आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
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ये दुनिया बहुत बड़ा समंदर है कीचड़ का और...| Acharya Prashant | Motivational Video | Motivation |
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
11 मिनट
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आचार्य प्रशांत: मेरे घर में लाइब्रेरी (पुस्तकालय) थी। उसमें कुछ क़िताबें तो चलो मैं बच्चा था तो मेरे स्तर की थीं, पर ज़्यादातर क़िताबें वो थीं जो आप पढ़ा करते थे और आपके ज़माने की, आपके कॉलेज के दिनों की (वयस्कों की ओर इंगित करते हुए)। मैं वो भी पढ़ डालता था — समझ में आये, समझ में न आये, मैं वो सब भी पढ़ डालता था।

उसमें नोबेल प्राइज़ विनिंग लिटरेचर भी था, उसमें बुकर प्राइज़ विनिंग बुक्स भी थीं, उसमें साइकोलॉजी (मनोशास्त्र) भी था, फ़िलॉसॉफ़ी (दर्शनशास्त्र) भी था, पोएट्री (कविता) भी थी, हिस्ट्री (इतिहास) भी थी। और मैं दूसरी-तीसरी में रहा होऊँगा जब से उस लाइब्रेरी से मुझे थोड़ा प्यार हो गया था। और जब तक मैं आपकी उम्र में पहुँचा था―अब ऐसे गिनती करना तो मुश्किल है पर अगर मैं कहूँ क्लास टेंथ — सैकड़ों क़िताबें मैंने पढ़ डाली होंगी, आउट साइड द टेक्स्ट बुक्स (पाठ्य पुस्तक के अलावा), आउट साइड द टेक्स्ट बुक्स। (तालियाँ बजती हैं)

इसका मतलब ये नहीं है कि मैं टेक्स्ट बुक्स नहीं पढ़ता था, टेक्स्ट बुक्स भी पढ़ लेता था। पढ़ने में भी ठीक-ठाक ही था, बोर्ड के भी रिजल्ट ठीक-ठाक ही आ गये थे। लेकिन टेक्स्ट बुक के अलावा, टेक्स्ट बुक के बाहर।

तो एम्बेसेडर कार बुलायी जाती थी ― मुझे एक-एक वाक्या याद है, बताता हूँ। तो हम रुद्रपुर में रहते थे, तो वहाँ से बहुत जब छोटा सा कस्बा था, तब वहाँ कुछ नहीं था, आज से चालीस साल पहले की बात है। बहुत छोटी सी जगह थी वहाँ। तो वहाँ इतनी कोई मार्केट वग़ैरह भी नहीं थी। तो आप शॉपिंग करने के लिए बरेली जाया करते थीं, और वहाँ से हम लोग कई बार नैनीताल भी जाते थे।

तो जब बरेली जाएँ तो मेरे लिए बड़ा अट्रैक्शन ये होता था कि वहाँ से बुक्स ख़रीदी जाएँगी। और जो रोड थी रुद्रपुर से बरेली की, वो बड़ी गड़बड़ रोड थी और एम्बेसडर। और जब वहाँ से लौट रहे होते थे, मैं कार में आगे वाली सीट पर बैठता था, ड्राइवर के बगल वाली जो सीट होती है। और उसमें अन्दर की लाइट जलाकर के, जो केबिन लाइट होती है कार की, उसको जलाकर के जो बुक्स ख़रीदी होती थीं उनको पढ़ता हुआ आता था। और वो रोड बड़ी गड़बड़ थी। जब रोड गड़बड़ होती है और आप पढ़ते हो, तो आँखों को क्या होती है? प्रॉब्लम (समस्या)।

तो जब तक हम वापस पहुँचते थे, उतनी देर में मेरा सिरदर्द हो रहा होता था। और ये एकदम एक नियमित, रेगुलर बात थी कि हम बरेली से चले हैं, और मैं गाड़ी में पढ़ता हुआ आ रहा हूँ और उसमें मेरा सिरदर्द हो रहा है। वो रोड गड़बड़ है, एम्बेसडर भी वाइब्रेट करने वाली। नहीं तो क्या करूँ? नहीं तो क्या करूँ? ट्रैफ़िक को देखूँ? और ट्रैफ़िक में जो ट्रक के पीछे शायरी लिखी होती है उसको पढ़कर के मिर्ज़ा ग़ालिब बन जाऊँ? क्या करूँ? पढ़ूँ नहीं तो क्या करूँ? ऊँचे लोगों की संगति नहीं करूँ तो किसकी करूँ? मैं आपसे पूछना चाहता हूँ, बोलो?

