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लेख
शिव का चरित्र ऐसा क्यों? || आचार्य प्रशांत (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
20 मिनट
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आचार्य प्रशांत (आचार्य): तुलसीदास उल्लेख करते हैं एक स्थान पर, वहीं से प्रश्नकर्ता ने ये सवाल रखा है: उल्लेख ये है कि ब्रह्मा जी पार्वती जी से शिकायत कर रहे हैं कि शिव आगा-पीछा देखे बिना, विचारे बिना, दान करते रहते हैं। इतना दान दे देते हैं कि उनके पास भी कुछ नहीं बचता। ये सुनकर पार्वती भी मुस्कुराती हैं और शिव भी मुस्कुराते हैं। तो पूछा है कि ये क्या माजरा है?

दुनिया का गणित कहता है कि दोगे तो घटेगा और दुनिया ही देखी है तुमने। तो ज़ाहिर ही है कि ऐसा प्रतीत होगा कि दिया तो, किसी और को मिल गया और मेरा कम हो गया। ये दुनिया का गणित है। ये गणित तब लागू होता है जब कुछ शर्तें पूरी होती हों, जब कुछ सीमाएँ तय हों। ये गणित तब लागू होता है जब देने वाले के पास पहली बात तो सीमित हो। और दूसरी बात देने वाले का उद्देश्य हो अपने पास कुछ बचा कर भी रखना। और तीसरी बात देने वाला पाने वाले से अपने-आपको भिन्न समझता हो। और चौथी बात देय वस्तु ऐसी हो जो देने से घटती हो। ये चारों हीं शर्तें शिव के ऊपर उपयुक्त नहीं होतीं।

जो दे रहे हैं शिव, वो देने से घटता नहीं है, वो देने से बढ़ता है और शिव चूँकि शिव हैं इसलिए उनके पास है ही वो वस्तु जो देने से बढ़ेगी। हमारे पास जो कुछ होता है वो इस लायक ही नहीं होता कि वो हमारे पास भी हो और इसका प्रमाण ये है कि जब तुम उसको बाँट देते हो तो वो कम हो जाता है।

अपने पास रखना ही वही, अपनी पहचान ही उससे करना जो दिए जाने पर बढ़ता हो, कम न होता हो। अगर तुम्हारी संपदा उन्हीं चीज़ों की है जो या तो तुम्हारी हो सकती है या किसी और की तो तुम बड़े दरिद्र हो। और अगर तुम्हारे पास वो है जो बाँटने पर दोगुना हो जाता है और न बाँटने पर जिसका क्षय हो जाता है तो तुम्हारे पास है कुछ।

दुःख और है क्या? यही भावना तो है न कि कुछ छिन जाएगा, कि कुछ मिट गया। अब कहाँ बचा दुःख तुम्हारे लिए अगर जो चीज़ छिनती हो वो छिनने के कारण ही दूनी हो जाती हो। अब बताओ जो मरने से ही अमर हो जाता हो उसे अब मरने का खौफ रहेगा क्या? जो मिटने से अमिट हो जाता हो उसे अब मिटने का खौफ़ रहेगा क्या? जिसको दे देने से जिसकी राशि दोगुनी हो जाती हो उसके देने में अब तुम संकोच करोगे क्या?

पर हमारे पास वैसी संपदा होती नहीं है। हमारे पास जो कुछ होता है वो होने काबिल, रखने के काबिल ही नहीं होता। और चूँकि वो होने के काबिल, रखने के काबिल नहीं होता इसीलिए उसे चले ही जाना चाहिए। क्योंकि उसे चले जाना चाहिए इसीलिए वह चले जाने के लिए हमेशा आतुर रहता है, तैयार रहता है। चूँकि वो चले जाने को हमेशा आतुर, हमेशा तैयार रहता है, इसलिए हम हमेशा डरे-डरे रहते हैं क्योंकि हमें पता है कि जो हम पकड़े बैठे हैं वो भागेगा और भागना उसे चाहिए। भागना उसे इसलिए चाहिए क्योंकि उसकी और तुम्हारी कोई संगत नहीं।

