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आज भगतसिंह क्यों नहीं पैदा होते?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम!

आचार्य प्रशांत: जी।

प्र: अभी रात के बारह बज गये हैं। शहीद दिवस शुरू हो चुका है। और पिछले कुछ दिनों से मैं भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु — इनके विषय में पढ़ने की कोशिश कर रहा था। तो मेरे पास एक किताब आई जिसमें भगत सिंह के बहुत सारे लेख और उन्होंने जो लेटर्स (पत्र) जेल से अपने घरवालों को लिखे थे, वो सब मुझे वहाँ पढ़ने को मिले।

आचार्य: 'भगत सिंह रीडर'?

प्र: जी, 'भगत सिंह रीडर'।

उसमें दो-तीन लेटर्स थे और दो-तीन लिखे गए लेख थे जो मुझे बहुत अच्छे लगे। तो मैं चाहता था कि आपसे उनके बारे में पूछूँ।

मैं, सबसे पहले तो एक लेटर था जो भगत सिंह ने मेरे ख़्याल से तब लिखा था जब उनके पिताजी ने एक अपील दायर की थी कोर्ट में कि उनको (भगत सिंह को) जिस सज़ा के लिए बुलाया जा रहा है, जिस केस के लिए उन्हें बुलाया जा रहा है कोर्ट में, वो उसके दोषी नहीं हैं। और उन्हें उस पूरी प्रक्रिया से बाहर निकाल दिया जाए और उन्हें बचा लिया जाए।

और आश्चर्य मुझे तब हुआ जब भगत सिंह को ये बात पता चली तो उन्होंने इसके बारे में फिर अपने पिता को उसी वक़्त एक लेख लिखा और अगर मैं सही शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ तो उन्होंने शायद उनको डाँटा ही था उसमें। सबसे पहली लाइन (पंक्ति) ही कुछ ऐसी थी कि "आई एम एसटाउन्डेड टू सी दैट यू हैव ट्राइड डुईंग सो एंड सो" (मैं चकित हूँ यह देखकर कि आपने ये-ये करने का प्रयास किया है)।

तो वो उनपर बहुत सारी बातें कहते हैं कि आप जो कुछ भी लिख रहे हैं, या आपने जो कुछ मुझे फाँसी से बचाने की कोशिश करी, वो अपनेआप में एक कमज़ोरी की निशानी है।

एक हद तक तो वो ये तक कह देते हैं कि आपने मेरे पीठ में खंजर घोंपा है ये ख़त लिखकर और मुझे बचाने की कोशिश करके।

तो ये मेरे लिए थोड़ा अलग था। मैंने शायद इस तरह से किसी बीस-बाईस साल के व्यक्ति को अपने पिता से बात करते हुए नहीं देखा; बस मैंने पढ़ा वहाँ पर तो मुझे थोड़ा अचरज हुआ।

इसके बाद मैं एक जगह देख रहा था कि भगत सिंह ने ही एक टाइम (समय) पर श्री रामप्रसाद बिस्मिल जी की जीवनी लिखी थी। और उस जीवनी में वो एक बड़ी सुधरी बात बताते हैं और वहाँ पर दिखाते हैं कि जब बिस्मिल जी को फाँसी मिलनी थी उससे सिर्फ़ एक रात पहले उन्हें मौका मिला अपनी माँ से मिलने का। और जब उनकी माँ उनके सामने पड़ी, वो जेल में थे, तो अपनेआप ही उनकी आँखों से आँसू आने शुरू हो गए।

अब इस मौके पर भगत सिंह जी लिखते हैं कि उनकी माँ ने उन्हें सांत्वना नहीं दी, उन्हें पुचकारा नहीं। उल्टा उनसे कहती हैं कि ये पछतावे की और संदेह की कोई ज़रूरत नहीं है। जिस तरह तुम्हारे पूर्वजों ने देश के लिए और धर्म के लिए बलिदानी दी है वैसे ही तुम भी दो और इसमें डरने की कोई बात नहीं है।

उनकी बात सुनकर बिस्मिल थोड़ा हँसते है और हँसने के बाद उनसे बोलते है कि ‘डर, संदेह की बात क्या है! मैंने कोई पाप थोड़े ही किया है। वो तो तुम्हारा-मेरा रिश्ता कुछ ऐसा है कि जैसे आग के पास कोई घी को ले आए तो वो थोड़ा पिघल तो जाता ही है। बस इसलिए कुछ आँसू आ गए। वैसे मैं खुश हूँ, मुझे कोई दिक्क़त की बात नहीं है।’

और इसी तरह कुछ बातचीत हुई और बातचीत ख़त्म हुई। और फिर बताते हैं कि अगले दिन उनको फाँसी दे दी गयी।

अब जब मैंने दोनों किस्से पढ़े और मैं यहाँ पर इस बात को देखकर बार-बार सोच रहा था कि यहाँ पर मेरे सामने बीस-पच्चीस साल के नौजवान खड़े हैं जो अपने माँ-बाप से बात कर रहे हैं। तो जिस तरह की बातचीत हुई वो मेरे लिए बड़ी नयी थी। और हमने भगत सिंह के कारनामे बहुत सुने हैं कि उन्होंने उसको गोली मार दी, उन्होंने यहाँपर असेंबली में बम फोड़ दिया। पर ये जो साइड (पक्ष) है भगत सिंह के, ये जो साइड है किसी क्रांतिकारी की इसकी कभी कोई बात नहीं करता।

और दूसरी बात मेरे मन में जो बार-बार आ रही थी वो ये थी कि ये जो साहस या जो वीरता उसको हम बोलते हैं, जिसकी इतनी प्रशंसा भी करते हैं; ये आती कहाँ से है?

और दूसरी बात ये कि हम लोगों के अन्दर एक कायरता कहाँ से आती है? हम लोग वैसे क्यों नहीं हैं?

आचार्य: हाँ, ये जो मुझे भेजा है तुमने, अंग्रेज़ी में है प्रिंटआउट , राम प्रसाद बिस्मिल की आख़िरी मुलाकात का उनकी माताजी से, भगत सिंह के शब्दों में।

ये मैं पढ़े देता हूँ।

हिंदी वाले श्रोताओं को थोड़ी तकलीफ़ होगी तो मैं चाहूँगा कि जब उनके सामने जाए तो इसका हिंदी अनुवाद भी साथ में चला जाए।

अभी अंग्रेज़ी मैं पढ़े देता हूँ।‌

इसके साथ में आपने एक ये तीसरा पन्ना और लगाया है, ये क्या है? जिसमें सीआईडी के मिस्टर हैमिल्टन की बात है। ये क्या है?

