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लेख
तुम्हारी प्रकृति है भूल जाना, और स्वभाव भूलकर भी न भूल पाना ||आचार्य प्रशांत, संत दादूदयाल पर (2015)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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मन माणिक मूरख राखि रे, जण-जण हाथ न देऊ।दादू पारिख जौहरी, राम साधु दोइ लेऊ।।71।।

~दादू दयाल

वक्ता: मन के बारे में दो मूलभूत बातें कही गई हैं। दोनों दिखने में अलग-अलग हैं, कदाचित ये भी लगे की विपरीत है। लेकिन दोनों एक साथ चलती हैं। इसी विचित्रता, इसी संगम का नाम मन है।

पहली बात, ‘मन माणिक है’। दादू कह रहे हैं; संत के वचन हैं। वो सीधे बात पे आते हैं, सीधे चोट करते हैं। मन माणिक है। मन कीमती है। अमूल्य है। साथ ही साथ, उसी साँस में कहा जा रहा है, “जन-जन हाथ न देऊ।” मन कीमती है। मन माणिक है। मन रत्न है। लेकिन फिर भी कहा जा रहा है कि उसे हर किसी के हाथ मत देना। देखें की क्या कहा जा रहा है|

कहा ये जा रहा है कि मन एक ऐसी वस्तु है जो कीमती तो है पर अपनी कीमत गंवाने को तैयार रहता है । मन एक ऐसी वस्तु है जो निर्मल तो है, पर मलिन होने को तैयार रहता है। इन दोनों बातों एक साथ समझिएगा। ‘मन माणिक, जन-जन हाथ न देऊ।’ मन एक ऐसा मणि है, जिसकी माणिक्यता, जिसका मूल्य अक्षुण्ण नहीं है, प्रत्याभूत नहीं है। स्तिथि ऐसी बन सकती है की वो माणिक बनके चमके और स्तिथि ऐसी भी बन सकती है कि वो बाज़ार की धूल बन जाए। दोनों बातें हैं |और मैंने आपसे कहा कि वो दोनों विपरीत लग सकती हैं।

आम तौर पर जब कोई चीज़ अमूल्य होती है, तो उसके साथ एक विश्वास जुड़ा होता है कि अमूल्य है और मूल्य खड नहीं सकता। मन के साथ, दादू ये विश्वास व्यक्त नहीं कर पा रहे। वो कह रहे हैं, “मन माणिक, लेकिन जन-जन हाथ न देऊ।” कीमती तो है पर कीमत बची रहे, ये ज़रूरी नहीं है। हीरा तो है, पर इस पर गन्दगी की इतनी परतें जम सकती हैं कि मिट्टी का ढेला जैसा हो जाए। और यही मन है। बड़े सुन्दर तरीके से, बड़े सहज तरीके से इतनी गहरी बात कह दी है संत ने कि हो सकता है कि हम समझने से चूक जाएँ । जब कोई बात बड़ी सहजता से कह दी जाती है, बड़ी सरलता से कह दी जाती है, तो अकसर जटिल मन उससे चूक जाता है । जटिल मन सोचता है कि अगर बात कीमती होगी तो जटिल तरीके से ही कही जाएगी। और संत विपरीत रूपण होता है। वो कहता है, “जो भी कीमती बात है वो सरल तरीके से ही कही जा सकती है। जो कुछ भी अमूल्य है, वो सरल है।”

मन के बारे में दो बातें हमें पता चल रही हैं। एक छोर तो उसका है आत्मा, जहाँ उसमें निर्दोषिता है, निर्मलता है, निश्छलता है, निर्विकार है; “मन माणिक।”

मन माणिक, बेशर्त नहीं है। मन माणिक तभी है जब मन आत्मा रूपी है, जब मन शांत है। जब मन हृदयस्थ है, जब मन केन्द्रित है, जब अपने स्त्रोत में समाहित है। सिर्फ तब मन माणिक। इसीलिए आपको चेताना पड़ रहा है कि ‘जग-जग हाथ न देऊ’| ये हीरा (मन) सुरक्षित नहीं है। ये गन्दा हो सकता है। लोगों के हाथों की धूल इस पर जम सकती है। ये धूल मन का दूसरा छोर है। हमने क्या कहा कि मन का पहला छोर क्या है? आत्मा। वहाँ मूल्य है मन का। वो कीमती छोर है। और यही मन केंद्र से विचलित हो कर के, केंद्र से छिटक कर के, स्त्रोत से छिटक कर के दो कौड़ी का हो सकता है। हीरा ढेला हो गया। मन वही है, बदला नहीं है, याद रखियेगा।

मूल-भूत रूप से हीरे पर कितनी भी परतें जम जाएँ, वो ढेला हो नहीं जाता। पर चमक तो खो ही जाती है ना उसकी, या बचती है? फिर कोई चाहिए होता है जो उसकी ऊपर की परतें हटाए। फिर कोई चाहिए होता है जो उसे उसका प्रकाश वापस दिलाए जो उसने कभी खोया ही नहीं था।

