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लेख
सत्य का निरंतर अभ्यास कैसे करें? || योगवासिष्ठ सार पर (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
70 मिनट
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असली सत्य को यदि तुम जान भी गए हो तो भी तुम्हें निरंतर अभ्यास करना पड़ेगा। कटक फल शब्द के उच्चारण से पानी साफ़ नहीं हो जाता। —योगवासिष्ठ सार

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, निरंतर अभ्यास से क्या अभिप्राय है?

आचार्य प्रशांत: दो बातें हैं जिन्हें ठीक-ठीक समझ लेना बहुत ज़रूरी है। पहली बात यही कि समस्त ज्ञान, समस्त आध्यात्मिकता का उद्देश्य आपको कुछ जनवा देना इत्यादि नहीं है, आपमें कोई भावना संचारित कर देना भी नहीं है, आपको किसी विशेष मानसिक स्थिति में ले जाना भी नहीं है, उद्देश्य मात्र एक है: आपकी ज़िन्दगी को बेहतर बनाना।

जीवन के उत्थान के अलावा आध्यात्मिकता का कोई उद्देश्य नहीं है।

आपने जो कुछ भी ज्ञान इकट्ठा करा है, जो कुछ भी आप मानसिक रूप से, भौतिक रूप से, बौद्धिक रूप से जान गए हैं, अगर वो आपके जीवन में नहीं परिलक्षित नहीं हो रहा, तो पूर्णतया व्यर्थ है। और आपके जीवन में जो कुछ भी परिलक्षित हो रहा है, वह आपका वो ज्ञान है जिससे आप आज़ादी नहीं प्राप्त कर पा रहे।

एक तो वो ज्ञान होता है जिसका हम दावा करते हैं कि हम जानते हैं और दूसरा वो ज्ञान होता है जिसका हम बहुधा दावा नहीं करते, पर जिसको हम न सिर्फ जानते हैं बल्कि जिसमें हमारा बड़ा ज़िद्दी और गहरा विश्वास होता है। हमारा जीवन ऊपरी ज्ञान से नहीं चलता, हमारा जीवन हमारे गहरे ज्ञान से चल रहा है। ये जो गहरा ज्ञान है, ये भी बहुत गहरा नहीं है, पर यह जो उथला ज्ञान है, उसकी अपेक्षा तो गहरा है ही। आत्मा नहीं है ये, लेकिन चैतन्य मन से ज़्यादा गहरा है, ये हमारे जीवन को संचालित करता है।

तो आप वास्तव में क्या जानते हैं? वास्तव में आपकी धारणा क्या है और आपके मूल्य क्या हैं? ये यदि परखना हो तो अपने चैतन्य मन से मत पूछिए। वो जो जवाब देगा, वो झूठे होंगे, किताबी होंगे। उसके लिए अपनी ज़िन्दगी को देखिए, ईमानदारी से अपनी ज़िन्दगी को देखिए, ऐसे जैसे किसी दूसरे की ज़िन्दगी को देख रहे हों। उसमें दिख जाएगा आपको कि आप क्या मानते हैं। जिसको आप मान रहे हो, वास्तव में वही आपका गहरा ज्ञान है और वही आपके मूल्य हैं। अपने जीवन को देखकर आपको पता चल जाएगा कि आप मानते क्या हो, आपकी धारणा क्या है, ये पहली बात।

जिस ज्ञान का तुम दावा कर रहे हो, उसको ज़रा छोड़ो और अपनी ज़िन्दगी की ओर देखो। तुम्हारी ज़िन्दगी तुम्हें बताएगी कि तुम्हारे मूल्य क्या हैं। जिन मूल्यों का तुम दावा करते हो और जिनकी क़समें खाते हो, उन मूल्यों पर तुम चलते नहीं हो; उन मूल्यों में वास्तव में तुम्हारी कोई आस्था नहीं है। जिन मूल्यों पर तुम चलते हो, वो बहुत दूसरे हैं, उनका पता सिर्फ परोक्ष रूप से चल सकता है।

सीधे पूछोगे अपने मन से कि “बता मन, क्या तेरी बेईमानी में आस्था है?” तो मन कभी ‘हाँ’ नहीं बोलेगा। अपने मन से पूछो कि “क्या उसका विश्वास बेईमानी में है?” तो वो कभी ‘हाँ’ नहीं बोलेगा, क्योंकि बुरा लगता है सुनने में ही। नैतिक लोग हैं न हम? कैसे अपने-आपको यह बता दें कि हाँ, मेरी बेईमानी में आस्था है? पर बेईमानी में तुम्हारी आस्था है या नहीं, ये जानना है तो ज़िन्दगी को देखो। अपने रोज़ के कर्मों को देखो, तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम्हारी वास्तविक आस्था, वास्तविक मूल्य, वास्तविक धारणा क्या है—ये पहली बात है।

दूसरी बात ये है कि हम इस कदर घिरे हुए हैं प्रभावों से कि न सिर्फ हमारे नकली मूल्य हर समय बदलते रहते हैं, बल्कि बदल-बदलकर सत्य को आच्छादित करते हैं। समझना इस बात को, आकाश सिर्फ बादलों से घिरा हुआ नहीं है, एक बादल के ऊपर दूसरा बादल है। किसी एक दिशा में देखोगे तो अभी सूरज एक बादल के टुकड़े के पीछे छुपा हुआ था, थोड़ी देर में वो दूसरे बादल के टुकड़े के पीछे छुपा हुआ है। तुम्हारे मूल्य निरंतर बदलते रहे हैं और निरंतर बदलते हुए ये सारे मूल्य झूठे हैं। पर एक खुराफात तो ये कर ही जाते हैं – बादल कैसा भी हो, सूरज को ढक ही लेता है।

आज तुम किसी की सच्चाई इसलिए नहीं जान पा रहे हो क्योंकि तुम्हें बड़ा मोह है उससे। उसे तुम अपना समझते हो इसीलिए तुम उसकी आत्मा देख ही नहीं पाए। बहुत दिनों तक साथ रहे, उठे-बैठे, खाए-पिए, पर उसे अपना माने बैठे थे। और अपना से हमारा क्या अर्थ होता है, हम जानते ही हैं। कुछ ऐसा जो हमारी शर्तों को पूरा करेगा, कोई ऐसा जो हमें सुख देगा, कोई ऐसा जिससे हमारे अहंकार को बढ़ावा मिलेगा, और अंततः कोई ऐसा जिसका हम शोषण कर पाएँगे। जो इन सब शर्तों को पूरा करे, उसको हम कह देते हैं, “ये तो मेरा है।”

कल तक वो मेरा था, मैं उसे इसलिए नहीं जान पाया। और आज वो बेगाना है, पराया है, दुश्मन है, इसलिए मैं उसे नहीं जान पाऊँगा। बादल का टुकड़ा बदल गया, सूरज छुपा-का-छुपा है। धोखे का नाम बदल गया, धोखे के पीछे की सच्चाई आवृत की आवृत है। इसलिए निरंतर अभ्यास।

दो बाते हैं: निरंतरता और अभ्यास। अभ्यास इसलिए क्योंकि ज्ञान फ़िज़ूल है। “वो जीवन में कैसे उतर रहा है?” हम तो ये पूछेंगे। क्योंकि आध्यात्मिकता का उद्देश्य क्या है? जीवन का उत्थान।

तो हमें न बताओ कि तुम कितने ग्रंथ पढ़ आए, हम नहीं जानना चाहते। हमें न बताओ कितने श्लोक रटे हुए हैं, कितने दोहे गाते हो, ज़िन्दगी बताओ ज़िन्दगी। इन आँखों में क्या है, द्वेष, ज़िद, कपट, झूठ, अहंकार, पीड़ा, मूर्खता? इस चेहरे पर क्या है, शांति या क्लेश? ये बताओ, हनुमान चालीसा मत सुनाओ।

उपनिषद् बहुत प्यारे हैं, तुम्हें है किसी से प्यार? कबीर महान हैं, तुम्हारे जीवन में कुछ है महत, उठा हुआ, ऊँचा? या सब पाताल का ही है, ग्रहित? फ़िज़ूल बातें छोड़ो न।

कोई आ गया अचानक तुम्हारे सामने, तब तुम्हारी जो प्रतिक्रिया होती है, वो तुम्हारे बारे में सब कुछ बता जाती है। अनायास के सामने तुम कोई योजना नहीं बना सकते न। योजना चैतन्य मन से बनती है। अनायास जब कुछ होता है तो उसमें तुम्हारे जो वास्तविक मूल्य हैं, जो छुपे हुए मूल्य हैं, वो सामने आ जाते हैं, वृत्तियों का पर्दाफाश हो जाता है। बता दिया जाए कि अभी तुम्हारी वीरता का परीक्षण हो रहा है, तो कुछ करके, खुद को क़सम दिलाकर, दवाई खाकर, कुछ करके छाती चौड़ी करके खड़े हो जाओगे। दम साधे वीरता का प्रदर्शन करते ही रहोगे। हाँ, रात में जब पानी पीने जाते हो, तभी कोई अचानक कंधे पर हाथ रख दे, तब पूछेंगे, “वीरता कहाँ गई?” तब तो हुआ-हों, तब सूरमाई गायब। तब तो मामा याद आते हैं, सूरमा नहीं।

अनायास जीवन है; जीवन में सब कुछ ही तो अनायास है। वहाँ पर पता चलता है, जीवन में पता चलता है कि अभ्यास किसका कर रहे हो, कर्मों में क्या परिलक्षित हो रहा है, जी किसमें रहे हो। किस्से तुम्हें स्वर्ग के पता हैं और जी कहाँ रहे हो? नर्क में। ये तो बड़ी मज़ेदार बात है। तो शिष्य राम को सीख दी जा रही है कि “बेटा, यह मत परखना कि किसको कहाँ के किस्से पता हैं, तुम तो ये पूछना कि तुम जी कहाँ रहे हो?”

दुनिया के दस अग्रणी विचारकों की सूची तुम्हें पता है? दुनिया के दस महानतम संतों की सूची तुम्हें याद है? दुनिया के दस प्रबलतम सूरमाओं का नाम तुम्हें बिलकुल पता हैं? और तुम्हारी सूरमाई, और तुम्हारी विचारणा और तुम्हारी संतई? उसका तो कुछ बताओ। इसलिए अभ्यास।

फ़िर निरंतर शब्द, वो दूसरी बात है। निरंतर इसलिए क्योंकि जिसका तुम अभ्यास कर रहे हो, जैसा हमने कहा, वो परिवर्तनशील है। तुम एक भ्रम से लड़ोगे, काफी सम्भावना है कि दूसरे भ्रम का उपयोग करके ही लड़ोगे। तुम एक ऐसे गड्ढे में गिरे हुए हो जिसमें सांप ही सांप हैं। तुम उस गड्ढे से निकलने के लिए रस्सी का इस्तेमाल कर रहे हो। वो रस्सी भी, काफी सम्भावना है कि सांप ही है। इसलिए निरंतरता चाहिए। एक बार बचे हो, इसका मतलब यह नहीं है कि बच गए। बचते रहो।

जीवन प्रतिपल है, मृत्यु प्रतिपल है। लगातार मर रहे हो, लगातार पैदा हो रहे हो, हर साँस के साथ माया का खतरा है। जिसको तुम अपना बच जाना कहते हो, वो बच जाना नहीं है। ‘झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोर।’ तुम बच नहीं गए हो, तुम बस ज़रा किसी दूसरे पचड़े में फँस गए हो, इसीलिए निरंतर जीवन को देखते रहो। नेति-नेति निरंतर करनी होगी; अपने आप को निरंतर काटते रहना होगा। रक्तबीज हैं हम; मर जाते हैं तो भी जहाँ-जहाँ रक्त गिरता है, ऐसी सौ जगहों पर खड़े हो जाते हैं। मरकर हमारा मात्र पुनर्जन्म नहीं होता, सौ और रूपों में पुनर्जीवित हो जाते हैं।

तो बातें दोहराओ। पहली बात, ज्ञान न बताओ, धारणा न बताओ। बात न करो, काम दिखा दो; बात हटाओ, काम बताओ। तुम अपने आप को क्या सोचते हो, क्या मानते हो? अरे, दो कौड़ी की बात, हटाओ। हम तो ये जानना चाहते हैं कि जी कैसे रहे हो; हम तो ये जानना चाहते हैं कि कर्म कैसे हैं; हम तो ये जानना चाहते हैं कि विचार कैसे हैं; हम तो ये जानना चाहते हैं कि सुबह से शाम तक करते क्या हो, क्या खाते हो, क्या पीते हो, कैसे हँसते हो, कैसे रोते हो, गले कैसे मिलते हो। दोस्ती करते हो तो कैसी, दुश्मनी करते हो तो कैसी।

