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लेख
शिवलिंग: बहस से पहले बोध || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
28 मिनट
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा नाम परितोष त्रिपाठी है और मैं भी बनारस से ही आया हूँ।

आचार्य प्रशांत: हम भी बनारस से ही हैं।

(श्रोतागण हँसते हुए)

प्र: महर्षि वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण लिखा है जिसमें सात खंड हैं, जिसमें चौथा खंड काशी खंड है। और उसमें जो भी काशी में शिवलिंग है उनके बारे में बहुत ही विस्तृत रूप में बताया गया है। तो एक तो प्रश्न ये था कि ये शिवलिंग का मतलब क्या है, इनका प्रयोजन क्या है? उनको क्यों पूजा जाए? और दूसरा कि इन तीर्थ का कोई विशेष महत्व है या सिर्फ़ ये एक तीर्थाटन की जगह मान लिया जाए?

आचार्य: अच्छा प्रश्न है। चाहता तो मैं ये हूँ कि ये प्रश्न वो सब लोग पूछे जो शिवलिंग विवाद में बड़ी गहरी रुचि, उत्सुकता इत्यादि रखते हैं। खासतौर पर जिन लोगों के पास बड़े ठोस विचार और मत हैं, उग्र मत हैं। सबसे पहले तो उन्हें पूछना चाहिए कि क्या उन्हें पता भी है कि शिवलिंग माने क्या। और अगर वो नहीं जानते हैं कि शिवलिंग माने क्या, तो उनकी निष्ठा है किसके प्रति? वो किस बात को लेकर के शोर मचा रहे हैं अगर वो जानते ही नहीं हैं कि शिवलिंग माने क्या?

शिवलिंग क्या है इस पर विस्तार में मैं कई बार चर्चा कर चुका हूँ। बाहर इतनी किताबें हैं उनमें से किसी किताब में अध्याय भी होगा। एक पूरी चर्चा थी लगभग एक घंटे की, शिवलिंग का अर्थ क्या है। उसका वीडियो उपलब्ध भी होगा, उपलब्ध है। पूरा विस्तार से उसमें समझाया है कि कहाँ से लिंग की पूजा की शुरुआत हुई, फिर कैसे आगे बढ़ती गई, आगे बढ़ती गई। उसको लेकर के भ्रम किस तरीके से हैं और अंग्रेज़ों ने और समसामयिक कई इतिहासकारों ने किस तरीके से शिवलिंग के अर्थ को समझे बिना ही उसका उपहास भी कर दिया है। इन सब बातों की विस्तार से चर्चा की हुई है।

अभी तो तुमको संक्षेप में बता देता हूँ ताकि प्रश्न के दूसरे हिस्से पर आ सकूँ।

लिंग का अर्थ होता है प्रतीक, पहली बात। लिंग शरीर के एक हिस्से को नहीं कहते हैं। शरीर के किसी हिस्से को लिंग नहीं कहा जाता। पुरुष के यौनांग को लिंग सिर्फ़ इसलिए कहा जाता है क्योंकि उसको देखकर के यह प्रमाणित हो जाता है कि ये जो जीव है, ये क्या है – पुरुष है। तो वो प्रतीक है ना? एक बच्चा पैदा होता है, नर्स तुरंत बताती है लड़का हुआ या लड़की हुई। कैसे बताती है? यौनांग की ओर देखती है, बता देती है, ठीक? तो जो यौनांग है वो प्रतीक है, चिह्न है, है न?

इसी तरीके से जो शिवलिंग है, ये किसी चीज़ का प्रतीक है। अभी जब से ये काशी में विवाद शुरू हुआ है तो बहुत सारे लोगों ने शिवलिंग को लेकर के बड़े अमर्यादित, अशोभनीय मज़ाक भी शुरू कर दिए हैं जो सोशल मीडिया पर देखने को मिलते हैं।

मन बड़ा खट्टा हो जाता है वो सब देखकर के। खासतौर पर पढ़े-लिखे लोग जब इस तरह की बात कर रहे हों तो बुरा लगता है। वो कहते हैं कि 'वो जो शिवलिंग है वो पुरुष का यौनांग है और जिस आधार पर वो स्थापित है वो स्त्री का यौनांग है।' और कहीं पर कोई खंभा हो, कुछ हो, कहने लग गए हैं, 'ये भी शिवलिंग है, ये भी शिवलिंग है।' बड़ा बेहूदा मज़ाक चल रहा है।

सांख्य योग में पुरुष और प्रकृति का सिद्धांत है, ठीक है? पुरुष माने चेतना। उसी सिद्धांत को आप वेदांत में भी पाते हो। वेदांत में उसमें एक चीज़ और जुड़ जाती है जो सांख्य योग के दर्शन को पूर्णता दे देती है – आत्मा।

