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लेख
तुम्हारे भीतर छिपा है असीम बल || (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: क्या कर रहे थे आप लोग रात में? शोर मचा रहे थे? लेटा हुआ था मैं, बहुत आवाज़ें आ रही थी। क्या कर रहे थे?

प्रश्नकर्ता: गा रहे थे।

आचार्य: क्या गा रहे थे?

प्र: झीनी रे झीनी चदरिया…

आचार्य: क्या अर्थ है उसका? कौन-सी चादर है? किस चादर की बात हो रही है? प्राणी, जीव, जो पूरा ऑर्गेनिज़्म है उसकी बात हो रही है, तन-मन दोनों। पर मन बोलना भी ठीक है क्योंकि तन, मन का ही विस्तार है तो अगर मन भी बोल दिया तो तन उसी में शामिल है। कहाँ हैं आप के सवाल? पर्चे नहीं बनाए?

प्र: अवलोकन लिखा है।

आचार्य: अच्छा चलिए पढ़ दीजिए। अगर पढ़ना चाहो तो…

प्र: आचार्य जी, कैंप में आने के बाद यहाँ के माहौल में घुलने में बस कुछ क्षण ही लगे। सभी अनजान जनों के बीच कभी भी ये नहीं लगा कि ये कोई और हैं। इनके साथ एक अपनापन महसूस हुआ बिना किसी जुड़ाव के साथ। जो भी गतिविधियाँ यहाँ पर अब तक हुईं, उन्हें करने से पहले कोई शंका नहीं रही, कि "कर पाएँगे?" ये प्रश्न आया ही नहीं। किसी नए काम को करने से पहले जो भय होता था वह मानो कहीं गायब ही हो गया। आचार्य जी को सुनने के बाद लगा कि जो कुछ है वो अपनेआप समा रहा है। कई बार बातें सुनाई भी दे रही थी, कई बार किसी मदहोशी में थी। ये भी लग रहा था अब तक के सफर में जिन चीज़ों का आभास हुआ वह ये कि जीवन में एक ठहराव आ गया है। इस क्षण में जीना क्या होता है, ये समझ में आ गया है। असीम क्षमताओं का पता चल रहा है, ढोल की थाप-ही-थाप सुनाई दे रही है और मदहोश होते हुए भी एक अलग-सी जागृति है। प्रश्न जैसे खत्म से हो गए हैं, लगता है सही दिशा में हैं। शरीर यहाँ-वहाँ क़दम रख रहा है पर दिशा सही लग रही है।

आचार्य: हटा दो दस्ताना, (सामने बैठे श्रोता से) अभी तो धूप है। जिस चीज़ को सुरक्षा की ज़रूरत नहीं है उसे सुरक्षा नहीं देनी चाहिए। ये हुडी भी हटा दो अभी तो धूप है।

जितना ज़रूरी है कमज़ोर को सुरक्षा देना, उतना ही ज़रूरी है उसको सुरक्षा ना देना जो कमज़ोर नहीं है क्योंकि जो कमज़ोर नहीं है अगर तुमने उसे सुरक्षा दे दी तो वो कमज़ोर हो जाएगा।

वास्तव में अधिकतर कमज़ोरी का कारण भी यही है कि हमने उसको सुरक्षा दे दी जिसे सुरक्षा की ज़रूरत नहीं थी। मन हो या तन हो दोनों को ही एक सीमा से ज़्यादा सुरक्षा मत दो नहीं तो वो कमज़ोर हो जाएँगे। गर्मी-ठंडी, थोड़ा कष्ट, पसीना इनके साथ जीना सीखो।

तो पहला सूत्र आज का हमने कहा कि जिसे सुरक्षा की ज़रूरत नहीं उसे सुरक्षा दो ही मत और अब दूसरा सूत्र लिखो! लिखो इनको- अभी पहले की ही व्याख्या कर रहा हूँ- किसी भी चीज़ को सुरक्षा देने से पहले या अपने आपको भी शोषित, एक्सप्लॉइटेड (शोषित) या शिकार, विक्टिम अनुभव करने से पहले रुक कर चार दफ़े सोचा करो, "ये मैं क्या कर रहा हूँ?" इससे पहले कि तुम ये कहो कि तुम्हारे साथ कुछ बुरा हो गया, थम जाया करो। जितना तुम मानोगे कि तुम्हारे साथ कुछ बुरा हुआ है समय के द्वारा, व्यक्तियों के द्वारा, स्तिथियों के द्वारा, जन्म के द्वारा, किसी भी वजह से उतना ज़्यादा तुम्हारे अहंकार को पोषण मिलेगा।