प्र: ये आचार्य जी, शायद मैंने पूरी बात नहीं पढ़ी। पर ये जो पूरा लेख है ये एकसाथ लिखा हुआ था। भगतसिंह जी ने ही लिखा है वहाँ पर। और ये असल में दो लेख हैं जिसमें पहला वाला जो लेख है वो एक पत्रिका के लिए लिखा था। और जो दूसरा लेख है दूसरी पत्रिका के लिए लिखा।

आचार्य: तो मैं अभी पहले पहला पढ़ देता हूँ। वही अभी इस संदर्भ में ज़्यादा अर्थपूर्ण है।

श्री राम प्रसाद बिस्मिल वॉज़ ए वेरी प्रॉमिसिंग यंग मैन, अ वंडरफुल पाॅयट, वेरी हैंडसम टू लुक ऐट, वेरी टैलेंटेड। दोज़ हू न्यू हिम सेड दैट हैड ही बीन बाॅर्न इन अनदर प्लेस, अ कंट्री ऑर अनदर एरा ही वुड हैव बीन एन आर्मी चीफ़। ही हैज़ बीन कंसीडर्ड द लीडर ऑफ द इंटायर काॅन्स्पिरेसी।

इवेन दो ही वाॅज़ नॉट वेरी एजुकेटेड, ही हैड बीट अ पब्लिक प्रॉसिक्यूटर लाइक पंडित जगत नारायण। ही रोट हिज़ अपील इन द चीफ़ कोर्ट हिमसेल्फ अपॉन व्हिच द जजेज़ कॉमेंटेड दैट अ वेरी इंटेलीजेंट एंड कॉम्पिटेंट पर्सन हैड ए हैंड इन द राइटिंग ऑफ द अपील।

ही वॉज़ हैंग्ड ऑन द इवनिंग ऑफ़ द नाइन्टीन्थ दिसंबर। व्हेन ऑन द इवनिंग ऑफ ट्वेल्फ्थ दिसंबर ही वाॅज़ ऑफ़र्ड मिल्क ही डिक्लाइंड सेइंग दैट नाऊ ही वुड ड्रिंक ओनली हिज़ मदर्स मिल्क।

ही मेट हिज़ मदर ऑन एटींथ दिसंबर, दैट्स वन डे बिफोर द हैंगिंग, ह्वेन ही मेट हर टियर्स ट्रीम्ड फ्रॉम हिज़ आईज।

हिज़ मदर वाॅज़ ए वेरी स्ट्राॅन्ग लेडी। शी सेड टू हिम सैक्रिफाइस योर लाइफ़ विद करेज फाॅर धर्म एंड कंट्री लाइक एल्डर्स सच ऐज़ हरिश्चंद्र, दधीचि एट्सेक्ट्रा, देयर इज़ नो नीड टू वरी और रिग्रेट एनीथिंग।

ही बर्स्ट इन टू लाफ्टर, सेड: ‘माँ व्हाट वरी एंड व्हाट रिग्रेट वुड आई हैव? आई एम नॉट कमिटेड एनी सीन, आईएम नॉट अफ्रैड ऑफ डेथ। बट माँ घी ’— ह्विच इज़ — व्हाट डू वी कॉल इट?

सैचुरेटेड मिल्क?

(श्री राम प्रसाद बिस्मिल एक बहुत ही होनहार युवक थे और एक अद्भुत कवि थे। देखने में बहुत सुंदर, बहुत प्रतिभाशाली। जो लोग उन्हें जानते थे उनका कहना था कि अगर वह किसी और जगह या किसी अन्य देश या काल में पैदा हुए होते तो वह एक सेना में प्रमुख होते। उन्हें पूरे षड्यंत्र का सरगना माना गया है।

भले ही वह बहुत ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे, फिर भी वे पंडित जगत नारायण जैसे सरकारी वकील को हरा देते थे। उन्होंने स्वयं मुख्य न्यायालय में अपनी अपील लिखी जिसपर न्यायाधीशों ने टिप्पणी की की उस अपील के लेखन में किसी बुद्धिमान और सक्षम व्यक्ति का हाथ था।

उन्हें उन्नीस दिसंबर की शाम को फाँसी दे दी गई थी बारह दिसंबर की शाम को जब उन्हें दूध पीने के लिए दिया गया तो उन्होंने यह कहा कहते हुए मना कर दिया कि अब मैं सिर्फ़ अपनी माँ का दूध पिऊँगा।

श्री राम प्रसाद बिस्मिल को फाँसी की सज़ा सुना दे गयी थी। फाँसी के एक दिन पहले जब उनकी माँ उनसे मिलने पहुँची तो उनके बीच एक अद्भुत बातचीत हुई।

(माँ को देखते ही बिस्मिल की आँखों में आँसू आ गए)

माँ: अपने पूर्वजों की तरह धर्म और देश के लिए अपने जीवन का बलिदान देने में मत घबराओ! जैसे हरिश्चंद्र, दधीचि इत्यादि ने दिया था। संदेह और पछतावे की कोई जगह नहीं है।

(बिस्मिल यह सुनकर जोर से हँसने लगे)

बिस्मिल: माँ! मुझे कैसा पछतावा और कैसा संदेह! मैंने कोई पाप थोड़ी किया है। मुझे मौत का डर नहीं है। लेकिन अगर घी — हम घी को क्या कहते हैं?

श्रोतागण: क्लेरिफाइड बटर।

आचार्य: क्लेरिफाइड बटर।

‘बट माँ घी केप्ट नियर द फायर इज़ बाउंड टू मेल्ट। आवर रिलेशनशिप इज़ सच दैट टियर्स वेल्ड इन माय आईज अदरवाइज़ आई एम वेरी हैप्पी।’

(अगर घी आग के पास आएगा तो पिघल ही जाएगा न! वो तो तुम्हारे साथ रिश्ता ही कुछ ऐसा है कि आँखें भर आईं, नहीं तो मैं बहुत खुश हूँ)

एज़ वाॅज़ टेकिंग टू द गैलोज़, ही प्रोक्लेम्ड लाउडली ‘वंदे मातरम्’, ‘भारत माता की जय’ एंड वाॅक्ड अहेड कामली सेइंग :

‘मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे’ —

मालिक तेरी रज़ा रहे, और तू ही तू रहे। बाकी न मैं रहूँ, न मेरी आरज़ू रहे।।

‘मालिक तेरी रज़ा रहे, और तू ही तू रहे । बाकी न मैं रहूँ, न मेरी आरज़ू रहे’।

भगत सिंह हैज़ मेंशंड दैट ही वाॅज़ वंडरफुल पॉयट, वेरी टैलेंटेड एंड द हैंडसम मैन एट दैट टाइम

मालिक तेरी रज़ा रहे, और तू ही तू रहे । बाकी न मैं रहूँ, न मेरी आरज़ू रहे।।

जब तक कि तन में जान, रगों में लहू रहे। तेरा ही ज़िक्र यार, तेरी जुस्तजू रहे।।

‘जब तक कि तन में जान, रगों में लहू रहे। तेरा ही ज़िक्र यार, तेरी जुस्तजू रहे।’

लॉर्ड मे योर विल प्रीवेल एंड मे यू प्रीवेल नाईदर आई नॉर माय डिज़ायर मे रीमेन। टिल देयर इज़ लाइफ़ इन द बॉडी एंड ब्लड इन माय वेंस मे यू बी रिमेंबर्ड एंड लॉन्ग्ड फॉर। एज़ ही स्टुड ऑन द प्लेटफॉर्म ही डिक्लेयर्ड: ‘आई विश द डाउनफॉल ऑफ द ब्रिटिश एंपायर’। ‘आई विश द डाउनफॉल ऑफ द ब्रिटिश एंपायर’— लास्ट वर्ड्स।

एंड देन ही रिसाइटेड:

अब न अहल-ए-वलवले हैं, और न अरमानों की भीड़। एक मिट जाने की हसरत, अब दिल-ए-बिस्मिल में है।