तुमने ऐसी चीज़ पकड़ ली है जिसको पकड़ना तुम्हारा स्वभाव नहीं। चीज़ एहसान कर रही है तुम पर भाग-भाग कर और तुम उसके पीछे भाग कर उसे पकड़ रहे हो। वो चीज़ भी कहती होगी “कैसा पगला है? ये रो रहा है कि मैं खो रही हूँ और अगर मैं खो रही हूँ तो ये तो मेरा उपकार है इस पर। मैं यदि खो ही जाऊँ तो इसके सौभाग्य जगे। खोने को मैं तत्पर हूँ, ये पगला मुझे खोने नहीं देता।" उल्टा जीवन चलाते हैं। सब बातें एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं।

बँटने से कुछ तभी बढ़ता है जब जिसको तुम दे रहे हो उसको तुम पराया न मानो। द्वैत का भाव, पराएपन का भाव तुममें जितना सघन होगा उतना ही बाँटने में तुम्हारे हाथ काँपेंगे। और जितना ही तुममें पराएपन का भाव सघन होगा उतना ही छोटा तुम्हारा जीवन होगा, उतनी ही क्षुद्रता में तुम जिओगे। देने भर में तुम्हें लगेगा कि न जाने क्या नुकसान हो गया, क्या बला आ गई। गिनती गिनोगे, इसको इतना दिया, उसको इतना दिया। दो रुपए-चार रुपए, पाँच पैसे का जीवन बिताओगे।

किसी आदमी का जीवन कितना समृद्ध है ये जाँचना हो तो बस ये देख लेना कि वो कितने खुले दिल से दे लेता है, पाने और गँवाने के प्रति उसका रवैया क्या है। छोटा आदमी वो जो छोटी-छोटी बातों का हिसाब रखे। बड़े आदमी के लिए छोटी बातें नगण्य हो जाती हैं, वो उपेक्षा कर देता है।

शिव तो बड़े-से-बड़े आदमी हैं। वो इतने बड़े आदमी हैं कि उनको अब आदमी ही नहीं कहा जा सकता। वो क्या हिसाब रखें किसको दिया, किसको नहीं दिया। वो कहते हैं, “अपने हाथों दिया तो अच्छा है, लुट गया तो और अच्छा। जितना लुट रहा है उतना बढ़ रहा है। लुट-लुट कर बढ़ता है।" कि जैसे ऐसी कोई चीज़ हो जो लुटे नहीं तो सड़ जाए।

प्रश्नकर्ता (प्र): ऐसा कुछ उदाहरण है जो लुट कर और बढ़ता रहता है?

आचार्य: तुम हो तो। मैं बोलता जाता हूँ तुम्हें पता नहीं कितना मिलता है, मेरा बढ़ जाता है। मुझे कहाँ से मिला? पचासवाँ शिविर होगा ये। मैं लुटाता गया। पता नहीं तुमने पाया कि नहीं पाया, मुझे मिलता गया, मुझे मिलता गया। तुम हो तो उदाहरण। आ रही है बात समझ में?

अब ब्रह्मा को कहाँ ये बात समझ में आएगी, उनका ताल्लुक तो ब्रह्मांड से है और ब्रह्मांड माने संसार। तो वो तो बेचारे इसी रचना में पड़े रहते हैं, इसकी रचना करो, उसकी रचना करो। शिव को कोई मतलब ही नहीं तुमने क्या बनाया, तुम क्या चला रहे हो। और ज़्यादा परेशान करोगे तो तोड़-फोड़ और देंगे। उनका तो एक काम है प्रलय। “कोई बनाए, कोई चलाए हमें जगाया तो सब ख़तम कर देंगे अभी। फिर तुम बनाते रहना, तुम चलाते रहना।” ब्रह्मा-विष्णु अपनी जाने। दोनों शिव के आगे हाथ जोड़े खड़े रहते हैं कि “बाबा बड़ी मेहनत से बनाया है।" एक प्रभव कर रहा है, एक प्रबंध कर रहा है और तीसरे का बस एक काम है, क्या?