उपनिषदों का सूत्र है लिख लो- 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो'। इसको लभ्यः भी लिख सकते हो। क्या अर्थ है इसका? समझ ही रहे होगे हिंदी जैसा ही है। कैसे काम चलेगा? अंग्रेजी भी नहीं? संस्कृत भी नहीं? यह जो आत्मा है बलहीन के लिए नहीं है। जो बलहीन है, जो दुर्बल है उसे आत्मा का लाभ नहीं होता। आत्मा उन्हीं के लिए है जो बली हैं। बल दिखाओ तो संसार में तो जो मिलना है वो तो मिलेगा ही, आत्मा भी मिलेगी। आत्मा का अर्थ है स्वयं को जान जाओगे क्योंकि बल बहुत है तुम्हारे भीतर, सोया पड़ा रहता है। सोया इसलिए पड़ा रहता है क्योंकि तुमने अपना नाम रख दिया है दुर्बल, अबल, निर्बल, ये हमारे नाम हैं। दुर्बल, अबल, निर्मल, बलहीन बलरिक्त।

तुम्हारा एक नाम है - बली, बलवान, महाबली इसके अलावा तुम्हारा कोई नाम नहीं। क्या नाम? या तो बोलो अपने आपको "मैं बली", कभी बहुत रस में आ जाओ तो बोलो 'महाबली' और कभी कोई और शब्द चाहिए हो तो बोलो 'बलवान' पर दुर्बल, अबल ये सब तो कभी भी नहीं। ठीक है? सारी बीमारियाँ आंतरिक दुर्बलता की भावना से ही शुरू होती हैं- मैं कमज़ोर हूँ। तुम जब कमज़ोर हो तो तुम क्या करोगे? तुम किसी का सहारा माँगोगे। लो शुरू हो गया अहंकार। अहंकार यहीं से तो शुरू होता है कि गए किसी दूसरे से ग़लत तरीके से जुड़ गए। प्रेमपूर्ण तरीके से नहीं, आश्रयता के तरीके से। "तू मेरा आश्रय है!" किसी से कब माँगते हो आश्रय, सहारा इत्यादि? कब निर्भर होते हो? जब प्रथमत्या अपने आपको कमज़ोर मानते हो, मानो ही मत कि कमज़ोर हो। सहारा लेना भी है तो उसका लो। जब लगे कि बिलकुल टूट गए, जब लगे कि बड़ा झटका लग गया और ऐसा कोई नहीं है जिसके जीवन में कभी ना होता हो। ये जो जीवन है ये ऐसे-ऐसे थपेड़े देता है कि - और किसी को नहीं छोड़ता, पीर-पैगंबर, गुरु अवतार, किसी को नहीं छोड़ता - ऐसे-ऐसे थपेड़े देता है।

राम की सीता हर लेता है, ये समय है। गुरुओं के बच्चों की बलि चढ़ जाती है, ये समय है। समय से कौन बच पाया है? लेकिन समय कुछ भी करे तुम्हारे साथ तुम ये मत कह देना कि तुम कमज़ोर हो। तुम कहना कि, "जिसने आपदा दी है वही आपदा से निपटने का सामर्थ्य भी देगा और अगर मुझ में सामर्थ्य होता नहीं तो ये आपदा मुझ पर आती नहीं।" सीधी-सी बात। अगर मुझ में इस आपदा से निपटने का सामर्थ्य नहीं होता तो ये आपदा मुझ पर आती नहीं। विपत्ति उसी के पास भेजी जाती है जिसमें सर्वप्रथम विपत्ति का सामना करने की शक्ति होती है या ऐसे समझ लो कि कोई भी आफ़त तुम पर भेजने से पहले, वो पहले तुम्हारे पास भेजता है ताक़त उस आफ़त का सामना करने की। तो आफत आई है तो कहो, "ठीक है।" ये ऐसी-सी बात है कि कोई पहले तुम्हें हज़ार रुपए दे और फिर आठ-सौ का खर्चा करवाए। आठ-सौ के खर्चे से घबराना मत, अगर आठ-सौ का खर्चा सामने आ गया है तो कहीं-न-कहीं उसने हज़ार रूपए पहले भेज दिए होंगे। पहले भेजेगा फिर खर्च कराएगा और अगर तुम्हें लग रहा है कि भेजा नहीं है सिर्फ खर्च करा रहा है तो तुम ठीक से देख नहीं रहे हो। तुम्हारी दृष्टि धूमिल है। समझ रहे हो बात को?