गुरु का यही काम होता है। वो तुम्हें वो वापस दिलाता है, जो तुमने कभी खोया ही नहीं। सच पूछा जाए तो गुरु कुछ करता है ही नहीं। तुम्हारी ही चीज़ है, तुमने कभी खोई भी नहीं थी, तुम्हारे ही पास है। उसे इशारा ही करना होता है। कोई ख़ास मेहनत वाला काम है नहीं। बात समझ में आ रही है? पहली ही पंक्ति में डूब जाइए। दूसरी तक जाने की जल्दी भूल जाएँगे। इतनी गहराई है पहली ही पंक्ति में। पूछिए अपने आप से कि आपका मन, जिसका स्वभाव है माणिक होना, किन जन-जन के हाथों की धूल बन गया? और गुज़रे आप भी हैं जन-जन से हो करके।

अप्रभावित होना मन का स्वभाव है पर प्रभावित होना उसकी प्रकृति। पहले दो शब्दों में दादू इंगित करते हैं मन का स्वभाव। स्वभाव है उसका तेजपूर्ण। आत्मा है मन का स्वभाव। आत्मा है मन का केंद्र। लेकिन प्रकृति है मन की ऐसी कि वो सदा तत्पर रहता है इधर से, उधर से, जहाँ कहीं से भी प्रभाव संकलन कर सके।

देखिएगा ना आप, कितनी आसानी से विचलित हो जाते हैं हम। अभी ज़रा सी आवाज़ हो जाए कहीं, कोई खिड़की खड़क जाए, दरवाज़े पे दस्तक हो जाए, तुरंत आपकी निगाहें मुड़ जाती हैं। विचलन, मन को कितना आकर्षित लगता है। वो प्रकृति है उसकी, आदत है उसकी। उस प्रकृति को कभी प्रकृति कहा जाता है, कभी माया कहा जाता है, कभी अविद्या कहा जाता है।

लेकिन संत समझा रहे हैं आपको कि विचलन उसमें कितना भी हो जाए, धूल उस पर कितनी भी पड़ जाए, हीरा रहेगा तो हीरा ही। दोनों ही बाते हैं। हीरा तो हीरा रहे आएगा, आपके किसी काम का नहीं रहेगा। आप अपनी जेब में हीरा लेके घूम रहे होंगे और आपको पता भी न होगा। जीवन आपका दरिद्रता में बीतेगा। करोड़पति होंगे आप लेकिन जी ऐसे रहे होंगे जैसे रास्ते का भिकारी। और यही हम सबकी, पूरी मानवता की कहानी है।

ऊपर से नीचे तक माणिक ही हैं हम। और जीते कैसे हैं? घोर दरिद्रता में। हाथ पसारे- ‘कुछ दे दो।‘ हमारी असलियत देख कर के तो रास्ते का भिखारी भी हँस पड़े। वो कहेगा कि मेरे भी भीख माँगने के समय निर्धारित हैं, मेरे भी भीख मांगने के कारण निर्धारित हैं। तुम तो हर्निश भीक माँगते हो। तुम्हारे तो सपने भी भीख के हैं।

स्वयं हीरा भीख मांग रहा है धूल से धूल की। हीरा बाज़ार निकला है और धूल से धूल की भीक मांग रहा है। मज़ेदार बात ये है कि भीख मिल भी जाती है और वो उसको ग्रहण भी कर लेता है, सोख लेता है बिलकुल, परत दर परत। जितनी भीख मिलती जाती है, उसमें भिखारी होने का भाव उतना ही गहराता जाता है। वो अपने आपको देखता है और उसे क्या दिखाई देता है? सिर्फ मिटटी, सिर्फ धूल, सिर्फ गर्त। वो कहता है सिद्ध हो गया कि मैं क्या हूँ? भिखारी। और जब भी आपने अपने आप को सतह पे देखा है, आपने अपने आपको भिकारी ही पाया है। सतह पे तो हम सब भिखारी हैं। माणिक, शहंशाह है। तो आप गहराई में है, केंद्र में है लेकिन उस केंद्र का आपको पता नहीं चलेगा जब तक जीवन में ध्यान न हो। और ध्यान हमारे जीवन में होता नहीं। हम अपने आपको देखते भी हैं तो बड़े सतही तरीके से देखते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे हम दुनिया को देखते हैं।

आप अभी देख रहे हैं मुझे। मेरे शब्दों को सुन पा रहे होंगे, मेरे चेहरे को देख पा रहे होंगे, मेरे पीछे की दीवार को देख पा रहे होंगे। कम ही होते हैं लोग जो इन्द्रियगत अनुभूतियों से आगे कुछ देख पाते हों, सुन पाते हों, समझ पाते हों और इन्द्रियाँ तो सतह से आगे जाती नहीं। जब भी अपने आपको आप सतह पर देखेंगे, धूल पाएंगे। धूल के नीचे का हीरा कभी आपको प्रकट ही नहीं होगा। धूल जितनी बढती जाएगी, ध्यान उतना मुश्किल होता जाएगा। इस दुश्चक्र को ध्यान से समझिये। धूल जितनी मोटी होती जाएगी, परतें जितनी बढ़ती जाएँगी, ध्यान उतना मुश्किल होता जाएगा। और ध्यान जितना मुश्किल होता जाएगा, आपमें भिखारी होने का भाव उतना गहराता जाएगा। आप धूल और इकट्ठा करोगे।

