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लेख
स्थिरता || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
4 मिनट
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प्रश्न: सर, कोई अगर मर गया, तो वो भी तो स्थिर हो गया?

वक्ता: जिसको ऐसी ज़िन्दगी बोलते हो, उसकी तो स्थिरता यही है। मुर्दा बहुत स्थिर होता है। वैसे तो हर समय जीवन भर हिलता-डुलता ही रहा, कब्र में डाल दो, फिर स्थिर हो जाता है। लेकिन दिक्कत ये है कि वहां भी रह नहीं पाता। कई बार भूचाल आते हैं और कब्रों में से मुर्दे उखड़-उखड़ कर बाहर आकर पड़ते हैं। जिसको तुम ज़िन्दगी बोलते हो उसमें तो कुछ भी स्थिर नहीं है, लगातार सब हिल रहा है। जो स्थिर लगता भी है वो भी स्थिर नहीं है। जैसे मुझे अभी तुम स्थिर लग सकते हो, पर सच ये है कि मैं और तुम, दोनों, हजारों किलोमीटर की गति से आग बढ़ रहे हैं।

तो यह जो जीवन है, इसमें तो कहीं स्थिरता नहीं है, हो ही नहीं सकती। स्थिरता अपने उस बिंदु पर हो सकती है जो सब अस्थिरताओं को आता-जाता देख रहा है। जैसे समझ लो कि ज़बरदस्त तूफ़ान चल रहा है, उसमें सब हिल रहा है। तुम उस तूफ़ान में पांव जमाके खड़े हो और तुम उसको देख रहे हो, तो क्या स्थिर है? जो सामने पेड़ हिल रहा है वो स्थिर है क्या? जो हवा चल रही है वो स्थिर है क्या? तुमने जो कपड़े पहन रखें हैं वो स्थिर हैं?

श्रोता १: नहीं सर।

वक्ता: तुम्हारा शरीर भी स्थिर है क्या? बाल उड़ रहे हैं, हो सकता है कि झोंका इतनी तेज़ आए कि तुम भी हिल जाओ। शरीर भी स्थिर है क्या?

पर फिर भी कुछ है, जो स्थिर है, वो क्या है?

श्रोता १: जो यह सब देख पा रहा है।

वक्ता: तो बस वही है जो स्थिर हो सकता है। बाकी तो सब अस्थिर ही रहेगा। उसको तुम कितनी भी कोशिश कर लो स्थिर बनाने की, तुम कर नहीं सकते, तुम्हें दुःख ही मिलेगा। लोग इतनी कोशिश करते हैं वहाँ स्थिरता लाने की, कि मकान बना लें बड़ा सा तो क्या पता स्थिर हो जाएँ।

श्रोता २: सर, घरवाले कहते हैं सेटल (बसना ) हो जाओ।

वक्ता: हाँ, सेटल हो जाएँ, शादी-वादी भी कर लें, पैसा इकट्ठा कर लें – तो इस से स्थिर हो जाएँ! उससे स्थिरता आज तक किसी तो मिली ही नहीं। लोग फ़िर भी वो बेवकूफ़ी करे जाते हैं।

असली स्थिरता जहाँ है वहां पर जाओ। असली स्थिरता वहीं है। बाहर तो तूफ़ान ही तूफ़ान चलते रहते हैं। तूफानों के बीच में तुम खड़े हो, वहां पर क्या स्थिर हो सकता है? शरीर तो स्थिर नहीं हो सकता। विचार भी यदि आ रहे हैं तो वो भी स्थिर नहीं हो सकते। फिर भी वहां कुछ स्थिर हो सकता है, उसको जानो। कोशिश करो। सब हिल-डुल रहा है, उसको देखो ध्यान से। तब बड़ा अजीब सा कुछ होगा। वो तो दिखाई देगा ही जो हिल-डुल रहा है, अचानक ये एहसास भी होगा कि कुछ है मेरे भीतर जो नहीं हिल-डुल रहा है। जिसको ये तूफ़ान छू भी नहीं सकता। फ़िर बड़ा मज़ा आएगा। फ़िर डर निकल जाता है अन्दर से। फ़िर तुम कहते हो “आयें जितने तूफ़ान आने हों, हम हिलने वाले नहीं हैं। हमारा स्वभाव ही नहीं है हिलने का।”

ये नहीं कि यहाँ खड़े होकर प्रार्थना कर रहे हो कि तूफ़ान स्थिर हो जाए। एक तूफ़ान स्थिर होगा तो दूसरा आ जाएगा। ये बड़ी बेवकूफ़ी की बात है कि तुम बाहर स्थिरता खोजो। बाहर स्थिरता मिलेगी नहीं। स्थिरता तो कहीं और ही मिलेगी।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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