प्र: प्रलय।

आचार्य: न प्रभव, न प्रबंध। जो बनाएगा, जो चलाएगा वो हमेशा हाथ जोड़े घूमेगा। उसकी गरज है बेचारे की, “हमारी चीज़ है, टूट ना जाए।" शिव की कोई चीज़ ही नहीं। समझना, शिव के पास सबसे बड़ी चीज़ है और उस सबसे बड़ी चीज़ को ही वो बाँटते हैं। ऐसा नहीं है कि शिव नाश के देवता हैं। शिव नाश करते हैं उसका जो ब्रह्मांड में स्थित वस्तुएँ हैं अर्थात सीमित वस्तुएँ है। शिव नाश करते हैं सीमाओं का।

शिव माने शुभ, शिव माने असीम। सीमित का नाश करके वो तुम्हें तुम्हारे असीम स्वभाव में ले जाते हैं और वहीं पर शांति है। तो शिव को तोड़-फोड़ का बादशाह मत समझ लेना। अराजकता के प्रतिनिधि नहीं हैं शिव। परम् शांति के अधिष्ठाता हैं।

आप सभी अभी कूटस्थ हैं। सबसे ऊँची जगह पर जो विराजता है उसे कहते हैं कूटस्थ। अभी आप कूटस्थ हैं (सत्र ऋषिकेश की पहाड़ियों पर आयोजित था)। शांति और आनंद और मुक्ति और बोध सीमित नहीं होते। वो सीमित होते तो आपको शांति ही नहीं देते। तो बोध का तो लक्षण है कि वो बँटेगा। जो बँटे नहीं सो बोध नहीं, जो बँटे नहीं सो शांति नहीं, जो बँटे नहीं सो मुक्ति नहीं।

आप यदि बाँटने से कतरा रहे हो तो इसका मतलब है आप जिसको बाँटने से कतरा रहे हो वो है ही मूल्यहीन। समझो बात को! ये बात थोड़ी विचित्र है: जिसके पास वो होता है जो अतिमूल्यवान है, अमूल्य ही है, वो बाँट देता है और जो कचरा जमा करे फिर रहा है वो बाँटने से घबराता है। बुद्धि तो ये कहेगी कि अगर कचरा है तो फेंको और हीरा है तो बचाओ। होता उल्टा है। चूँकि हमारे पास हीरा नहीं है इसलिए हम कचरे को ही इकट्ठा किए रहते हैं।

प्र: कचरे को ही बाँट देते हैं।

आचार्य: अरे, कहाँ बाँट पाते हैं! कचरा भी अगर किसी को मिल गया तो “मेरा कचड़ा पड़ोसी के यहाँ चला गया रे!" (रोने जैसा अभिनय करते हुए) “मेरा कचड़ा पड़ोसी के यहाँ क्यों चला गया?" और हीरा चीज़ ऐसी है जो सीमित नहीं रह सकता। अभी हमने कहा न, वो शांति कैसी जो सीमाएँ मान ले, वो प्रेम कैसा जो सीमाएँ मान ले, वो सत्य क्या जो बँधा हुआ है।

मुक्ति की कोई उड़ान कहीं ठहरना जानती है क्या? जो वास्तविक होगा, जो वास्तव में ऐसा होगा कि पा लो और सीने से लगा लो, तो उसका तो स्वभाव ही होगा कि वो बँटे, बिखरे, फैले। इसलिए शिव से बँटता है। शिव कोई उपकार नहीं करते दुनिया पर। ये स्वभाव है। यही तो शिवत्व है कि बँटेगा, देंगे।

हाँ, जिसे मिल रहा है उसे ज़रूर कहना चाहिए कि दान मिला, अनुकम्पा मिली। पर शिव से पूछो “क्या आप एहसान करते हो जगत पर जो जगत को बोध देते हो, जगत को शांति देते हो, जगत को तेज देते हो?" वो कहेंगे “मैंने दिया क्या? मैंने कब दिया? मेरे होने से मिलता है। मैं हूँ और ना दूँ ऐसी कोई संभावना नहीं। तो मुझसे अगर देने की बात कर रहे हो तो ये बात आरोप जैसी है। तुम तो मुझपर कर्तृत्व आरोपित कर रहे हो। मैंने दिया नहीं, मेरे होने से मिलता है सबको।”

