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लेख
स्वयं को ऊँचा लक्ष्य दो, और बहकने पर सज़ा भी || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं अपने पुराने ढर्रों को छोड़कर नये तरीक़े से शुरूआत करना चाहती हूँ पर असमंजस में हूँ कि अब जो काम करने का सोच रही हूँ, सही है या नहीं। यह उलझन मुझे हमेशा पकड़े रहती है और वो सही है या ग़लत है, इसी में उलझकर मैं अकर्मण्यता को उपलब्ध हो जाती हूँ और कुछ भी नहीं कर पाती। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य : देखो, पुराने ढर्रे जितने होते हैं वो सब आपस में अच्छे से समायोजित होते हैं, वेल एडजस्टेड (अच्छी तरह से समायोजित), इसीलिए तो वो एक साथ चल पाते हैं बहुत दूर तक। उदाहरण के लिए, किसी के जीवन का एक ढर्रा है देर तक सोना और दूसरा ढर्रा है, सुबह प्रार्थना न करना या योग-व्यायाम वगैरह न करना। ये दोनों ढर्रे साथ-साथ चल रहें है न। इन दोनों ढर्रों में आपस में कोई लड़ाई नहीं है। इसी तरीक़े से उस व्यक्ति के अगर दिनभर के भी बाक़ी ढर्रों को देखेंगी तो पाएँगी कि वो आपस में बहुत मैत्री भाव से रहते हैं।

ये सबकी कहानी है। आप जिस तल पर रह रहे हैं उसी तल के अनुसार आपके जीवन के सारे ढर्रे होते हैं, एक-दो नहीं। एक-दो हो सकता है आपको परेशान कर रहे हों, बाक़ियों द्वारा दी जा रही परेशानी आपको पता न चल रही हो, पर हैं वो सब ढर्रे आपस में भाई-बन्धु ही। आपस में उनका कोई गहरा विरोधाभास नहीं है, तभी तो वो सब साथ-साथ चल पाते हैं।

अब गड़बड़ क्या होती है कि मान लो कि बीस ढर्रे हैं किसी के। बीस जिन पर अँगुली रखी जा सकती है, होते तो बीस हज़ार हैं, बीस जिनको गिना जा सकता है। ये बीस के बीस हमें बुरे नहीं लगते, हमें बुरे लगते हैं इसमें से एक या दो। उन एक-दो को हम हटाना चाहते हैं। हम ये समझते ही नहीं कि उनके अट्ठारह दोस्त जीवन में बैठे हुए हैं। दो को हटाओगे और उन दो के अट्ठारह दोस्त जीवन में बैठे हैं जिनसे तुम्हें कोई आपत्ति ही नहीं, तो वो अट्ठारह क्या इन दो को हटने देंगे? तो इन दो को तुम हटाते भी हो तो बाक़ी अट्ठारह इन्हें वापस खींच ले आते हैं।

तो करना क्या है? करना ये है कि ज़िन्दगी में कोई ऐसा मूल बदलाव लाना है जो इन बीस के बीस को अप्रासंगिक बना दे, मूल्यहीन बना दे, इर्रेलेवेंट कर दे। इन सबकी ही क़ीमत तुम्हारी नज़रों में बिलकुल गिरा दे, शून्य कर दे। एक ऐसी नयी शुरुआत मिल जाए ज़िन्द‍गी को कि पुराने सब ढर्रे व्यर्थ लगने लगें। उनसे आगे का कुछ बहुत महत्वपूर्ण दिखायी देने लग जाए, तब तो ये सब ढर्रे जाएँगे और जब ये जाते हैं तो झुंड में जाते हैं। एक-दो फिर नहीं रवाना होते, आठ-दस-पन्द्रह रवाना होते हैं। यही वजह है कि लोग पुरानी आदतें आसानी से छोड़ नहीं पाते।

अब किसी के जीवन के सारे ढर्रे ही तनाव, ऊब, बैचैनी से भरे हुए हैं और वो कहे, ‘मुझे सिगरेट छोड़ देनी है’। सिगरेट की आदत छूटेगी नहीं क्योंकि आपके पास पाँच और आदतें हैं जो सिगरेट को आमन्त्रित करती हैं। जब तक आप उन पाँच और आदतों को भी नहीं छोडे़ंगे, सिगरेट अकेले को कैसे छोड़ देंगे!