धूल इक्ख्ट्टा करी, इसीलिए ध्यान नहीं हो पाया। ध्यान तब, जब मन केन्द्रित हो पाए, शांत हो पाए, विचलित न रहे और धूल का काम होता है विचलित करना। क्योंकि धूल आई ही जन-जन के हाथ से है, तो वो आपको केंद्र पर कैसे जाने देगी? वो तो आपको संसार की ओर ले जाएगी जहाँ जन-जन हैं। धूल आपकी तो है नहीं। धूल कहाँ से आई? धूल बहार से आई ना। तो धूल आपको भीतर का रास्ता कैसे दिखाएगी? धूल माने क्या? वो सब कुछ जो आपके मन में भरा हुआ है। जो कुछ भी आपके मन में भरा हुआ है, कृपा करके समझिये, वो कभी आपको अन्दर का रास्ता नहीं दिखाएगा। इसीलिए जानने वालों ने विचार की निरर्थकता पर बहुत ज़ोर दिया है।

उन्होंने बार-बार कहा है कि सोच-सोच कर सच तक नहीं पहुँच पाओगे। सोच-सोच कर नहीं समझ पाओगे। सतह पर जमी हुई धूल तुम्हें तुम्हारे केंद्र के माणिक तक नहीं पहुंचा सकती। ठीक उसी तरीके से सतही विचार तुम्हें आत्मा तक नहीं पहुंचा सकता; दुष्चक्र है । विचार जितना इक्ख्ट्टा करते जाओगे, वो विचारों को ही पोषण देगा। विचारक का काम होता है विचार के साथ तादात्म बना देना और, और विचार इकट्ठे करते चलना। ये अलग बात है कि वो विचारों के माध्यम से आत्मा तक पहुँचना चाहता है। रास्ता कैसा भी चुन रहा हो, मंजिल वही है। पर उलटे-पुल्टे रास्तों के साथ मंजिल अगर मिलती भी है तो फिर बड़े कष्ट झेल करके, बड़ा समय लगा करके, बड़ी ठोकरें खा कर के।

आप जो कष्ट झेल रहे हैं, मैं आपसे कह रहा हूँ, “वो आपका प्रारब्ध नहीं है।” आप जो ठोकरें खा रहे हैं, उनमें कोई अनिवार्यता नहीं है। जो आपका समय व्यर्थ गया आज तक, उसका व्यर्थ जाना आवश्यक नहीं था। आगे भी जो आप माने बैठे हैं की जीवन ऐसे गठित होगा,वो वैसे गठित हो, ज़रूरी नहीं है। आप आज जगे, जीवन आज बदले। चुनाव आपको करना है। एक ओर है, आपका स्वभाव। एक और है वो जो आप हैं ही और दूसरी ओर है वो जो आपने अपने आपको मान रखा है। सही चुनाव करिए ना।

आपने अपने आपको जो मान रखा है, उसमें वैसे भी आपको क्या मिल रहा है? अपने दिल को छुएँगे तो टीस उठेगी। मन को देखेंगे तो उस पर छाले ही छाले दिखेंगे। क्या मिला है? है कोई जिसका मर्म घावों से न भरा हुआ न हो? है कोई जिसका अन्तःस्थल लहुलुहान न हो? है कोई जो आनन्द जीता हो और आनंद पीता हो? आईने के सामने खड़े होते हैं और आईना बता देता है, “तनाव! तनाव!तनाव! विषाद, विषाद, विषाद।” अपनी बोझिल आत्मा को देखिये। आज तक के आपके चुनावों ने आपको यही दिया है। लटका हुआ चेहरा, क्लांत आँखें।

दूसरा चुनाव करा जा सकता है, आपके पास ताकत है। दुनिया आपको जो कुछ मानने को प्रेरित करती रही है, मैं कहूँगा, “मजबूर करती रही है।” आपमें योग्यता है कि उसको ध्यान से देखें और पूछें, “क्यों? कैसे? क्या वास्तव में?” और इतना भी पूछने का मन न करे तो ध्यान से देख भर लीजिये। आपकी आँखों में वो आग होगी जो धूल को जला देगी। “ध्यान की ज्योति,” ऐसा तो आपने सुना होगा। मैं आपसे कहता हूँ, “ध्यान की ज्वाला|” ज्योति भर नहीं। ज्योति तो मात्र प्रकाशित करती है। ज्वाला जला जलती है। ध्यान से अपने समाज को, अपने जीवन को, अपने रोज़ मर्रा के ढंगों को, अपनी बातचीत को, अपने सम्बन्धों को देखें तो ज़रा। और ये मजबूरी न अनुभव करें कि कुछ बदला नहीं जा सकता, कि कोई छुटकारा नहीं है। सब बदल सकता है। कुछ भी अपरिहार्य नहीं है।

ये श्रद्धा रखिये की सत्य के साथ, सत्य की दिशा में जो कुछ भी होगा, शुभ ही होगा। शुरू में आपको थोड़ी अर्चण आ सकती है, थोड़ा डर लगेगा। उस डर के साथ रह लीजिये। सत्य से, आत्मा से, केंद्र से कभी किसी का कोई अशुभ नहीं हुआ है, हो ही नहीं सकता । आप कह रहे हैं जिसका नाम शुभ है वो आपके लिए अशुभ निकल जाएगा? कैसे? आप कह रहे हैं जो आनंदरूपा है, वो आपको विषाद दे जाएगा। कैसे? आप कह रहे हैं जो मुक्ति रूपा है, वहाँ आप फंस जाओगे, बेड़ियाँ पड़ जाएँगे। कैसे? आप कह रहे हैं कि वो जो एक मात्र सुन्दर है, सुन्दरतम है, उसकी वजह से आपके जीवन में कुरूपताएँ आ जाएँगी? क्या गलत डर है ये? इन डरों को भी ध्यान से देखो तो जल जाएँगे।