सांख्य योग में आत्मा नहीं होती। सांख्य योग में क्या है? पुरुष और प्रकृति। पुरुष सांख्य में अनंत होते हैं। जैसे मन अनंत है ना, मन सबके अलग-अलग होते हैं, वैसे ही पुरुष अलग-अलग हैं। तो पुरुष को ऐसा समझ लो कि वो मन है। पुरुष जो प्रकृति के प्रति असुरक्षित है, वल्नरेबल है, प्रकृति के द्वारा भ्रष्ट किया जा सकता है, प्रभावित किया जा सकता है उसको कहते हैं पुरुष। तो पुरुष है और प्रकृति है।

पुरुष की चाह है वहाँ पहुँच जाना जहाँ वह प्रकृति से सर्वथा अप्रभावित रह सके और प्रकृति का दृष्टा मात्र हो जाए, क्योंकि जब प्रकृति से प्रभावित हो जाता है पुरुष—और प्रकृति को स्त्री के प्रतीक द्वारा निरूपित किया गया है—जब ये जो पुरुष है, यह प्रकृति से प्रभावित हो जाता है तो पुरुष और प्रकृति दोनों में विकृति आ जाती है।

ठीक है?

तो पुरुष के लिए भी अच्छा है और प्रकृति के लिए भी अच्छा है कि पुरुष प्रकृति का दृष्टा मात्र रहे। लिप्त न हो जाए, साक्षी रहे। जब साक्षी भर हो जाता है तो पुरुष को फिर हम क्या कहते हैं वेदांत में? उसी पुरुष को फिर हम क्या कहने लग जाते हैं जो साक्षी भर हो गया? क्या कहते है? आत्मा। साक्षी नहीं रह पाया तो क्या है? मन या पुरुष।

पुरुष क्या है? मन। और मन की वृत्ति क्या है? प्रकृति से लिप्त हो जाना। ठीक वैसे जैसे हम दुनिया में देखते हैं कि नर की वृत्ति होती है नारी से लिप्त हो जाना। ठीक है न?

लिप्त से ही तद्भव निकल के आया है ‘लिपटना’। संस्कृत में, तत्सम में जिसको कहेंगे लिप्त, वो खड़ी बोली में बन जाता है ‘लिपट’, ‘लिपटना’। तो नर की वृत्ति होती है न, जहाँ दिखी नारी, जाकर लिपट गया। तो वैसे ही सूक्ष्म तल पर, मानसिक तल पर जो पुरुष है, जो मन है, उसकी वृत्ति है जाकर प्रकृति—वहाँ प्रकृति माने फिर नारी भर नहीं होता, प्रकृति माने समूचा अस्तित्व, सबकुछ—उससे जाकर लिपट गया।

कोई कार से लिपट रहा है, कोई पैसे से लिपट रहा है, कोई किसी मनचाही अन्य वस्तुओं से, कोई खाने से ही लिपट रहा है; लिपटने की इसकी (मन की) वृत्ति। स्थूल तरीके से जैसे एक नर की वृत्ति होती है जाकर नारी से लिपट जाने की, वैसे ही सूक्ष्म तल पर मन की वृत्ति होती है दुनिया की तमाम चीज़ों से लिपट जाने की।

अब ये आदमी के अस्तित्व की बड़ी समस्या है, करें क्या? क्योंकि जब लिपटो तो दुख ही दुख मिलता है। अब वहाँ पर आता है शिवलिंग का गहरा प्रतीक, वो कहता है, ‘देखो, अगर तुमने जन्म ले रखा है तो देह में तो तुम हो ही, लेकिन देह में होते हुए भी तुम्हें ऐसे जीना है जैसे तुम बिना देह के हो। तो वो जो वहाँ आप योनि का आकार देखते हैं शिवलिंग में, वो वास्तव में संसार या देह है। और जो आप लिंग देखते है उसके मध्य में, वो चेतना है, चेतना जो देह में अवस्थित है।

लिंग क्या है?

चेतना।

योनि क्या है?

देह।

तो वो जो पूरा प्रतीक है वो कौन हो गया? वो हम हैं, भाई! वो जो शिवलिंग है वो हम हैं। और हमें क्या सिखा रहा हैं वो शिवलिंग फिर? रहना तो वहीं है, पर ऐसे रहो जैसे आज़ाद हो उससे।

रहना तो तुम्हें देह में ही है पर देह में ऐसे जियो जैसे देह नहीं हो तुम। अपने आत्म-स्वरूप को सदा याद रखना, और वो हम बार-बार भूलते हैं। इसीलिए गाँव-गाँव में, गली-गली में शिवलिंगों की स्थापना की गई ताकि हमें बार-बार याद आता रहे कि ज़िंदगी जीनी कैसे है। शिवलिंग का ये अर्थ है।

लिंग क्या है? चेतना का प्रतीक। ऐसी चेतना जो संसार में और देह में मौजूद तो है, क्योंकि भाई चेतना देह में ही रहती है, देह जब जल जाती है तो चेतना बचती है क्या? तो है तो वो चेतना देह में ही स्थित, लेकिन फिर भी वो देह से मुक्त है। और उसी आदर्श को भारत में कहा गया है विदेह मुक्त, और और साफ़ तरीके से जीवन मुक्त।