टूटना बस नहीं! और जो कुछ तुम्हें तोड़ेगा नहीं वो तुम्हें मजबूत करके जाएगा। आप लोग तो अभी थोड़ा-बहुत ही सुबह व्यायाम करते हो, दौड़ाए जाते हो, वर्जिश करते हो। आश्रम में तो बड़े सख़्त नियम हैं - अभी दिसंबर-जनवरी की भी जो ठंड थी, उसमें छह से पहले उठकर सवा छह पर प्रार्थना हो जाती है और साढ़े छह बजे स्टेडियम पहुँचना अनिवार्य है, सबके लिए। कोई नहीं है जिसको स्टेडियम नहीं पहुँचना है और वहाँ से तीन घण्टे से पहले लौटना नहीं है। कोई दौड़ता है, कोई टेनिस खेलता है, कोई स्क्वॉश खेलता है। साढ़े छह बजे जानते हो अंधेरा होता है, कोहरा भी होता है और सवा छह बजे ये मुझे प्रार्थना करते हुए अपनी फ़ोटो भेज देते हैं, हम चूके नहीं। और कभी अगर ये परेशान होते हैं कि इतनी सुबह-सुबह जब जाते हैं तो ठंड लगती है वगैरह-वगैरह तो उनसे एक ही बात कहता हूँ - "अगर मरे नहीं तो जी जाओगे।" अगर मरे नहीं तो जी जाओगे, समझ रहे हो बात को? अगर टूट ही नहीं गए तो मजबूत हो जाओगे और टूटोगे तुम नहीं तब तक, जब तक तुम में श्रद्धा है। श्रद्धा बुद्धि को भी ताक़त दे देती है। तुम्हारी फिर बुद्धि ही ऐसी चलेगी कि तुम विपत्ति का सामना करने का उपाय निकाल लोगे और श्रद्धा नहीं है तो बुद्धि ही भ्रष्ट हो जाती है। फिर तुम ख़ुद ही ऐसे काम करोगे कि तुम्हारा विनाश हो जाएगा।

तो अपने आपको खिंचने दो, अपने ऊपर तनाव-प्रभाव, आफत आने दो। अगर टूटे नहीं तो मजबूत होकर निकलोगे। मरे नहीं तो जी जाओगे और अपनी सहमति के बिना तुम मरने वाले नहीं ये बात तुम पक्की जानो! तपना सीखो! उसी तपने को तपस्या करते हैं। परीक्षा हो तुम्हारी, कभी मत घबराओ, पीछे मत हट जाओ। बुरा लगेगा तन को, मन को, सबको बुरा लगता है, "क्यों परीक्षा ली जा रही है? क्यों आफ़त डाली जा रही है?" मुँह का स्वाद ही बिगड़ जाता है कि, "ये मेरे साथ क्या हो रहा है?" होने दो। उन्हीं परिस्थितियों में तुम्हें आत्मा का पता लगेगा। आत्मा का अर्थ है तुम्हारे भीतर छिपा असीम बल। अरे चुनौती ही नहीं आएगी तो बल क्यों खड़ा होगा? कोई चुनौती नहीं है तो बल भी सुप्त रहेगा।

जब चुनौती आती है, तब तुम्हें पता चलता है कि "इतनी ताक़त थी मुझमें, ये सब झेल गया। झेल ही नहीं गया पार कर गया", और पार करने की प्रक्रिया के दौरान और पार कर जाने के बाद तुम वही नहीं रह जाते जो तुम पार करने से पूर्व थे। समझ रहे हो? हर इम्तेहान तुम्हें कुछ और बना जाता है। उसी को कहते हैं जीवन का निखरना, खिलना, पुष्पित होना और जहाँ पुष्प है वहाँ सुगंध है।

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