ये जो ऊपर चमक रहा है तुम्हारे (सूरज की ओर इशारा करते हुए) ये तुमको दे थोड़े ही रहा है। इसके होने भर से मिल रहा है तुम्हें। अब तुम जाओ उसके पास और कहो, “देखिए महाराज! आप बड़े तेजवीर हैं, क्या आपकी आभा है, क्या आपका मंडल है लेकिन एक काम करिए, इसको दीजिए और उसको ना दीजिए।” तो वो क्या कहेंगे? वो कहेंगे “मैं विवश, तुम्हारी ये माँग नहीं मान पाऊँगा क्योंकि मैं जहाँ हूँ, वहाँ रोशनी होगी। हम हों और रोशनी ना हो ये हो सकता है क्या?” तो शिव मुस्कुरा रहे हैं इसीलिए। शिव कह रहे हैं शिव हो और बँटे न ये हो सकता है क्या? ये कैसे होगा?

समझो बात को, सूक्ष्म है। कर्तृत्व बाँटने के लिए नहीं चाहिए, रोकने के लिए चाहिए। तुम यदि दो तो इसमें कोई कर्ता भाव नहीं। तुम रोको तो इसमें कर्ता भाव है। सूरज अपने चेहरे को अपने विशाल हाथों से छुपा ले, अंधेरा कर दे तो कर्ता भाव हुआ सूरज का। अन्यथा तो सूरज की मौजूदगी ही प्रकाश है। पर तुम किसी तरह से सूरज को ललचा दो, डरा दो, या मोहित कर दो और कहो कि देखिए अपना प्रकाश ढाप लीजिए तो सूरज को ज़रूर कुछ ‘करना’ पड़ेगा। अभी सूरज क्या कुछ कर रहा है? अभी क्या वो कुछ कर रहा है? अभी वो मात्र उपस्थित है। पर अगर उसे अपनी रोशनी रोकनी है तो उसे कुछ करना पड़ेगा। दोनों हाथों से अपना चेहरा छुपा लेना पड़ेगा तब हुआ कर्ता भाव, समझो बात को।

असली काम के लिए कर्ता भाव नहीं चाहिए। जहाँ कहीं कर्ताभाव है वहाँ कुछ घटिया, सीमित, तुच्छ ही हो रहा होगा। इसीलिए कोई योगी, कोई फ़क़ीर, कोई साधु करता बहुत कुछ है पर करता कुछ नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे सूरज रोशनी बहुत देता है पर देता कुछ नहीं। बस होता है। उसके होने और देने में साम्य आ गया है। बात समझो, उसके होने और देने में अब एकरसता आ गई है। वो हुआ नहीं कि दिया, हुआ नहीं कि दिया। आप आए बहार आई। अब ऐसा थोड़े ही है कि आप आए और आपने बहार को किया। आपने आकर के बहार का अनुसंधान थोड़े ही किया। आपने आकर के बहार की कोई प्रक्रिया पध्दति थोड़े ही की। बस आप आए और बहार आयी। आपका होना ही बहार है, आपका दूसरा नाम ही बहार है।

तो ऐसे हैं शिव। इसीलिए कहा गया है: सत्यं शिवं सुन्दरम्। ये थोड़े ही कहा गया है कि सत्य शिव का कृत्य है, न ये कहा गया है कि सौंदर्य शिव का गुण है, कि लक्षण है। क्या कहा गया है? सत्य ही शिव है और शिव ही सुंदर है। शिव का बस दूसरा नाम मान लो सौंदर्य। शिव को सौंदर्य करना नहीं पड़ता। शिव हैं तो सौंदर्य है। पलट कर देख लो जहाँ कहीं तुम वास्तविक सौंदर्य पाना वहाँ शिवत्व है। और जहाँ शिवत्व नहीं है और वहाँ तुम्हें सौंदर्य प्रतीत हो रहा है तो सौंदर्य छल है, भ्रम है, जाल है, माया है।