दूसरी पंक्ति तक आने की कोई विशेष ज़रूरत ही नहीं। जो दूसरी पंक्ति पर बैठा है, वो पहली में ही काम कर गया। गुरु की बात की है दूसरी पंक्ति में। अरे वो दूसरी पर आएगा क्या? वो पहला है। वो पहला न होता तो तुम शुरुआत कैसे करते? हाँ! आखरी भी वही है। शुरू में वो छिपा होता है, आखरी में वो प्रकट हो जाता है। पहली पंक्ति में गुरु छिपा हुआ है। दूसरी में प्रकट हो गया है। पर जो प्रकट हो गया है, अब उसकी बात क्या करनी? बात तो तब तक करनी थी, उदघाटन तो तब तक करना था, जब तक लुका छिपी थी। अब तो खुला सा हो गया। दूसरी पंक्ति तो ऐसी है कि जैसे पहली पंक्ति की नीचे कहने वाले ने अपना नाम लिख दिया हो। उक्तियाँ होती हैं, उनमें दो पंक्तियाँ होती है। पहली पंक्ति होती है जिसमें उक्ति होती है, सूत्र होता है। और दूसरी पंक्ति में क्या होता है? बस कहने वाला का नाम। यहाँ भी वैसा ही है। कहने वाला तो पहली में ही दिख रहा है

‘दादू-पारिख जौहरी, राम साधू दोई लेऊ।’

मन किसी के साथ तो लगना चाहता ही है। क्या प्रकृति है उसकी? मन का स्वभाव है, आत्मरत रहना। लेकिन प्रकृति क्या है उसकी? मन बच्चा ऐसा है जिसे माँ से तो प्रेम बहुत है, आना उसे लौट के माँ के ही पास है। पर जिसे खुली खिड़की से खुला मैदान और खेलते हुए दूसरे बच्चे बहुत आकर्षित करते हैं। माँ बड़ी प्यारी है। पोषण माँ से मिलना है, जन्म माँ से मिला। प्रेम माँ से मिलना है। पर मनोरंजन तो बाहर है। तो माँ पीछे खड़ी होती है अपना सारा प्रेम लिए। पर खिड़की के बाहर से जो आवाजें आ रही है, बड़ी आकर्षक हैं। बच्चे खेल रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, एक दूसरे को छू-छू के भाग रहे हैं। खुला मैदान है, वो दौड़ रहे हैं। माँ स्वयं ही अनुमति दे देती है कि अच्छा जा, पर रास्ता मत भटक जाना, सांझ ढलने से पहले वापिस भी आ जाना। ऐसा है मन।

प्रेम तो उसे आत्मा का ही है। आत्मा स्वभाव है, पर प्रकृति क्या है कि उसे संसार की ओर भागना है। सारे आकर्षण उसके संसार के हैं। तो वो भागेगा बाहर की ओर। जब भागेगा बाहर की ओर तो दादू आपसे कह रहे हैं कि देखो कि किधर को भाग रहा है। जन-जन के पास तो न ही जाने पाए क्योंकि वहाँ तो वही होगा जिसकी हम चर्चा कर चुके हैं। जब वो बाहर की ओर जाए, तो किसी ऐसे के पास जाए जो हीरे को जानता हो। और ये हीरा ऐसा है जिसको हीरा ही जान सकता है। दो ही तत्व होते हैं, हीरा और धूल। वास्तव में तो तत्व एक ही है-हीरा। आत्मा के अलावा दूसरा कोई तत्व होता नहीं। पर दूसरा जो तत्व है वो न होते हुए भी फंसता है। इसी का नाम माया है।

तो बाहर तो निकलेगा मन। या तो हीरे की ओर जाएगा या धूल की ओर जाएगा। दादू कह रहे हैं, “बाहर भी निकले तो हीरे की ओर ही निकले।” जौहरी की परिभाषा ये नहीं कि जिसके हाथ में हीरा हो। जौहरी की परिभाषा ये नहीं कि जिसके ज्ञान में हीरा हो। आध्यात्म में जब भी कभी जौहरी कहा जाए तो समझ लेना कि जौहरी वो, जो स्वयं हीरा हो क्योंकि हीरे के अलावा हीरे को कोई जानता नहीं। धूल नहीं जानेगी हीरे को।