नाउ देयर आर नो स्वीट डिज़ायर्स। नोर डू होप्स थ्रोंग (check at 9:51)। जस्ट अ डिजायर टू डाई नाऊ लिव्स इन द वुंडेड हार्ट।

देन ही बिगेन टू प्रे एंड चांट अ प्रेयर। द रोप वाॅज़ पुल्ड, रामप्रसाद जी वॉज़ हैंग्ड। टुडे दैट ब्रेव इज़ नो लॉन्गर इन द वर्ल्ड।‌ द इंग्लिश गवर्नमेंट कन्सीडर्ड हिम अ फॉर्मिडेबल एनेमी।

द पॉपुलर नोशन इज़ दैट हिज़ ओनली फॉल्ट वाॅज़ दैट ही वाॅज़ बाॅर्न इन दिस कॉलोनाइज्ड कंट्री। बट हैड बिकम हैवी बर्डेन टू बीयर एंड अ वेल वर्स्ड इन वॉरफेयर। अ ब्रेव वॉरियर लाइक द ग्रेट लीडर ऑफ मैनपुरी कंस्पिरेसी‌ श्री गेंदालाल दीक्षित हैड ट्रैंड हिम। ड्यूरिंग द मैनपुरी केस ही हैड इस्केप्ड टू नेपाल। नाउ दैट वेरी ट्रेनिंग बीकेम अ काॅज़ ऑफ हिज़ डेथ।

हिज़ डेड बॉडी वॉज़ हैंडेड ओवर ऐट सेवेन एन्ड अ ह्यूज प्रोसेशन वाॅज़ कैरीड आऊट। हिज़ मदर सेड इन हर लव फॉर द फ्रीडम ऑफ कंट्री: ‘आई एम हैप्पी एट सच अ डेथ ऑफ माय सन, नॉट सैड। आई वाॅन्टेड अ सन लाइक श्री रामचन्द्र। मे श्री रामचन्द्र लिव लॉन्ग!’

हिज़ प्रोसेशन वॉज़ बिडेक्टेड विद फ्लावर्स एंड रिथ्स। शाॅपकीपर्स शॉवर्ड मनी फ्रॉम रूफ टाॅप्स। नाऊ ऐट इलेवेन दे रीच द क्रेमेशन ग्राउंड एंड द लास्ट राइट्स वर कन्डक्टेड।

द कनक्लूडिंग पार्ट ऑफ़ हिज़ लेटर इज़ प्रेजेंटेड हियर फॉर यू: ‘आई एम वेरी ग्लैड — आई एम वेरी ग्लैड, आई एम रेडी फॉर व्हाट हैज़ टू हैपेन ऑन द मॉर्निंग ऑफ द नाइन्टीन्थ। गॉड विल ग्रांट मी स्ट्रेंथ। आई फेथ दैट आई शैल बी रीबॉर्न वेरी सून टू सर्व पीपुल अगेन। प्लीज़ से माई नमस्कार टू एवरीवन। काइंडली डू वन थिंग मोर फॉर मी, से माय फाइनल नमस्कार टू पंडित जगत नारायण’ — हू इज़ पंडित जगत नारायण?

द पब्लिक प्रॉसिक्यूटर हू डिड एवरीथिंग टू गेट श्री रामप्रसाद बिस्मिल हैंग्ड। एंड इन हिज़ फाइनल लेटर ही सेज़, 'प्लीज़ से माय फाइनल नमस्कार टू पंडित जगत नारायण। मे ही स्लीप इन पीस विद द मनी फ्रॉम आवर ब्लड ऑन हिज़ हैन्डस। मे गॉड ग्रांट हिम विजडम इन हिज़ ओल्ड एज।'

ऑल राम प्रसाद जीज़ डिज़ायर्स रीमेन्स लाॅक्ड इन हिज़ हार्ट। ही मेड अ ग्रैंड डिक्लेरेशन दैट वी आर प्रजेंटिंग सेपेरेटली।

एंड सो ऑन गोज़ द लेटर।

(भगवान आपकी इच्छा प्रबल हो और आप प्रबल हों। ना तो मैं और ना ही मेरी इच्छा रह सकती है। जबतक शरीर में जान है और मेरी रगों में ख़ून है, मैं आपकी ही इच्छा करूँ।

जैसे ही वह तख्ते पर खड़े हुए, उन्होंने उद्घोष की: ‘मैं अंग्रेजी हुकूमत का पतन चाहता हूँ।’

और फिर उन्होंने पाठ किया:

अब न अहल-ए-वलवले हैं, और न अरमानों की भीड़। एक मिट जाने की हसरत, अब दिल-ए- बिस्मिल में है।

अब न कोई इश्क़ है, न उम्मीदें उमड़ती हैं बस अब मरने की तमन्ना ज़ख्मी दिल में बसती है!

फिर वो भगवान से प्रार्थना करने लगे। रस्सी खींची गई। रामप्रसाद जी को फाँसी पर लटका दिया गया।

आज वह बहादुर दुनिया में नहीं है। अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें एक दुर्जेय दुश्मन माना। लोकप्रिय धारणा यह है कि उनका एकमात्र दोष यह था कि वह गुलाम देश में पैदा हुए थे, लेकिन सहन करने के लिए एक भारी बोझ बन गए थे और युद्ध में पारंगत थे। मैनपुरी षड्यंत्र के नेता श्री गेंदालाल दीक्षित जैसे वीर योद्धा ने उन्हें प्रशिक्षण दिया था।

मैनपुरी केस के दौरान वह नेपाल चले गए थे। अब यही प्रशिक्षण उनकी मृत्यु का कारण बना। उनका शव सात बजे सौंप दिया गया और एक विशाल जुलूस निकाला गया।

उनकी माँ ने देश की आज़ादी के लिए अपने प्यार में कहा: ‘मैं अपने बेटे के लिए ऐसी मौत पर खुश हूँ, दुखी नहीं। मुझे श्री रामचंद्र जैसा पुत्र चाहिए था। श्री रामचंद्र दीर्घायु हों!’

उनका जुलूस फूलों और माल्यार्पण से सज्जित था। दुकानदारों ने छतों से पैसे बरसाए। ग्यारह बजे वह श्मशान घाट पहुँचे और अंतिम संस्कार किया गया।

उनके पत्र का अंतिम भाग आपके लिए यहाँ प्रस्तुत किया गया है: ‘मैं बहुत खुश हूँ। मैं उन्नीस तारीख़ की सुबह के लिए तैयार हूँ। भगवान मुझे शक्ति प्रदान करेंगे। मुझे विश्वास है कि मेरा पुनर्जन्म होगा और जल्दी ही फिर से लोगों की सेवा करूँगा। कृपया सभी को मेरा नमस्कार कहें।

कृपया मेरे लिए एक और काम करें— पंडित जगत नारायण को मेरा अंतिम नमस्कार कहें। कि वह हमारे ख़ून से सने पैसे अपने हाथों पर लेकर चैन की नींद सो सकता है! भगवान तुम्हें बुढ़ापे में सद्बुद्धि प्रदान करें!’

