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लेख
सालाही सालाहि एती सुरति न पाईआ || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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सालाही सालाहि एती सुरति न पाईआ

-नानक

अनुवाद: बिना बोध के सराहने से सुरति न सधेगी|

वक्ता: उसका गौरव, उसकी गाथा, गा-गा कर भी, उसको जान नहीं पाओगे| क्या गौरव गा रहे हो? कौन-सी गाथा गा रहे हो? कैसे पता तुम्हें उसका गौरव? तुम, ‘तुम’ हो, और आमादा हो, ‘तुम’ रहने पर| वो, वो है| तुममें और उसमें, कोई नज़दीकी नहीं, कोई साम्य नहीं| तुम्हें क्या पता उसका गौरव? तुमने सुन लिया है, तुमने पढ़ लिया है| तुम कहते हो, ‘बड़ा प्यारा है’, तुम कहते हो, ‘वो बड़ा करुणावान है’ और दिल में, अस्तित्व के प्रति शिकायतें भरी हुई हैं| अस्तित्व के प्रति शिकायत है, तो तुम कैसे कह रहे हो कि वो करुणावान है? बताओ मुझे?

अगर उसकी करुणा होती, तो तुम खुश न होते? तुम स्वयं घोर कष्ट में हो, और उसका गौरव गा रहे हो| तो तुम क्या कर रहे हो? तुमने सुन भर लिया है कि गौरव गाना चाहिये उसका, और गौरव में भी, तुम उसका गौरव कुछ वैसे ही गा रहे हो जैसे संसार अपने नेताओं का गाता है, यश वंदना| तो तुम कहते हो, ‘तुझसे बड़ा कोई नहीं’, तुम कहते हो, ‘तेरा सिंघासन सबसे ऊंचा’, तुम कहते हो, ‘तेरा दरबार लगा हुआ है’|

तुम देख रहे हो ये सारी वही उक्तियां हैं जो तुम अपने राजाओं के लिये भी प्रयोग करते हो? तुम कहते हो, ‘दाता तेरे दरबार में आ रहें हैं’| दरबार? कैसा दरबार? ब्रह्म का दरबार? ज़मींदारों के दरबार होते हैं| तुम कहते हो, ‘हम तो तेरे द्वार के सेवक हैं’| ये तुमने फिर वही सामंती भाषा में बात की| या फिर, तुम कहना शुरू कर देते हो, ‘मैं तेरी सजनी हूं, तू मेरा प्यारा है’| ये तुमने फिर लौकिक भाषा में बात की| तुम कैसे गाओगे उसके गुण? तुम कैसे करोगे उसकी यश वंदना? तुम सिर्फ संसार जानते हो, और इस संसार के लक्षणों को परम पर भी आरोपित कर देते हो जैसे वो तुम्हारे संसार की कोई वस्तु हो| यही करते हो ना?

जो कुछ तुम्हें अपने लिये पसंद है, तुम सोचते हो कि वही उसे भी पसंद होगा| तुम्हें अपने लिये पसंद है कि कोई तुम्हारे पाँव छुए, तो तुम जा कर मूर्तियों के पाँव छू आते हो| तुम्हें अपने लिये जो भोजन पसंद है, वही जा कर तुम अपने देवताओं को चढ़ा आते हो| तुम्हें पसंद है कि कोई तुम्हारे सामने सिर झुकाए, तुम जा कर परम के सामने भी सजदा कर आते हो, यही तरीके हैं तुम्हारे उसका गुण गाने के| तुम्हें कैसे पता कि वो चाहता भी है कि तुम उसके गुण गाओ?

आदमी को तलाश होती है कि कोई उसकी यश वंदना करे| परम को क्या पड़ी है कि तुम उसके गुण गाओ या तुम उसके द्वार पर जा कर घंटी बजाओ, या तुम उसके नाम पर, व्रत और रोज़े रखो, या तुम उसके मंदिर बनाओ और चर्च बनाओ, और हर रविवार को वहां चले जाओ| तुम्हें कैसे पता कि वो ये सब चाहता है? और तुम्हें कैसे पता कि यही सब कुछ उसका गौरव है? तुम्हें कैसे पता कि गौरव जैसा कुछ होता भी है? तुम कब गाते हो उसका गुण? तुमने उसके भी लक्षण निर्धारित कर दिये हैं|

जैसे तुम समय में चलते हो, वैसे तुमने उसके भी दिन बना दिये हैं, जैसे वो दिन-दिन में भेद करता हो, तुमने दिशाएँ भी बना दी हैं| फलानी दिशा की ओर मुँह करके अर्ध्य चढ़ाना है, फलानी दिशा की ओर मुँह करके वंदना करनी है, फलानी दिशा में काबा है| कौन-सी दिशा है जहां वो नहीं है? पर ये तरीके हैं हमारे, उसकी आरती करने के| जय, जय, जय, जय, जय, जय, जय, जय…| तुम्हें क्या पता कि उसे बड़ा आनन्द मिल रहा है अपनी जय, जय सुन कर| किसकी जय, जय कर रहे हो? कुछ पता भी है? कुछ जानते भी हो?