और दूसरी बात, निरंतरता। जीवन को भी एक बार देख लेना काफ़ी नहीं है। दृष्टि सदैव पैनी रहे। पैदा होना ऐसे है जैसे बर्र के छत्ते में हाथ दे दिया हो, मधुमक्खियों का पूरा झुण्ड चला आ रहा है तुम्हारी ओर। एक से बच गए तो दावत दोगे? मधुमक्खियों के पूरे झुण्ड ने हमला बोला है। एक बच गए तो फ़िर दूसरी से बचो, फ़िर तीसरी से बचो। बचते रहो, यही आदमी का जन्म है।

इस बचाव के आगे क्या है? यह मत पूछो। इस बचाव के आगे की बात कर रहे हो तो मतलब बचे नहीं हो तुम। जो आदमी अभी मधुमक्खियों से जूझ रहा हो, उसे आगे की बात नहीं करनी चाहिए। उसे तो बस जूझना चाहिए, बचना चाहिए। अगर वो आगे की बात कर रहा है तो मतलब पाँच-सात जगह तो काम हो चुका है उसका। आगे की बात पूछने की तुम्हें फुरसत नहीं होनी चाहिए, अभी में बहुत कुछ है जिससे तुम्हें बचना है। अभी से बच लिए तो शायद आगे निस्तारण अपने आप हो जाए।

माया सिर्फ वार नहीं करती, पलट-पलटकर वार करती है। कबीर ने कहा है, “ऐसा जानवर है जिसके तुम आगे पड़ गए तो सींग मारेगा और किसी तरह उसके पीछे हो लिए, कि अब वो जा रहा है और हम उसके पीछे हैं, तो दुलत्ती मारेगा, जाते-जाते भी दुलत्ती मारेगा”—इसलिए निरंतरता।

जब तुम्हें लगेगा कि आज़ाद हो गए, जीत लिए, मुक्ति ही हो गई, ज्ञान प्राप्त हुआ, अब आज़ादी, अब निर्वाण, ठीक तभी पड़ेगी धनधनाती हुई दुलत्ती। सींग के वार से तो शायद बच भी जाओ, क्यों बच जाओ? क्योंकि तुम सतर्क थे, सावधान थे, पशु तुम्हारे सामने था। दुलत्ती से बचना बड़ा मुश्किल है, छुपा हुआ बैकहैंड है। तुम्हें उम्मीद ही नहीं थी, तुम्हें लगा था कि काम हो गया। इसलिए निरंतरता।

ज़िन्दगी को देखना है और लगातार देखना है। एक फल होता है कटक। वशिष्ठ कह रहे हैं कि उसके नाम लेने भर से पानी की सफाई नहीं हो जाती। गुण होता है उसका पानी की सफाई कर देना। किसी भी चीज़ का नाम लेने से कुछ हो थोड़ी जाता है। जीवन हम ऐसा जीते हैं जिसमें नाम वस्तु का विकल्प बन जाता है, बड़ा धूर्त विकल्प। चीज़ नहीं है तो चीज़ का नाम रख लो।

दो ही तरह के लोग होते हैं दुनिया में: एक वो जिनके पास चीज़ आ जाती है। जब चीज़ आ जाती है तो कहते हैं कि अब चीज़ आ गई है तो कुछ नाम भी दे दें। उन्हें नाम से बहुत मतलब नहीं, चीज़ मिल गई है, इसलिए कई बार वो नाम देते भी नहीं हैं, चीज़ तो है। तो पहले तरीके के लोग वो होते हैं जिन्हें जब चीज़ मिल जाती है, तब नाम देते हैं। चीज़ आ गई है तो उसकी ओर इशारा करने के लिए, संकेत देने के लिए कुछ नाम भी होना चाहिए। तो कोई राम बोल देगा, कोई ब्रह्म बोल देगा, कोई मुक्ति बोल देगा, कोई प्यारा बोल देगा, कोई साईं बोल देगा, कोई सत्य बोल देगा, कोई शून्य बोल देगा।

दूसरे तरह के लोग बड़े मज़ेदार होते हैं। एक तो वो होते हैं जिन्हें दीवार दिख जाती है तो उसकी ओर इशारा करने के लिए बोलते हैं 'दीवार'। और दूसरे वो होते हैं जो सोचते हैं कि ‘दीवार-दीवार’ बोलकर दीवार खड़ी कर देंगे। उनको नाम पहले मिलता है, चीज़ कभी नहीं। और वो नाम का उपयोग करते हैं चीज़ के विकल्प के रूप में।

पहले वर्ग के लोगों को नाम से बहुत प्यार नहीं होता इसलिए उनमें एक तरह की बेखुदी आ जाती है। वो हज़ार नाम देने को तैयार होते हैं, उनका किसी एक नाम से मोह नहीं होता। चीज़ तो है ही उनके पास, बदल दो नाम, क्या फर्क पड़ता है? ऐसे ही लोग रहे होंगे जिन्होंने परमात्मा के हज़ार नाम गिनाए क्योंकि उन्हें किसी एक नाम से मोह ही नहीं था। जब तक हर नाम उस एक चीज़ की ओर इशारा कर रहा है, तब तक हर नाम बढ़िया है। तो एक वो लोग थे, सहस्र नाम वाले।

एक दूसरे तरह के लोग होते हैं, जिनके पास चीज़ है नहीं बस नाम है। नाम ही भर है, वही कमाई है जीवनभर की। क्या? नाम, शब्द। तो वो नाम को ले करके बड़े आक्रामक रहते हैं। चीज़ उनके हाथ में है नहीं इसीलिए चीज़ छूटी जा रही है, कि चीज़ का अभाव है, कि चीज़ का अपमान हो रहा है, इससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि पता ही नहीं चलेगा। पर नाम को अगर तुमने ऊँगली दिखा दी, नाम की अगर ज़रा सी तौहीन हो गई, तो वो तुम्हारी जान ले लेंगे।

उनके जीवन में प्रेम न हो तो चलेगा, बस कोई उन्हें ये बोल न दे कि तुम्हारे जीवन में प्रेम नहीं है। असली चीज़ तो उनके पास है ही नहीं। असली चीज़ की जगह क्या है उनके पास? नाम। तो अब जब भिखारी के पास पाँच ही रूपये हैं तो उन पाँच रूपये को लेकर वह बड़ा शंकित और सतर्क रहता है कि ये पाँच रुपये छिनने नहीं चाहिए, पाँच रूपए पर कोई बट्टा न लगा दे।

बहादुर को बोल दो, “तू बड़ा डरपोक है,” तो वो ठट्ठा मारेगा। और डरपोक को बोल दो, “तू डरपोक है,” तो पहले तो वो कूदेगा-फाँदेगा, अपने बाल नोचेगा, तुम्हारा मुँह नोचने की कोशिश करेगा और फ़िर रोएगा ज़ोर-ज़ोर से, “डरपोक बोला।” क्योंकि उसके पास जीवनभर की कमाई है क्या? एक शब्द, वीरता, 'मैं वीर हूँ'। तुम उससे वो नाम भी छीन लोगे तो बेचारे के पास बचेगा क्या? असली तो उसके पास कुछ है नहीं, नकली-ही-नकली है सब।

जिनके पास असली कुछ होता है, वो बाकी सब कुछ गंवा देने को तैयार हो जाते हैं। अगर तुम पाओ कि तुम छोटी-छोटी बातों पर चोट खा जाते हो, ज़रा-ज़रा से नुकसान पर तिलमिला जाते हो, तो जान लेना कि कुछ असली नहीं है तुम्हारे पास।

जिनके पास असली होता है, वो तो बाकी सबको बहा देने पर, स्वाहा कर देने पर, तिरोहित कर देने पर तुरंत राज़ी हो जाते हैं। वो कहते हैं, “हमें फर्क क्या पड़ता है? क्या फर्क पड़ता है? झूठी बातें, दो कौड़ी की बातें हैं। चाहे बदल दो, चाहे ले जाओ, चाहे रखे रहने दो, सब बराबर है। असली चीज़ दूसरी है और वो सुरक्षित है, उसका कोई बाल नहीं बाँका करेगा।”

नकली आदमी की पहचान यही है, वो छोटी-छोटी बातों पर तिलमिलाएगा, क्योंकि उस बेचारे के पास कुल जमा छोटी बातें ही हैं। चवन्नी, अठन्नी, एक रूपया, दो रूपया, वो भी छीनोगे? वो भी छीनना चाहते हो? इतने निष्ठुर न बनो। तुम्हारे पास राम है, उसके पास नाम है। रहने दो, मत छीनो, दया करो। नाम भी छीन लोगे तो फ़िर वो क्या झूठ बोलेगा अपने आप से? क्या खाएगा? क्या पिएगा? सारे भ्रम ले लोगे उसके तो जिएगा कैसे? एक भी भ्रम नहीं बचा। अभी मर जाएगा।

असली आदमी के साथ तुम ज़रा निष्ठुर हो सकते हो, कड़े। उसके साथ तुम्हें कोई मोह, ममता, दया नहीं दिखानी है। उसका सब छीन लो क्योंकि उसका कुछ छिन सकता नहीं। ये ऐसी-सी बात है कि किसी आदमी ने अपनी सारो जमापूँजी, करोड़ों, अरबों किसी सुरक्षित ताले में रख छोड़ी हो और जेब में चिल्लर लेकर घूमता हो। अब तुम उसके सामने खड़े हो जाओ, “जो कुछ है सब दे दे।” तो वो जेब झाड़कर सब दे देगा, जेब की धूल भी दे देगा, “ले जाओ।” क्यों दे देगा? जो असली है, वो तुम लेकर जा सकते नहीं।

जिस आदमी को तुम ऐसे पकड़ो कि “दे दे मुझे सब कुछ,” और वो तुमको अपने दो रूपये-चार रूपये देते हुए भी घबराए, तिलमिलाए, लड़े, रोए, गुस्साए, उसको जान लेना कि महागरीब है। इसके पास इतना ही है कुल, उससे कुछ मत लेना। बोलना, “तू जा, तेरे साथ तो विधि ने ही अन्याय किया है, तेरा और क्या छीनें हम?”

समझ रहे हो या स-म-झ रहे हो? वशिष्ठ कह रहे हैं, “फलाना नाम लेने भर से सफाई नहीं आ जाती।” निर्मलता है या नि-र्-म-ल-ता है? क्या है?

कैसे पता करें कि राम में जी रहे हैं या नाम में? आसान है। जब भी कुछ बाहरी होता है, उससे तुम्हारा रिश्ता होता है कुछ। वो रिश्ता हो सकता है आस्था का हो, मैं नहीं कह रहा कि द्वेष का ही हो, लेकिन उस रिश्ते में तुम बचे रहते हो, तुम हो वो रिश्ता बनाने के लिए।

'मुझे राम से बड़ी भक्ति है।’ ‘मुझे कृष्ण से बड़ा प्रेम है।’ ‘मुझे गुरुजी में बड़ी आस्था है।’ तुम हो, तुमने सम्बन्ध बनाया है और सम्बन्ध बनाने में तुम्हारी मालकियत भी रही है। तुमने तय किया है, तुम कैसा सम्बन्ध बनाओगे। और जब कुछ बाहरी नहीं रह जाता, नाम मात्र नहीं रह जाता, बिलकुल केंद्र पर पहुँच जाता है, एकदम आतंरिक हो जाता है, तो फ़िर तुम उससे रिश्ता नहीं बनाते; वो तुम्हारे सारे रिश्ते निर्दिष्ट करता है।

समझो बात को। झूठे आदमी की पहचान ये होगी कि उसका परमात्मा से कोई रिश्ता होगा। ये बात सुनने में अटपटी लगेगी पर समझो। झूठे आदमी की पहचान ये होगी कि उसका परमात्मा से कुछ रिश्ता होगा, सच्चाई से कोई रिश्ता होगा, ग्रंथों से कोई रिश्ता होगा, गुरु से कोई रिश्ता होगा।

असली आदमी का न ग्रंथ से कोई रिश्ता होता है, न गुरु से कोई रिश्ता होता है, न परमात्मा कोई रिश्ता होता है। उसके रिश्ते दुनिया से होते हैं। उसका रिश्ता उस दीवार से हो सकता है, उस व्यक्ति से हो सकता है, उस आदमी से हो सकता है, उस औरत से हो सकता है, उस जगह से हो सकता है, उस स्मृति से हो सकता है। जितनी भी चीज़ें होती हैं, जिनसे रिश्ते बनाए जा सकते हैं, ये जो असली आदमी है, इसके रिश्ते उन सबसे होंगे। इसका बस एक से रिश्ता नहीं होगा। किससे? परमात्मा से।

