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लेख
तुम ही सुख-दुःख हो || आचार्य प्रशांत, संत दादू दयाल पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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*जिसकी सुरती जहाँ रहे, तिसका तहाँ विश्राम भावै माया मोह में, भावै आतम राम – संत दादू दयाल*

वक्ता : क्या कहते हैं कबीर भी?

“जल में बसे कुमुदनी, चंदा बसे आकाश जैसी जाकी भावना, सो ताही के पास”

यह बिल्कुल वही है जो अभी दादू न कहा । तुम जीवन में कहाँ हो, कैसे लोगों से घिरे हो, कौन तुम्हें मिला है, किसके पास हो, “जैसी जाकी भावना सो ताही के पास” । “जिसकी सुरती जहाँ रहे तिसका तहाँ विश्राम,” तुम किसके साथ जाकर के ठहरे हो, तुम कहाँ जाकर के अटके हो, इससे बस यही पता चलता है कि तुम्हारा मन कहाँ अटका हुआ है । क्या तुम्हें भाता है, इससे बस यही पता चलता है कि तुम्हारे मन का क्या ढर्रा है ? कैसे लोग तुमने आकर्षित कर रखे हैं चारों तरफ़, इससे बस यही पता चलता है कि तुम्हारे मन को क्या चाहिए ।

जीवन में तुम्हारी स्थिति क्या है, क्या भोग रहे हो, इससे बस यही पता चलता है कि तुम्हारी वृत्तियाँ और धारणाएँ कैसी हैं ।जेम्स एलेन की एक छोटी-सी किताब है, ‘*एज ए मैन थिन्केथ*‘ । जो पूरी युक्ति है वो यह है कि, “ एज ए मैन थिन्केथ, सो डथ ही बिकमैथ (जो जैसा सोचता है, उसको वैसा ही मिलता है)”।

कोई कभी यह न कहे कि जीवन में मुझे कुछ भी संयोगवश मिल गया । जीवन में तुम्हें जो कुछ भी मिला है, वो कहीं गहरे में तुम्हारी इच्छा रही है । आज जीवन में अगर कटुता और ज़हर ही पाते हो, तो यही जीवन में तुमने माँगा था । हो सकता है अनजाने में माँगा हो, हो सकता है समझे न हो इसलिए मांग लिया । पर जीवन में अगर विषाद पाते हो, तो दोष किसी को देना नहीं । “जैसी जाकी भावना सो ताहि के पास”।

तुम्हें अगर विष, विषय और विषाद मिले हैं, तो ये क्या है ? ये तुम्हारी अपनी विषमताएँ हैं । अस्तित्व नहीं तुमसे बदला लेने को उतारू है । अस्तित्व की नहीं तुमसे कोई शत्रुता है । जो हो, जैसे हो अपने ही कारण हो । इसी बात को यूँ भी कह सकते हो, ‘मैं कुछ और देखता ही नहीं अपने सिवा । जीवन में मैं जिन भी परिस्थितियों को देखता हूँ, वो मात्र मेरा अपना प्रतिबिम्ब हैं और कुछ है ही नहीं । वास्तव में और है क्या ? शंकर और क्या समझा गए कि जगत तो मिथ्या है ? इसका अर्थ इतना ही है कि जगत सिर्फ़ तुम्हारी अपनी छवि है । तुम जो हो वही तुम्हें मिलता है । तुम जो हो वही तुम्हें दिखाई देता है ।

हमने कहा है न कई बार कि हम सब अपने-अपने स्वरचित ब्रह्मांड में रहते हैं । कोई एक दुनिया नहीं है जिसमें हम रहते हैं, स्वरचित ब्रह्मांड, अपनी-अपनी दुनिया । ‘अपनी दुनिया’ भी मत बोलो । बोलो, ‘मैं वो दुनिया हूँ’, बात और शुद्ध हो जाएगी ।बात जब ऐसे कहोगे तो और शुद्ध हो जाएगी । तुम जिसे अपना ‘मैं’ कहते हो, वही वो दुनिया है । अपने अलावा किसी ने कभी कुछ देखा नहीं है । तुम जिधर भी अपनी नज़रें फैलाते हो, अपना ही तो विस्तार पाते हो । अपनी वृत्तियों का, अपनी मान्यताओं का, इसके आलावा और तुम देखते क्या हो ? भ्रम है तुम्हें कि तुम दीवारें देख रहे हो, या सड़क देख रहे हो, या पेड़ और पहाड़ देख रहे हो, या व्यक्तियों को और वस्तुओं को देख रहे हो । ना, तुम जिधर आँख उठाते हो मात्र अपना फैलाव पाते हो ।