देह में हैं लेकिन देह से मुक्त। जी रहे हैं लेकिन ज़िंदगी से आज़ाद हैं। ज़िंदगी से आज़ाद माने जिसको हम साधारण ज़िंदगी बोलते हैं – कलह, क्लेश, छोटे सुख, छोटे दुख, इनसे मुक्त हैं। वो आदर्श हमें याद रहे इसके लिए प्रतीक है शिवलिंग का।

शिवलिंग का अर्थ यह है कि ये दुनियादारी जो है इसके बीचों-बीच रहते हुए भी इसको बहुत महत्व नहीं देना है। बनारस का असली वासी वो हुआ जो दुनिया से मुक्त जीता है, जिसे दुनिया के धंधों से बहुत प्रयोजन नहीं है। जो जीता तो पृथ्वी पर है पर उसकी आँखों में झांको तो आकाश दिखाई देता है। वो हुआ काशी का असली निवासी। जिसको दुनियादारी और इधर-उधर के सांसारिक झमेलों और झगड़ों से भी बहुत मतलब है वो अभी काशी वासी हो ही नहीं सकता।

अब शिवलिंग को जब देखोगे तो कुछ याद आएगा, क्या याद आएगा? दुनिया में रहना है लेकिन दुनिया से आज़ाद जीना है। इसी बात को ज़ेन में कहते हैं, नदी पार कर लेनी है पर गीला नहीं होना है। नदी ऐसे पार करो, क्योंकि पार तो करनी पड़ेगी।

‘ओ रे मांझी ले चल उस पार,’ सुना है न? वो ‘मेरे साजन हैं उस पार’। साजन तो उसी पार हैं। साजन माने? हम कौन हैं? मन। साजन माने आत्मा। ये भक्ति में भी जितने गीत, जितने भजन हैं वो सब मन की पुकार हैं आत्मा के प्रति।

आज सुबह ऑल इंडिया रेडियो पर बात कर रहा था मैं। सुनी है आपने? नहीं सुनी? उसमें भी जो दो-चार मैंने उनसे कहा कि गाने बजा दीजिए, वो सब क्या थे? वो मन के ही गीत थे आत्मा को याद करते हुए।

‘अँखियों के झरोखों से तुझे देखा जो साँवरे, ‘तुम दूर नज़र आए, बड़ी दूर नजर आए’

आँखों से देखो तो बहुत दूर है वो, क्योंकि जैसा उपनिषद् कहते हैं, आँखें उस तक पहुँच नहीं सकतीं। तो नदी पार कर देनी है लेकिन गीला नहीं हो जाना है, नदी में गल नहीं मरना है। रहना संसार में ही है लेकिन संसारी नहीं हो जाना है। ये सीख है शिवलिंग में निहित।

उसे दूध चढ़ाने से नहीं होगा, ये पागलपन है। उससे सीखना होता है। सीखना होता है, सीख रहे हो या नहीं रहे हो? और बहुत सशक्त प्रतीक है शिवलिंग – ज़िंदगी सिखा दे, जीना बता दे। कुछ सीखा भी या नहीं? या बस लड़ाई-झगड़ा ही करना है शिवलिंग के नाम पर?

मंदिर इसीलिए बनाया गया था। सब प्रतीक अर्थवान हैं, पर अगर अर्थ भूल जाओ तो सब प्रतीक कचरा हैं। मंदिर बहुत सुंदर प्रतीक है। ये जो कमल दल देखते हो आप मंदिरों की दीवारों पर अंकित, कितना अद्भुत प्रतीक है। पर हमें किसी प्रतीक का कोई अर्थ नहीं पता क्योंकि सब प्रतीक खुलते हैं वेदांत से। वेदांत हम पढ़ते नहीं, तो हमारे लिए अब कोई प्रतीक कोई अर्थ नहीं रखता।

(भगवद्गीता की प्रति उठाते हुए) यहाँ हमारे समक्ष भगवद् गीता के श्लोक हैं। एक-एक अक्षर क्या होता है? बताओ, ये प्रतीक है ना? अगर तुम्हें उसका अर्थ करना आता है तब वो प्रतीक तुम्हारे लिए अर्थवान हो जाता है, ठीक? अगर तुम्हें पढ़ना ना आता हो, तो क्या बोलते हैं फिर? ‘काला अक्षर भैंस बराबर’।

वही सब हिंदूओं की हालत है। हर प्रतीक हमारे लिए भैंस बराबर हो गया है। हमें कुछ नहीं पता। हमारी संस्कृति में भी प्रतीकों का बाहुल्य है, लेकिन हम किसी का कुछ अर्थ जानते ही नहीं। बिना उपनिषदों तक गए तुम नहीं जान पाओगे कि वो प्रतीक बनाया ही किसलिए गया है।

फिर क्या शुरू होता है, जब कुछ जानते नहीं फिर भी पूजा करते हो? फिर उसको बोलते हैं पाखंड, अंधविश्वास। जब पता तो है नहीं कि जो कर रहे हैं वो है क्या, लेकिन फिर भी करें जा रहे हैं, उसको क्या बोलते है? पाखंड। हम पाखंडी लोग हैं, हम कुछ जानते नहीं।