नकली का परमात्मा से रिश्ता होगा, असली का परमात्मा से कोई रिश्ता नहीं होगा। असली के सारे रिश्ते निर्देशित होंगे परमात्मा द्वारा। वो परमात्मा से रिश्ता नहीं बनाएगा, परमात्मा के सामने तो वो लोट गया ज़मीन पर। अब रिश्ता क्या बनाए उससे? उसे कुछ पता ही नहीं, वो तो नशे में ज़मीन पर लोट रहा है। हाँ, उसके जो बाकी सारे रिश्ते होंगे, वो किससे होंगे और कैसे होंगे? ये तय करने वाला वो स्वयं नहीं होगा अब, वो तय करने वाला परमात्मा होगा।

जो पहली कोटि का आदमी होता है, वो अपने जीवन का नियंता खुद रहना चाहता है। हम खुद अपने मालिक हैं। हम अपनी समझ के अनुसार, और सुविधा के अनुसार और स्वार्थ के अनुसार रिश्ते बनाते हैं। ये पसंद आया, इससे रिश्ता बना लिया, थोड़ा मुनाफा दिखा, उससे रिश्ता बना लिया। परमात्मा की क्या बात है, क्या शान है और कई तरीके के लाभ भी हैं! तो परमात्मा से भी रिश्ता बना लेते हैं। परमात्मा से भी जब वो रिश्ता बनाने निकलेगा तो अपनी पसंद के परमात्मा से बनाएगा। ज़रा मारपीट में उसका विश्वास है, तो अस्त्र-शस्त्र धारण किए परमात्मा से उसका रिश्ता बनेगा। जो वीरों के वीर देवता होंगे, उनके चरण पर आकर लोटेगा। मन, मोह-ममता से ज़रा ज़्यादा आसक्त रहा है तो वो किसी ममतामयी देवी को चुनेगा, “हम तो देवी के उपासक हैं।”

यह व्यक्ति रिश्ते बना रहा है। यह व्यक्ति अभी मालिक है, यह व्यक्ति अभी मालिक होना छोड़ना नहीं चाहता। बहुत डरा हुआ है, तो इसको सबकुछ अपने नियंत्रण में चाहिए। ये सबसे रिश्ते बना रहा है।

असली आदमी परमात्मा से कोई रिश्ते बनाता नहीं, परमात्मा के सामने लोट जाता है। सारे अधिकार परमात्मा को दे देता है; सारे अधिकार ह्रदय को दे देता है। परमात्मा माने ह्रदय, परमात्मा माने विशुद्ध चेतना तुम्हारी, परमात्मा माने तुम्हारा अन्तर्तम। सारे अधिकार उसको दे देता है, “अब तुम सारे रिश्ते बनाओ, हम नहीं अवरोध डालेंगे। हम सलाह देने भी नहीं आएँगे।” यहाँ से तुम तय कर लेना कि तुम्हारे पास राम है या नाम है।

अगर तुम कहो कि “मेरे जीवन में कई लोग हैं, उनमें से एक है गुरु।” तो अभी तुम अपने जीवन के अभियंता खुद हो। तुमने कई लोग जीवन में शामिल किए और उनमें एक है गुरु। और अगर हालत ये आ जाए कि तुम कहो कि “जीवन में कौन-कौन हैं? ये अब मैं तय ही नहीं करता, ये तो गुरु तय करता है।”

पूछना अपने आप से कि जीवन में तुम्हारे कोई शामिल होता है तो गुरु के माध्यम से होता है या उसके शामिल हो जाने के बाद तुम गुरु को सूचना देने जाते हो। नकली आदमी सूचना देने जाएगा। सूचना देना ज़रूरी भी होगा क्योंकि गुरु को तो वास्तव में पता ही नहीं। तुम्हारे कारनामों की गुरु को क्या खबर? खबर हो ही नहीं सकती क्योंकि खबर हो भी रही होगी तो तुम छुपा जाओगे। तुम्हारे कारनामें तो तुम्हें करने ही उसकी पीठ पीछे हैं, तो तुम छुपा जाओगे।

नकली आदमी के साथ यह सब होगा। वो ईश्वर का धन्यवाद देने जाएगा, ‘'ईश्वर, तेरी बड़ी अनुकम्पा, तूने मुझे ये सब कुछ दिया।” जैसे कि वो तुम्हारे धन्यवाद की प्रतीक्षा कर रहा हो। पर तुम उसे वैसे ही औपचारिक धन्यवाद देते हो जैसे कि जब तुम्हें कोई अन्य व्यक्ति इत्यादि उपहार दे जाता है तो तुम उस उपहार के लिए एक झूठी सी मुस्कान और कृतज्ञता बता देते हो।

राम को तुमने अपने जीवन की परिधि पर रखा है या राम को केंद्र पर आने दिया है और खुद हट गए हो? ये पूछो अपने आप से। बहुत हैं जो परिधि पर रखते हैं। परिधि पर रखने से लगता है कि दोनों हाथों में लड्डू हैं—हम भी बचे हुए हैं और जीवन में राम भी हैं। ये दोनों हाथों में लड्डू नहीं है, ये तुम्हारा प्रबलतम दुर्भाग्य है कि राम प्रवेश कर रहे थे जीवन में और तुमने उन्हें दरवाज़े पर रोक दिया है। इससे भला तो यह है तुम उन्हें चलता कर दो, पर तुम कहते हो, “नहीं, दरवाज़े पर रहने चाहिए। घर के भीतर हम रहेंगे और घर की परिधि पर राम रहेंगे।” तुमसे बड़ा अभागा कौन होगा? उसका दुर्भाग्य कम है जिसको कोई मिला ही नहीं ऐसा जो उसे राह दिखा सके और सच बता सके। पर जिसको कोई मिले ऐसा जो राह दिखा सके और सच बता सके, और वो उसको घर के दरवाज़े पर रोक दे, उससे बड़ा अभागा कोई नहीं होगा।

पर तुम रोकते क्यों हो? ये जानते हो, वही—दोनों हाथों में लड्डू; हम भी बचे रहें और हम ये दावा भी कर सकें कि हमारे नवरत्नों में से एक राम भी हैं। हमारे पास नौ हैं बड़ी-बड़ी चीज़ें, आठ तो सांसारिक हैं—हमारा खज़ाना ज़रा पूरा दिखाई दे, तो इसीलिए हमने नौवाँ हीरा क्या जड़ा है? राम—अब हमारी शान देखो, अब हम बघारते हैं शेखी। “मेरे पास बड़ा घर है, मेरे पास बहुत सारी इज़्ज़त है, पचास लीटर दूध देने वाली गाय है और मेरे पास राम हैं,” ये चाहते हो तुम।

एक सज्जन आए थे ऐसे ही मेरे पास। जितना पैसा कोई कल्पना कर सकता है पाने की, उतना था उनके पास। तो आए, इधर-उधर की बातें, ये चाहिए, वो चाहिए। कुछ देर सुनता रहा, फ़िर मैंने कहा, “बात क्या है? असली बात बताओ।” बोले, “बाकी सब चीज़ों में तो मैं छाया ही हुआ हूँ। कोई हमारे सामने खड़ा नहीं हो सकता, दबदबा है हमारा, सिक्का चलता है। पर कहीं गए दावत वगैरह में या रात में पीने-वीने बैठे तो दोस्तों यारों की बात चल गई, तो उसमें कभी-कभी लोग ये आध्यात्मिक बातें शुरू कर देते हैं। ऐसे शब्द आ जाते हैं जिनका कुछ पता नहीं, इज़्ज़त सी गिरती है। सोचा, आप कुछ बता देंगे।”

ये बात उन्होंने इतने स्पष्ट तरीके से नहीं कही थी। इतना स्पष्ट तो उनके जीवन में कुछ भी नहीं था। बात तो वो घुमा-फिरा कर ही रहे थे। बाकी सब हटाकर मैंने कहा, “तो ये है।”

तो बोले, “ये तो नहीं हो सकता।”

“क्यों?”

“सुनने में ही बड़ा बुरा लगता है।”

मैंने कहा, “करने में कैसा लगता है?”

ये विडम्बना है हम में से ज़्यादातर लोगों की। हम जो काम करते हैं, वो हमें करने में बुरे नहीं लगते, सुनने में बुरे लगते हैं; क्योंकि हमारे पास सिर्फ नाम है और नाम सिर्फ सुना जा सकता है। जिसके पास राम होता है, वो जो करने जा रहा होता है, उसे वो करना बुरा लगता है। और जिसके पास राम नहीं होता, वो जब कर चुका होता है और उसे बताया जाता है कि “देख, तूने ये किया,” तो उसे अपने कृत्य का नाम बुरा लगता है।

“तुझे पता है, तू झाँसेबाज है,” अब उसे बहुत बुरा लग जाएगा। बुरा उसे कब नहीं लग रहा था? जब वो झाँसा दे रहा था। हाँ, उसके कृत्य के लिए तुम एक शब्द दे दो तो उसे बहुत बुरा लग जाएगा, “तुमने हमें ऐसा बोला।” इसीलिए हममें से ज़्यादातर लोग चोरी करने से कम और पकड़े जाने से ज़्यादा घबराते हैं क्योंकि पकडे गए तो कृत्य को नाम मिल जाएगा। जब तक पकड़े नहीं गए हैं तब तक सिर्फ कृत्य है, कृत्य से हमें कोई समस्या नहीं।

कृत्य से समस्या उनको होती है जिनके पास राम होते हैं। वो गलत हरकत करते हुए घबराते हैं। हम गलत हरकत करते हुए नहीं घबराते, हम गलत हरकत पकड़ी जाए और उसको गलत का नाम मिल जाए, इससे घबराते हैं।

प्र२: कबीर, तुलसी, नानक, मीरा, शंकराचार्य आदि महान संतों के समय में न तो आज के समान संचार के साधन थे, न ही इतनी सुविधाएँ, फ़िर भी उनके द्वारा दिया गया अलौकिक ज्ञान आज तक प्रकाश फैला रहा है। क्या आज भी ऐसे गुरु, संत हैं जो ऐसा अलौकिक ज्ञान और प्रकाश फैला रहे हैं, क्योंकि आज के ज़्यादातर गुरु उसी ज्ञान की विवेचना और व्याख्या करते ही प्रतीत होते हैं?

ब्रह्मज्ञान इतना सशक्त है तो उस पर कार्य करने से उतने ही योग्य ऋषि और संत क्यों नहीं बन पाए? आज वैसे अलौकिक ज्ञान प्रकाश के स्तम्भ कहाँ मिलेंगे? संसार को देखते हुए, माया की, ईश्वर की लीला को देखते हुए मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि ब्रह्मज्ञान जन-जन तक आत्मसात हो और चारों ओर सत्य, प्रेम और आनंद का ही अस्तित्व हो। धन्यवाद, गुरु जी।

आचार्य: आपसे किसने कह दिया कि कबीर, कि नानक, कि मीरा जो कुछ भी कह रहे हैं, वो उनका अपना था? आपका मूल प्रश्न यह है कि जो उस वक़्त हो पाया असली काम, वैसा असली काम करने वाले योग्य संतजन आज क्यों नहीं हैं? आप कह रहे हैं कि आज के संतजन तो बस जो बातें पुराने लोग कह गए, उन्हीं बातों की विवेचना कर रहे हैं, दोहरा रहे हैं।

आप मीरा, कबीर और नानक की बात करते हैं। वो तो फ़िर भी बड़े समसामयिक हैं। उपनिषदों की तुलना में तो मीरा, और कबीर और नानक तो आज के हैं। मैं आपको उपनिषदों तक ले चलता हूँ। जानते हैं कि वहाँ ऋषि क्या कह रहे हैं? वहाँ ऋषि कह रहे हैं, “हमने जानने वालों से सुना कि...।” वहाँ ऋषि कह रहे हैं, “नहीं, मेरा इसमें कुछ मौलिक नहीं है।” मौलिकता पर उनका ज़ोर ही नहीं है, मौलिकता पर ज़ोर अहंकार का होता है। जिसको वास्तव में मूल से कुछ मिल जाता है, उसका व्यक्तिगत मौलिकता पर ज़ोर नहीं रह जाता।

आप शायद इस धारणा में फँसे हुए हैं कि एक संत से दूसरे संत को कुछ मिलता है। नहीं, ऐसा कुछ नहीं होता है; सबको एक साझे स्रोत से मिलता है। उपनिषदों के ऋषियों ने भी सुना था और कबीर ने भी सुना था। आप समय के फेर में न फँसे कि कबीर बाद के हैं और उपनिषद् पहले के हैं—दोनों बिलकुल एक साथ सुन रहे हैं।