दुखी सब हैं । कुछ दुखी हैं, कुछ दुखी होने की प्रक्रिया में हैं। उस प्रक्रिया का नाम क्या होता है ? सुख । सुख क्या है ? दुख़ के निर्माण की प्रक्रिया का नाम सुख है । ठीक ? हमने इस बात को भी कई बार कहा है कि ‘सुख’ और ‘दुःख’, दो अलग-अलग शब्द निर्मित करना भाषा की बड़ी त्रुटी है । एक शब्द होना चाहिए । क्या ? सुख-दुःख, दुःख-सुख । तो दुःख तो सभी पाते हैं, सुख-दुःख तो सभी पाते हैं, बस कारण नहीं जान पाते हैं । तुम सुख-दुःख पाते नहीं हो, तुम सुख-दुःख हो ।

*जिसकी सुरती जहाँ रहे, तिसका तहाँ विश्राम* भावै माया मोह में, भावै आतम राम

*“भावै माया मोह में”*। माया ने कैसे तुम्हें जकड़ रखा है यदि जानना हो तो बस छोटा-सा प्रयोग कर लो । एक सवाल पूछो अपने आप से, “किसका मोह है?” कुछ बातें उठेंगी, कुछ चेहरे सामने आएँगे, कुछ चीज़ें चमक सकती हैं । प्यारी होंगी, मोह है, उसी को तो हम ‘प्यार’ बोलते हैं । प्यारी होंगी, तुम्हारा दिल काँपेगा ये कहनें में कि इन्हीं का नाम ‘माया’ है, वही ‘माया’ हैं । हालाँकि दिल काँप जायेगा तुम्हारा जब अपने नन्हे-से बच्चे की, अपने छौने की शक्ल तुम्हारे सामने आएगी । ‘बच्चा’ नहीं है, माया है।

और माया घिनौनी होती है, ‘छौना बड़ा घिनौना’। लिंग भेद नहीं कर रहा हूँ, ‘छौनी बड़ी घिनौनी’ । अब दिक्कत ही सारी यही है कि वही सब माया है जिसका तुम्हें मोह है । तुम्हारे लिए बड़ा आसान हो जाता अगर सब कुछ जो निम्न है, घटिया है, तिरस्कार योग्य है, अगर वो सब माया होता । कितनी आसानी हो जाती, कितनी सुविधा से हम सब कहते, ‘चलो, चलो कूड़ा साफ करते हैं, हटाओ, हटाओ ।’ हम सब माया से मुक्त हो जाते, एक झटके में । सब गंदी-गंदी चीज़ों का नाम ही तो ‘माया’ है ।

पर समस्या बड़ी टेढ़ी है । गंदी-गंदी नहीं, जिन्हें तुम अपने जीवन की सबसे अच्छी-अच्छी चीज़ें कहते हो, उसका नाम ‘माया’ है। तुम्हारे प्यारे से प्यारे संबंध का नाम ‘माया’ है । तुम्हारे मीठे से मीठे सपनों का नाम ‘माया’ है । तुम्हारे ऊँचे से ऊँचे आदर्श का नाम ‘माया’ है। जो कुछ तुमने सुन्दर पाया है, उसी का नाम ‘माया’ है । क्योंकि वही तुम्हारी सुन्दरता की परिभाषा है । “सत्यम शिवम् सुन्दरम,” तो तुम जानते नहीं । तुम्हारे लिए तो सुन्दर का एक ही अर्थ होता है- आकर्षक। और माया बड़ा आकर्षित करती है ।

“भावे माया मोह में भावे आतम राम”

क्या है आत्मा ? क्या है आत्मा ? वो तुम्हारे भीतर जो सारी अड़चनों के बावजूद खिंचा जाता है राम की ओर, उसका नाम है ‘आत्मा’ । ‘आत्मा’ की इससे सरल परिभाषा नहीं हो सकती । और, कोई नहीं है ऐसा यहाँ पर जिसके भीतर वो नहीं है जो आत्मा की ओर खिंचा जाता है । तुम्हारे भीतर बहुत कुछ है, बहुत-बहुत कुछ है । पूरी दुनिया ही है तुम्हारे भीतर, उससे कम क्या होगा, और वो सब नश्वर है । जितना कुछ तुम्हारे भीतर है, पूरा ब्रह्मांड तुम्हारे भीतर है और कहीं नहीं है, वो सब कुछ जो तुम्हारे भीतर है उसमें एक छोटा-सा बच्चा भी है, बहुत छोटा-सा बच्चा । और तुम्हारे भीतर बड़े-बड़े लोग हैं, ज्ञानी हैं, और पूरी दुनिया है। जैसा अभी कहा कि वो सब नश्वर हैं, मर जायेंगे । ये छोटा-सा बच्चा जो है, ये मरता नहीं है । ये किसी अमर स्रोत से निकला है । इसको बस वो स्रोत, इसकी माँ ही भाती है, “भावै आतम राम”। अकेला है, बिल्कुल अकेला, कोई साथी नहीं है इसका, असंग है ।