हम बस कभी पेड़ों की परिक्रमा करेंगे, कभी फलाना व्रत रख लेंगे, कभी नदी में जाकर के दीप प्रवाहित कर रहे हैं, कभी कहीं जाकर के कोई किसी तरह की अग्नि प्रज्वलित कर रहे हैं, ये सब कर रहे हैं। जानते ही नहीं ये कर क्यों रहे है पर करे जा रहे हैं।

एक बार तुम्हें अब शिवलिंग का अर्थ पता चल गया, अब कहीं कोई छोटा सा भी शिवलिंग देखोगे तो मन बदल जाएगा। प्रयोग करके देख लेना। किसी झगड़े, किसी झमेले में फँसे होओगे, किसी बात को लेकर के मन क्लांत होगा, शांत हो जाओगे। कुछ याद दिला देगा प्रतीक।

दूसरी बात क्या पूछी?

प्र: तीर्थ सिर्फ़ तीर्थ हैं या सिर्फ़ तीर्थाटन है या तीर्थ का कोई विशेष महत्व है?

आचार्य: तुम बताओ, अब इतना बताया है अभी।

प्र: तो विशेष महत्व तो नहीं होगा। जब शिवलिंग अगर जहाँ भी है और मेरा भाव वहाँ के लिए वैसा ही है, तो जैसे अभी आपने पिछले प्रश्न में उत्तर दिया तो तीर्थ का तो वैसे विशेष महत्व ही नहीं रह जाएगा। जहाँ भी शिवलिंग देखेंगे, वहाँ पर तो वही भाव आएगा।

आचार्य: बहुत अच्छा! अब थोड़ा सा मैं विस्तार में बताता हूँ। दो-तीन बातें हैं।

आपको रोचक लग रहा है ये सब कुछ? या बातें ज़्यादा धार्मिक वगैरह हो रही हैं? कोई और बातें करें?

(श्रोतागण से पूछते हुए)

श्रोतागण: नहीं, आचार्य जी, यही बताइए।

आचार्य: ठीक है।

हम दो ताकतों से दबे हुए जीते हैं। हम माने कौन है? हम कौन है? मन, चेतना। चेतना दो बोझ लेकर के जीती है। हम समझना चाहते हैं तीर्थ माने क्या। ठीक है?

चेतना दो बोझों के तले दबी होती है।

जो सबसे पहला, प्राथमिक बोझ होता है वो होता है जैविक। जन्म लेना ही बोझ है क्योंकि शरीर आता है वृत्तियों के साथ। वो बड़ा भारी बोझ है। और जो दूसरा बोझ है वो है सामाजिक। शरीर को लेकर आए थे, उसके बाद समाज ने न जाने क्या-क्या संस्कार डाल दिए। तमाम तरह का कूड़ा, कचरा, विचारधाराएँ, आदर्श, ये-वो, ऐसा करो वैसा करो, यह तुम्हारा कर्तव्य है, यहाँ जाओ, यहाँ मत जाओ। अब ये दोनों चीज़ें ज़िंदगी जीने लायक नहीं छोड़ते। ठीक है?

तो व्यक्ति किसी ऐसी जगह जाना चाहता है जहाँ कम-से-कम इनमें से एक बोझ से मुक्त हो जाए। पहली बात, कौनसा बोझ? जो सामाजिक है। इसीलिए आप पाओगे कि अक्सर जो तीर्थ हैं वो सुरम्य जगहों पर होते हैं। सुरम्य माने जहाँ रमण करने में आनंद आता है। शहर से दूर। शहर से दूर माने किस से दूर? सामाजिक प्रभावों से दूर।

बोझ कम हुआ ना? जहाँ तुम्हारा बोझ कम हो जाए, समझ लो वहाँ तीर्थ की शुरुआत हो रही है। जिस जगह पर तुम्हारा बोझ कम होने लगे, वहाँ समझ लो अब तीर्थ खड़ा हो रहा है। तो इसीलिए हिमालय की ऊँचाइयों पर या नदियों के तटों पर, या कई बार घने जंगलों के बीच में या समुद्र तट पर तीर्थों की स्थापना की गई। और ये सब वो जगह हैं जहाँ उस समय पर आबादी नहीं थी। अब आबादी हो गई है क्योंकि इतने लोग जाते है तो वहाँ पूरा शहर बस गया।

कोई बड़ी बात नहीं कुछ दिनों बाद आप पाएँ कि केदारनाथ, बद्रीनाथ में भी शॉपिंग मॉल हैं। अब इतनी चौड़ी सड़क तो कर ही दी है, इतने लोग जाएँगे तो होटल भी बनेगा, होटल बनेगा तो लोग खरीददारी भी करेंगे, ज़्यादातर होटल में रुकेंगे तो खरीदेंगे भी। पहले छोटी दुकानें आएँगी, फिर बड़ी दुकानें आएँगी, फिर मॉल भी आ ही जाएगा।

तो ये सब बाद में होता है, लेकिन पहले वहाँ पर क्या होता है? निर्जन। और जब तुम निर्जन में बैठ जाते हो, तुम थोड़े आज़ाद हो जाते हैं। थोड़ा आज़ाद हो जाते हो।

आप जिन भी शहरों में होंगे, शायद आप खुद भी करते हो। जब परेशान हो जाते हैं तो बहुत लोग करते हैं, चले जाते हैं शहर से थोड़ा दूर। और कुछ नहीं तो किसी नहर किनारे ही बैठ गए। थोड़ा दूर चले गए, वहाँ खेत-खलिहान शुरू हो गया, वहाँ खेत में बैठ गए जाकर के। करते हो या नहीं करते?