आपसे कहा जा रहा है कि संसार में जब किसी से मन लगाइए, तो किसी ऐसे से लगाइए जो आत्मा समान हो। और आत्मा प्रकट होती है संसार में। क्या माया को ही हक़ है संसार में प्रकट होने का? हाँ, माया ज़रा उपद्रवी है, ज्यादा कर्मठ है। उसे करने का बहुत शौक है। गहरा कर्ता भाव है उसे। तो माया हजारों रूपों में प्रकट होती है। करोड़ों शक्लें है उसकी। आत्मा को ऐसी कोई जल्दी नहीं। ऐसी कोई प्रवाह नहीं। तो वो यदा-कदा प्रकट होती है। विरल घटना होती है जब आत्मा साकार हो जाए। विरल घटना होती है जब निर्गुण, सगुण बन करके सम्मुख आ जाए। पर आता है। कोई ये न समझ ले कि संसार माया मात्र है। इसी संसार में माया के पार का द्वार भी है। हमसे कहा जा रहा है, “संसार में जब मन लगाओ तो देख लो कि वो हीरा ही है।” कैसे जानोगे कि हीरा है? धूल, और धूल को आकर्षित करेगी। और जो हीरा है जिसको दादू कह रहे हैं कि वो गुरु होने योग्य है, वो तुम्हें तुम्हारे स्वभाव तक वापिस ले जाएगा। गुरु की परिभाषा ही यही है – ‘जो तुम्हें तुम तक वापिस लाए, वो गुरु।’

धूल तुम्हें क्या देगी? और धूल। गुरु तुम्हें क्या देगा? तुम्हारा स्वभाव। वो तुम्हें तुम तक ले जाएगा। ‘दादू पारीख जहरी, राम साध हुई ले।’ कि जौ हरी कहो, कि राम कहो, कि माणिक कहो। सारे इशारे एक ओर हैं। मैंने आपसे कहा, “दो ही तत्व हैं।” शब्दों की विभिन्नताओं में मत फंस जाना। तत्व, मात्र दो हैं। संत जब भी तुमसे कुछ कह रहा हो और समझ में न आ रहा हो कि क्या कह रहा है, तो पूछ लो कि संत को मात्र एक से प्रयोजन होता है। मात्र एक से। और दिखाई उसे दो देते हैं। असली को असली जनता है, नकली को नकली जानता है। यही विवेक है उसका। नित्य को नित्य जानता है, अनित्य को अनित्य जानता है। यहाँ पर भी जब माणिक कहा है और जौहरी कहा है, और राम कहा है, तो तीनों से इशारा एक ही तरफ है – आत्मा की ओर।

बाहर वाला ऐसा रहे जो तुम्हें बाहर न खींचे। हो तो बाहर, पर भेजे तुम्हें अंदर। अब ये बड़ी मज़ेदार बात है। तुम उससे मिलने बाहर जा रहे हो और वो तुम्हें वापिस अन्दर भेज रहा है। सवाल ये उठता है कि वो बाहर फिर खड़ा ही क्यों है? वो इसलिए खड़ा है क्योंकि अगर वो खड़ा नहीं होगा तो और बहुत सारे खड़े हैं। पूरी भीड़ है जो खड़ी हुई है। और बाहर को तुम्हें भागना ही है क्योंकि तुम्हें बाहर का बड़ा आकर्षण है।

जब तुम बाहर को भागते हो, तो वो है जो मदद करता है तुम्हरी। तुमसे कहता है कि अच्छा बहुत अच्छी बात है, बाहर आए हो। आओ, मेरी ओर आओ। तुम उसकी ओर जाते हो और वो तुम्हें भीतर ले आता है। सो ही गुरु है, सो ही आत्मा है। गुरु और आत्मा भिन्न नहीं होते| और अगर भिन्न हैं , तो गुरु को गुरु कहना मत। जो गुरु तुम्हें आत्मा के अलावा कोई भी और दिशा दिखाए, वो वही ठग होगा। गुरु मत कहना उसको। और इस झांसे में भी मत रहना कि अगर गुरु के पास जाओगे तो वो अपने पास बैठा लेगा। अरे वो अपने पास कैसे बैठा लेगा? वो बाहर है ही नहीं। वो स्वयं भीतर है। तुम्हारे खातिर उसको बाहर आना पड़ा है। तुमने कष्ट दिया है उसको। वो तो विश्राम कर रहा था। उसे क्या पड़ी थी संसार में आने की? उसे क्या पता था, कि दुनिया के झमेलों में शामिल होता? उसे स्वयं कुछ बड़ा रस नहीं है संसार में। तो तुम बाहर निकलोगे, उसके पास जाओगे तो वो तुम्हें अपने पास नहीं बैठा लेगा। वो तुम्हें साथ लेगा। इतना साथ लेगा कि उससे एक हो जाओगे।

तुम्हें अपने साथ लेगा और तुम्हें तुम्हारे ह्रदय में वापिस स्थापित कर देगा। अपने पास रखने का न उसके पास कोई उद्देश्य है न शौक है। तुम्हें उसे तुम्हारी जगह प्रतिष्ठित करना है।

तो पहली बात सतर्क रहो। मन भागता है। भागना स्वभाव नहीं तुम्हारा। केंद्र तुम्हारा स्वभाव है, विश्राम तुम्हारा स्वभाव है, शून्यता तुम्हारा स्वभाव है, एक प्रकार की जागृत नींद है तुम्हारा स्वभाव। अपनी कीमत को समझो। यूँहीं अपने आपको दुनिया के बाज़ार में बेच मत दो। तुम अमूल्य हो। जो भी तुम्हें बताता हो कि तुम सस्ते हो, कि घटिया हो, कि बिकाऊ हो। वो दोस्त नहीं है। वो प्रेमी नहीं है। वो गुरु नहीं है, वो सत्य नहीं है, वो आत्मा नहीं है, वो समपर्क योग्य नहीं है।