जैसे याज्ञवल्क्य सुन रहे हैं, वैसे ही अष्टावक्र सुन रहे हैं, वैसे ही बुद्ध सुन रहे हैं, वैसे ही कबीर सुन रहे हैं। सब सुन रहे हैं और एक दूसरे की नहीं सुन रहे, एक दूसरे को माध्यम भले बना लें। मीरा ने रैदास को माध्यम बनाया, रैदास ने कबीर को माध्यम बनाया, ये माध्यम बनाने वाली बात ठीक है, पर सुन सब किसी ‘एक’ को रहे हैं।

उपनिषदों और कबीर में जो फासला है, उसकी अपेक्षा उपनिषदों और आज में बहुत कम फासला है। कबीर और उपनिषदों में दो हज़ार-ढाई हज़ार साल का अंतर है और आपमें और कबीर में कुल छः सौ साल का अंतर है। कबीर आपके ज़्यादा करीब हैं उपनिषदों से, और उपनिषदों की ही बात कबीर कह देते हैं। कोई पक्का नहीं है कि कबीर ने उपनिषद् पढ़े-ही-पढ़े थे। कबीर ने फ़िर भी पढ़ लिए हों, दुनिया के तमाम अन्य हिस्सों में न जाने कितने संत, ज्ञानी, मनीषी हुए, आपको क्या लगता है उन सब ने जो प्राथमिक शास्त्र हैं, वो कभी पढ़े थे? नहीं।

सब एक जगह से सुनते हैं; सब एक जगह से पाते हैं। बीच में जो कुछ होता है, वो बहाना होता है। दिये से दिया जलता है, पहले दिये की रोशनी थोड़े ही दूसरे दिये में जाकर समा जाती है। निकटता प्राप्त होने पर दूसरे दिये के भीतर छुपा हुआ प्रकाश प्रकट हो जाता है।

कृपया दो ज़माने न बनाएँ कि एक पुराना ज़माना था जिसमें सब संतजन थे और उनके भीतर अद्वितीय आभा थी और एक आज का ज़माना है। आपको अगर दो ज़माने बनाने हैं तो कबीर को आपको आज के ज़माने में रखना पड़ेगा, क्योंकि जैसा मैंने कहा कि कबीर उपनिषदों की अपेक्षा आज के समय के ज़्यादा निकट हैं। तो आप अगर समय को दो हिस्सों में बाटेंगे: पूर्वार्ध और उत्तरार्ध, तो आपको कबीर को पूर्वार्ध में नहीं उत्तरार्ध में रखना पड़ेगा। उपनिषद् उस तरफ होंगे तो कबीर इस तरफ होंगे, कबीर आज के ज़माने के होंगे।

तो जब कबीर उपनिषद् से इतनी दूर हैं, और नानक कबीर से भी ज़्यादा दूर हैं, और बुल्ले शाह नानक से भी ज़्यादा दूर हैं और उनके भीतर लौ जल सकती है, लगातार जलती ही रही, हर युग में जलती ही रही, तो ज़ाहिर सी बात है, आज भी जल ही रही है। तो फ़िर सवाल यह उठता है कि जल रही है तो महेश जी (प्रश्नकर्ता) को क्यों नहीं दिख रही? वरना महेश जी ये सवाल नहीं पूछते।

तो फ़िर सवाल यह उठता है कि जब कबीर की जली थी तो क्या सबको दिखी थी? जब कबीर थे, क्या पूरा भारतवर्ष, अच्छा छोड़िए, क्या पूरा उत्तर भारत कबीर की महिमा गा रहा था? बुद्ध थे तो क्या समस्त ब्रह्माण्ड बुद्ध के चरणों में लोट गया था? महावीर को अपने जीवनकाल में कितने अनुयायी मिल गए थे? जीसस को अपने जीवनकाल में कितने अनुयायी मिल गए थे?

आप कह रहे हैं कि आजकल बुद्धों का अभाव है। बुद्धजन फूलों की तरह होते हैं; वो हर काल में होते हैं। हाँ, हर काल में खिलने वाला फूल अलग होता है। आपको दिखाई इसीलिए नहीं देता क्योंकि आप एक काल के फूल की तुलना दूसरे काल फूल से करके सोचते हो कि अभी वैसा ही खिलेगा।

कबीर के ज़माने के लोग कबीर को नहीं मान पाए क्योंकि कबीर संस्कृत नहीं बोल रहे थे। लोगों ने कहा, “अभी तो छः सौ साल पहले शंकराचार्य होकर गए हैं और इतने ग्रंथ बोल गए संस्कृत में, और ये कबीरा आया है। वो शंकराचार्य थे, और ये कबीरा है, कबीर दास। वो ब्राह्मण थे, इसकी कुल, जात का कुछ पता नहीं, जुलाहा और है। तो क्यों मानें कबीर को?”

कबीर को तो कुलीन वर्ग में, प्रबुद्ध वर्ग में, सवर्णों में बहुत-बहुत समय तक मान्यता नहीं मिली थी। कबीर को मानते थे किसान, देहाती जो पढ़े-लिखे नहीं थे, जिन्हें संस्कृत क्या, खड़ी बोली का भी कोई ज्ञान नहीं था। जिन्हें आप निचली जातियों के लोग बोलते हैं, वो मानते थे कबीर को। ये तो अभी पिछले सौ-दो सौ साल की बात है, बल्कि और निकट की कि कबीर को एक सर्वव्यापक मान्यता मिलनी शुरू हुई है। पहले हममें इतनी बुद्धि नहीं थी कि कबीर को उतने आदर का स्थान दे पाएँ जिसके वो अधिकारी हैं।

उतनी बुद्धि हममें कभी भी नहीं रही है। वो तो जब संत दैहिक रूप से चला जाता है, तब उसके जाने के पचास-साठ साल बाद हमें जोर का झटका लगता है, “कुछ हुआ था क्या?”

सुपरसोनिक विमान जानते हैं क्या होता है? जिसकी गति ध्वनि की गति से ज़्यादा तेज़ हो। तो आप अगर ऐसे हैं जो विमान का ज्ञान पाते हैं उसकी आवाज़ से, तो आपके साथ बड़ी दुर्घटना हो जाती है। सुपरसोनिक विमान आया, निकल गया और जब वो दूर निकल गया, तब आपको उसकी आवाज़ आती है, फ़िर आप कहते हैं, “अरे, कहाँ है? कहाँ है?” और आवाज़ ही नहीं आती, तब जो आती है, उसे कहते हैं सोनिक बूम * । साधारण आवाज़ नहीं आती, वो ऐसा आता है कि खिड़कियों के शीशे टूट जाते हैं। पर जब आता है तब तक वो तो विमान दूर जा चूका है। तो संत का आगमन और प्रस्थान ऐसा होता है। वो जब दूर निकल जाता है तब * सोनिक बूम आती है।

ठीक वैसे जैसे आकाश में बिजली कौंध जाए, ऐसी गड़गड़ाहट कि पूछो मत। वो ध्वनि जब तक आप तक पहुँचती है तब तक बहुत देर हो चुकी है। आपके पास अगर आँखें हैं, आपने बिजली का कौंधना पकड़ लिया, तब तो आपने घटना को पकड़ लिया। पर आप अगर इन कानों से इंतज़ार कर रहे थे, सुनी-सुनाई बात से इंतज़ार कर रहे थे, तो बिजली के कौंधने के तो बड़ी देर बाद आवाज़ पहुँचती है आपके कानों तक। जानते हो आप ये? बिजली कौंध जाती है, उसके पल, दो पल, तीन पल, चार पल बाद आप तक आवाज़ पहुँचती है।

हम ऐसे ही जीते हैं, आवाज़ पर जीते हैं। “हाँ भाई, तू बता। फलाना बड़ा संत है।” आवाज़ आते-आते तो देर लगेगी। आँखें तुम्हारे पास हैं कि बिजली का कौंधना देख पाओ? तो वो सुपरसोनिक हैं। वो निकल गया, तुम आवाज़ का इंतज़ार करते रहे कि श्रुति फैले, जनमानस में लोकप्रियता मिले, सब एक स्वर में कहें कि फलाना था ज्ञानी। तो करो इंतज़ार। इंतज़ार करने के बाद तुम देखते रह जाना, ढूँढना कि “कहाँ हैं, कहाँ हैं?” वो गया। और जिनकी आँखें होती हैं, वो देख लेते हैं। वो बिजली कड़की, अभी थी, अभी हमने देखा, देखा और प्रकाशित हुए।

संत को देख पाना कोई मामूली बात है? आपने देखने को क्या समझ रखा है? कि आप बाजार जाते हो तो वहाँ टिंडा भी दिख जाता है, मूली भी दिख जाती है, आलू भी दिख जाता और गाजर भी दिख जाती है। ऐसे ही आप सोचते हो कि किसी टोकरी में दो-चार संत भी बैठे हुए दिख जाएँगे, और कोई बेच रहा होगा, 'ढाई रूपए पसेरी-ढाई रूपए पसेरी। ये ज़रा बासी वाला है, पुराना है। उधर वाला माल दस रूपए पसेरी, वो नया-नया संत है, ताज़ा आया है अभी मार्केट मे’।

आपकी आँखें जैसे आलू-टिंडा देखती हैं, वैसे ही बुद्ध और कृष्ण को देखेंगी? कुरुक्षेत्र में गीता ज्ञान दिया जा रहा है। दुर्योधन को आ रहा है समझ में? दुर्योधन छोड़ो, भीम और युधिष्ठिर को भी आ रहा है समझ में? जो ऊँची-से-ऊँची बात हो सकती है, वो कितने ही लोगों के सामने, कितने ही लोगों के बीच में अर्जुन को कही जा रही है। क्या ज़माना आकर कृष्ण के पाँव पकड़ रहा है कि हमें भी बता दो, हमें भी बता दो? मैं तो कह रहा हूँ आपको, इतना समय लग रहा था अर्जुन को समझाने में, उधर कौरव व्याकुल हो रहे होंगे। दो-चार के मन में तो ज़रूर आया होगा कि जितनी देर ये समझा रहे हैं, उतनी ही देर में कर दो काम तमाम।

कृष्ण को तो दुर्योधन बंदी बनाने भी चला था। राम को मारने वाले बहुत थे, और सब-के-सब राक्षस नहीं थे, कुछ तो उनके अपने ही परिवार के थे, ये मंथरा और कैकयी कोई भूतनियाँ थीं? एक माँ है, एक महल की परिचारिका है, ये दुश्मनी नहीं रखे थी राम से? इन्होंने राम को देखकर कहा कि “अरे, महाप्रभु! इनके तो चरणों में लोट जाना चाहिए”?

संत को देख पाना, भगवत्ता को पहचान पाना हल्की बात नहीं है। बोधिधर्म ने कहा है कि संत की परिभाषा ही यही है, जो संत को समझ ले। और आप कह रहे हैं कि संत आजकल कहीं दिखाई नहीं देते। बोधिधर्म ने कहा है कि जिसको संत दिखाई देने लग जाएँ, उसी को तुम संत जानना। तो ये तो ज़ाहिर सी बात है कि आपको संत नहीं दिखाई देंगे, निन्यानवे प्रतिशत लोगों को नहीं दिखाई देंगे। जिस दिन दिखाई देने लग गए, उस दिन आप भी संत हो गए—यही शर्त है, यही अनिवार्यता है। आप संतत्व को प्राप्त हो जाएँ, आपको दिख जाएगा कि कौन संत है और कौन नहीं।

आप सोए पड़े हैं, आपको पता है कि कौन सोया है, कौन जगा है? आप स्वयं यदि सो रहे हैं तो आपको दूसरों का कुछ पता होगा क्या कि कौन जग रहा है, कौन सो रहा है? कौन जग रहा है, कौन सो रहा है? ये जानने के लिए सबसे पहले आपको जागना होगा। आप सोए पड़े हो और सपने में आपको दिखाई पड़ रहा है कि पूरी दुनिया ही सो रही है। क्या फर्क पड़ता है? सपना है। इसी सपने में आपको यह भी दिखाई दे सकता है कि पूरी दुनिया जगी हुई है। क्या फर्क पड़ता है? वो भी सपना है। बहुत लोग घूम रहे हैं जिनको आज भी बहुत-बहुत संत दिखाई देते हैं। वो यही सपना ले रहे हैं कि सब जग गए।

ऐसे दावा करने वाले तो हैं ही, कहते हैं, “हम मुक्त हैं, ब्रह्मलीन हैं, कब का मोक्ष मिल गया हमें।” ऐसे भी घूम रहे हैं जिनसे पूछिए तो कहेंगे, “हाँ, मैं अड़तीस एनलाइटेंड लोगों को जानता हूँ,” ये वो हैं जो सपने में देख रहे हैं कि बहुत सारे लोग जग गए। क्या फर्क पड़ता है?