कुछ लोग करते हो, कुछ लोगों को तो खेत उपलब्ध नहीं होंगे, जाएँगे कहाँ। इतना तो करते हो, घर की छत पर चले जाते हो जब परेशान हो जाते हो। कहाँ चले गए? अकेले छत पर जाकर बैठ गए। ये क्या कर रहे हो? ये तुम मन को थोड़ी आजादी देना चाह रहे हो, तुम मन को थोड़ा आकाश देना चाह रहे हो। आकाश माने? आज़ादी।

तो यह पहली चीज़ हुई तीर्थ के बारे में, वहाँ तुम समाज से थोड़ा मुक्त रहते हो।

अब दूसरी चीज़ समझो। हर तीर्थ के साथ एक कथा जोड़ी गई। और बचपन से ही आपको उस कथा की घुट्टी पिलाई गई। इतनी गाढ़ी घुट्टी कि आप उस कथा को लगभग यथार्थ मान लो। तो जब आप उस जगह पर जाते हो तो कथा आपके लिए सजीव हो उठती है; है कथा ही। कथा और कहानी में अंतर है। कथा का सदा एक ऊँचा प्रयोजन होता है तब उसे कथा कहते है। नहीं तो वो किस्सा है, कहानी है।

जब आप उस जगह पर जाते हैं वो कथा सजीव हो उठती हैं। अब मान लो आपको एक कहानी बताई गई है ऋषिकेश से संबंधित जिसमें शिव मौजूद है। और आप वेदांती हो, वेदांत आप जानते हो इसलिए शिवत्व का अर्थ समझते हो। सत्यम, शिवम, सुन्दरम आप जानते हो और अब वहाँ गए, और वहाँ जाते ही आपको शिव स्मृति में उठ खड़े हुए तो मन शांत हो जाएगा न। ये तीर्थों का विज्ञान है।

पहली बात, लोगों को समाज से दूर करो। दूसरी बात, उस जगह से संबंधित कोई ऐसी कथा बना दो कि व्यक्ति अपने शरीर से भी एक दूरी अनुभव करने लगे। शरीर माने ये जो शरीर मूलक आवेग होते हैं, भावनाएँ होती हैं, राग-द्वेष, क्लेश। ये सब शरीर से ही उठते हैं ना? कुछ ऐसा बना दो जहाँ व्यक्ति आज़ाद हो सके।

ऋषि बड़े प्रेमी लोग थे और बहुत यथार्थजीवी भी थे। वो अच्छे से जानते थे हर बच्चा जो पैदा होगा वो बड़ा दुख झेलने के लिए पैदा होगा। तो प्रेम के मारे वो ऐसा प्रबंध करके गए कि आगे भी जो लोग आएँ उनको इतना दुख नहीं झेलना पड़े। और यही दो तरह के दुख होते हैं – जन्मगत और समाजगत।

समाजगत दुख से बचाने के लिए उन्होंने दूर, सुंदर, सुरम्य प्राकृतिक जगहों पर तीर्थ रखे, और देहगत दुख से बचाने के लिए उन्होंने तीर्थों के साथ ऐसी कथाएँ जोड़ीं जिनका संबंध कभी राम से हो, कभी शिव से हो, कभी कृष्णा से हो।

और वो ये मानकर चल रहे थे कि आप रामत्व जानते हो, योगवाशिष्ठ का अपने अध्ययन करा है; या कृष्णत्व जानते हो, गीता का आपने अध्ययन करा है; कि आप शिवत्व जानते हो, अवधूत गीता के साथ आप बैठे हो। ये वो मान कर चल रहे थे। और चाहे भगवद्गीता हो, चाहे अवधूत गीता हो, देह के बारे में दोनों क्या कहते हैं? देह तुम हो ही नहीं। तुम कौन हो? जिसको आग ना जला सकती है, जल गीला नहीं कर सकता, वायु सुखा नहीं सकती – वो हो तुम।

तो कृष्ण का स्मरण आना माने अपनी आत्मा का स्मरण आना। तो एक अच्छी जगह पर एक तीर्थ स्थापित कर दो जिसके साथ कृष्ण का नाम जोड़ दो। और कृष्ण का नाम जोड़ देना माने क्या जोड़ देना? गीता जोड़ देना। और गीता जोड़ देना माने क्या जोड़ देना – ‘नैनं दहति पावकः’। तुम वो हो जिसे आग कभी जला नहीं पाएगी; शरीर नहीं हो तुम, ये तीर्थों का विज्ञान है।

अब तीर्थ में जाकर के अगर तुम पाओ कि वहाँ पूरा शहर बस चुका है, तो तीर्थ कहाँ बचा? तुम तो समाज से दूर होने आए थे, यहाँ तो और समाज है। तीर्थ में जाकर तुम पाओ कि तुममें देह भाव और ज़्यादा स्थापित हुआ जा रहा है, तो तीर्थ कहाँ बचा?