दूसरी बात, जब मन बहुत ही करे कि बाहर को जाना है, तो बाहर उसके पास जाओ जो भीतर का रहने वाला हो। कोई मिले तो उससे पूछो, “कहाँ के रहने वाले हो भाई?” जो भी बोले कि हम तो बाहर के ही रहने वाले हैं। उससे कहो, “हाँ! ठीक। बाहर ही रहो। हमारे भी बहर ही रहना।” पूछ लिया करो कि कहाँ के रहने वाले हो? जब कोई कहे कि हम तो अंत: प्रदेश के रहने वाले हैं, अंत: प्रदेश-इस प्रदेश से परिचय नहीं है क्या? बहुत सारे व्यर्थ के प्रदेशों को जानते हो। जो कोई कहे कि हम अंत: प्रदेश के रहने वाले हैं, वो सब बीमार हैं। आ रही है बात समझ में?

समय की मांग है इसलिए रुकना पड़ रहा है। नहीं तो रुकने का कोई औचित्य नहीं है। समय साथ दे और शरीर साथ दे और श्रोता साथ दे, तो वो बोलेगा। क्योंकि ये बात ख़त्म होने की है ही नहीं। असीम को मैं सीमित शब्दों में कैसे बाँध दूँ? ये बात ख़त्म होने को आएगी कैसे? जो अनंत है, अखंड है, उसको कहाँ पर जाकरके मैं पूर्ण वराम लगा दूँ? जितना डूबोगे, उतना पाओगे।

जितना मैंने कहा, इतने में कोई विशेष गहराई नहीं थी। ये तो ऐसा है, जैसे सागर में एक दुबकी भर मारी हो। बस अभी गीले भर हुए हैं, घुल नहीं गए। बहुत-बहुत गहरे जा सकते हो। तुम्हें तुम्हारी गहराई का अंदाजा भी नहीं है। संतों के वचनों को जब पढो, तो ऐसे पढ़ो कि जैसे महासागर में डूबने जा रहे हो। चंद शब्द भर नहीं है।

श्रोता: सर, आपने एक सत्र में कहा था कि मन को प्रभावों से बचने के लिए कहीं भागने की ज़रूरत नहीं है। समाज के बीच में रहते हुए अनछुए रहो। पर सर कुछ प्रभाव ऐसे होते हैं कि मन में ये डर लगता है कि अगर ये कुछ लोग पास आ गए, तो प्रभावित कर देंगे। और मन डर के कारण योजना बनाता है कि कैसे पास आने से बचा जाए? तो सर एक तरह से ये भी प्रभावित ही कर रहा है क्योंकि हम सोच रहे हैं उसके बारे में। तो सर ये समझ नहीं आ रहा है?

वक्ता: देखो जब तुम सतर्क नहीं थे, जब तुम बेहोश थे, तो वो तुम पे यूँही कब्ज़ा कर लेते थे। और कब्ज़ा का क्या अर्थ होता है? कि वो तुम्हारे मन पे छा गये। और जब तुम्हें उनका ज्ञान हो गया, तुम उनसे डरने लगे। उनसे डर के विचार तुम्हारे मन पर छा गए। कुछ बदला क्या? पहले वो तुम्हारे मन पर कैसे छाते थे? अज्ञान में। अब वो तुम्हरे मन पर कैसे छाते हैं? ज्ञान में।

जब तुम किसी से डरे होते हो, तो किसका विचार कर रहे होते हो?

श्रोतागण: उसका।

वक्ता: या परमात्मा का (विचार) कर रहे ओते हो? या सत्य का कर रहे होते हो? जब किसी से डरे हुए होते हो, तो क्या है जो तुम्हारे चित्त को वश में किये होता है? वही विषय ना, वही व्यक्ति ना। अब तुम्हारा तर्क ये होगा कि देखिये साहब, मैं सावधान हूँ। मैं सावधान हूँ इसके विरुद्ध कि ये मुझ पर छा न जाएं। ये मुझ पर छा न जाएं, इस कारण मैं चौबीस घंटे इसी बारे में सोचता हूँ। अरे! वो जीत गया। तुम देखो तो कि तुम कर क्या रहे हो?

मैंने बिलकुल पक्का कर रखा है कि मैं अतीत के बारे में बिलकुल नहीं सोचूंगा। मैं चौबीस घंटे सतर्क रहता हूँ। विचार में बिलकुल लिप्त की अत्तित तो नहीं है ये?’ अरे! तुम कर क्या रहे हो? ध्यान में और सतर्कता में अंतर होता है। ध्यान में डर नहीं होता। तुम जिससे डरे हो, तुमने उसे ख़ास बना दिया। तुम जिससे डरे हो, तुमने उसे अपने ऊपर आने दिया। अब वो तुम्हारा नुक्सान करेगा नहीं क्योंकि वो तुम्हारा नुक्सान कर रहा है। समझ रहे हो बात को?