राम प्रसाद जी की सारी इच्छाएँ उनके हृदय में बंद हो जाती हैं। उन्होंने एक शानदार उद्घोषणा की जिसे हम अलग से प्रस्तुत कर रहे हैं।

इस प्रकार, पत्र आगे बढ़ता है।)

तो ये है।

‘मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे, बाकी न मैं रहूँ, न मेरी आरज़ू रहे। जब तक है तन में जान, रगों में लहू रहे तेरा ही ज़िक्र यार, तेरी जुस्तजू रहे।’

तो उदित जी ने पूछा कि कहाँ से एक बीस-पच्चीस वर्ष के युवक में ये साहस आ गया? आजकल दिखाई नहीं देता ये साहस, उनमें कहाँ से आया? और ये कायरता हममें कहाँ से आयी? जो साधारण एक नौजवान है जो एक साधारण हिंदुस्तानी है, उसमें ये उफ़ान, ये सूरमाई कहीं देखने को क्यों नहीं मिलती?

वजह तो शायद इस विवरण में ही झलक रही है। वजह है — माँ। माँ वजह है। माँ माने दोनों, एक वो जो दैहिक माँ है, जो माँ रूपी व्यक्ति है, जो माँ रूपी स्त्री है। और दूसरी प्रकृति माँ, जो ये शरीर है, जो ये संसार है। ये वजह है।

माँ ही कायरता की जननी है और माँ ही बड़ी-से-बड़ी बहादुरी को, वीरता को जन्म दे सकती है। कायरता की जननी तो प्रकृति निश्चित रूप से होती है, पर वीरता को जन्म वो बस संभावित तौर पर दे सकती है।

आप एक साधारण भारतीय घर को लें, उसमें एक जवान लड़का हो या लड़की हो, ये कितनी भी कायरता की, भीरुता की, नालायकी की हरकतें करें दुनिया में—और कायरता और नालायकी की हरकतें ये करेंगे क्योंकि यह शरीर तो बस आत्मरक्षा जानता है, न? शरीर वीरता नहीं जानता। वीरता सीखनी पड़ती है। वीरता का सम्बन्ध चेतना से है। कायरता का सम्बन्ध शरीर से है। तो वीरता सीखनी पड़ती है। कायरता हम लेकर पैदा होते हैं।

तो ये जो घर का जवान लड़का है ये दुनियाभर में अपनी कायरता प्रदर्शित करता फिरे—क्योंकि देह ही कायर है तो ये हर जगह अपनी कायरता दिखा रहा है, प्रकृतिगत बात है—ये जब घर आता है, तुरंत इसको गोद और छाया और आँचल मिल जाते हैं कि नहीं मिल जाते? बस यही बात है।

और यही अंतर है राम प्रसाद जी की माता जी में और साधारण माताओं में। अगले दिन, अगली सुबह सात बजे उन्हें फाँसी होनी है। पिछली रात मिलने आई हैं और ज़रा-सी आँखें छलछला गईं तो बोल रही हैं, ‘ये क्या कर रहे हो! ये तुममें कहाँ से कमज़ोरी आ गयी!’

ये माँ हैं — माँ।

‘तुम वहाँ से आ रहे हो जहाँ से दधीचि आए थे कि अधर्म को हराने के लिए अपनी देह मिटाकर के अपनी हड्डियाँ देना स्वीकार किया। तुम वहाँ से आ रहे हो जहाँ से हरिश्चंद्र आये थे कि सत्य की रक्षा के लिए सबकुछ त्यागना स्वीकार किया। तुम रो कैसे पड़े? तुमने ये कमज़ोरी मुझे दिखा कैसे दी?’

ये माँ हैं।

एक बार को थोड़ा स्थिति के निकट जा करके देखिए, कुछ घंटों के बाद बेटे को फाँसी हो जानी है। ये माँ नहीं मिलती न, इसलिए भारत में वीर बहुत कम नज़र आते हैं।

माँ से ज़्यादा कोई नहीं होता जो आपको कायर और कमज़ोर बनाए और माँ से बेहतर स्थिति किसी की नहीं होती जो आपमें वीरता का संचार कर दे।

लेकिन वीरता का संचार आपमें वही माँ कर सकती है जो राम प्रसाद बिस्मिल जी की माँ जैसी। जिसकी पहली निष्ठा धर्म में हो, जिसका पहला आग्रह सत्य के प्रति हो, जो बेटे से उसके आख़िरी क्षण में भी मिल रही हो तो बात धर्म की कर रही हो। पुरानी स्मृतियों की नहीं — ‘जब तू छोटा था तो ऐसा था। क्या अभी भी कोई तरीक़ा हो सकता है कि तेरी जान बच जाए, बेटा?’ कुछ नहीं।

बेटे से जो आख़िरी मुलाकात हो रही है वो भी धर्म की बात पर हो रही है, वो भी राष्ट्र की बात पर हो रही है। ऐसी माँ चाहिए। ऐसी माएँ नहीं मिल रहीं।

माँ शरीर देती है। और भूलिएगा नहीं कि शरीर तो हम सब का पशुओं जैसा ही है। माँ के गर्भ से जो शरीर पैदा होता है वो ठीक वैसे ही आत्मरक्षा के लिए प्रयासरत रहता है जैसे किसी भी पशु का।

दो पशु लड़ रहे हैं, आप पाएँगे एक जब हल्का पड़ने लगेगा वो भाग लेगा। कोई भी पशु पलायन करने में लज्जा का अनुभव नहीं करता। यहाँ तक कि शेर और बाघ भी पलायन कर जाते हैं, मैदान छोड़कर भाग जाते हैं। लज्जा की कोई बात ही नहीं है। लज्जा जैसा कोई मूल्य ही नहीं है देह के संसार में। मूल्य किसका है? मूल्य देह की रक्षा का है। मूल्य वीरता का नहीं है, मूल्य देह की रक्षा का है।

और वीरता क्या दिखाएँ? सारे जो युद्ध ही हैं जब वो रोटी-पानी के लिए होते हैं पशुओं में तो उसमें कौनसा उच्चतर मूल्य या आदर्श सम्मिलित है कि प्राण दे दिए जाए! वो तो लड़ाई ही इसलिए हो रही है कि खाना किसको मिलेगा या मादा किसको मिलेगी या किसी क्षेत्र पर किसका क़ब्ज़ा रहेगा। तो इन मूल्यों में ऐसी कोई बात होती भी नहीं कि उसके लिए प्राण दे दिए जाए।

प्रकृति में कायरता तो बहुत उपयोगी चीज़ है। जहाँ देह असुरक्षित हो रही हो वहाँ से दुम दबाकर भाग लो! जिस पक्ष का पलड़ा भारी हो रहा हो उस पक्ष की तरफ़ झुक जाओ, शामिल हो जाओ। क्योंकि उधर को जाओगे तो खाना-पानी बढ़िया मिलेगा, जीवन के लिए स्थितियाँ ज़्यादा अनुकूल मिलेंगी। तो प्राकृतिक होने का अर्थ ही होता है कायर होना। आप हो ही नहीं सकता कि प्रकृति-प्रदत्त शरीर लिए हुए हो और आप कायर न हो।

प्रकृति आपको कायर बनाती है क्योंकि कायरता के लाभ हैं। ये (शरीर) प्रकृति है। ये प्रकृति माँ है। ये प्रकृति माँ है ये। इसी तरीक़े से बाहर जो ये तमाम संसार फैला हुआ है ये भी प्रकृति माँ है। और ये भी आपको कायर बनाती है। क्योंकि जो बाहरी व्यवस्था चल रही है ये व्यवस्था इसलिए नहीं चल रही है कि आपकी चेतना को उत्कर्ष मिले। ये बाहरी व्यवस्था इसलिए चल रही है ताकि सबका खाना-पीना, मौज-मस्ती बढ़िया तरीक़े से होती रहे।

जब खाना-पीना, मौज-मस्ती, तमाम तरह के भोग— यही हमारी सभ्यता और संस्कृति का लक्ष्य हैं तो उसमें वीरता के लिए क्या स्थान बचता है!