आपके सामने एक ग्लास में ऑरेंज जूस (सन्तरा का रस) रखा हो और दूसरी ग्लास में कीचड़ रखा हो, आप किसकी ओर हाथ बढ़ाओगे?

श्रोतागण: ऑरेंज जूस।

आचार्य: बस यही बात है बुक्स के साथ। मैं डराना नहीं चाहता, मैं सिनिकल (निंदक) नहीं हो रहा हूँ, मैं कोई आपको नेगेटिव (नकारात्मक) सन्देश नहीं देना चाहता, लेकिन एक बात बोलता हूँ, ये दुनिया बहुत बड़ा समन्दर है कीचड़ का, बहुत बड़ा। और आप अभी फिर भी बहुत पाक़-साफ़ हो, जैसे आपकी यूनिफॉर्म साफ़ है न। और जैसे आपके चेहरे धुले-धुले हैं; बहुतों को तो मम्मी ने साफ़-वाफ़ करके भेजा है। वैसे आप अभी साफ़ हो। और दुनिया क्या है? कीचड़ का समन्दर है।

जैसे-जैसे बड़े होते जाओगे, गन्दे होते जाओगे; गन्दे मत होना, गन्दे मत होना। उनके पास जाना जो ख़ुद साफ़ रहे हैं, वही तुम्हें भी साफ़ रख पाएँगे। जिसको हम आम आदमी कहते हैं, वो बेचारा गले तक कीचड़ में धँसा हुआ है, उससे आपको सफ़ाई नहीं मिल पाएगी।

हाँ, ये हो सकता है कि आप साफ़ हो जब जाओ तो आप उसकी मदद करो कि आओ मैं तुम्हें भी बाहर निकलता हूँ। कोई दलदल में फँसा होता है तो आप उसको हाथ देते हो न कि आओ मैं तुमको बाहर खींच रहा हूँ। पर आप ख़ुद भी अगर दलदल में हो तो उसे बाहर नहीं निकाल सकते, या निकल सकते हो?

कोई डूब रहा हो, उसकी मदद करने के लिए ज़रूरी है कि आपकी टाँगे किसी मज़बूत जगह रखी हों, है न? तब आप हाथ देकर उसको बाहर निकाल सकते हो।

तो अपनी सफ़ाई को बचाने में, अपनी इनोसेंस को बचाने में बहुत सतर्क रहना। दुनिया नहीं तो बिलकुल गन्दा और काला कर देगी, आपको करप्ट (भ्रष्ट) और कनिंग (धूर्त) बना देगी। और उसको हम क्या बोलते हैं? उसको प्रैक्टिकैलिटी , दुनियादारी।

जो बच्चा ज़रा सीधा, भोला होता है उसको कहते हैं, ‘अरे कुछ नहीं, ये बेकार निकलेगा, इसको सब बेवकूफ़ बना देंगे।’ और जो टेढ़ा होने लगता है उसको कहते हैं, ‘ये, ये बहुत बढ़िया है।’ वो करप्शन अपने भीतर मत आने देना, अपनी इनोसेंस को बचाओ। और उसके लिए उनके पास जाओ जो जीवन भर इनोसेंट (भोले) रहे आये।

फिर बोल रहा हूँ, ‘बुक्स’ , और बुक्स भी सारी नहीं। पहली बात तो ये कि सोशल मीडिया से या गॉसिप से कहीं बेहतर हैं बुक्स , और बुक्स में भी कह रहा हूँ सारी बुक्स नहीं, उसमें भी फिल्टरिंग होनी चाहिए, उसमें भी आपको पता होनी चाहिए कौन लोग हैं जो पढ़ने लायक़ हैं। उसके लिए गूगल आपके काम आएगा, गूगल करिए।