अहंकार बहुत ज़ोर देता है इस बात पर कि “मैंने जो कहा, मैंने जो रचा, वो कहने वाला, वो रचने वाला मैं ही पहला हूँ। मुझसे पहले किसी ने किया नहीं।” और एक बुद्ध होता ही इसीलिए है बुद्ध क्योंकि वो वह कह रहा होता है जिसमें कुछ भी नया नहीं है। एक अर्थ में बुद्ध के पास जो है, सब पुराना है।

सत्य में तुम कुछ जोड़ना चाहते हो क्या? तुम उसे नया कैसे कर दोगे? दूसरे अर्थ में, सत्य प्रतिपल नया है, क्योंकि उसकी अभिव्यक्ति मौलिक होगी। अभिव्यक्ति बदल जाएगी, बात तो वही रहेगी न? बात में तुम क्या जोड़ दोगे? सत्य कुछ अधूरा था क्या कि उसमे जोड़कर तुम पूरा करोगे? तुम कहोगे कि पाँच सौ साल पहले अधूरा वाला सत्य था और अब उसमें गोंद लगाकर पूरा बना रहे हैं। जोड़ोगे क्या उसमें? एक ही बात है।

जो कहेगा, जहाँ कहेगा, भारत में कहेगा कि चीन में कहेगा, अरब में कहेगा कि यूरोप में कहेगा, उसको वही बात कहनी पड़ेगी, उसकी विवशता है। हाँ, बदलते युगों के साथ, बदलते संदर्भों के साथ, बदलती भाषाओं के साथ अभिव्यक्ति ज़रा बदल जाएगी। अभिव्यक्ति बदलनी चाहिए क्योंकि अभिव्यक्ति नहीं बदल रही तो फ़िर तोते हो, फ़िर तो रट के आ गए हो और दोहरा रहे हो।

यह ख़याल मन से बिलकुल निकाल दीजिएगा कि कुछ नया सुनना है। आप तो पुराने में जाएँ, आप तो पुराने से पुराना उपनिषद् उठाएँ और वो जो कह रहा है, उसको पी जाएँ। कालजयी बातें हैं वहाँ; उनमें कुछ नया जोड़ने की ज़रूरत नहीं, वो नई सदैव हैं।

आप जिसको नया कहते हैं, वो नए-नए भ्रम होते हैं। सागर बहुत पुराना है, नए-नए बुलबुले उठे। बुलबुलों से बड़ा मोह है। सागर का तो कमोबेश एक ही रंग होता है। बुलबलों में आप देखिए, एक किरण पड़ती है और उनमें पूरा इंद्रधनुष उतर आता है। क्या बुलबुले हैं! संसार के सारे रंग एक बुलबुले में! सागर में आप इतने रंग नहीं पाएँगे, बुलबुले में सारे रंग हैं।

"पुराने ही ज्ञान की विवेचना आज के गुरु करते प्रतीत होते हैं।" अरे, भाई, अगर कोई वास्तव में गुरु है तो वो ज्ञान की विवेचना इसीलिए करेगा ताकि ज्ञान का खंडन कर सके? तो विवेचना करके यह नहीं बताएगा तुमको कि ये है असली ज्ञान, अब इसको पकड़ लो।

गुरु और ज्ञान का तो छत्तीस का आँकड़ा होता है। तुम उसके पास ज्ञान ले करके आते हो, वो लट्ठ लेकर तोड़ता है। तुम ज्ञानी ठहरे, तुम मानते नहीं, तुम और उलीच-उलीच, माँग-माँगकर लेकर आते इधर-उधर से और ज्ञान, और वो और तुम्हारा घड़ा तोड़ देता है। फ़िर जब तुम मानते ही नहीं, इधर-उधर से तमाम जगहों से चीज़ें या ज्ञान लेकर आते हो, तो फ़िर वो तुम्हारा खोपडा ही तोड़ देता है कि इसी खोपड़े से ही ये सारी खुराफात निकलती है—न रहेगा बांस, ना बजेगी बांसुरी।

गुरु का काम है: तुम्हें सारे ज्ञान से मुक्ति देना। सारी बातें बोली इसलिए जाती है ताकि जिन बातों में तुम उलझे बैठे हो, उनकी निरर्थकता तुम्हें दिख जाए। कोई बात तुमको इसलिए नहीं बोली जाती कि तुम उसको पा लो, पकड़ लो, उसको सत्य समझ लो।

दवाई इसलिए थोड़ी दी जाती है कि उसको रोटी के साथ खाओ? ये अच्छा हिसाब है। 'भाग्यवान, अब से घर में सब्ज़ी नहीं बनेगी, डॉक्टर साहब ने दवाइयाँ लिखी हैं। तो सब्ज़ी की जगह दवाई।” ऐसा करते हो क्या कि थाल सजाया, उसमें आठ-दस तरीके की दवाइयाँ खा रहे हो?

गुरु का ज्ञान ऐसा ही होता है। पहले तो वो ज़रा सा होता है, तंदूरी नान नहीं होता कि इतना बड़ा, बहुत सारा ज्ञान दे दिया। और तुम्हें ज्ञान कितना चाहिए? जितना तंदूरी नान। गुरु का ज्ञान गोली बराबर, और उसका काम होता है भीतर जो अंट-संट चीज़ें जमा हैं, उनको निकाल बाहर करे। उसके बाद तुम गोली नहीं खाओगे।

पर नान और ज्ञान दोनों पसंद हैं, ख़ासतौर पर मक्खन मारकर। दाल मखनी, खूब बखानी। मेरा ज्ञान, तंदूरी नान। नान के साथ क्या चलती है? दाल मखनी। तो ज्ञान के साथ क्या चलेगी? बखानी। अब ज्ञान है तो बखान तो होगा ही। दाल मखानी, खूब बखानी।

अगर आपका वास्ता अभी तक ऐसे गुरुओं से पड़ा है जिन्होंने आपको खूब ज्ञान दिया है, तो बचें। मैदा होता है, पेट में जम जाएगा, सुबह तकलीफ होगी। नान कहाँ जम जाता है? पेट में। ज्ञान कहाँ जम जाता है? दिमाग में।

"संसार को देखते हुए, और माया को और ईश्वर की लीला को देखते हुए मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि ब्रह्मज्ञान जन-जन तक पहुँचे और चारों ओर सत्य, प्रेम और आनंद का ही अस्तित्व हो।" ये क्या हैं चीज़ें जो आप जन-जन तक पहुँचाना चाहते हैं? जो आप कह रहे हैं, इससे तो किसी को भी इन्कार नहीं होगा। आप यह वक्तव्य ले करके करोड़ों, अरबों लोगों के पास चले जाएँ, बिना अपवाद के एक-एक आदमी आपकी बात से सहमति जता देगा। कौन नहीं कहेगा कि सत्य चाहिए, प्रेम चाहिए, ज्ञान चाहिए, आनंद चाहिए? पर ये हैं क्या जो आप इधर-उधर फैलाना, बाँटना चाहते हैं? आप ही नहीं चाहते, सब ही चाहते हैं, लेकिन ये चीज़ें क्या हैं? ये क्या हैं?

जिसको देखो, उसी को सत्य चाहिए, जिसको देखो, उसी को प्रेम चाहिए। अपने लिए ही नहीं चाहिए, वो दूसरों के लिए भी प्रार्थना कर रहा है कि उन्हें भी मिले। बड़े अच्छे ये नाम हैं। दूसरों के लिए प्रार्थना मत करिए, पा लीजिए, सबको मिल जाएगा। ये सब हैं कौन, आपको स्पष्ट हो जाएगा। किनको आप चाहते हैं कि सत्य मिले, किसको आप कहते हैं जन-जन, किसको आप दूसरे का नाम देते हैं, सब खुलासा हो जाएगा।

देखिए, झूठ कभी नहीं कहता कि वो झूठ है। झूठ का भी दावा यही होता है कि वो सच है। कोई कभी नहीं कहता कि उसने बुरा किया। सबका दावा यह होता है कि उनके साथ बुरा हुआ और जितना बुरा हुआ, उसकी अपेक्षा उन्होंने कुछ कम ही बुरा किया, तो वो तो बेचारे पीड़ित थे, शिकार थे।

अच्छाई का दावा, अच्छाई का नाम सबके पास है। आप जो ये प्रार्थना कर रहे हैं, ऐसी प्रार्थना सभी कर रहे हैं, रोज़ हो रही हैं, “सर्वे भवन्तु सुखिनः।” ये खोखली प्रार्थनाएँ हैं। प्रार्थना करने वाला जानता भी नहीं कि वो दूसरे को क्या दे रहा है।

आपकी हालत ऐसी है कि आप किसी को भोजन कराने ले जाएँ, और भोजन कराने आप ले गए हैं उसे एक अफ्रीकी रेस्त्रां में। मीनू आपको सामने आया, आपको कुछ नहीं पता उसमे क्या लिखा हुआ है। पर आपके दिल में मीठी भावनाओं का उदात्त आवेग है। आप सामने वाले का बड़ा भला चाहते हैं, उसका पेट भरना चाहते हैं। बोध कुछ नहीं है आपके पास, सामने क्या है इसका कुछ नहीं पता। कहाँ ले आए उसको, ये क्या प्रचंड मूर्खता की, इसका आपको कुछ नहीं पता। पर आप कह रहे हैं, "आज तुझे कुछ ऐसा खिलाऊँगा कि आज का दिन तू कभी नहीं भूलेगा।" और फ़िर आप करते हैं अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बोल, अस्सी नब्बे पूरे सौ, या कि आप देखते हैं कि बगल वाला क्या मँगा रहा है। बगल वाले ने मँगवाया सत्य, प्रेम, आनंद, तो आप भी कहते हैं, मैं भी सामने वाले को देना चाहता हूँ सत्य, प्रेम, आनंद। और आप उस मीनू से सत्य जलफरेजी, अब ये तो अफ्रीकन नहीं हुआ लेकिन मैं अफ्रीकन जानता नहीं तो मैं ऐसे ही कुछ बता सकता हूँ, और कबाबी आनंद और टंगड़ी प्रेम। " कैन आई हैव वन चिकन प्रेम ब्रैस्ट ?"

अब ये अब उसके लिए मँगवा देते हैं। आपको कुछ पता भी नहीं है कि आपने उसके लिए क्या मँगवा दिया। आपके पास अपनी सुरक्षा के लिए, अपने पक्ष में तर्क देने के लिए बस एक बात है, “मेरी भावना शुद्ध है। मैं तुम्हारा बुरा नहीं चाहता, हमें दोष न देना।” हो सकता है कि तुम शाकाहारी हो और तुमने जो उनके लिए मँगा दिया, उसमें उनके सामने एक ज़िंदा उबलता हुआ सूअर लाकर रख दिया, कि लो खाओ। पर ये तुम्हारा प्रेम है, भाई।

मैं फ़िर पूछ रहा हूँ, ये क्या है जो आप दूसरे को देना चाहते हैं? आनंद माने क्या, आप जानते हैं? आप जीते हैं इस आनंद में? सच पूछिए तो आपके प्रश्न से नहीं लगता कि आप बोध में जीते हैं, पर दूसरे के लिए आप कामना कर रहे हैं। जैसे कि कोई सपने में प्रार्थना करे, जैसे कि कोई प्रार्थना का सपना देखे। सपना तो झूठा है ही, वो प्रार्थना अगर सफल हो गई तो वो सफलता और बड़ा झूठ है।

अभी दो-तीन पहले एक सत्र ले रहा था तो उसमें एक अभिभावक थे। दूर कहीं से उन्होंने सवाल फेंका और उसकी पहली पंक्ति थी, " आई वांट द बेस्ट फॉर माय चाइल्ड " (मैं अपने बच्चे के लिए उत्कृष्टतम चाहता हूँ)।

तो मैं हँसने लग गया। मैंने कहा कि ये क्या है? ये ‘बी-ई-एस-टी’, ये क्या है? आप अपने बच्चे के लिए, या बीवी के लिए, या पडोसी के लिए, या भाई के लिए, या अखिल विश्व के लिए जो उत्कृष्टतम है, वो चाहते हैं, पर ये उत्कृष्टतम है क्या? वो तो वही होगा जो आप अपने लिए उत्कृष्ट समझते हैं, और आप अपने लिए क्या उत्कृष्ट समझते हैं, वो जानना है तो आपके जीवन को देख लिया जाए।

शराबी को तुम पर बहुत प्यार आ गया। तुम्हारे लिए लाल फीते में बाँधकर और खूब सजाकर, बहुत सारे पैसे खर्च करके दिए जाने वाले उपहार को सौ बार चूमकर कहो क्या लाया? बोतल। तुम उसकी भावना पर ऊँगली मत उठा देना। भावना पूरी है, मँहगी-से-मँहगी बोतल लाया है, बहुत प्यार करता है तुमसे। दूर से लाया है, बड़ी मेहनत से लाया है। देखो, कितना सजाया है उसने बोतल को। बोतल नहीं दुल्हन है, घूँघट उठाना पड़ेगा, तब भीतर से छर्रा उठेगा। अपमान न करना, प्यार का तोहफा है।

कौन सा तोहफा देना चाहते हो दुनिया को? ये क्या प्रार्थना है? देखा है अभिभावक अपने बच्चों को क्या दे रहे हैं? देखा है पति पत्नियों को क्या दे रहे हैं? और ये सब किसके नाम पर हो रहा है? ये सब सद्भावना के नाम पर हो रहा है, ये सब प्रेम के नाम पर हो रहा है।

अभी आत्मघाती हमला हुआ। तो उसमें जिन्होंने किया था, वो तो गए और अपने साथ लेकर गए बहुतों को। जो उनके सहायक थे, समर्थक थे, वो दो-चार जने धरे गए तो उनसे पूछा गया, “ये क्या कर रहे हो?”