आमतौर पर जहाँ तुम्हें सुंदरता दिखती है बताओ उसमें शिवत्व होता है क्या? बोलो? वहाँ बस इंद्रियों का आक्रमण होता है, इंद्रियों की लोलुपता होती है, इंद्रियों की उत्तेजना होती है। वहाँ शिवत्व नहीं होता। तो वास्तविक सौंदर्य वहीं पर मानना जहाँ देखो और इन्द्रियाँ शीतल हो जाएँ, मन ठहर जाए। इन्द्रियाँ उत्तेजित हो गयीं और आक्रामक हो गयीं, कि और डर गयीं, ढाल खड़ी कर ली, तो समझ जाना कि यहाँ सौंदर्य कुछ नहीं।

हमारी सौंदर्य की परिभाषा विकृत है। जहाँ सत्य है मात्र वहीं सौंदर्य है। वो सौंदर्य सौंदर्य नहीं जो तुम्हें सत्य से दूर कर दे और ये जितनी बातें हम कर रहे हैं, सब कर रहे हैं शिवत्व की पृष्ठभूमि में। सच की कोई बात नहीं हो सकती शिव की बात किए बिना, सुंदरता की कोई बात नहीं हो सकती शिव की बात किए बिना। आयी बात समझ में?

अब जाने कि काहे मुस्कुराए शिव और चूँकि शिव शिव हैं इसीलिए उनके साथ पार्वती हैं। कोई और स्त्री होतीं तो ब्रह्मा से कहतीं “तुम्हीं मिले हो मुझे एक, मेरे ख़ैर-ख़्वा, तुम्हारे अलावा मेरा कोई हितैषी नहीं। ये बुढ़ऊ गले पड़ गया है, दुनियाभर को बाँटता रहता है, खुद राख मले घूमता है, गाँजा पीता है, रहने को एक झोपड़ा नहीं इसके पास, साँप लपेटे फ़िर रहा है। कहने को गंगा निकलती है इससे, ख़ुद कभी नहाता नहीं।”

पर पार्वती कौन हैं? शिव की शक्ति को ही पार्वती कहते हैं, वो शिव से एक हैं। जहाँ शिव मुस्कुराएँगे वहाँ पार्वती भी मुस्कुराएँगी। वास्तव में शिव अगर शिव हैं तो कोई साधारण स्त्री उनके आसपास पाई ही नहीं जाएगी। पाई गई भी तो वो बहुत दिन तक चलेगी नहीं। वो भग जाएगी।

वो कहेगी “बाप रे बाप! ये कहाँ पहाड़ की चोटी पर बैठा रहता है। भाँग-धतूरा यही काम है। भूतों की टोली नाचती रहती है। जो दुनियाभर से परित्यक्त हैं, पिशाच और जानवर और अघोरी उन सब की इसने फ़ौज खड़ी कर रखी है। वहाँ देखो विष्णु को क्षीरसागर में रहते हैं आ हा हा! क्या महल है! क्या मुकुट है! ब्रह्मा को देखो उनके हाथों में वेद है, क्या ज्ञान है! आ हा हा! वस्त्र देखो ब्रह्मा के और इधर देखो ये तो ऐसे कि पूजा भी शिवलिंग की होती है। एक ढंग की मूरत नहीं बनी इनकी।”

आम स्त्री को कहाँ शिवत्व समझ में आने वाला है। उसके पास तो शिकायतें ही शिकायतें होंगी, उलाहना ही उलाहना होंगी।

तुम शिव विवाह का प्रकरण पढ़ोगे। अब वैसे तो कहानी है पर बड़ी रसीली कहानी है। जब पार्वती के ब्याह की बात चलती है तो बड़ा कष्ट होता है उसके माँ-बाप को। कहते हैं ये हमारी नन्ही सी गुड़िया अब उस अघोरी के पल्ले पड़ने जा रही है। कहते हैं इसने जीवन में कोई कष्ट नहीं झेला, महलों में रही, सुकुमारी है, वहाँ इसको बाँध देंगे। तो आम स्त्री का तो ऐसा ही रहता, वो अपना माथा फोड़ लेती पर पार्वती को देखो जहाँ शिव मुस्कुराए, वहाँ पार्वती भी मुस्कुरा रहीं।

अब कहने को तो फ़िल्मी गाना है पर देखो कितना उपयुक्त बैठता है यहाँ कि ‘तू बिन बताए मुझे ले चल कहीं, जहाँ तू मुस्कुराए मेरी मंज़िल वहीं।’ ऐसी हैं पार्वती। समझ रहे हो?