क्लासिक्स फॉर टीन्स (किशोरों के लिए शास्त्रीय साहित्य), अब्रिज्ड वर्ज़न फॉर टीन्स (किशोरों के लिए संक्षिप्त संस्करण)। और सिर्फ़ हिन्दुस्तान का ही नहीं, दुनिया भर का लिटरेचर (साहित्य) पढ़िए, उसी से ज़िन्दगी बनती है। नहीं तो ये सब चीज़ें, ‘मैंने उससे लड़ाई कर ली, उसने मेरा पेन ले लिया, ओ शी इज़ सो जेलेस ऑफ़ मी (वह मुझसे जलती है), इस बार मेरा कितना परसेंटेज आएगा, मैं बहुत एन्क्शियस (चिंतित) हूँ’, ये सब न, ये इसमें कुछ नहीं रखा है।

‘अच्छा! उसने अभी-अभी नयी वॉच ली है, ओ! प्लीज़ ट्राइंग टू शो ऑफ़ , बाप के पास ज़्यादा पैसा है तो हमें क्यों दिखा रहा है', यही सब तो होता है न कंटेंट ऑफ़ गॉसिप? और वो बन्दा है, वो अपना भी नया हेयर कट करके आया है, और वो बाक़ी सब ― कोई उससे कह रहा है, 'वॉव मैन! डूड!’ और कोई बोल रहा है, ‘क्या बेवकूफ़ लग रहा है, ये क्या कर लिया!’

कोई इसी पर बात करे जा रहा है कि क्रिकेट में क्या चल रहा है, ये बात, वो बात। क्या करोगे? मूवी रिलीज हुई है, घंटों-घंटों उसका डिसेक्शन (विच्छेदन) हो रहा है, और उसी पर बातें चली जा रही हैं, चली जा रही हैं, चली जा रही हैं। इसमें आपको कुछ अच्छा, ऊँचा नहीं मिलता है।

उसी समय पर मेरे इर्द-गिर्द भी ये सब चल रहा होता था। जब मेरे इर्द-गिर्द ये सब चल रहा होता था तो मुझे पता भी नहीं होता था, क्योंकि मैं क्या कर रहा हूँ? किताब खुली हुई है और मैं उसमें घुसा हुआ हूँ, और आसपास दुनिया का जो भी खेल है वो चल रहा होता था। और मालूम है? दुनिया का वो खेल भी बेहतर तभी समझ में आता है जब किताबों से रिश्ता बन जाता है।

जो दुनिया के खेल में डूबे रहते हैं, वो डूबे ज़रूर रहते हैं लेकिन उन्हें दुनियादारी कुछ समझ में नहीं आती है। ‘जस्ट बिकॉज यू आर इंवॉल्व्ड इन समथिंग डज़ नॉट मीन दैट यू अंडरस्टैंड इट।’ (सिर्फ़ आप किसी चीज़ में संलग्न हैं इसका ये अर्थ नहीं होता कि आप इसे समझते हैं) इन्वॉल्वमेन्ट एक बात होती है, अंडरस्टैंडिंग दूसरी बात होती है।

दुनिया में कितने भी इन्वॉल्व हो जाओ, उससे ये नहीं है कि समझ जाओगे कि क्या हो रहा है। समझ तो उन्हीं के पास जाकर मिलेगी जो समझदार थे। और दुनिया में समझदार कुछ मुट्ठी भर ही लोग हुए हैं। अंडरस्टैंडिंग , रियलाइजेशन , विज़डम , मैच्योरिटी ये रेयरटीज़ (दुर्लभ) होते हैं, ये टॉप पॉइंट वन परसेन्टटाइल को ही बिलॉन्ग करते हैं। ये ऐसी चीज़ नहीं हैं कि पैदा हुए हो तो समझदार तो अपनेआप हो जाओगे।

नहीं, आम आदमी पैदा हो जाता है; हो सकता है वो अस्सी साल, सौ साल जिये, अस्सी साल, सौ साल जीकर मर जाता है, वो समझदार नहीं होने पाता। द सेम थिंग एम्पलाइज टू लव। ऐसा भी नहीं है कि पैदा हुए हो तो अपनेआप तुम प्रेम सीख जाओगे, वो भी सब नहीं है। और धीरे-धीरे आप लोग अब उस एज (उम्र) में आओगे जहाँ आपको क्रश (मोहब्बत) वग़ैरह होना शुरू होगा। वो बहुत साधारण, बहुत मिडियोकर बात है, बहुत एनिमलिस्टिक बात है वो।