और उसे और कुछ अच्छा लगता नहीं है । तुम्हारे भीतर ब्रह्मांड भरा हुआ है, उस ब्रहमांड में अनेकों आकर्षण हैं, ये उसको भाते नहीं । उस बच्चे को क्या भाता है ? माँ । उसी माँ का नाम है ‘राम’। अपने उस बच्चे के साथ खड़े हो जाओ, वो आवाज़ देता है, उसका समर्थन करो, उसको ताकत दो । वही असली है, बाकी सब नकली है । पूरा ब्रह्माण्ड है, ये सब विनष्ट हो जाना है, इसमें कुछ रखा नहीं है । उस बच्चे को गोरख ने कुछ ऐसे कहा है,

“शून्यं न बस्ती, बस्ती न शून्यं, अगम अगोचर ऐसा, गगन शिखर पर बालक बोले ताका नाम धरोगे कैसा”

गगन ‘शिखर’ पर है । ‘शिखर’ माने कैवल्य, अकेला । चोटी अकेली होती है, बिंदु होता है वहाँ, और कोई नहीं हो सकता । “गगन शिखर पर बालक बोले, ताका नाम धरोगे कैसा”, सत्य को एक पहाड़ की चोटी पर जैसे एक अकेला बच्चा कोई बोल रहा हो, ऐसे चित्रित किया है गोरख ने । समझ रहे हो बात को ? दो बाते हैं । पहला- पहाड़ की चोटी है । पहाड़ की चोटी समझते हो? बड़ी ऊंचाई, जो आसानी से पायी नहीं जाती । बड़ा अकेलापन होता है, वहाँ साथी नहीं होते, वहाँ कैवल्य होता है । वहाँ बड़ी सरलता होती है , बच्चे जैसी निर्मलता होती है।

“गगन शिखर पर बालक बोले”- ऐसा । “भावै आतम राम” । वो जो है तुम्हारे भीतर जो दुनिया द्वारा दी जा रही समस्त सुविधाओं के बाद भी बेचैन है, और जो है तुम्हारे भीतर वो मानता नहीं । जो कहता है और चाहिए, जिसकी आवाज विकृत होकर महत्वकांक्षा के रूप में प्रकट होती है, वो जिसको तुम कितनी ही मिठाइयाँ दो, कितने ही खिलौने दो, वो तब भी चुप नहीं होता, उसी को तुम आत्मा जानो, वही ‘आत्मा है’, उसको ‘राम’ चाहिए ।

‘आत्मा’ मन का वो आखिरी कोना है जो स्रोत से बिल्कुल सट कर खड़ा हुआ है, स्वच्छ, निर्मल, साफ, बच्चे की तरह । आ रही है बात समझ में ? “जिसकी सुरती जहाँ रहे, तिसका तहाँ विश्राम”। जब भी पाओ कि कीचड़ में विश्राम कर रहे हो, तो पूछना अपने आप से, ‘मेरी सुरति कहाँ थी?’ । जब भी पाओ कि अपने चारों तरफ कीचड़ ही कीचड़ लपेट लिया है, तो पूछना, ‘किसकी याद में खोया रहता था जो ये कीचड़ मुझे अब झेलना पड़ रहा है? कहाँ थी मेरी सुरति? किस बात को महत्व दिए बैठा था ?’

सुरति का अर्थ है- किसको तुमने महत्वपूर्ण माना? किसकी याद है तुम्हारे साथ निरंतर ? कहाँ मन रमा हुआ है ? उसको ही ‘सुरति’ कहते हैं । कौन है जिससे मन लगा है ? किससे मन लग गया था ? जब आँख खोलोगे तो यही पाओगे कि विषाद में, दुःख में, तनाव में कीचड़ में लिपटा हुआ है । पूछना अपने आप से, ‘किससे नेह लगा रखा है ? मन को सबसे ज़्यादा क्या पसंद है ?’ और तुम पाओगे कि कोई तुच्छ-सी चीज़ होगी, बहुत तुच्छ चीज़ जैसे, इज्ज़त । ‘मेरी इज्ज़त कम न हो जाये।’ सुरक्षा, ‘मेरी सुरक्षा बनी रहे ।’ दो कौड़ी के रिश्ते-नाते, ‘कोई नाराज़ न हो जाए, कोई रूठ न जाए ।’ देह की खुजली, ‘कोई आदमी या औरत मिल जाये, वासना मिटाने का जुगाड़ हो जाए ।’ कुछ ऐसी ही चीज़ से मन लगा हुआ था तुम्हारा, बल्कि लगा हुआ है ।