शिव यदि हृदय हैं तो पार्वती रक्त हैं, धमनियाँ हैं। शिव परमात्मा हैं तो पार्वती प्रकृति हैं। वो नहीं रोएँगीं कि मेरा पति मेरे लिए कुछ नहीं रखता सबकुछ ज़माने में बाँट देता है। वो कहेंगी कि इसीलिए तो वो इस काबिल है कि वो मेरा पति है।

कोई छोटा आदमी होता तो ज़माने से बचा-बचा कर अपनी पत्नी के लिए समेटता, संजोता। जो कि आम आदमी करता है। दुनियाभर से घूँस इकट्ठी करता है और उस घूँस से गहने बनवा कर के बीवी को ले आता है। और बीवियाँ बहुत खुश रहती हैं कि अच्छा किया, दुनिया को लूटा और घर भर लिया और पतिदेव कहते हैं, "देखो प्रिये! दस कत्ल करके मैं तुम्हारी सेवा में ये चंदन हार लाया हूँ।" पत्नी बिलकुल कुप्पा हो जाती है फूल कर। कहती है ये देखो यही तो इसके प्रेम का प्रमाण है कि दस लोगों को लूटता है और मेरे लिए रत्न-जड़ित हार लाता है आ हा हा! और मेरे लिए क्या नहीं ला देता। बड़ा मकान बनवा दिया, सबकुछ मुझे अर्पित कर दिया। ये आम स्त्री का वक्तव्य होता, ऐसे आम जोड़े होते हैं। शिव-शिवानी ऐसे नहीं हैं।

यहाँ तो पार्वती का हर्ष ही इसमें है कि पति ऐसा पाया मैंने जो दुनिया को चलाता है, जो दुनिया को बाँटता है, जो दुनिया को खिलाता है। जिस दिन शिव अपने लिए बचाने लग गए उस दिन शिव शिव कहाँ रहे! और जिस दिन शिव शिव नहीं रहे उस दिन क्या पार्वती शिव के पास रहेंगी?

पर शिव शिव हैं इसलिए वो अपने लिए कभी कुछ बचायेंगे नहीं, शिव का कोई व्यक्तित्व नहीं, शिव की कोई व्यक्तिगत संपदा नहीं। शिव निर्व्यक्तिक हैं, शिव परमार्थिक हैं, शिव अनंत हैं, शिव सर्व व्यापक हैं।

जिसका कुछ अपना होता है उसके लिए तो कुछ पराया भी हो जाता है। शिव के लिए कुछ पराया नहीं। सब कुछ शिव का है, बल्कि कहो कि सबकुछ शिव से है, बल्कि कहो कि सब कुछ शिवमय है, बल्कि कहो कि सबकुछ शिव ही है।

अब बताओ कहाँ परायापन? कैसा परायापन और अब समझ ही गए होगे कि पार्वती मुस्कुराई क्यों। क्योंकि जब सबकुछ शिव से है, शिव में है, शिव ही है तो पार्वती भी तो शिव में हैं, शिव ही हैं। जब पूरी तरह से एक हैं तो शिव मुस्कुराएँगे तो पार्वती भी मुस्कुराएँगीं ही। शिव से अलग, पार्वती की कोई सत्ता कहाँ? शिव चाहे भी तो पार्वती को अपने से अलग नहीं कर सकते, पार्वती चाहे भी तो शिव से अलग नहीं हो सकती। दोनों एक ही हैं, एक निर्गुण, दूसरी सगुण। एक अचल, दूसरी सदैव गतिमान। एक जो केन्द्र में है और दूसरी जो पूरे संसार में गति कर रही है। इसीलिए तो बहुत भक्त हुए हैं जिन्होंने शिव से बढ़कर शक्ति की पूजा करी है। वो शाक्त कहलाते हैं।

