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लेख
तीर्थयात्रा के नाम पर मज़ाक? || आचार्य प्रशांत
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: उत्तरांचल को बर्बाद करके उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल बच लेंगे क्या? क्यों नहीं बचेंगे? एक छोटा-सा नाम है ‘गंगा’। बाढ़-सूखा कुछ भी आपने गंगोत्री का जो हाल कर दिया है उसके बाद ये आवश्यक नहीं है कि बाढ़ ही आये। जब ग्लेशियर नहीं रहेगा तो गंगा जी कहाँ से रहेंगी? और वो बन गया है पर्यटन स्थल! और पर्यटन का मतलब ही होता है भोगना! ‘वहाँ जा किसलिए रहा हूँ? पैसा वसूलने के लिए। काहे कि जाना महँगा होता है भाई! तो वहाँ जाएँगे तो पूरा वसूलकर आएँगे। और वसूलने का मतलब ही होता है कि पर्वत का बलात्कार करके आएँगे पूरा।

गँवार क़िस्म का टूरिज़्म! चिप्स के पैकेट, बिसलेरी की बोतलें। कितने ही झरने हैं! वहाँ तो हर दो-सौ मीटर पर कोई झरना होता है। ख़ासतौर पर बरसाती झरना। वैसे सूख जाता है। बरसात में बहता है। आप देखिएगा ग़ौर से वो कितने झरने हैं जो सिर्फ़ प्लास्टिक के कारण अवरुद्ध हो गये हैं, वो बह ही नहीं सकते अब। प्लास्टिक ने उनको रोक लिया है। और रुकता जाता है पानी, रुकता जाता है, ऊपर से तो आ ही रहा है, बर्फ़ पिघल रही है। वो रुकेगा-रुकेगा फिर क्या करेगा? फिर तोड़-फोड़ मचाएगा। या फिर जहाँ रुक रहा है वहाँ की चट्टान को वो घोल देगा। और जब घोल देगा तो क्या होगा? सबकुछ नीचे आ जाएगा।

तीर्थ यात्रा के लिए हेलीकॉप्टर हैं और पूरे रोपवे (उड़नखटोला) बना दिये गए हैं। उड़नखटोले पर बैठकर के वहाँ जाओगे, महादेव के पास! उनके सिर के ऊपर उड़कर आओगे? तीर्थ वहाँ किसी वजह से स्थापित किया गया था, किसी वजह से स्थापित किया गया था न? कि जा सकते हो अगर तो पैरों पर चलकर जाओ। तो पहली हमने बेईमानी ये की कि घोड़े और खच्चर लगा दिये। उसके बारे में भी मैंने बोला है कि भाई घोड़ों को क्यों तीर्थ-यात्रा करा रहे हो, उनकी जान क्यों ले रहे हो? उन्होंने कब कहा है? वो तो पशुपति के वैसे ही प्रिय हैं सारे पशु। उन्हें ये करना ही नहीं है कि दिन में तीन-बार ऊपर, तीन-बार नीचे। और तुम उनको मारे डाल रहे हो। वहाँ लाशें पड़ी रहती हैं।

ये कुल मिलाकर के वही है— एनआरआइ ड्रीम! ‘मेरा तीर्थ है न! तो बिलकुल फाइव स्टार तीर्थ होना चाहिए। खट से गाड़ी निकले दिल्ली से और खट से सीधे केदारनाथ में खड़ी हो जाए। साँय-साँय-साँय!’ वहाँ तो अभी आवश्यकता ये है कि जो रिलीजियस टूरिज़्म (धार्मिक यात्रा) भी होता है, उसको भी रेगुलेट किया जाए। कौनसा ये सब-के-सब वहाँ पर जा रहे हैं महादेव के प्रेम में? ज़्यादातर लोगों को तो शिवत्व का कुछ पता भी नहीं है। ये तो वहाँ पर जाते हैं, ये बॉक्स को टिक करने कि हाँ, भाई तीर्थ भी कर लिया। अब उसकी फोटो लेंगे, फेसबुक पर लगाएँगे और शेखी बघारेंगे कि मैं तो होकर आया हूँ अभी-अभी बद्री, केदार।