तो कुछ ऐसा करना पड़ेगा जो पुराने ढर्रों के मध्य एक अराजकता ला दे। कुछ डिस्रप्टिव (विनाशकारी) होना चाहिए। फिर तो ये छूटेंगे ढर्रे अन्यथा बहुत सारी विधियाँ हैं, आदतें बदलने की, पैटर्न्स तोड़ने की, वो आज़माते रहो, उनसे थोड़ा बहुत लाभ होता है कुछ काल के लिए और फिर वही ढाक के तीन पात। कई बार जिस जगह पर रह रहे हो, उस जगह को बदलना कारगर हो जाता है। कई बार आगे की पढ़ाई करना, नया ज्ञान लेना, किसी नए कोर्स (पाठ्यक्रम) इत्यादि में प्रवेश ले लेना सहायक हो जाता है। कई बार अपनेआप को एक चुनौती भरा लक्ष्य दे देना सहायक हो जाता है।

पर जो भी कुछ जीवन में लाओ तो इतना चुनौतीपूर्ण, इतना आवश्यक, इतना अपरिहार्य होना चाहिए कि उसके आगे पुराना सबकुछ फीका लगे, तब तो पुराने से मुक्ति मिलेगी, नहीं तो नहीं मिलेगी। सतही और कृत्रिम बदलाव बहुत गहरे नहीं जाते, दूर तक भी नहीं जाते। अपनेआप को एक बड़ा लक्ष्य दो। बड़ा लक्ष्य भी देने भर से काम नहीं चलता, बड़े लक्ष्य को न पाने की पेनल्टी , क़ीमत, दंड भी बड़ा होना चाहिए। नहीं तो, फिर तो भीतर जो हमारे बन्दर बैठा है उसके लिए आसान हो गया न, अपनेआप को बड़ा लक्ष्य देते रहो बार-बार, बार-बार और हासिल उसे कभी करो मत। बेशर्म बन्दर है, फ़र्क उसे पड़ता ही नही। वो कह देगा, ‘हाँ, मैने फिर लक्ष्य बनाया और फिर मात खायी, कोई बात नहीं।’

लक्ष्य भी बड़ा हो और लक्ष्य से प्रेम इतना हो, लक्ष्य का महत्व इतना समझ में आता हो कि लक्ष्य को न पाने का विचार ही बड़ा डरावना हो।

साफ़ पता हो कि जीवन बड़ी पेनल्टी लगाएगा अगर जो लक्ष्य बनाया है, उसको पाया नहीं तो। हम लोग यही भूल कर जाते हैं। संकल्प तो बड़े बना लेते हैं पर बड़ा संकल्प बनाने से काम नहीं चलता, अपनेआप को सज़ा भी देनी पड़ती है अगर संकल्प पूरा न हो तो।

संकल्प पूरा नहीं कर पाए और अब अपनेआप को सज़ा नहीं दी तो फिर क्या है, फिर तो मौज है! ऊँचे-ऊँचे संकल्प बनाने का श्रेय भी लेते रहो और आलसी रह गए, निखट्टू रह गए, ढीले रह गए, कोई दृढ़ता नहीं दिखायी, इसकी कोई सज़ा भी मत भुगतो। नहीं, सज़ा तुम्हें अपने लिए स्वयं निर्धारित करके रखनी पड़ेगी पहले से।