तो बोलते हैं, 'भला कर रहे है।'

“क्या भला कर रहे हो? इतने तो मार दिए।'”

“जिनको मारा, वो सब पाप की ज़िन्दगी जी रहे थे। अब हमने मार दिया तो भला किया कि नहीं किया? जैसे वो जी रहे थे, वैसे उनको घोर जहन्नुम मिलता। तो हमने मारकर भला किया कि बुरा किया, बताओ?”

भला करने के नाम पर तुम कुछ भी कर देते हो। इधर-उधर की बातें छोड़िए, अपनी ज़िन्दगी को देखिए। और वो आप नहीं करना चाहेंगे, उससे बचने के लिए आप कोई भी बहाना लगाएँगे। जीवन से बचने के लिए बड़े-से-बड़ा बहाना यह होता है कि हम तो ब्रह्म प्राप्ति में लगे हुए हैं। जिये कौन? जीवन का अवलोकन कौन करे, अपने आप को कौन देखे? हमारी निगाहें तो परमात्मा पर हैं।

आदमी को उसकी ज़िन्दगी तक लाने के लिए कितना घुमा-फिराकर लाना पड़ता है, देख रहे हो। इतनी बातें बोलनी पड़ती हैं ताकि वो वहीं आ जाए, जहाँ वो है। और खेल उसमें यह चलता है कि आपको घुमाने इसलिए ले जाया जा रहा है कि बहाने से घुमा-घुमाकर आपको वापस वहीं लाया जाए। पर जब आपको घुमाने ले जाया जाता है तो आप रास्ते में बहक भी लेते हो, तो और दूर हो लिए।

एक श्रोता: घुमाने वाला गड़बड़ हुआ तब तो...

आचार्य: हाँ, घुमाने वाला गड़बड़ हुआ, तब तो पूछो ही मत। दोनों बाते हैं, घुमाने वाला गड़बड़ हुआ या जो साथ चला था घूमने के लिए, उसका अगर विश्वास पूरा नहीं है, तो फ़िर रास्ते में ही छिटक जाएगा, और दूरी बढ़ गई।

हमेशा से ही यह खेल जनमानस के लिए नहीं रहा है। गुरु पर धब्बा लगता था, इल्ज़ाम लगता था अगर बहुत सारे शिष्य ले ले तो। और नहीं है बस कि सामाजिक मान्यता की बात थी, वास्तव में उसके लिए बड़ी सिरदर्दी थी। जब आप किसी को शिष्य ग्रहण करते हैं तो उसका सारा कर्मफल आपके ऊपर आ जाता है। वो अब आज़ाद हो गया, उसने अपनी बागडोर आपको सौंप दी। तो अभी तक उसने जितनी गन्दगी इकट्ठी की हुई है जीवनभर की, जितना उसका संचित कर्मफल है, वो अब उसका नहीं है, वो अब गुरु का हो गया।

बहुत शिष्य कभी बनाए ही नहीं गए, ये बातें बहुत लोगों से कभी बोली ही नहीं गईं। बाद में जो वर्णव्यवस्था थी, जो जाति व्यवस्था थी, उसमें एक जड़ता आ गई। आरम्भ में तो खेल यही था कि जो ब्रह्म को समझे सो ब्राह्मण। आप कृष्ण से पूछिए गीता में वो यही कह रहे हैं, “ब्राह्मण वही है जो ब्रह्म को समझ रहा है।” तो जो ब्रह्म को समझने की काबिलियत रख रहा है, जिसमे ब्रह्म को समझने की घोर मुमुक्षा उठी है, मात्र उस मुमुक्षु को ही धर्मशास्त्रों के काबिल समझा जाता था, मात्र उसको ही आश्रमों में प्रवेश मिलता था, बाकियों को सबको हटा दिया जाता था।

ये जात-पात की बात नहीं है। ये किसी की जाति की बात नहीं है, ये उसकी योग्यता की बात है। तुम इस काबिल ही नहीं हो कि तुमको आश्रम में आने दिया जाए। तुम बात सुन नहीं पाओगे क्योंकि सुनने के लिए बड़ी श्रद्धा चाहिए, गुरु में अखंड विश्वास चाहिए। न तो तुम में काबिलियत है, न इच्छा है। इच्छा तब उठती है जब जगत से तुम्हारा यकीन बिलकुल उठ गया हो।

प्र२: ये दृढ विश्वास मन को आता कैसे है कि कुछ अनंत भी है, जबकि अनंत की बात ही यही है कि वो अज्ञेय है और अचिन्त्य है। जब वो अज्ञेय है और अचिन्त्य है तो मन को उसमें विश्वास कभी भी आ कैसे जाता है? न उसका पता चल सकता है, न उसकी कल्पना हो सकती है।

इसी तरीके से ग्रंथ तो कहता है कि जीव और जीव का समूचा तंत्र, उसकी इन्द्रियाँ इत्यादि जो भी आत्मा के संपर्क में आते हैं, वो आत्मा तुल्य ही हो जाते हैं। उनमें आत्मा के जैसा कुछ आ जाता है, उनमें जैसे आत्मा की खुशबू आ जाती है। ये क्या बात है?

आचार्य: ये कभी भी नहीं पता चलता कि कुछ अनंत है। अगर आप जीवन ईमानदारी से जी रहे हैं तो आपको यह पता चलता है कि जो अनंत नहीं है, जो सांत है, उसमें दुःख है, उसमें छटपटाहट है, बेचैनी है। उससे आप राज़ी नहीं हो पा रहे। आपकी छटपटाहट सबूत बन जाती है अनंतता का; अनंतता का और कोई सबूत नहीं है।

छोटे से आप तृप्त नहीं होते। बड़े-से-बड़े के मिल जाने पर भी और बड़े की आस बची ही रहती है, ये प्रमाण है इसका कि अनंत से कम में आप राज़ी नहीं होंगे। अनंत से कम में आप राज़ी नहीं होंगे, ये इस बात को कहने का दूसरा तरीका है कि आप कभी राज़ी हो ही नहीं सकते क्योंकि जिन चीज़ों से आप राज़ी होना चाहते हैं, उनमें से कोई भी अनंत है ही नहीं। राज़ी होने की आपकी इच्छा ही छोटी सी इच्छा है क्योंकि उसके पीछे आपका छुटपन बैठा हुआ।

सारे छुटपन जब आपको दिख जाते हैं कि व्यर्थ हैं, तब आप कहते हैं कि जब छोटा, छोटा, छोटा, छोटा कुछ भरोसे काबिल ही नहीं, मेरे जीवन में बचा ही नहीं, तो और चारा क्या है मेरे पास यह कहने के अलावा कि अब अनंत से प्रेम है मुझे, अनंत में जीना है मुझे?

छोटा अगर कुछ हो तो वो छोटे से राज़ी हो जाता है। इतने बड़े हैं आप कि आप नहीं छोटे से राज़ी हो पाते। परमात्मा अचिन्त्य है, अकथ्य है, अगम्य है, अज्ञेय है। आपकी ज़िन्दगी में तो जो कुछ है, वो चिंतन के भीतर भी है, ज्ञान के भीतर भी है, गमन के भीतर भी है। वहाँ तो हो आए न? वहाँ जाने पर जो तृप्ति नहीं मिलती, जो आपको तृप्ति नहीं लेने देता, उसका नाम परमात्मा है।

जो आपको छोटे से सहमत नहीं होने देता, उसका नाम है अनंत और वो आपके भीतर बैठा है। भीतर बैठा है, इसका यह प्रमाण है कि बाहर आपको बहुत मिल जाएँगे जो आपसे कहेंगे कि यह छुटपन ही तुम्हारी नियति है। आप थोड़ी देर के लिए हो सकता है कि मान भी लो, फ़िर आप नहीं मानोगे।

परमात्मा का सबूत क्या है? तुम्हारी पीड़ा सबूत है परमात्मा का। तुम्हारी पीड़ा के अलावा परमात्मा का कोई सबूत नहीं है।

फरीद को इसीलिए कहना पड़ा कि विरह ही सुलतान है। विरह के अलावा उस परम प्रेमी का कोई सबूत नहीं। उसका सबूत ही यही है कि जब तुम उसकी अनुपस्थिति में जीते हो तो तड़पते हो। अब तुम तड़प रहे हो तो कोई तो होगा न जिसके लिए तड़प रहे हो? और वो कौन है? छज्जूमल के पास तुम हो आए, घुग्घूमल का पास तुम हो जाए, कंचालाल, बंचालाल, जितनों से तुम प्रीत जोड़ सकते थे. तुमने जोड़ी। कुछ बचा नहीं है जिसके साथ तुमने किस्मत आज़माकर न देख ली हो, और ये तुम्हारी विरह-वेदना को शांत नहीं कर पाए। जितने हैं दृष्टिगोचर, प्राप्य, वो कोई नहीं कर पाते। तो फ़िर इसलिए तुम्हें कहना पड़ता है कि मुझे तो अनंत की प्यास है।

अगर आप बहुत लोगों को आज परम तत्त्व से विमुख देख रहे हैं, सदा ही थे, आपको आज दिखेंगे क्योंकि आप आज के हैं, तो उसका कारण ये है कि आज वेदना से बचने के उपाय बहुत हैं। वो उपाय कभी भी सफल होंगे नहीं, पर उपाय इतने हैं कि आपका जीवन बीत जाता है एक असफल उपाय से दूसरे असफल उपाय तक जाने में। सब असफल होने हैं, पर उनकी संख्या बहुत ज़्यादा है।

तो आप कहते हो, “अच्छा, ये उपाय असफल रहा, पर कोई बात नहीं, अभी छः सौ उपाय और हैं।” आप दूसरा आज़माते हो, तीन महीने लग गए। फ़िर एक उपाय आज़माते हो, दो साल उसमें भी लगा दिए। तो ऐसे ही उपाय आज़माते-आज़माते आदमी की ज़िन्दगी कट जाती है।

पहले मन को भगाने के, झूठा बहाना बनाने के इतने साधन नहीं थे, तो आपके यत्नों की निष्फलता आपको ज़रा जल्दी और आसानी से दिख जाती थी। आज आपकी उम्मीद बची रह जाती है। आप कहते हो, “अभी ये दो-चार आज़माई नहीं, क्या पता इन्हीं में सुख मिल जाए? अभी उस जगह तो होकर आए नहीं, अभी वो वाला खेल तो खेला नहीं, अभी ऐसा उपभोग तो किया नहीं। क्या पता इसी में संतुष्टि मिल जाए?”