जिनकी ज़िन्दगी में शिव कहीं नहीं हैं वो पहाड़ पर चलकर शिव को पा जाएँगे, क्या? उन्हें शिव से कोई प्रेम भी है? खच्चर, घोड़े पर अत्याचार करके तुम वहाँ तक जाते हो, ये पशुपति के प्रेम का प्रतीक है पशुओं पर अत्याचार? ये तो जो चार धाम टूरिज़्म है, ये तो रेगुलेट होना चाहिए। चार-चार महीने की वेटिंग लगनी चाहिए। ताकि वही लोग जाएँ जो सचमुच गम्भीर हों। ऐसे नहीं कि किसी ने भी मुँह उठाया और बोला, ‘चलो डार्लिंग हनीमून मनाने, ऊपर चलते हैं पहाड़ों पर! इधर गर्मी बहुत हो रही है, क्लाइमेट चेंज हो गया है, चार डिग्री औसत से ज़्यादा तापमान है, दिल्ली में। चलो केदारनाथ चलते हैं, मज़ा आएगा। केदारनाथ के रास्ते में और भी सब चीज़ें हैं, उनके भी मजे लेते हुए चलेंगे। पहले ऋषिकेश रुकेंगे, फिर आगे कान्हा ताल है, उसमें रुकेंगे। केदारनाथ के पास चोपटा है, वहाँ मजे मारेंगे। चलो डार्लिंग!’

चार-चार छः-छः महीने की वेटिंग लगे। और एकदम! सीमित संख्या में वाहनों को जाने दिया जाए। एक-से-एक बड़े माँसाहारी! अत्याचारी! भ्रष्टाचारी! ये वहाँ चढ़े जा रहे हैं पर्वत पर। इनके पाप नहीं साफ़ होंगे पर्वत पर चढ़कर। हाँ, पर्वत जरूर गन्दा हो जाएगा इनके चढ़ने से।

ये मत करो कि सड़क इतनी चौड़ी कर दी है कि ज़माने भर की गाड़ियाँ पर्वत पर चढ़ जाएँ। सड़क तो और पतली रखो ताकि वही जाए तो सचमुच जाने लायक़ हैं, जिनमें इतना संयम है, इतनी पात्रता है और इतना प्रेम है कि वो कहेंगे कि हम इंतज़ार करेंगे। ‘मेरा नम्बर छः महीने बाद भी आएगा तो भी मैं प्रतीक्षा करूँगा। मैं तब जाऊँगा।’

ऐसा थोड़े ही है कि गुड़गाँव के रईस हैं और उठाई अपनी फॉर्च्यूनर और चढ़ गये झट से वहाँ पर और बहुत खुश हुए कि वाह! रोड अब कितनी चौड़ी हो गयी है, मज़ा आ रहा है। बीच-बीच में चिकन टिक्का भी मिल रहा है। ग़लत बोल रहा हूँ तो बताइए।

पहाड़ों पर प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण कौन लोग हैं? क्या स्थानीय निवासी? क्या स्थानीय निवासी पहाड़ों को गन्दा करते हैं? नहीं। स्थानीयों में तो फिर भी पर्वत के प्रति कुछ प्रेम होता है। पर्वतों को बर्बाद तो ये पर्यटक करते हैं और इन्हीं पर्यटकों को और ज़्यादा और ज़्यादा वहाँ बुला रहे हो। काहे के लिए भाई? कहेंगे, अर्थव्यवस्था के लिए। पहाड़ों के लोगों को भी तो पैसा मिलना चाहिए तो एक काम कर लो, पहाड़ों के लोगों को सब्सिडाइज़ कर दो, वो कहीं बेहतर है। उन्हें सौ तरह की सब्सिडीज़ (राजसहायता) दे दो।

अगर आप यही चाहते हो कि पहाड़ के लोगों के हाथ में कुछ पैसा आए। तो उसके लिए पहाड़ को क्यों बर्बाद कर रहे हो? पहाड़ के लोगों को सब्सिडी दो। बहुत अच्छी बात है, पूरा देश तैयार हो जाएगा। भाई, पूरा देश जो टैक्स भरता है उसका आधे से ज़्यादा तो तुम खा जाते हो, अपने भ्रष्टाचार में। ठीक?