“जिसकी सुरति जहाँ रहे, तिसका तहाँ विश्राम, भावै माया मोह में भावै आतम राम”

जहाँ मोह वहीं समझ लेना माया है । जहाँ उस बच्चे की पुकार वहीं जान लेना ‘राम’ हैं । और बच्चा, बच्चा ही जैसा है । उसको बड़ों वाली चीज़ें नहीं चहिये, उसे बड़ों वाली चीज़ें नहीं चाहिए । बड़ों को क्या-क्या चाहिए होता है ? गाड़ी, पैसा, बंगला, बीवी, प्रतिष्ठा, इसके अलावा कुछ चाहिए भी नहीं होता है । जिसको तुम बोलते हो, ‘आदमी के जीवन के पुरुषार्थ’, वो होते ही क्या हैं ? क्या होते हैं ? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इसके अलावा आदमी को और चाहिए क्या होता है ? बड़ों को इसके अलावा कोई ख्वाइश ही नहीं होती । बड़ों को इन चार के अलावा कोई ख्वाहिश नहीं होती ।

‘धर्म’, ‘धर्म’ मने नैतिकता । ‘अर्थ’, ‘अर्थ’ माने पैसा,स्वार्थ । ‘काम’, ‘काम’ माने, पत्नी । और पत्नी न हो तो कोई बात नहीं, बलात्कार । ‘मोक्ष’, ‘मोक्ष’ की ये सब करके भी मुक्त बने रहें । बड़ों को यही चार चीज़ें चाहिए होती हैं- धर्म, अर्थ, काम, और इन तीनों के बावज़ूद मोक्ष । बच्चा वो जिसे इन चारों में कुछ नहीं चाहिए । बच्चा कौन ? जिसे तुम्हारे इन तथाकथित पुरुषार्थों में से एक भी नहीं चाहिए । न उसे धर्म चाहिए, न उसे अर्थ चाहिए, न उसे काम चाहिए, न उसे मोक्ष चाहिए ।

उसे कौन चाहिए? उसे ‘राम’ चाहिए और याद रखना वो ‘राम’ तुम्हारे धर्म वाले राम नहीं हैं । याद रखना वो राम तुम्हारे मोक्ष वाले राम भी नहीं हैं । वो राम तो कोई और राम हैं, वो कबीर के राम हैं। वो वो राम हैं जिनके निर्भय होकर वो गुण हाते हैं, निर्गुण के गुण गाते हैं । वो तुम्हारे देवालय में बसने वाले राम नहीं हैं, मूर्ति में बसने वाले राम नहीं हैं ।

“भावै आतम राम”

बच्चे का साथ दो, वो बातें अजीब-सी ही करेगा, पर उसका साथ दो । वो बड़ों वाली बातें नहीं करेगा । वो समझदरी वाल बातें नहीं करेगा । वो चालाकी की बातें नहीं करेगा । बच्चे की बातें कैसी लगतीं हैं ? बेवकूफ़ी कीं, बचकानी । वो बच्चा है तो बचकानी बातें ही करेगा । उसका साथ दो, उसकी बेवकूफ़ी में उसका साथ दो । उसकी बेवकूफ़ी के पीछे बहुत बड़ा बोध है । वो बोध तुम्हें नहीं है । तुम बड़े हो गए हो, बच्चे का साथ दो ।

एक किताब है संत एक्सुपेरी की, ‘दी लिटल प्रिंस’ । उसमें जो बच्चा है, प्रिंस, वो एक जगह पर आकर हैरान हो जाता है । वो कहता है, ‘इन बड़ों को समझनें में बड़ी मेहनत करनी पड़ती है, इन्हें कुछ समझ में ही नहीं आता ।’ बच्चा कहता है, ‘इन बड़ों के साथ हमें बड़ी मेहनत करनी पड़ती है, इन्हें कभी कुछ समझ में ही नहीं आता ।’

अब बच्चा गगन शिखर पर बोलता है। बड़े कहाँ रहते हैं ? आरामदायक घाटियों में । उन्हें कैसे कुछ समझ में आएगा ।

– ‘बोध सत्र’ पर आधारित । स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं ।

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