वेदना दबा दी गई है। वेदना जब दब जाएगी तो आप परमात्मा की ओर जाओगे नहीं। परमात्मा आपके सामने तो वेदना ही बनकर आता है।

'विद' धातु कितनी प्यारी है! 'विद' का अर्थ जानना भी है और वेदना का प्रचलित अर्थ पीड़ा भी है। जानने के लिए रोना ज़रूरी है। जिसको अभी रोना ही नहीं आ रहा अपनी हालत पर, जिसको वेदना ही नहीं उठ रही, उसको वेद क्या मिलेगा? वेद उनके लिए हैं जो रो पड़े हों, फ़िर वो वेद की ओर जाएँगे। और रो ऐसे नहीं पड़े हों कि किसी एक आदमी ने दिल तोड़ दिया तो रो पड़े, उसका दिल ऐसा टूटा हो कि चूर हो गया है, बिलकुल चूरमा बन गया है। जहाँ गया है, वहीं टूटा है, अब कोई आसरा, कोई उम्मीद बाकी नहीं रही, तब आप जाते हो वेद की ओर।

जिनको ‘कौन बनेगा करोड़पति?’ खेलना है, वो थोड़ी वेद की ओर जाएँगे। उनके लिए तो अभी रोज़ रात का मनोरंजन, वेद का क्या करोगे? वो आ गए वहाँ पर और खेल चालू हो गया लालच का, वासना का, मध्यम वर्ग के शोषण का, मदारी द्वारा बन्दर का और बन्दर को पता भी नहीं है कि उसको नाच नचाया जा रहा है रूपए दिखा-दिखाकर। उस मौके पर आपको वेद याद आएँगे?

अगला प्रश्न एक करोड़ रूपए का है। तो उदित जी, जो मुरादाबाद से आए हैं, अगला सवाल खेलेंगे एक करोड़ रूपए के लिए। इनको वेद याद आएँगे? वो सामने जो बैठा हुआ है महानायक, वो तुम्हें वेद याद करने देगा? लालच याद आ जाएगा। बहुत इसी तरह फँसे हैं।

कितने चैनल हैं टीवी में? सैंकड़ों। एक से ऊबे तो दूसरा, तीसरा। ज़िन्दगी बीत जाएगी चैनल ही बदलने में। कितनी दुकानें हैं बाजार में? और हर दुकान में कितना माल! दुकान के अंदर माल, दुकान के बाहर माल। जगत मालामाल, करना क्या है वेद का? किसको शिव याद आने हैं? किसको शक्ति याद आनी हैं?

‘हाई हील में नच्चे, ता तू बड़ी जच्चे’, पूछो इनसे (एक श्रोता) बाल कहाँ गए? एक समय इन्होंने भी खूब गाया था, ‘हाई हील में नच्चे’, तब उपनिषद् याद आए थे? पूछो, तब उपनिषद् याद आए थे? अब खोपड़ा खुजाओ।

दुनिया से दिल इसलिए भी नहीं उचटता क्योंकि हम दुनिया के भी पूरे करीब जाते नहीं। हम अजीब लोग हैं! तुम्हें जो चाहिए, तुम जी तोड़ प्रयत्न करके उसके भी निकट चले जाओ तो तुम्हें विरक्ति हो जाएगी। तुम उतने निकट भी नहीं जाते हो, तुम उससे भी ज़रा दूसरी बनाकर रखते हो ताकि कल्पना कर सको। रस तो कल्पना में है न।

न वस्तु में रस है, न कपड़े में, न लत्ते में, न गहने में, न धन में, न मकान में, “आपसे अच्छी आपकी यादें हैं।” यादों में हम आपको चाहे जैसा बना सकते हैं। यादों में आपको आपके बिलकुल प्राकृतिक रूप में याद कर सकते हैं, कृत्रिमता हमें वैसे ही पसंद नहीं है।

जिसके पीछे-पीछे भागे, उस तक पहुँच ही गए होते अगर, मैं भौतिक चीज़ों की बात कर रहा हूँ, लोगों की वस्तुओं की, तो भी तुम्हारा दिल उचट गया होता। तुम तो ऐसे हरंते हो कि जगत में भी जिस चीज़ के पीछे भागते हो, उस तक पहुँच नहीं पाते, तो लार ही टपकाते दूर रह जाते हो। ऑल्टो में बैठते हो, ऑडी के सपने लेते हो, तो तुम्हारी उम्मीद बची रह जाती है आखिरी दम तक। तुम्हें लगता है कि वो मिल गया होता तो तृप्ति हो जाती। उपनिषद् कैसे याद आएँगे?

कहीं तक तो पहुँचकर दिखाओ। परमात्मा तक नहीं पहुँच सकते तो संसार में ही कहीं तक पहुँचकर दिखाओ। साफ़ बता रहा हूँ, जो संसार की छोटी-छोटी चीज़ें भी नहीं हासिल कर सकते, वो परमात्मा क्या ख़ाक हासिल करेंगे? कहीं तक तो पहुँचकर दिखाओ, तुम्हें उपलब्धि का कुछ तो पता हो। तुमसे तो कुछ नहीं हासिल किया जाता।

जो कुछ भी हासिल करेगा, वो हासिल करने के यथार्थ को जान जाएगा। तो दो बातें एक साथ जानेगा: कुछ भी हासिल करने के लिए कीमत अदा करनी पड़ती है और दूसरी बात, कीमत अदा कर-करके मैं जो हासिल कर रहा हूँ, वो पूरा नहीं पड़ रहा, तो और बड़ी कीमत अदा करनी है। कुछ राज़ खुल जाएँगे उसको। तुम तो छोटी-से-छोटी चीज़ की कीमत नहीं अदा करते। कहीं तुम सफल नहीं होते, कोई छोटा सा उपक्रम करने निकलते हैं, उसी में भड़ाम से गिरे, लो ख़त्म। ट्रेन नहीं पकड़ी गई, खाना नहीं मिला, तुझे मोक्ष क्या मिलेगा?

कुछ तो ज़रा जिगरा दिखाओ, थोड़ा तो जलवा दिखाओ। ये जगत क्या है? इसको जानो। और क्या जानोगे, जगत के पीछे-पीछे जो चेष्टा कर रहे हो, उन चेष्टाओं को ही तो जानोगे? जगत से तुम्हारा रिश्ता कोई दृष्टा या साक्षी का तो है नहीं, जगत से तुम्हारा रिश्ता गुड़ और मक्खी का है। ये मक्खी कभी तो गुड़ पाए, थोड़ा तो इसे मिठास का पता चले। अभी तो बस ये मिठास की कल्पना करती रहती है। मिठास की कल्पना में जो डूबा हुआ है, उसे उपनिषद् कहाँ याद आएँगे?

मैं आपसे फ़िर कह रहा हूँ, जानने वालों ने बड़ी शर्तें रखीं, बड़ी पाबंदियां लगाईं, साफ़ कहा उन्होंने कि ब्रह्मज्ञान सबके लिए नहीं है। गीता में एक मौके पर कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि "अर्जुन, जो लोग अभी सुनने को तैयार न हों, उन्हें सुनाकर परेशान मत करना।" और आगे जा करके अंतिम अध्यायों में अर्जुन से कहते हैं, "अर्जुन, जो पूरे तरीके से मुझमें भक्ति नहीं रखता, अगर तूने उसे इस गीता का ज्ञान दिया तो तुझे पाप लग जाएगा।"

तुम्हारे भीतर पहले आग तो उठे। उस आग में तुम्हारा जीवन ज़रा जले, ज़रा तपे, ज़रा निखरकर सामने तो आए। जीवन बचाए जाते हो, फ़िर कहते हो परमात्मा नहीं मिलता। जो ये तुम्हारे रोज़ के ढर्रे हैं, उनको बचाए जाते हो, फ़िर कहते हो परमात्मा नहीं मिलता। तुम्हें चाहिए कहाँ? तुम्हें टिंडा, तोरई चाहिए, वो मिल जाते हैं न? मिल रहे हैं तो खुश रहो, ‘परमात्मा-परमात्मा’ क्यों करते हो? जो चाहिए वो मिल रहा है, बढ़िया सब्ज़ी बनी है, धनिया और डालो, और बाजार में एक नया गरम मसाला आया है, वो खरीदकर लाओ। तुम इन सब चीज़ों की फ़िक्र करो, तुम कहाँ व्यर्थ के चक्करों में फँस रहे हो?

और अगर आग उठ रही है तुम्हारे भीतर तो फ़िर बात दूसरी है। तुम ऐसे हो जिसने टूटकर चाहा है और चाहकर टूटा है, तो फ़िर तुम्हारे पास परमात्मा के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा। जिन्होंने जीवन में कभी किसी व्यक्ति को, वस्तु को, लक्ष्य को, ध्येय को ही न चाहा हो, वो क्या परमात्मा को चाहेंगे? तुम्हें कभी किसी आदमी, औरत से भी प्यार हुआ है? तुम्हें परमात्मा से क्या प्यार होगा?

तुमने जिसकी ओर भी देखा है, उसको चीथड़े फाड़ने, भोगने के लिए ही देखा है। प्रेम तुम्हें कभी किसी से भी हुआ है, एक छोटे से बच्चे के लिए भी? मैं उसकी कसौटी बताए देता हूँ। जिसके लिए प्रेम होता है, आदमी उसका हित आगे रखता है और अपने आप को पीछे कर देता है, बड़ी ज़ाहिर सी बात है। ऐसा किया है? तेरा भला हो, उसमें भले हम मिट जाएँ, ऐसी भावना आई कभी?

ये सब लक्षण होते हैं परम सत्ता के। इसके बाद निराकार परमात्मा उठता है, क्योंकि अब साकार से लौ लगी तुम्हारी, साकार से प्रेम हुआ तुमको। साकार से प्रेम हुआ, दो बातें हुईं: पहली बात, प्रेम का अंकुर फूटा, दूसरी बात, निराश होओगे क्योंकि प्रेम साकार से हुआ है।

दोनों बातें एक साथ हुई हैं। तुम चल पड़े हो, लेकिन जहाँ को जा रहे हो, वो मंज़िल नहीं है। पर चलना तुमने सीख लिया है। किसी के लिए तो सही, तुम्हारे भीतर हसरत उठी। तुम में हसरत है? हसरत का मतलब समझते हो? कुछ ऐसा जो दीवाना कर दे, पागल कर दे कि इसको पाना है। तुम छोटी सी चीज़ के लिए भी पागल होते हो पाने के लिए? तुम यह भी कहते हो कि फलाना हीरा नहीं मिला तो पगला जाएँगे? तुम किसी भी चीज़ के पीछे कहाँ पड़ते हो शिद्दत से? तुम्हें तो हार मिलती रहती है जगत में और तुम पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। तुम कहाँ कहते हो कि जीतना है, और जीता नहीं तो जान चली जाए?

चाहे तुम खेल रहे हो, चाहे तुम लड़ रहे हो, चाहे तुम किसी काम में उद्यत हो, तुम कभी कहते हो कि ये काम, या ये इंसान, या ये विचार या कुछ भी लक्ष्य मुझे जान से ज़्यादा प्यारा है? ये जो बात होती है न कि 'जान से ज़्यादा प्यारा', ये परमात्मा की आहट होती है। अब तुमने देह से ऊपर कुछ समझा। अब तुमने तन-मन से ऊपर कुछ है, ये जाना; अब तुम कह रहे हो तन-मन देने को तैयार हूँ किसी के लिए। अभी जिसको देने के लिए तैयार हो, वो इस काबिल नहीं कि उसे दिया जाए। ये तुम्हें पता चल जाएगा उसको हासिल करने के बाद कि ये इस काबिल नहीं था कि इसको तन-मन सब सौंप दिए जाएँ। लेकिन तुम निकल तो पड़े न, तुमने ये जान तो लिया कि हसरत इतनी तगड़ी भी हो सकती है कि आदमी जान देने को तैयार हो जाए।

जब तक तुम्हें कुछ ऐसा मिला नहीं जिसके लिए जान दे दो, तब तक कहाँ तुम मुक्ति की बात करोगे? कबीर बार-बार बोलते हैं कि जब तक तुम्हें अभी प्राणों का मोह है, तुम मुक्ति-भक्ति की बात मत करो। प्राण कहाँ देना चाहते हो किसी भी चीज़ के पीछे? कौन सा ऐसा लक्ष्य है जिसके लिए तुमने अपनी रातों की नींद गंवा दी हो, तुमने कहा हो कि सोऊँगा ही नहीं। चार-चार घंटे सोऊँगा दिन के, पर पूरा करके दिखाऊँगा। महीनों तक, सालों तक जगा ही रहूँगा। कौन सा ऐसा लक्ष्य है जिसके पीछे तुमने कहा हो कि सब गंवा दूँगा पर तुझे पाना है? तुमने कहाँ मेहनत करी है? तपस्या परम मेहनत है, तुम छोटी मेहनत भी नहीं जानते।

अपने भीतर वो इन्द्रियाँ जाग्रत करो जो ले जाती हैं परमात्मा की ओर। पहली इंद्रिय की बात करी मैंने: प्रेम, तड़प, विरह, वैराग्य, अतृप्ति और असंतोष की आग। ऐसी ही एक दूसरी इंद्रिय है: विवेक।