भाई, जिधर खाना-पीना बढ़िया चल रहा है उस तरफ़ को चले जाओ, वीरता क्या दिखा रहे हो! आज तुम्हारे गले में किसी का पट्टा था वो तुम्हें खाना-पीना देता था, कल कोई और तुम्हारे गले में पट्टा डाल कर तुम्हें खाना-पीना देगा। अपने नये मालिक के दरवाज़े पर बंध जाओ कुत्ते की तरह और वहाँ पर काम करना अब शुरू कर दो, चौकीदारी, रक्षा करना शुरू कर दो। इसमें ज़्यादा तुम वीरता वग़ैरह क्या दिखा रहे हो! जो तुमको रोटी डाल दे, उसी के लिए भौंकना शुरू कर दो। वीरता क्या दिखानी है!

इस आदर्श पर समाज चलता है, लगभग यही आदर्श। आप त्रुटियाँ निकाल सकते हैं, मैं अतिशयोक्ति कर रहा हूँ। पर मैं जिस ओर इशारा कर रहा हूँ समझने की कोशिश करिए।

तो हम जिस शरीर के साथ पैदा होते हैं वो हमें कायर बनाता है। हमारी जो शारीरिक माँ होती है, हमारी माताजी घर में, वो हमें कायर बनाती हैं क्योंकि उनका आध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं है। वो बस यही चाहती हैं कि बच्चे का, बेटे का या बेटी का शरीर बचा रहे, वो अपना दिखता रहे सुन्दर, उम्र लंबी जिये, बीमारियों से मुक्त रहे, नहा-धो ले, सिर में तेल डाल कर कंघा कर ले, कपड़े अच्छे पहन ले।

आप लोग भी अपनी माताओं से बात करते होंगे अक्सर तो वो ये तो नहीं पूछती होंगी कि बेटा तुम्हारा मन कितना स्वच्छ है अभी! वो ये पूछती होंगी— ‘खाना ठीक से खा रहा है?’

ये प्रकृति है। जिसमें चेतना के लिए बहुत कम स्थान है, जो बस ये चाहती है कि आपका शरीर चलता रहे। और जैसे ही ज़ोर शरीर के चलने पर होगा, कायरता शुरू हो गयी।

आपको दबाया ही कैसे जाता है? शरीर छीन लेने की धमकी देकर के। शरीर का मोह ही तो कायरता की शुरुआत है न? कोई कह देगा आपसे कि ‘शरीर छीन लेंगे,’ आप कायर हो गए। कोई कह सकता है कि ‘शरीर को जो सुविधाएँ मिल रही हैं वो छीन लेंगे,’ आप कायर हो गए। शरीर में ही कायरता बसती है।

तो अब ये तीन हैं— आपकी अपनी देह, जो कायर बना रही है। जो बाहर प्रकृति माँ का विस्तार है, वो आपको कायर बना रहा है; जो सामाजिक संस्थाएँ हैं, सामाजिक नियम-कायदे, सभ्यता-संस्कृति है वो कायर बना रहे हैं। और जो घर में माता जी बैठी हैं वो कायर बना रही हैं।

तो फिर वीरता कहाँ से आएगी?

वीरता भी इन्हीं तीनों जगहों में से कहीं से आ सकती है। या तो आपके भीतर स्वत: ही चेतना की ऐसी लौ प्रज्वलित हो जाए जो आपकी सारी कमज़ोरियों और कायरताओं को जला दे। पर ऐसा होना बड़ा मुश्किल होता है। कोई व्यक्ति स्वयमेव ही, अपनेआप ही, ख़ुद-ब-ख़ुद ज़रा आत्मज्ञानी हो जाए। और आत्मज्ञानी वो हुआ नहीं, कि बड़ा वीर हो जाएगा। हो सकता है ऐसा। पर बहुत कम होता है।

एक संभावना ये भी हो सकती है कि सामाजिक संस्थाओं में से कोई ऐसी हो जो आपमें वीरता का संचार कर दे आपको वीरता की शिक्षा देकर के। आपको कोई शिक्षक मिल जाए, आपको कोई संगी मिल जाए, कोई साथी मिल जाए, कोई गुरु मिल जाए जो आपकी कायरता को जला करके आपकी वीरता को उद्घाटित कर दे। पर ये भी मुश्किल है।

ये दोनों क्यों मुश्किल हैं?

ये दोनों इसलिए मुश्किल हैं क्योंकि आधारभूत रूप से आपका ज़्यादा सम्बन्ध तो घरवाली माँ से ही होता है। और बचपन से ही यदि घर वाली माँ ने आपको कायरता की ही घुट्टी पिला-पिलाकर के बड़ा करा है तो आगे बहुत मुश्किल होगा किसी गुरु के लिए आपको वीर बना देना। क्योंकि पहला सम्बन्ध तो आपका अपनी माता जी से ही रहा है न? माताजी ने अगर आपमें सही संस्कार नहीं डाले, तो आगे गुरु का काम बहुत मुश्किल हो जाता है।

और माता जी ने अगर आपमें सही संस्कार नहीं डाले, तब तो इस बात की संभावना और भी न्यून हो जाती है कि आपके भीतर से स्वयमेव, ख़ुद-ब-ख़ुद, चेतना की अग्नि उठेगी जो आपके बंधनों और कायरता को काट देगी। नहीं होने वाला।

तो जो घर में माता जी बैठी हैं — उसमें आप पिताजी को भी सम्मिलित कर सकते हैं, जब मैं कह रहा हूँ ‘घर में माता जी’ तो मेरा आशय अभिभावकों से है— तो जो घर में माता जी बैठी हैं, उनका जो योगदान है वो सर्वोपरि है आपकी कायरता में भी और आपकी वीरता में भी।

समझ में आ रही है बात?

खेद की बात ये है कि निन्यानबे दशमलव नौ प्रतिशत माताएँ ही ज़िम्मेदार होती हैं अपने बच्चों को अतिशय कायर बना देने के लिए। क्योंकि उन माताओं का अध्यात्म से कोई सम्बन्ध नहीं रहा होता है इसीलिए वो अपने बच्चों को भी घोर रूप से भौतिक बना देती हैं, देहवादी बना देती हैं। और बेटा या बेटी कभी ज़रा अध्यात्म या मुक्ति की दिशा बढ़ भी रहा हो, तो माता पीछे से स्वयं बंधन बनकर खड़ी हो जाती हैं।

और उसके विपरीत आप यहाँ देखिए, राम प्रसाद बिस्मिल जी की माताजी को। एक क्रांतिकारी को उसकी वीरता के लिए जितना श्रेय मिलता है उससे ज़्यादा श्रेय उसकी माँ को मिलना चाहिए।

अगर हमें निर्भीक युवाओं की पूरी एक पीढ़ी चाहिए तो उससे पहले हमें जागृत अभिभावकों की एक पूरी पीढ़ी तैयार करनी होगी।

कोई क्रांतिकारी पैदा नहीं हो सकता एक ऐसे घर में जिसमें आध्यात्मिक अँधियारा है। जिसे हम एक साधारण मध्यम-वर्गीय घर कहते हैं वो अँधेरे का घनघोर अड्डा होता है। वहाँ क्रांति की कोई लौ भी कभी नहीं टिमटिमाने वाली।

माँ वो चाहिए जो बच्चे को यदि शरीर दे, तो फिर ये भी बताए कि शरीर की हक़ीक़त क्या है। फिर ये भी बताए कि इस शरीर तक ही जीवन को सीमित करके नहीं रख देना है। कि शरीर को बचाए रखना ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। ये भी तो माँ को ही बताना होगा न? माँ नहीं तो कौन?