हमारा-आपका जो टैक्स जाता है, आपको क्या लग रहा है, वो विकास के कार्यों पर खर्च होता है? हमारा आपका टैक्स तो यही खा जाते हैं, सब नेता और ब्यूरोक्रैट्स (नौकरशाह)!

तुम्हें पहाड़ों की इतनी ही चिन्ता है तो जो हम टैक्स देते हैं उसी टैक्स का इस्तेमाल करके पहाड़ के लोगों को सब्सिडी दे दो। उनकी ज़िन्दगी बेहतर हो जाएगी, आर्थिक रूप से भी। लेकिन पहाड़ क्यों बर्बाद कर रहे हो?

ये इतनी अजीब बात है, एक विदेशी आता है जब हमारे पर्वतों पर तो वो विदेश में माँसाहार करता होगा, भारत आकर के कहता है, ‘नहीं, माँसाहार छोड़ दो। मैं पशु क्रूरता के उत्पाद माने दूध, पनीर वगैरह भी नहीं छुऊँगा।’ ये विदेशियों का हाल रहता है। वो यहाँ पर साधारण कपड़े पहनकर घूमते हैं, अपने देश वाले नहीं।

वहीं ऋषिकेश से दो सौ-चार सौ रुपए का कुर्ता खरीद लेंगे, वही डाल लेंगे। वही पहनकर अपना घूम रहे हैं। एक फटी चप्पल में अपना और मज़े कर रहे हैं और जब देसी आदमी पहाड़ों पर जाता है तो वहाँ बकरा चबाता है। वो कहता है, ‘हम पहाड़ पर आये किसलिए हैं? बीयर और बार्बी क्यू!’

विदेशी माँसाहारी है पर वो पहाड़ पर आकर हो जाता है, शाकाहारी और देसी अपने घर में भले शाकाहारी होगा, लेकिन पहाड़ पर चलकर हो जाता है बलात्कारी! एकदम पूर्ण माँसाहारी। ये हमारी महान संस्कृति है! वो इसलिए क्योंकि संस्कृति में अध्यात्म कहीं नहीं है, बस संस्कृतिभर है। मिठ्ठू, बोलो राम-राम! तो मिट्ठू ‘राम-राम’ बोल रहा है। तोता रटन्त संस्कृति।

सन्तों ने इतना समझाया, इतना समझाया कि असली तीर्थ है आत्मस्नान। और आत्मस्नान यदि नहीं हो रहा है तो तुम गन्दे ही रह जाओगे।

“मीन सदा जल में रहे। धोए बास न जाए।”

तुम कितना गंगा स्नान कर लो, भीतरी गन्दगी नहीं हट रही तो नहीं हट रही। अभी हमारी हालत ये है कि हम भीतरी गन्दगी हम और बढ़ा रहे हैं धर्म के नाम पर। और गंगा जी हमें क्या साफ़ करेंगी, हमने गंगा को गन्दा कर दिया। और समझाने वाले कह गये, “क्यों पानी में मलमल नहाए, मन की मैल छुटा रे प्राणी!“

“गंगा गये होते मुक्ति नाहिं, सौ-सौ गोते खाइए।”

लेकिन जब मन की मैल बचाकर रखनी होती है तो फिर हम गंगा को भी मैला कर देते हैं। और जब भीतर जानवर बैठा होता है न, तो हम पहाड़ों के, जंगलों के सारे जानवर काट डालते हैं।

जब हम भीतर के पशु से मुक्त नहीं होते तो बाहर वाले जितने पशु होते हैं उनके साथ बड़ा अत्याचार करते हैं।

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