वो कहते हैं शिव की पूजा क्या करें उनका तो कुछ पता ही नहीं, हम शक्ति की पूजा करेंगे। वो शाक्त हुए। और शक्ति की पूजा कर के वो शिव की पूजा कर ले आते हैं क्योंकि शक्ति तो शिव ही है।

प्र: इसीलिए हम इतने शक्तिपीठ और मंदिर सुनते हैं?

आचार्य: हाँ। शक्ति की उपासना का जो पूरा सम्प्रदाय है वो यदि वास्तव में आप पूछिए तो शिव भक्त ही हैं। पर सगुण की उपासना मन को ज़्यादा आसान पड़ती है। इसीलिए वो शिव की अपेक्षा पूजा शक्ति की करते हैं, पर शक्ति की पूजा कर के वो शिव की ही पूजा कर ले जाते हैं।

प्र: आचार्य जी आपने कहा प्रेम असीम है, इसको छुआ नहीं जा सकता, इसको देखा नहीं जा सकता। तुलसीदास जी का एक श्लोक हैं जहाँ राम पहली बार सीता की सुंदरता देखते हैं। इससे उनको प्रेम उत्पन्न होता है। वो सुंदरता क्या है जो रामजी देख कर पता कर लेते हैं?

आचार्य: बेटा! यहाँ बात अवतारों की हो रही है। अवतार जिस योनि में पैदा होगा, अवतार जिस काल, जिस देश, जिस परिस्थिति, जिस कुल में पैदा होगा वो वहॉं के गुण ज़रुर प्रदर्शित करेगा।

राम पुरुष हैं अवतार रूप में, क्षत्रिय हैं, और जब सीता से विवाह होता है तो युवा हैं। तो उन्हें तदनुसार आचरण करना पड़ेगा क्योंकि वो अवतरित हए हैं, अब उन्होंने गुण धारण कर लिए हैं।

यही कारण है कि जब सीता गायब होती हैं तो राम को रोना भी होता है और खोजना भी होता है। होने को तो ये भी हो सकता था न कि अरे! विष्णु के अवतार हैं राम, आँख बंद की और तीसरा नेत्र खोला और देख लिया कि वो वहाँ बैठी हुई हैं अशोक वाटिका में और अपनी ध्यान शक्ति से वहीं से उनको उठवा लिया और सीधे सामने प्रस्तुत हो गईं।

पर ये सब नहीं हो सकता क्योंकि मनुष्य देह धारण कर ली है परमात्मा ने तो अब उसको आचरण मनुष्य की तरह ही करना पड़ेगा। अब बिछड़ना भी पड़ेगा, मिलना भी पड़ेगा, जनमना भी पड़ेगा, और मरना भी पड़ेगा, कष्ट भी भोगने पड़ेंगे, बंधन भी स्वीकार करने पड़ेंगे। अवतार हो भाई।

इसी तरीके से मनुष्यों के अलावा अन्य योनियों में भी अवतार हुए हैं। वराह अवतार भी हुए हैं, वानर अवतार भी हुए हैं, कच्छप अवतार भी हुए हैं, मत्स्य अवतार भी हुए हैं। ये सब जानते ही हो। तो यदि कछुआ बने हैं तो कछुए जैसा ही जियेंगे और चलेंगे और वानर बने हैं तो वानर जैसा ही व्यवहार करेंगे।

परमात्मा एक बार जब रूप ले लेता है, गुण ले लेता है, देह ले लेता है तो फिर वो अपनी मुक्ति से ही अपनी मुक्ति त्याग देता है। समझो बात को। वो स्वयं ये निर्धारित करता है कि अब मैं अपनी सत्ता पर सीमाएँ लगा रहा हूँ। ये परमात्मा की परम मुक्ति का ही प्रमाण है कि वो अमुक्त होने के लिए भी मुक्त है।

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