आमतौर पर सबसे बड़ी सज़ा तो प्रेम ही होती है। कुछ अगर ऐसा लक्ष्य बनाया है जिसके प्रति बड़ा समर्पण है, बड़ा प्रेम है तो यही अपनेआप में सज़ा बन जाती है कि जिससे प्रेम था उसे पाया नहीं। एक बार निगाहें कर ली आसमान की ओर और ललक उठ गयी किसी तारे की, उसके बाद ज़मीन में खिंची हुई लक़ीरें, ज़मीन में उठी हुई दीवारें, मिट्टी में बँधे हुए ढर्रे फिर किसको याद रहते हैं, वो अपनेआप पीछे छूट जाते हैं, और यही विधि है। लेकिन पहले किसी तारे की ललक उठनी चाहिए।

ललक उठनी चाहिए और न मिले तारा तो दिल टूटना चाहिए। जिनके दिल नहीं टूटते उनके लिए जीवन में कोई प्रगति सम्भव नहीं है। जो अपनी असफलता को भी चुटकुला बनाए घूमते हैं, जिन्हें लाज ही नहीं आती, उनके लिए जीवन में कोई उन्नति, उत्थान सम्भव नहीं है।

इंसान ऐसा चाहिए जो लक्ष्य ऊँचा बनाए और लक्ष्य फिर न मिले तो एक गहरी पीड़ा, एक गहरी कसक बैठ जाए जीवन में। ताकि दोबारा जब वो लक्ष्य बनाए तो उसे हासिल न कर पाने की धृष्टता न कर पाए। नहीं तो हमने ये बड़ा गन्दा रिवाज़ बना लेना है अपने साथ, लक्ष्य बनाओ मात खाओ, लक्ष्य बनाओ मात खाओ, लक्ष्य बनाओ मात खाओ।

और मात क्यों खाओ, इसलिए नहीं कि स्थितियाँ या संयोग प्रतिकूल थे, मात इसलिए खाओ क्योंकि हम आलसी थे, हममें विवेक, श्रम, समर्पण, साधना सबकी कमी थी। लक्ष्य बनाओ मात खाओ, लक्ष्य बनाओ मात खाओ और जितनी बार मात खाओ उतनी बार बेशर्म की तरह बस मुस्कुरा जाओ। न, ऐसे नहीं! जिसको मात खाने पर लाज नहीं आएगी, वो बार-बार मात ही खाएगा।

हारना नहीं बुरा है पर काहिली में हारना, आलस में हारना, अविवेक में हारना, इनकी कोई माफ़ी नहीं है। तुम पूरी जान झोंक दो, उसके बाद भी कुछ मिले न, जीवन बदले न, पुरानी आदतें, पुरानी व्यवस्थाएँ जीवन की टूटें न, चलो कोई बात नहीं। इंसान हो, नहीं मिली जीत, कोई बात नहीं।

पर अधिकांशतः हमें जीत यदि नहीं मिलती तो इसका कारण ये नहीं है कि स्थितियाँ बिलकुल हमारे विपक्ष में खड़ी हो गयीं, अधिकांशतः, निन्यानवे-दशमलव-नौ प्रतिशत मामलों में अगर हमें जीत नहीं मिलती तो उसकी वजह ये है कि हममें पानी नहीं था, हृदय में प्रेम और आँखो में लाज नहीं थी। और इतना ही नहीं होता, जब तुम्हारे आँखों में पानी नहीं होता, हृदय में प्रेम नहीं होता तो तुम मिली हुई जीत भी गँवा देते हो। ये तो छोड़ ही दो कि जीत मिलती नहीं, कभी-कभार जैसे संयोग से हार मिल जाती है वैसे ही संयोगवश जीत भी मिलती है। जिन्हें संयोगवश जीत मिल जाती है वो भी जीत को गँवा देते हैं अगर जिसको जीता है, जिसको पाया है, जिस लक्ष्य को हासिल किया है, उसके लिए दिल मे धधकता हुआ प्यार न हो, फिर कुछ नहीं।

कुछ सालों की, कुछ दशकों की ज़िन्दगी है, उसे एक औसत तरीक़े से जीकर गुज़ार दो, कट जाएगी। बहुत कीट-पतंगे हैं, कीड़े-मकोड़े हैं, आते हैं, जीते हैं, मर जाते हैं। सब ऐसा कर सकते हैं अगर ऐसा ही करना है।

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