एकदम परेशानी की हो जाए।" तो एक बार राजा बहुत परेशान था, वह लड़ाई भी हार गया, राज्य से भी भाग रहा था, मौत सामने खड़ी दिखाई दे रही थी, तो उसने खोला। तो उसमें लिखा हुआ था: ''यह भी जाएगा ( दिस टू शैल पास )।"

मन की दुनिया में जो कुछ भी है, वह आता है और चला जाता है। जब कुछ नहीं टिका, तो यह भी कैसे टिकेगा? "एक दिन मैं ख़ुश था", कभी ख़ुश थे कि नहीं थे? वह ख़ुशी चली गई, तो दुःख भी चला जाएगा। इसकी तो आदत है, इसमें लहरें उठती हैं, गिरती हैं; यह भी जाएगा। या फिर जब बहुत परेशान हो तो बोल दो, "हाँ साहब, आज फिर परेशान हैं आप?" बात कर लो मन को सामने बैठाकर। यह बड़ी अच्छी तकनीक है—मन को सामने कुर्सी पर बैठाया करो और बात किया करो। "हाँ भाई, क्या चाहिए? क्या छोटू? आज फिर परेशान हो?" वह छोटा तो है ही, उससे बात किया करो 'छोटू' कहकर। "क्या छोटू? क्या हुआ मुन्ना? क्या चिंता है?"

प्र: (प्रश्नकर्ता की आवाज़ सुनाई नहीं देती, वह जिन्न के बारे में बात करते हैं)

आचार्य: बोलो, "जिन्न तो पकड़े हुए है। अभी जिन्न से ही तो बात कर रहे हैं।" भूलना नहीं, जिन्न कहाँ है? मन में, खोपड़े में। उसका समाधान भी कहाँ है? खोपड़े में। बाहर मत करने लग जाना, कि पेड़ में समाधान करने लग गए, और इधर-उधर समाधान करने लग गए। यहाँ है, यहीं करना।

प्र: "काल करै सो आज कर, आज करै सो अब, पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब।"

संत कहते हैं कि जिस काम को कल करना है, उसे आज ही कर डालो। और जो आज करना है उसे अभी ही कर डालो। वरना पल भर में अगर कोई प्रलय आ जाएगी, परेशानी आ जाएगी, तो फिर कब करोगे? जब हम कह देते हैं कि, "अभी मन नहीं है और बाद में करते हैं काम", तो ख़ुद को सांत्वना देने के लिए, दिलासा देने के लिए टाल देते हैं। और सच बात यह है कि उस काम को करने का कभी मन नहीं करता है और कल कभी आता नहीं है, इसलिए वह काम रह जाता है और हो नहीं पाता। यह संत के ज़माने की थी और आज के ज़माने की यह है कि—"आज करै सो काल कर, काल करै सो परसों, पल में परलय नहीं होएगी, अभी पड़े हैं बरसों।"

आचार्य: नहीं, ये दोनों ऐसा नहीं है कि अलग-अलग ज़माने के हैं। यह दोनों हर ज़माने के हैं और हर समय वैध हैं, ये अलग-अलग दृष्टियाँ हैं, इन्हें समझो। दोनों बातें कबीर ने ही कहीं हैं, और दोनों एक साथ सही हैं।

पहली बात: जब वह कह रहे हैं कि—"काल करै सो आज कर, आज करै सो अब", तो यहाँ पर वो मन पर रोक लगा रहे हैं; जो भागा हुआ मन है उसको वापस बुला रहे हैं। मन कहाँ को भागा हुआ है? कल को, मन भागा हुआ है भविष्य को। वो मन को वापस बुला रहे हैं। और मन कहाँ है? मन वहाँ है। वहाँ क्या है? भविष्य। वो मन को वापस बुला रहे हैं। वो कह रहे हैं कि, "कहाँ तू बात कर रहा है कि कल ये करेंगे, परसों ये करेंगे। आज में आ जा। चल, अभी में आ जा।" मन कह रहा है, "कल करेंगे अच्छा काम।" और संत के लिए कल होता नहीं, वह समय को बाँटता नहीं। तो उसको खींच रहे हैं, "वापस आ, वापस आ, वापस आ।" अब वापस आ गया, ठीक है। अब जब वापस आ गया है, तो फिर वह क्या कह रहा है? अब वह फिर छिटकना चाहता है, शांत बैठना नहीं चाहता, ठीक है। वह फिर कह रहा है कि—"देखो, ये करना है, वो करना है, सत्तर चीज़ें करनी हैं।" तब कबीर साहब उसे शांत रहने का उपदेश दे रहे हैं। तब उससे कह रहे हैं कि—"अरे! तू क्यों परेशान हो रहा है? तू शांत रह ले न। समय बह ही रहा है, और समय को तुमसे जो कराना होगा, वह करा लेगा। तुम क्यों इतने परेशान हो रहे हो? कर्म तो लगातार चल ही रहा है।" तो पहला दोहा तब कहा गया है जब मन छिटका हुआ है, दूर है; दूसरा दोहा तब कहा गया है जब मन पास आ गया है, शांत है, लेकिन छिटकने को तैयार हो रहा है। हैं यह दोनों संत के ही वचन, दूसरे को यह मत समझ लिया करो कि यह कोई आज के युग की कोई नयी बात है। और दोनों ही बातें मन को बोलनी पड़ती हैं।

देखो, जो पहला वाला दोहा है—"काल करै सो आज कर", वह तो कबीर साहब का ही है। दूसरा कबीर साहब का है या नहीं, यह नहीं कह सकता हूँ। लेकिन दूसरे की अपनी सार्थकता है, उसको मज़ाक के ही तौर पर नहीं लेना चाहिए, और न यह समझना चाहिए कि वह पैरोडी है या कुछ और है।

उसकी भी अपनी सार्थकता है।

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