माँ वो चाहिए जो जन्म यदि दे तो फिर मुक्ति भी दे।‌ जन्म तुमने दिया न? तो मुक्ति भी तुम्हीं दोगी। दुर्भाग्य! कि ऐसी माँएँ मिलतीं नहीं।

माँएँ हमारी होती हैं ममता का बड़ा भारी कटोरा! बस भावनाएँ! बस देह! बस ममता और बस आँसू! मोह, बंधन, कमज़ोरियाँ, कातरता और कायरता!

अब समझ में आ रहा है कि तब भी भारत की आबादी चालीस करोड़ की थी, जिन दिनों की हम बात कर रहे हैं, आज से नब्बे बरस पहले। तब भी भारत की आबादी चालीस करोड़ की थी। कैसे हो पाया ऐसा कि उतनी दूर से चंद द्वीपों वाले एक देश की छोटी सी सेना इतने बड़े एक उपमहाद्वीप के चालीस करोड़ लोगों पर राज़ कर पायी? और उस देश की आबादी इस भारत देश की आबादी की दस प्रतिशत भी नहीं थी, दस प्रतिशत भी नहीं।

माँओं को पूरा श्रेय है भगत सिंह और राम प्रसाद बिस्मिल जैसे सपूतों को खड़ा करने का। और माँओं पर ही पूरा इल्ज़ाम है कि इस देश के करोड़ों युवा ज़बरदस्त रूप से कमज़ोर और कायर हैं। कमज़ोर और कायर हैं क्योंकि उनकी माँएँ उन्हें अपने आँचल से कभी वंचित नहीं करतीं।

पूत ज़माने में कायरता दिखाकर आए, तो क्यों नहीं माँ के पास जिगर है कि उसे घर से ही निकाल दे? क्यों दरवाज़ा खोल देती है? धर्म सर्वोपरि क्यों नहीं है तुम्हारे लिए? क्यों नहीं कहती है वो कि अधर्मी हो तो घर में नहीं घुसने दूँगी?

पूत को भलीभाँति पता है कि कितना भी गया-गुज़रा हो, लफंगा हो, लुच्चा हो, बदहाल हो, बदज़ात हो, पूरा ज़माना उसपर थूकता हो लेकिन माँ का ममतामयी आँचल तो उसे फिर भी मिल जाना है। उसका आत्मसम्मान बचा रह जाता है, उसका अहंकार बचा रह जाता है, उसका केंद्र टूटने नहीं पाता। वो कहता है, ‘और कोई मुझे प्रेम देता हो, न देता हो, माँ तो देती है न!’ वो बच जाता है।

मैं 'माँ' कह रहा हूँ, आप उसमें पिता को भी सम्मिलित कर सकते हैं, पत्नी को भी सम्मिलित कर सकते हैं, भाई और बहन को भी कर सकते हैं। मैं उन सबकी बात कर रहा हूँ जिनसे आपका रक्त का रिश्ता होता है।

बुज़दिल है अगर बेटा आपका तो आपने सह कैसे लिया? अधर्मी है अगर बेटा आपका तो उसे आपने घर में घुसने कैसे दिया?

पहली बात तो आपने उसको सही पालन-पोषण और शिक्षा नहीं दी। और दूसरी बात, आप उसकी कमज़ोरियों को और कायरताओं को लगातार प्रोत्साहन दिए ही जा रहे हो; क्या बोल करके? ‘अरे! हमारा बेटा है न!’ ये एक अधर्मी मन की निशानी है। ऐसे ही घर को नर्क कहते हैं, जिसमें सब प्रकार की कमज़ोरियों को ख़ूब संरक्षण मिलता है।

बेटा चाहिए भगत सिंह जैसा कि बाप ने फ़रियाद करी अंग्रेज़ों से, याचना करने लग गए तो भगत सिंह ने डाँट दिया— ‘क्या कर रहे हो! शर्मसार कर रहे हो मुझे?’

और बाप भी समझ गए। बोले, 'ठीक बात! नहीं करूँगा।' माँ-बाप इतने समझदार न होते तो भगत सिंह तैयार न होते।

माँ पूछ रही हैं— ‘कुड़माई? शादी? सगाई?’

वो कह रहे हैं, ‘मेरी दुल्हन आज़ादी है।’

कोई साधारण माँ होती तो छाती पीट-पीटकर घर सिर पर उठा लेती। बेटे का जीना दूभर कर देती।

पर माँ समझदार थी। माँ समझ गयी— ‘इसने तो आज़ादी से ब्याह कर लिया, ये नहीं करेगा अब शादी। और कोई बात नहीं, नहीं करेगा तो बहुत ऊँचा ब्याह कर लिया इसने अब।’ ऐसी माँ चाहिए।

समझ में आ रही है बात?

इसीलिए जो शक्तिपंथ है, देवी पूजन की जो धारा है सनातन धर्म में, जो पूरा शाक्त समुदाय ही है, वो माँ को दोनों तरह से देखता है— जीवनदायिनी भी कहता है और मुक्तिदायिनी भी कहता है। कहता है — जीवनदायिनी तो माँ है ही; पर मुक्तदायिनी सिर्फ़ तब होगी जब माँ की पूजा करोगे।

मतलब समझो!

अन्यथा माँ रुष्ट हो गयी तो तमाम तरह के कष्ट भी देगी। वो ये भी कहते हैं, ‘तुम्हे जितने कष्ट मिल रहे हैं वो भी इसलिए मिल रहे हैं क्योंकि माँ से विमुख हो गए तुम।’ माँ ही दोनों काम करती है— बंधन भी देती है और मुक्ति भी देती है। माँ के अतिरिक्त कोई नहीं जो बंधन दे, माँ के अतिरिक्त कोई नहीं जो मुक्ति देने की सामर्थ्य रखे।

आपका जिन भी लोगों से सम्बन्ध हो; जिनको आप अपने निकटस्थ कहते हों, प्रियजन कहते हों, कृपा करके उनके प्रति थोड़ी निर्ममता रखें। अनजाने लोगों के प्रति तो फिर भी चाहे आप थोड़ा लचर और मुलायम रवैया रख लें, चलेगा। जिनका आप वाक़ई भला चाहते हों; हित, कल्याण चाहते हों उनके प्रति निर्ममता रखें। उनको ज़रा भी बहकने, चूकने न दें।