तीर्थ तो इसलिए हैं ताकि तुमको तन से और मन से दोनों से थोड़ी मुक्ति दिला सके। और अगर तुम तीर्थ में जाकर और ज़्यादा तन ही बन गए तो वो तीर्थ नहीं है, भाई। तीर्थ में जाकर के मन का विषाद और बढ़ गया, मन की चक्की और तेज़ी से घूमने लगी, तो अब वो तीर्थ कहाँ है?

हमने अपने तीर्थों के साथ यही अन्याय करा है, हमने उन्हें तीर्थ रहने ही नहीं दिया।

उन तीर्थों का पुनरुद्धार करना होगा। तीर्थों को दोबारा तीर्थ जैसा बनाना होगा। ऋषिकेश में बहुत समय कुछ वर्षों से बिता रहा हूँ, बहुत कम बचा है वहाँ जो तीर्थ जैसा है। तीर्थ में राफ्टिंग नहीं हो सकती। कहीं और कर लो, भाई, बहुत नदियाँ हैं और गंगा में भी बहुत अन्य जगह हैं। कहीं और कर लो।

शोर मचा के, उटपटांग बेहूदे फिल्मी गाने गा के तीर्थ नहीं बसाया जाता है। तीर्थ में जानवरों का माँस नहीं बिक सकता। तुम वहाँ पर जाकर मटन टिक्का माँग रहे हो ऋषिकेश के किसी रेस्टोरेंट में और तुम्हें मिल भी रहा है, तो तीर्थ कहाँ है! लड़के-लडकियाँ उसको सस्ता गोवा बनाकर के वहाँ बीच पर टिकटॉक वाली धूम मचा रहे हैं, तो तीर्थ थोड़ी है।

हमें हमारे तीर्थ वापस चाहिए। और हमारे तीर्थ दूसरों ने नहीं छीन लिए, हमारे तीर्थ हमने ही स्वयं से छीन लिए। हमको लगता है हमारे बस कुछ मंदिर है जो दूसरों ने छीन लिए है। सच तो यह है कि हमारा एक-एक मंदिर हमसे छिना हुआ है। सच तो ये है हमारा एक-एक तीर्थ हमसे छिना हुआ है और वो खुद हम ही ने छीन रखा है।

अब मुझे बताओ तुम दो, तीन, चार, पाँच मंदिरों की बात करना चाहते हो, या अपने हज़ारों मंदिरों और तीर्थों की बात करना चाहते हो जो दिख तो रहे हैं पर वास्तव में लुप्त हो चुके हैं? जल्दी बताओ।

अहंकार को अगर बल देना है तो ये कहोगे, “नहीं, मुझे मेरे वो दो-चार खास मंदिर वापस चाहिए।” पर फिर तुम वाकई सत्य की पूजा करते हो, सच्चाई से प्रेम रखते हो तो तुम कहोगे, “मुझे सिर्फ़ दो-तीन नहीं अपने सभी तीर्थ और सभी मंदिर वापस चाहिए।” और तुम्हें याद आएगा कि वो तुमसे किसी और ने नहीं छीने हैं, उनको तुमने खुद ही खो दिया है।

प्र२: आचार्य जी, प्रणाम। मेरा नाम सौरभ त्रिपाठी है और मैं बनारस से आया हूँ।

आचार्य: आज बनारस की ही धूम है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र२: सर, आपने शिवलिंग के बारे में बताया। चीज़ें स्पष्ट हो गई हैं। लेकिन ये जानना चाहता हूँ कि सत्य के प्रति यदि प्रेम हो गया है तो ये कैसे पता चले कि ये वास्तविक है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मेरा मन या मेरी बुद्धि एक असीम सी कोई भ्रम या उसी के जैसे ठीक चीज़ मेरे सामने बना के ला दी हो और मैं उस धोखे में जी रहा हूँ।

आचार्य: त्रिपाठी जी, इसका संबंध सीधे-सीधे उस बात से तो नहीं है लेकिन फिर भी मैं उत्तर दे दूँगा। धोखा हो सकता है। कोई गारंटी या आश्वस्ति नहीं है कि तुम जिसको सत्य समझ रहे हो, सत्य ही है। लेकिन अपनी पूरी सत्यनिष्ठा, पूरी ईमानदारी के साथ तुम्हें जो ठीक लगता है उसकी ओर बढ़ो। अगर सत्यनिष्ठा है और जिसकी ओर बढ़ रहे हो वो सत्य नहीं निकला, तो क्या करोगे?