तुम आलू खरीदने जाते हो, तुम्हें आलू, आलू में अंतर पता होता है? तुम नहीं जानते। तुम्हें आदमी, आदमी में अंतर पता है? तुम नहीं जानते। तुम्हें कपड़े, कपड़े में अंतर पता है? तुम नहीं जानते। तुम्हें बात, बात में, शब्द, शब्द में अंतर पता है? तुम नहीं जानते।

पहले संसार में काले और सफ़ेद के बीच भेद करना सीखो, तब तुम भ्रम और सत्य के बीच भी भेद कर पाओगे।

पहले संसार में तो भेद करना सीखो। तुम्हें पता है, कौन तुम्हारा दोस्त है, कौन तुम्हारा दुश्मन है? तुम्हें नहीं पता होता। तुम दुश्मनों को दोस्त बनाते हो, दोस्तों को आँख दिखाते हो। सच्चे-झूठे का दुनिया में तुम्हें कोई ज्ञान है? तुम्हें दुनिया में ही नहीं पता कि क्या सच्चा है, क्या झूठा। तुम पूरी दुनिया को परमात्मा के लिए कैसे झूठा ठहरा दोगे? परमात्मा की ओर जाना परम विवेक की बात है कि “पूरी दुनिया ही अनित्य है। जो एक है भरोसे काबिल, जो कभी धोखा नहीं देगा, जिसकी सत्ता सदैव है, अब मैं उसकी ओर चला।”

दुनिया में तमीज़ से जीना सीखो, ये तमीज़ ही तुम्हें परमात्मा तक ले जाएगी। तमीज़ माने कायदा, कायदा माने व्यवस्था, ऑर्डर * । परमात्मा वो जो हर प्रकार की सुव्यवस्था का कर्ता है। जहाँ कुछ भी सुव्यवस्थित देखना, कह देना कि ये परमात्मा का हाथ है, ये आदमी ने नहीं करा होगा। सुंदरता है तो परमात्मा का करा हुआ, सुव्यवस्था है तो काम परमात्मा का करा हुआ है। तुम अपने जीवन में किसी तरह की तो कुछ तो व्यवस्था लाओ, कुछ तो * ऑर्डरली लाओ। आने दो उसको, वो परमात्मा उतर रहा है।

ये मुझे बहुत अजीब बात लगती है कि ज़िन्दगी बिलकुल विक्षिप्त, एकदम अराजक, और हम बात करते हैं वहाँ की, सुदूर गगन की। ये क्या है? ये कैसे हो पाएगा? तुमको दुनिया ही नहीं समझ में आती, तुम्हें दुनिया के पार वाला कैसे समझ में आएगा?

कबीर ने इतनी बातें कही हैं, कहते ही रहे, कहते ही रहे, मैं बताता हूँ तुम्हें कि राम के बारे में जितनी बात कही हैं, दुनिया के बारे में उससे दो बातें ज़्यादा कही हैं। गौर से देख लेना, कबीर ने परमात्मा के बारे में जितनी बातें कही हैं, संसार के बारे में उससे दो बातें ज़्यादा कही हैं। मुक्ति के बारे में जितनी बातें कही हैं, माया के बारे में उससे दो बातें ज़्यादा कही हैं।

कबीर माया जानते हैं इसलिए मुक्ति की बात कर पा रहे हैं; कबीर संसार को जानते हैं इसलिए सत्य की बात कर पा रहे हैं। तुम माया को जानते हो? तुम माया को जानते नहीं, माया चढ़ी हुई है तुम्हारे ऊपर और ‘मुक्ति-मुक्ति’ तुम चिल्ला रहे हो। किससे मुक्ति? तुम्हें पता भी है तुम्हें किसने पकड़ रक्खा है? बस यूँ ही है, प्रचलित है, फैशन है मुक्ति बोलना। माया को जानो, तब न बोलोगे इससे मुक्ति चाहिए? माया को अपने घर बैठाते हो, माया को तो सीने से लगाए घुमते हो, फ़िर चिल्ला रहे हो ‘मुक्ति-मुक्ति’। जान तो लो; संसार को जान लो, सत्य की प्यास अपने आप उठेगी।

‘जानना’ बड़ा सुन्दर शब्द है, जानना, बोध। परमात्मा ही बोध है। संसार को जब तुम जान रहे हो तो परमात्मा के सामने झुके हुए हो। बिना परमात्मा के कुछ जाना नहीं जा सकता। परमात्मा वो तत्त्व है जिसके होने से समस्त बोध संभव हो पाता है। न दुनिया के बारे में पढ़ते, न आँख खोलकर देखते, न दुनिया में डूबते। कुछ होता ही नहीं है, तुम उबलते ही नहीं हो; गुनगुने से हो बस।

तुम जिसके पीछे भी भागते हो, जिसके नाम पर मरते हो, उसके बारे में तुम क्या जानते हो? तुम जिसके पीछे जान भी कई बारे देने को तैयार हो जाते हो, कहते हो, “पंखे पर आज ही लटकूँगा,” तुम उसके भी बारे में क्या जानते हो? नंबर कम आ गए, लटक जाऊँगा। बेरोज़गार हूँ, लटक जाऊँगा। इज़्ज़त चली गई, लटक जाऊँगा। कोई लड़की नहीं मिली, लटक जाऊँगा। तुम्हें इज़्ज़त का क्या पता, तुम्हें सफलता का क्या पता, तुम्हें शिक्षा का क्या पता, और तुम्हें लड़के-लड़की का क्या पता? तुम किसी भी चीज़ के बिलकुल करीब जाते ही नहीं।

आप पतियों-पत्नियों को देख लीजिए, दिल से दिल की बात नहीं कर पाते, बाकी सारी बातें कर लेंगे। बच्चों को देख लीजिए, माँ-बाप से बात नहीं कर पाएँगे, जाकर अपने दोस्तों को बता आएँगे। बच्चों के बारे में बच्चों के दोस्तों को बहुत पता है, माँ-बाप को कुछ नहीं। पति आएँगे, मुझसे कहेंगे ये बात है, ऐसा है, पत्नी को लेकर ये जटिलता, ये समस्या। और मैं विचारता हूँ कि ये बात इसने ऐसे ही पत्नी से ही बोल दी होती तो सालों से क्यों पिट रहा होता, क्यों रो रहा होता?

तुम देखो कितनी सारी बातें हैं जो तुमने करी नहीं, गिनों उनको। गिनों कि कितनी सारी बातें हैं जो होनी चाहिए थी लेकिन तुमने करी नहीं, क्योंकि बात करने के लिए निकटता बनानी पड़ेगी। और निकटता तुम्हारी किसी से भी बनी तो परमात्मा से भी बनेगी। तुम उसी से तो डरते हो, अहंकार उसी से तो खौफ खाता है। किसी व्यक्ति के भी बहुत निकट चले गए तो निकटता तो जान गए न, और निकटता अन्ततः परमात्मा के निकट ले जाएगी; मरना पड़ेगा। तुम किसी के करीब नहीं जाते, तुम सबसे दूर-दूर रहते हो। इसी को तो जीवन का सूनापन, अकेलापन कहते हैं, *लोनलीनेस*। हम किसी के भी करीब नहीं हैं।

तुमने अपनी माँ से, अपने बाप से कभी दिल खोलकर बात करी है? गिनों कितनी बातें हैं जो तुम सोचते हो, कभी करते नहीं। और दो-चार जाते हैं यहाँ से प्रेरित होकर, उत्साह लेकर, वो कर देते हैं तो भूचाल आ जाता है। फ़िर उनका सन्देश आएगा कि ये क्या हो गया? कभी कुछ बातें करने की नहीं होती, वो दबी रहें तो ज़्यादा अच्छा है।

एक लड़का था, रहा होगा बाइस-चौबीस साल का, तो ऐसे ही मैं कुछ बोल रहा था। वो जिस पृष्ठभूमि से आता था, वो पृष्ठभूमि ज़रा खुद्दार लोगों की थी, तगड़े लोगों की, मज़बूत लोगों की। उसके कुनबे-कुटुंब में तरलता को, प्रेम को, मिठास को बड़ा अपराध माना जाता था। कोई रो पड़े तो उसके पौरुष में कोई खोट होगी। तो आया, बैठा यहाँ पर, ये सब बात सुनी, फ़िर गया, उसने बाप को फ़ोन लगाया, कुछ बातें करी, वो बातें जो उसने कभी करी नहीं थी, साधारण बातें, पर बातें जो उसने कभी करी नहीं थी। और उसने सारी बातों के बाद बोल दिया, “पापा, ये बोलना चाहिए, कभी बोला नहीं, मैं तुमसे बड़ा प्यार करता हूँ।”

हरियाणा से पापा चार जीप भरकर भाई, ताऊ, चचे, दस-पंद्रह तो ताऊ थे, हरियाणा है न, उन सबके सब ने उसके कमरे पर धावा बोल दिया। एक पीजी में रहता था, रात में घुस गए, बोले, “ये आत्महत्या कर रहा है। ऐसा तो हमारे पूरे जिले में कभी किसी ने किसी को नहीं बोला। लानत है उस बेटे पर जो बाप को ‘आई लव यू’ बोल दे। बेटे ने बाप को कह दिया सीधे-सीधे कि प्यारे लगते हो। आऊँ, बैठूँ साथ में? घूमने चलोगे? चलो खेलें, तो दूरी मिट जाएगी न।”

रिश्ते का तो मतलब ही होता है: दूरी। बाप-बेटे के रिश्ते का मतलब होता है कि बाप, बाप की तरह रहेगा, बेटा, बेटे की तरह रहेगा। बस बन गई दूरी क्योंकि तय हो गई मर्यादाएँ, वर्जनाएँ बन गईं न उसी समय।

भीतर कोई बैठा है जो बेटे का भी वास्तविक सामीप्य बर्दाश्त नहीं कर सकता, वो परमात्मा का सामीप्य कैसे बर्दाश्त करेगा? एक हद से ज़्यादा जब तुम्हारे कोई करीब आने लगता है, तुमने देखा है तुम कैसे घबरा जाते हो? एक सीमा से ज़्यादा निकट किसी को नहीं आने दोगे तुम। परमात्मा कोई सीमा मानता नहीं तो इसीलिए तुम निकटता का काम ही बंद कर देते हो, छोड़ो।

तुम घोर प्रेमियों को देख लो, वो भी दूरी बनाकर रखते हैं, कुछ ऐसा है जो छुपाकर रखते हैं; एक नहीं होने पाते। हम तुमको अपनी छवि देंगे; अपना यथार्थ नहीं देंगे।

“अच्छा, अभी तुम कमरे से बाहर जाओ।” “क्यों?” “अभी मैं टाँगों की वैक्सिंग कर रही हूँ।” अब तू टाँगों की वैक्सिंग कर रही है, वो देख लेगा तो तू सोच कि तू क्या छुपाना चाहती है? तुम उसको छवि देना चाहते हो, तुम उसे स्वयं को नहीं देना चाहते। छवि को देने में अच्छा है न, उसे छवि मिल गई और तुम दूर रहे आए, निकटता का खतरा बचा। अब उसके मन में तुम्हारी प्यारी छवि है, 'चिकनी टाँगों वाली है मेरी प्रेयसी'।

“अच्छा, चलो बत्ती बंद कर दो।” “नहीं, बत्ती क्यों बंद कर दें?” ये सवाल पाँच सौ करोड़ का है, ‘बत्ती क्यों बंद करें?’ तुम अपना नग्न शरीर दिखाने में इतना लजाते हो, तुम अपनी आत्मा क्या दिखाओगे किसी को? और परमात्मा तो आएगा तो शरीर-वरीर एक तरफ, वो तो सीधे आत्मा में घुसेगा, वहीं पर संयोग करता है, वहीं मिलन होता है। तुम तो शरीर भी दिखाते लजाते हो, 'बत्ती बंद करो रे'।

जीवन पर ध्यान दे लो। ज़िन्दगी को देखो, हरकतों को, अपने वाक्यों को, प्रतिपल के अपने कर्मों को देखो। परमात्मा बड़ी बात नहीं है, मिल जाएगा। बहुत आसान है, सामने खड़ा है तैयार मिलने को, एकदम करीब; वो कोई चुनौती ही नहीं है। चुनौती दूसरी है, चुनौती है तुम्हारी तैयारी, चुनौती है तुम्हारी पात्रता। अपनी ज़िन्दगी को देखो, वहाँ से पात्रता तैयार होगी।

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