ये एक स्वस्थ सम्बन्ध की ज़िम्मेदारी होती है अन्यथा आपको कोई अधिकार नहीं है कि आप कहें कि आप फ़लाने व्यक्ति के निकट हैं। अगर आप निकट हैं तो उस व्यक्ति को सही राह पर रखने की ज़िम्मेदारी और किसकी है? निकट तो आप हैं न! आपको वो अपने प्रियजनों में गिनता है। कोई व्यक्ति है जो आपको गिनता है अपने निकटस्थ प्रियजनों में, तो उस व्यक्ति को धर्म की राह पर रखने का भी दायित्व किस पर हुआ? जब आप ही उसके करीबी हो तो उसे धर्म की, सच्चाई की राह पर कौन रखेगा? आपके अलावा और कौन? तो इसलिए कह रहा हूँ जो लोग आपके क़रीब के हों उनके प्रति तो विशेषकर निर्मम रहिए।

और निर्ममता से मेरा आशय हिंसात्मकता नहीं है। निर्ममता से मेरा आशय बिलकुल वही है जो ये शब्द कह रहा है— निर्-ममता; वो व्यक्ति आपका नहीं है, उसे ‘मम्’ मत मानिए, ‘मेरा’ नहीं है।

आप अगर किसी के क़रीब हैं तो उसे सच्चाई को सौंप दीजिए। उसे ख़ुद को मत सौंप दीजिए। वो आपके लिए नहीं है। आमतौर पर हम जिनके निकट होते हैं हम कह देते हैं— वो मेरे लिए है, मेरा है। मेरा है न! मेरा बेटा है, मेरी बेटी है। मेरी पत्नी है, मेरा पति; जो भी है।

मम् नहीं, निर्ममता! आपका नहीं है। वो जिसका है, उसको उधर जाने दीजिए। वो जिसका है उसे उसको सौंप दीजिए। न आप अपनी देह के हैं, न आप किसी व्यक्ति के हैं। न और कोई व्यक्ति देह का है, न किसी अन्य व्यक्ति का है।

देह तो हम सबकी बस पशुओं की है।‌ यदि चेतना हैं हम तो वास्तव में हम बस मुक्ति के हैं। और अगर देह गिन रहे हो किसी की, तो देह तो पशुओं की है। या ये कह सकते हो देह तो मिट्टी की है, देह को मिट्टी हो जाना है। ‘मम देह’— ये कह करके तो मूर्खता दर्शा रहे हो न? तुम्हारी कैसे देह? दस साल में तो मिट्टी हो जाएगी!

तो देह को ‘मम्’ कहना मूर्खता है। और चेतना तुम्हारी होती नहीं। चेतना तो ख़ुद ही व्याकुल रहती है तुम्हीं से मुक्त होने के लिए, तो तुम्हारी कैसे हो जाएगी! चेतना को तुम्हीं से तो मुक्ति चाहिए।

जो तुम्हारे आस-पास के लोग हों, उन्हें स्वयं से मुक्त करो, उन्हें सच्चाई को सौंप दो। और ये मैं कोई सैद्धांतिक या मात्र किताबी बात नहीं कह रहा हूँ। अभी-अभी हमने राम प्रसाद बिस्मिल जी के आख़िरी क्षणों का वृतांत सुना, उनकी माँ से उनका आख़िरी साक्षात्कार पढ़ा। ये कोई काल्पनिक बात नहीं है। मत कह दो कि ‘अरे ऐसा थोड़ी होता है, ये तो किताबी बातें हैं।’ किताबी बातें नहीं हैं; सबसे ऊँची, असली बातें हैं। ऐसा हुआ है, ऐसा होना चाहिए। और ऐसा आपके साथ और आपके घर में नहीं हो रहा है, तो शर्म की बात है!

समझ में आ रही है बात?

आपका सबसे बड़ा दुश्मन वो है जो आपमें देहभाव का संचार करके रखे। माँ हैं अगर आप किसी की तो दुश्मन मत बनिए न! क्योंकि दावा तो आपका प्रेम का है। प्रेमी हो अगर किसी के, तो क्यों उसकी ज़िंदगी ख़राब कर रहे हो? क्यों प्रेम शब्द पर ही धब्बा लगा रहे हो?

क्या कहते हैं हम, "प्रेम पिंजड़ा नहीं देता, मुक्ति देता है।" कौन से प्रेमी हो कि उसे पिंजड़े में बंद कर रहे हो? और मोह और ममता से बड़ा कोई पिंजड़ा होता है?

भारत ने एक ये बड़ा ग़लत काम कर दिया है — भारत से मेरा अर्थ है ये जो अभी, समकालीन भारतीय, प्रचलित संस्कृति है, इसने — हमने माँ को ममता की मूरत बना दिया है और उसको इसी रूप में पूजना शुरू कर दिया है।

हमने स्त्री का आदर्श ही बड़ा ग़लत खड़ा कर दिया है। हम कहते हैं, 'स्त्री तो वही अच्छी है जो ममतामयी माँ बने।' आपने अगर स्त्री के लिए ऊँची-से-ऊँची चीज़ यही तय कर दी कि तुम्हें ममतामयी माँ बनना है, तो आपने पूरा देश ही नष्ट कर दिया।

स्त्री को भी एक चैतन्य व्यक्ति होना है। और ममता चेतना की विरोधी होती है। ममता और चेतना एक साथ नहीं चल सकते।

और जो भारतीय लोक संस्कृति है — और ये बड़ी विचित्र बात है क्योंकि पता ही नहीं लोक संस्कृति आ कहाँ से रही है! वैदिक यदि धर्म है हमारा, तो वेदांत तो बिलकुल भी नहीं कहता कि स्त्रियों का प्रमुख गुण ममता है।

ये हमने कहाँ से आदर्श बना लिया, मैं नहीं जानता, कि माँ तो वो जो घर में पल्लू ठीक करके, अपने बच्चों को ममता की छाया में रखे, बढ़िया उनके लिए पूड़ी, पराठे तले; अच्छे से उनको नहलाए-धुलाए, मुँह साफ़ रखे उनका। यही माँ का उच्चतम आदर्श है!

"सबसे अच्छी स्त्री कौन है?" "जो अपने बच्चों की सबसे अच्छे से देखभाल करती है।" "अच्छे से देखभाल का मतलब क्या है?" "तीन दफ़े खाना खिलाती है। दो दफ़े उनके लिए दूध तैयार करती है, कपड़े साफ़ करती है, कपड़े इस्त्री कर देती है, पति की सेवा-शुश्रूषा कर देती है।"

इस आदर्श ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। भारत ने ये जो हज़ार साल की गुलामी झेली, उसमें कहीं-न-कहीं ये जो विकृत आदर्श हमने बना दिया है ममतामयी माँ का, इसका बहुत बड़ा योगदान है। जब माँ इस तरह की होगी तो बेटे वीर, लड़ाके नहीं निकल सकते। इस तरह की कमज़ोर माँ होगी अगर घर में तो मुझे बताओ, कहाँ से सपूत निकलेगा वीर-लड़ाका? और फिर गुलामी आनी तो निश्चित है न?