प्र२: बर्बाद हो जाएँगे सर।

(श्रोतागण हँसते हुए)

आचार्य: अरे, नहीं। उलटे-पुलटे जवाब दे रहे हो। तुमको आम से प्यार है, ठीक? तो तुम आम लेने जाते हो। चाहिए तुम्हें आम ही और किसी जगह पर जाते हो जहाँ जितना तुम्हारा सामर्थ्य है, जितनी बुद्धि है तुम्हें लग रहा है कि यहाँ जो मिल रहा है वो आम ही है। मान लो तुम धोखा खा भी गए। उसने तुमको आम की जगह केला दे दिया। तो तुम क्या करोगे? अगर तुम्हारा प्रेम सच्चा है तो तुम क्या करोगे?

प्र२: फिर से खोजेंगे।

आचार्य: फिर से खोजोगे और अब ज़्यादा विवेक और अनुभव के साथ खोजोगे। अब केला नहीं पकड़ोगे।

प्र२: सर, अगर बुद्धि औसत दर्जे की हो तो?

आचार्य: तो ज़्यादा धोखा खाओगे। लेकिन चलते जाओगे, हर कदम के साथ बेहतर होते जाओगे। ये जो बुद्धि वगैरह भी है ना, इनकी धार सच से ही आती है। प्रेम इतनी ज़बरदस्त चीज़ होती है कि वो निर्बुद्धि को भी बुद्धिमान बना देती है।

जो संतों ने चमत्कारों की इतनी बात करी है, वो चमत्कार होते हैं; गूंगे को ज़बान मिल जाती है, बहरे को कान मिल जाते हैं और निर्बुद्धि को बुद्धि। इसका मतलब यह नहीं है कि कोई विशेष ऑपरेशन होगा, आँखें खुल जाएँगी। प्रतीक का मतलब समझो, सब हो जाता है, ये सारी कारगुज़ारी प्यार की होती है, प्रेम की, इश्क की।

प्र३: प्रणाम, आचार्य जी। जैसे आपने अभी बताया कि हमारे तकरीबन सारे तीर्थ धीरे-धीरे छूटते चले गए हैं। एक मुद्दा अभी आया जैसे ज्ञानव्यापी का मुद्दा चल रहा है, तो कहीं से तो शुरुआत करनी पड़ेगी। जो मुद्दा चल रहा है मंदिर-मस्जिद का ज्ञानव्यापी को लेकर, वो सही है या गलत है?

आचार्य: शिवलिंग पर इतनी बात हुई। मुझे उस पर बोलना होता तो मैंने बोल दिया होता ना? चाहते हो जियूँ या नहीं? बस इतना ही समझ जाओ कि उस मुद्दे में क्या चल रहा है कि उस मुद्दे पर मैंने कुछ बोल दिया तो मुझे मार देंगे।

(श्रोतागण हँसते हुए)

प्र३: शुरुआत तो करनी पड़ेगी।

आचार्य: तुम ही कर दो। दे दो भाई इनको कोई कट्टा। समझदार को इशारा बहुत है। मैंने जो समझा दिया है, उसमें जो समझना चाहते होंगे सब समझ गए। बाकी अब मैं टीवी पर होने वाली बहसों में जो ज्ञानी लोग आते हैं, उनके स्तर पर उतरकर के तो शोर नहीं मचाऊँगा। या चाहते हो कि उन्हीं के लहज़े में और उन्हीं के तल की बात करूँ? जितना बता दिया उतना काफ़ी नहीं है क्या? नहीं जान गए कि ये जो पूरा चल रहा है ये क्या है?

बोलेंगे, खुल के भी बोलेंगे, आप हाथ मज़बूत करिए, उसके बाद बोलेंगे। यूँ ही थोड़ी बार-बार संस्था अपील जारी करती है – संस्था को मज़बूत बनाइए। अगर सच सुनना चाहते हैं तो, नहीं तो सामने जो ताकतें हैं—हर तरफ़, एक ही तरफ़ नहीं दोनों तरफ़, चारों तरफ़, चाहे पक्ष हो, चाहे विपक्ष हो—वो ताकतें बहुत भौतिक बल रखती है। और वो किसी तरह का विरोध झेलने को तैयार नहीं हैं।

यहीं से कोई उठेगा (श्रोतागण की ओर इशारा करते हुए) और मैं ऐसे ही बैठा हुआ हूँ जिसे कहते हैं सिटिंग डक , सीधे यहाँ गोली मारेगा (छाती की ओर इशारा करते हुए)। पता भी नहीं चलेगा वो कौन था। अदालत में सिद्ध हो जाएगा कि विक्षिप्त था। अदालत भी उसे बरी कर देगी।

इनकम टैक्स डिपार्टमेंट आएगा, संस्था का बैंक अकाउंट फ्रीज़ कर देगा। लो अब चला लो। कोई भी आरोप लगा दिया जाएगा। अचानक एक दिन पुलिस की गाड़ी आएगी, संस्था के दो-चार लोगों को भरकर ले जाएगी। कुछ भी बोल देंगे। कोई लड़की आएगी, कहीं से उठ के बोल देगी कि मेरा बलात्कार कर दिया। और तब आप नहीं आओगे।