हम यही कहते हैं ना कि सावधान रहो ताकि कोई तुम्हारा नुक्सान कर न दे। तुम ये देख ही नहीं पाते हो कि तुम जिसके विरुद्ध सावधान हो, सावधान रहने में ही उसने तुम्हारा नुक्सान कर दिया। तुम जगे हुए हो कि कोई आक्रमण न कर दे। अरे वो आक्रमण करके, क्या तुम्हारा बिगाड़ लेता? पर तुम्हें डरा के उसने खूब बिगाड़ लिया। तुम डरते हो कि तुम्हारा कुछ बुरा न हो जाए। डर से बुरा और क्या होगा? दुनिया का यही तर्क है न-

‘हम डरे हुए हैं कि हमारा कुछ बुरा न हो जाए।’ पर डर से बुरा और क्या होगा?

ध्यान दूसरी बात है। ध्यान में डर का कोई चिह्न नहीं होता। वहाँ तुम्हारा कोई नुक्सान वास्तव में नहीं होता। वहाँ नुक्सान इसलिए नहीं होता क्योंकि तुममें दुश्मन से लड़ने की बड़ी ताकत आ गई। वहाँ नुक्सान इसलिए नहीं होता क्योंकि तुम्हें दिख गया है कि दुश्मन में कोई ताकत नहीं है। विवेक का यही अर्थ होता है न कि दिख जाए की ताकत किसके पास है। उपनिषदों की उक्ति है कि सत्यमेव जयते। इसका और क्या अर्थ होता है? कि जब सत्य को ही जीतना है तो अरे झूठे! तुझमें ताकत कहाँ से आ जाएगी? जीतना किसको है?

श्रोतागण: सत्य को।

वक्ता: और तू क्या है?

श्रोतागण: झूठ।

वक्ता: तो मैं काहे की लिए तुझसे सतर्क रहूँ। मैं काहे के लिए तुझसे डरूं ? ये ध्यान है। ध्यान का मतलब ही यही है कि धूल-धूल दिख गई और हीरा, हीरा दिख गया। जो नहीं है, उसका नहीं होना दिख गया और जब नहीं का नहीं होना दिखता है, तो वो प्रमाण होता है कि जो है आप उसमें है।

मेरी बातें आप पर वही असर करेंगी जो ध्यान की गहरी विधियाँ करती हैं क्योंकि अभी मैं आपको सत्य सुना भर नहीं रहा हूँ। मैं सत्य करा रहा हूँ। आप करीब-करीब एक उपचार के मध्य में है। प्रक्रिया जारी है। हमारे भीतर की रुग्नताएँ विरोध करेंगी। तर्क आपका साथ नहीं देगा क्योंकि मैं भी बड़ा तार्किक हूँ। आप तर्क दोगे, आपको दिख गया है कि तर्क कट जाएगा। तो आप कोई दूसरा तरीका निकालोगे। दो ही तरीके हैं आपके पास- मन का, और शरीर का। क्योंकि आप दो ही हैं। इतना ही तो जानते हैं अपने आपको कि मैं मन हूँ और शारीर हूँ।

जब मन बचना चाहता है, तब तर्क देता है। माया जब मन के माध्यम से बचना चाहती है तो अस्त्र का नाम होता है तर्क। और माया जब शरीर के माध्यम से बचना चाहती है तो अस्त्र का नाम होता है, तन्द्रा। दोनों से बचना है – तर्क से और तन्द्रा से। मैं आपके तर्क का तो उपचार कर देता हूँ, तंद्रा का आपको स्वयं करना होगा।

श्रोता: सर, जो तन्द्रा में है, उनकी तन्द्रा कैसे टूटे?

वक्ता: वो ये सवाल नहीं पूछ पाएँगे । जैसे ये सवाल पूछ लिया, वैसे ही जगे हुए भी रहो। सोता हुआ आदमी कभी नहीं पूछता कि मैं कैसे जगूँ? कभी देखा है कि सोता हुआ आदमी पूछ रहा हो कि मैं कैसे जगूँ? तो ये अपनी आंतरिक ईमानदारी की बात है कि जैसे ये सवाल पूछ रहे हो वैसे जगे हुए भी रहो। सवाल पूछने के लिए कैसे जग गये? जैसे अभी जगे, वैसे ही सर्वथा जगे हुए रहो। तन्द्रा से बचना है।

और जो मैं कह रहा हूँ वो सुनेगा। आपके पास मुझसे बचने का और कोई तरीका नहीं। आपको सुनना पड़ेगा|

श्रोता: सर, एक चीज़ पर गौर किया आज आते समय कि जो मन होता उसके राजा बनने के कुछ मापदंड होते हैं। मतलब वो अपने आपमें राजा बनना चाहता है। आमतौर पर कुछ चीजें पहले से ही निर्धारित रही हैं कि ज़्यादा पैसा कमाओ, या फिर ज़्यादा ताकत इकट्ठा करो। पर जब इस तरीके पर नहीं चलते हैं तो मन कुछ और चीज़ ढूंड लेता है। जैसे बाकी लोग कुछ कर रहे हैं कि जैसे कौन कितनी देर तक गाड़ी चला सकता है। तो ये एक मन का अपना क्षेत्र हो गया और फिर उसमें मन प्रतियोगिता में घुस जाता है। और सर फिर ये भी है कि जो दुसरे लोग कर रहे होते हैं, होड़ में मतलब, तो इच्छा होती है जानने की कि क्या होगा इसमें? तो क्या ये नया कुछ खोजने की प्रवृत्ति है या मानने की प्रवृति है? पता नहीं।