भारत को अगर वीरों का देश बनाना है तो सर्वप्रथम ये जो माँ का हमने विकृत आदर्श खड़ा कर दिया है, इस आदर्श को ढहाना पड़ेगा। और वो आदर्श तब ढहेगा, जब परिवार के साथ ये हमने जो ग़लत मूल्य जोड़ दिए हैं, वो मूल्य हटे। क्योंकि हम जिस ममतामयी माँ की बात कर रहे हैं, वो मात्र ममतामयी माँ नहीं है वो फिर एक सुशील और आज्ञाकारिणी पत्नी भी तो है।

"आदर्श स्त्री कैसी?" "पति की सारी आज्ञाएँ मानती है और अपने सब बच्चों के लिए ममतामयी है।"

सनातन धर्म के पतन में और भारत देश की दासता में, ये जो विकृत आदर्श हमने खड़े किए, इनका बहुत बड़ा योगदान है — मैं दोहरा रहा हूँ।

और मैं फिर कह रहा हूँ ऐसे आदर्श न हमारे उपनिषदों से आते हैं, न हमारी गीता से आते हैं; ये आदर्श न जाने किस भ्रष्ट अपसंस्कृति से आते हैं। और हम सोचने लगते हैं कि ये आदर्श धार्मिक हैं। इन आदर्शों का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।

धर्म का सम्बन्ध सिर्फ़ मुक्ति से है। प्रत्येक व्यक्ति की मुक्ति, प्रत्येक चैतन्य जीव की मुक्ति। स्त्री व्यक्ति नहीं है क्या? या पुरुष के लिए मुक्ति होगी और स्त्री के लिए ममता? ये कहाँ से बात आ गई हमारी संस्कृति में? और जहाँ से भी आई हो, आई हो; आज हम इसको उखाड़कर फेंक क्यों नहीं रहे, मुझे ये बताइए।

फिर हमें ताज्जुब होता है कि गुलामी क्यों आती है। इतने से अंग्रेज़ हम पर छा क्यों गए? आज भी भारतीयों का नाम विश्व में बहुत सम्मान से क्यों नहीं लिया जाता? आज भी जब दुनिया में वीरों की बात चलती है तो उसमें भारतीयों का नाम पहले और ऊपर क्यों नहीं आता? हमें फिर ताज़्जुब होता है। ताज़्जुब क्यों!

वीर आसमान से नहीं टपकते। वीर तैयार करने पड़ते हैं। उन्हें सही शिक्षा, सही संस्कार देने पड़ते हैं। वैसी माँ चाहिए।

एक आध्यात्मिक केंद्र के बिना वीरता नहीं आ सकती। माँ चाहिए जो बताए बेटे को कि वो तुम हो, वो हो तुम जो नहीं मर सकता शरीर के जाने के बाद भी। तो मौत से घबराना कैसा! "न हन्यते हन्यमाने शरीरे!"

"न जायते म्रियते वा कदाचि- नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।"

यह आत्मा कभी जन्म ग्रहण नहीं करता या मरता भी नहीं अथवा ऐसा भी नहीं कि एक बार हो कर फिर नहीं होता। जन्म-रहित, मृत्यु-रहित, नित्य तथा सनातन यह आत्मा देह के हत होने पर अर्थात् नष्ट होने पर हत नहीं होता।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक २०

बोल रही है माँ, माँ चाहिए ऐसी।

‘सही काम के लिए जान देनी पड़े, बेटा, पीछे नहीं हटोगे। और अगर सही काम से पीछे हटे तो मुँह मत दिखाना मुझे‌। न मैं माँ, न तुम बेटे। मरा बेटा मंज़ूर है, कायर बेटा नहीं।’

ऐसी माँ चाहिए; फिर देखते हैं भारत को कौन दबाकर रख सकता है! फिर हमको बात-बात में छाती पीटने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। और ये कहने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी कि फ़लाने ने हमें पीट दिया, फ़लाने ने हमें हरा दिया, फ़लाने ने हमारा नरसंहार कर दिया, फ़लाने ने हमें हमारे घर से निकाल कर फेंक दिया। वीरों के साथ ऐसा थोड़े ही हो सकता है!

पहले से कम हुआ है, लेकिन आज भी हिंदू स्त्री अगर कमज़ोर हो और कायर हो तो इस बात को बहुत बुरी नज़र से नहीं देखा जाता। माना जाता है, ‘अरे! भली है, सीधी है, डर जल्दी जाती है।’

मैं राम मनोहर लोहिया जी को पढ़ रहा था, कई साल पहले की बात है, तो वो कहते हैं— अभी ये घटना हुई जहाँ पर कोई सज्जन थे, वो हवाई जहाज़ उड़ा रहे थे और वो टू सीटर था। तो वो बैठे थे, उनकी पत्नी साथ में बैठी थीं; पत्नी थीं या प्रेमिका थीं। और बीच उड़ान में हृदयाघात से उनकी मृत्यु हो गयी — जो पायलट थे, विमान चालक — वो मर गए।

आसमान में ही हार्ट अटैक आया, मर गए। तो उनके साथ जो पत्नी बैठी थीं — पति की मृत्यु हो गई है — वो बहुत चलाना नहीं जानती थीं विमान, लेकिन फिर भी उन्होंने विमान अपने हाथ में लिया और उड़ाती रहीं, उड़ाती रहीं। फिर नीचे बात करी होगी, धीरे-धीरे ऐसे कर-करके, कर-करके उन्होंने विमान ज़मीन पर उतार भी दिया।

तो लोहिया जी कहते हैं कोई भारतीय स्त्री होती तो संभावना यही है कि या तो विमान में ही छाती पीटना शुरू कर देती, चुड़ियाँ तोड़ना शुरू कर देती और ये भी हो सकता है कि उसको भूत-प्रेत के हज़ार लफड़े विमान में ही शुरू हो जाते। ये मेरी नहीं, लोहिया जी की ज़बानी है।

ऐसी तो हमने बना दी है भारतीय स्त्री! माँ-माँ कर-करके, माँ-माँ कर-करके उसको बिलकुल गाय बना दिया है। गाय के अतिरिक्त तो जैसे माँ का कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। क्या करती है गाय? बछड़े को चाटती है, दूध पिलाती है। यही तो गाय का काम है, दूध देती है ख़ूब। हमें सिंहनी चाहिए, ये गाय का आदर्श बहुत हो चुका और बहुत भुगत लिया हमने।

समझ में आ रही है बात कुछ?

बिलकुल ठीक करा था, नाम दिया था— 'मदर इंडिया'! ऐसी भारत माँ चाहिए जो अपने पूत को ही गोली मार देने में संकोच न करे, अगर पूत अधर्मी निकल जाए तो। मदर इंडिया!

नरगिस ने जो किरदार उसमें निभाया था, उस किरदार ने जीवनभर दुख सहे। लेकिन उसके बाद भी उसका मोह इतना नहीं बढ़ा कि बेटे की नाजायज़ हरकतों को बर्दाश्त कर ले। और जबकि जो बेटा है, वो वास्तव में अपने ऊपर हुए अन्याय का ही प्रतिकार कर रहा था। पर माँ ने उस बात को भी गँवारा नहीं करा। माँ ने रोका, चेताया। बेटा नहीं माना। तो माँ ने गोली मार दी, अपने ही बेटे को गोली मार दी।

प्रकृतिजन्य मोह उस माँ को भी है, गोली मार कर ख़ूब तड़प रही है लेकिन कितना भी तड़प रही है धर्म से पीछे नहीं हटी। ऐसी माँ चाहिए।

फिर देखिएगा कि औलादें कैसी खिली हुई मिलेंगी हमें!

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