तुम चाहते हो कि मैं बोलूँ और खुलकर बोलूँ तो मैं जो कह रहा हूँ उस पर यकीन करो। अगर मैं कह रहा हूँ कि संस्था को संसाधन चाहिए, तो दो। 2015 में पहली धमकी आई थी, वो इस्लामी कट्टरपंथियों से आई थी। तब मैंने कुरान पर कुछ सत्र करे थे। यही कहा था उन्होंने कि जान से मार देंगे। मुझे लगा ये तो इस्लाम की तरफ़ होता है ज़्यादा। वहाँ चरमपंथ ज़्यादा है, उग्रवाद ज़्यादा है।

पिछले दो सालों से धमकियाँ मुसलमानों से नहीं आतीं, तथाकथित सनातनी संस्कृतिवादियों से आती हैं। कहते हैं 'आप कौन होते हैं हमारे तौर-तरीकों पर उँगली उठाने वाले?' आप नहीं कहते, वो गाली देकर बात करते हैं। ‘फिर गायब हो जाओगे, पता भी नहीं चलेगा। किन रास्तों से आते-जाते हो हमें पता है। एक्सीडेंट हो जाएगा, पता भी नहीं चलेगा कैसे हो गया एक्सीडेंट।’

अजीब हालत है हमारी। ये तो हो गई इस्लामिक चरमपंथियों और हिंदू कट्टरपंथियों की बात। फिर अब इस पर आ जाओ, ये जो वाम मार्गी हैं, लेफ्टिस्ट जिनमें लिबरल्स भी आते हैं। उनको लगता है मैं राइटिस्ट (दक्षिणपंथी) हूँ क्योंकि मैं उपनिषदों और वेदांत की बात करता हूँ। तो वो मुझे हिंदू बाबाओं में से एक समझते हैं। तो उनके जितने बस में होता है वो हमारे उतने काम रोकते हैं। हिंदुओं को लगता है मैं वामपंथी हूँ, तो वो जितने तरीकों से विरोध हो सकता है वो करते हैं।

अब उसमें एक और नई चीज़ जुड़ी है, क्योंकि मैं बता रहा हूँ दलितों को भी कि सनातन धर्म वास्तव में किसी तरह की जातिप्रथा को स्वीकृति नहीं देता। तो दलित नेताओं को भी मुझसे तकलीफ़ होने लगी है। वो बोलते हैं कि ‘हम दलितों को सनातन धर्म से दूर खींच रहे हैं। हम उनसे कह रहे हैं बौद्ध बन जाओ या कुछ और बन जाओ, अलग हो जाओ सनातन धारा से और आप दलितों को सनातन धारा में दोबारा जोड़ रहे हो।’

तो उनको भी मुझसे समस्या है। कोई वर्ग ऐसा नहीं है जो मुझसे खुश हो। मुसलमान पहले से ही नाराज़ थे। हिंदू भी नाराज़, दलित भी नाराज़, लेफ्ट लिबरल्स भी नाराज़।

विरोध करने वाले इतने हैं, साथ देने के समय बहुत कम लोग नज़र आते हैं। अब बोलो क्या करें?

प्र४: नमस्कार, आचार्य जी। आप जो ये सब बातें किए हैं मेरे समझ में आ गया है। वैसे तो संस्थाओं से तो मैं २० सालों से जुड़ी हूँ। सबको देखा है, सबको समझा, दिल में कोई बैठा नहीं। और जैसे आप बता रहे हैं षडयंत्र, सबके धर्म के नाम पर उनके षड्यंत्र देख-देख के धर्म से मन उठा रहा है। ऊपर से अच्छे दिखते हैं लेकिन अंदर जड़ में अपने धर्म के विरुद्ध ही दिखता था। और जैसे इन्होंने आपसे पूछा और आपने नहीं बोला वो क्यों नहीं बोला वो मैं समझ गई।

आचार्य: क्या नहीं बोला? सब कुछ तो बोल चुका हूँ।

प्र४: आपने बोला कि वो मेरे साथ ऐसा कर देंगे।

आचार्य: नहीं। मैं कह रहा हूँ मैं सब कुछ बोल चुका हूँ, मैं उनकी भाषा में नहीं बोलना चाहता। मैंने सब कुछ बोल दिया है उस भाषा में जिसमें आप समझ चुके हैं। हमारी और आपकी बातचीत हो चुकी है। लेकिन वो जिस भाषा में बुलवाना चाहते हैं वो भाषा दूसरों की है। उस भाषा में अभी बोलना इस मिशन के लिए ठीक नहीं हैं।

प्र४: जी। तो मैं अपने भाइयों और बहनों से ये अनुरोध करना चाहती हूँ कि हम अपने हाथ बढ़ाएँ और जो बीते समय में हुआ है आचार्य जी के साथ, वो ना हो। धन्यवाद।

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