वक्ता: इनको जानते जाइये, इनका उदघाटन करते जाइए। इनका उद्घाटन ही इनका उन्मूलन है। आपके कमरे में जगह होती है दबी छुपी। वहाँ धूल इकट्ठा हो गई होती है तो, दिख नहीं रही होती वो जगह। फिर आप देखते हैं, गौर करते हैं, दिख जाती है। जब दिख जाती है फिर ऐसा थोड़ी ही है कि आदमी फिर उसके साथ जीने लगता है। धूल दिख गई फिर क्या करना होता है? फटकार, ख़त्म करो। बहुत महत्व थोड़ी देना है। तो एक ओर तो पूरी ताकत से धूल को खोजना है। दूसरी ओर जब मिल जाए तो बस फटकार देना है। और क्या करना है? ये थोड़ी कहना है कि इतनी मुश्किल से खोज-खोज के धूल निकाली है, अब क्या फेंक दे बाहर?

मेरे जानने वाले का ऑपरेशन हुआ। उनके पेट में कुछ सड़ रहा था। वो ऐसा सड़ रहा था कि ज़हर बन गया था। अब डेढ़-दो किलो का निकला बाहर। वो उन्होंने एक मर्तबान में अपने घर में रखा हुआ था कि “मेरा है।” किसी के फोड़े का ऑपरेशन होगा, किसी के ट्यूमर, ब्लैडर का कुछ हो जाएगा, वो उसको खूब रखते हैं प्रिज़र्वेटिव में डाल करके। उसको खोजो, उसको निकाल लो और फिर उसको फेंक दो। गौर नहीं करना है।

श्रोता: सर, ये वाली जो बात है कि नींद आ रही है कि मन उछल रहा है। ये एक तथ्य है और दिख जाता है। एक उसके ऊपर से आता है कि पार्टी चल होता है कि कुछ घटित हो जाए, तो फिर जो ग्लानी उठती है, तो वो सुधार का जो भाव उठता है कि सब ध्यान में है और तुम यहाँ भी छूट रहे हो और फिर तुम्हारा शुरू हो जाएगा। तो एक तो आपने तथ्य को देखा और फिर ये जो बेचैनी… तो मामला एक दम गड़बड़ा जाता है।

वक्ता: अभी क्या किया? पीछे से उठ के आगे आए। जब मैं कह रहा हूँ कि पीछे से उठ के आगे, तो उसका क्या आशय है? देखो क्या कर रहे हो तुम? पीछे से उठ के आगे आना क्या है, तुमने गौर किया की ज्यों ही तुम्हारा ध्यान उस ओर आकृष्ट हुआ, कि तन्द्रा में थे, तो पीछे टेक लगाके बैठे हुए थे। अब ये आगे आने में तुमने किया क्या? जब ये आगे आया है तो इसने वास्तव में किया क्या है?

श्रोता: ध्यान की ओर बढ़ा है। तंद्रा तोड़ी है अपनी।

वक्ता: वो दाएँ क्यों न गया? वो बाएँ क्यों न गया? ये आगे आने का क्या मतलब है?

श्रोता: पास आना।

वक्ता: यही तरीका है । गुरु ही विधि है। और कोई विधि नहीं होती। आत्मा ही विधि है, सत्य ही विधि है। सत्य के अलावा और कोई विधि नहीं होती। जब लगे की बहक रहे हो, छिटक रहे हो, समीप आओ। और कोई तरीका नहीं। होता उल्टा है। जिन क्षणों में बहक रहे होते हो, उन क्षणों में खूब मन करता है न आने का। ठीक तब जब तुम्हें सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है निकटता की, तुम दूर भागते हो। इसीलिए जब कोई अपनी ओर से यह आके बार-बार बोले की आपसे बात करनी है, बैठना है। मैं बहुत ध्यान देता नहीं। मैं कहता हूँ कि अगर बीमारी बहुत गहरी होती तो तुम मेरे पास आते ही नहीं। समझना बात को।

कई बार होता है। लोग आते हैं कि ‘आधा घंटा चाहिए।’ मैं नहीं देता। समय से कह कर भी नहीं देता। कई बार तो मैं छुप जाता हूँ। तुम्हें मामूली सर्दी-ज़ुकाम हुआ हो ,खुजली हुई है, इसके लिए तुम मेरे पास आते हो| बीमारी गहरी होती अगर,…?

श्रोतागण: तो आपके पास नहीं आते।

वक्ता: मेरे पास आते नहीं। तुम मेरे पास आते नहीं तब।

तुम मेरे पास आ रहे हो, तो मुझे चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं। तो जो मेरे पास आते हैं, मैं उनकी चिंता करता ही नहीं। चिंता उनकी करनी पड़ती है जो और कुर्सी की नीचे छुपे हों। उनकी बड़ी चिंता करनी पड़ती है। उनके पास कुछ है जिसे वो बचा रहे हैं। जिन्हें बुलाओ और वो बुलाए-बुलाए न आएँ, उनकी चिंता करनी पड़ती है। जो आने को तत्पर हैं, उनसे तो न भी मिलें, तो भी चलेगा।

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