लव ऐसा शब्द होता है जो ज़िन्दगी बना भी सकता है और बहुत बुरी तरह बर्बाद करके तबाह सकता है, आदमी को कहीं का भी न छोड़े। वो भी क्या चीज़ है, वो तभी समझ में आएगी जब उनसे सुनोगे जिन्होंने लव , प्रेम के सही अर्थ का अन्वेषण किया, सही मीनिंग (अर्थ) को एक्सप्लोर (समझा) किया।

नहीं तो लव के नाम पर फिर आप जाकर के कहाँ कीचड़ में लौट आओगे, कुछ पता नहीं। और आपको यही लगेगा, ’यू नो डज़ ही लव मी, डज़ ही नॉट?’ वो देखा नहीं, वो गुलाब को लेकर करते हैं पत्तियाँ, ये इस स्तर का फिर प्रेम रह जाता है। और एट्थ-टेन्थ (आठवीं-दसवीं) तक आते-आते आजकल तो ये।

बात समझ रहे हो?

मुझे यहाँ से देखते हुए बड़ा अच्छा लग रहा है, ‘लाइक फ्रेश बर्ड्स बेदिंग इन सनशाइन’ , छोटी, नन्ही कोपलें हैं और अभी आप पर जाड़े की धूप पड़ रही है। आपको देख रहा हूँ तो ऐसा लग रहा है जैसे भविष्य सुनहरा है (तालियाँ बजती हैं) । पर मैं साथ ही आपको सावधान करना चाहता हूँ कि बहुत सुनहरा, बहुत उज्ज्वल और बहुत उन्नत तो हो जाने की सम्भावना हम सब में होती है, लेकिन बहुत कम लोग होते हैं जो सम्भावना को साकार कर पाते हैं।

मैं चाहता हूँ आपमें से हर एक अपनी पूरी और उच्चतम सम्भावना को साकार करे। और अगर वो सम्भावना रियलाइज़ होनी है, मटीरियलाइज़ होना है तो उसके लिए आपको किसके पास जाना पड़ेगा? उनके पास जाओ न जिन्होंने सचमुच ज़िन्दगी को दम से, हौसले से, मज़बूती से, ऊँचाई से जिया। उन्हीं के पास जाना पसन्द करोगे न? हाँ, तो उनके पास जाने का ज़रिया किताबें ही हैं, क्योंकि वो लोग बहुत सारे तो अब उनमें से हैं नहीं दुनिया में। जो भी लोग, वर्थी लोग दुनिया में हुए हैं, उनमें से निन्यानवे प्रतिशत तो हिस्ट्री में हुए हैं, उनको अब कहाँ से मिलने जाओगे! और जो एक प्रतिशत उनमें से ज़िन्दा हैं, वो आसानी से आमने-सामने बात करने के लिए मिलते नहीं।

तो उसका फिर एक ही तरीक़ा है, किताबें-किताबें-किताबें। रीड एज मच एज यू केन (जितना सम्भव हो सके उतना पढ़ो)। डॉन्ट ट्राय टू फॉलो द ट्रेंड (प्रचलन की नकल मत करो) कि मेरे आसपास वाले सब तो ये कर रहे हैं, मैं रीडिंग क्यों करूँ।

जो वो जो करता है करे, आप कहो, ’आइ हैव द बेस्ट कम्पनी पॉसिबल, ऑफ़ द ग्रेटेस्ट मैन एंड ग्रेटेस्ट वुमन पॉसिबल (मैं सबसे श्रेष्ठ संगति में हूँ, सबसे महान पुरुष और महिला की संगति में), मैं उसके साथ हूँ। दुनिया जा रही है, इधर-उधर मॉल में जा रही है या मेले में जा रही है, मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता। आइ एम विथ समवन आइ ट्रूली रिस्पेक्ट एंड लव।’ (मैं उसके साथ हूँ जिसके लिए मुझे प्रेम और सम्मान है)

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