नानक हमसे कह रहें हैं,’तुमने जीवन भर यही किया है, माथा टेका, घंटियां बजाई, द्वार खटखटाए, इनसे कुछ हो गया? कुछ पा गए? सुरति सिद्ध हुई? नहीं हुई ना? तो देखो कि तुम्हारी धारणाएँ ही उल्टी-पुल्टी हैं, कि तुम जो कर रहे हो, बेवकूफ़ी है| पर संतों ने सदा ही यही समझाया है कि ये सब न करो| कबीर कह गए हैं,

‘मोको कहां ढूँढे रे बन्दे मैं तो तेरे पास में, ना तीरथ में ना मूरत में ना एकान्त निवास में, ना मंदिर में ना मस्जिद में ना काबे कैलास में, मैं तो तेरे पास में बन्दे, मैं तो तेरे पास में ना मैं जप में ना मैं तप में ना मैं बरत उपास में

‘काबे कैलाश में नहीं हूं’| जब कह रहें हैं कबीर, ‘मैं काबे कैलाश में नहीं मिलूँगा तुझे’, तो क्या अर्थ है इसका? वो कह रहें हैं कि तुमने जो काबा बनाया, तुमने जो कैलाश बनाया, वो नासमझी से निकला है, न करो ये सब| जब बुल्लेशाह गाएं कि

मक्के गिआं गल मुकदी नाही, जिचर दिलों ना आप मुकाईऐ| गंगा गिआं गल मुकदी नाही, भावों सौ-सौ गोते लाईऐ|

तो सौ-सौ हज करी आइये, और सौ-सौ गोते खाइये, गंगा में मुक्ति नहीं मिलेगी| तो वो क्या कह रहें हैं? वो कह रहें हैं कि तुमने जहां सोच रखा है, सत्य वहां नहीं है| सत्य तुम्हारी सोच में है ही नहीं, और तुम्हारे तीर्थ, तुम्हारे तरीके, तुम्हारी पूजा, तुम्हारी अर्चना, तुम्हारी परिक्रमाएं, ये सब तुम्हारी हैं, रखो इन्हें| इनसे तुम्हें वो मिलेगा ही नहीं, किसी को नहीं मिला है| किसी को नहीं मिला|

समझ में आ रही है बात? बाहर को तो हम लगातार ही जाते ही रहते हैं, वही बीमारी है हमारी कि हम बाहर को गए| तीर्थ का अर्थ भी यदि यही है कि कहीं बाहर चले, तो हम अपनी बीमारी को ही और बढ़ा रहें हैं| सुनी-सुनाई बातों पर तो हम चलते ही रहते हैं, परम की बात भी यदि हमने सुनी-सुनाई ही की, तो हम बीमारी को और बढ़ा रहें हैं| क्या बीमारी है? सुनी-सुनाई पर चलना| सुनी-सुनाई- जो बाहर से आती है| क्या बीमारी है? लगातार बाहर को ही जाते रहना|

तो फिर जो नानक कह रहें हैं, ‘सुरति’, वो सुरति कैसे सिद्ध होगी? वो ऐसे नहीं सिद्ध होगी कि और सुन लिया, कि और बाहर को चले गये| वो सिद्ध ही ऐसे होगी कि बाहर जाने का काम रोक दिया, बंद कर दिया| तुमने बाहर जाना रोका नहीं कि तुम पाते हो, ‘तद आसीत’, वो लगातार विराजमान ही था| वो इंतज़ा र नहीं कर रहा था कि तुम उसका गौरव गाओ, उसकी कीर्ति गाओ, तब वो मिलेगा? वो मिला ही हुआ था| जैसे तुम्हारा प्रेमी, तुम्हारे बगल में बैठा हो, और तुम विरह के गीत गा रहे हो, और वो सिर पर हाथ रखकर बैठा हो कि तुझे गीत गाने से फुर्सत मिले, तो ज़रा देख ले, मैं यहीं पर हूं’|

एक बड़ी मज़ेदार कहानी है| इसकी शुरुआत होती है, आधी रात के बाद से| एक स्त्री बैठ कर अपने प्रिय को पत्र लिख रही है, चिट्ठी लिख रही है| और वो पूरी कहानी इसी बारे में है कि वो चिट्ठी में क्या-क्या लिख रही है| बड़ी गहरी, बड़ी मार्मिक पाती है| पात्र भावना और वेदना से भरा हुआ है, उसमें विरह के गीत हैं| मोमबत्ती का प्रकाश है, उसमें वो लिखे ही जा रही है, लिखे ही जा रही है, लिखे ही जा रही है, और उसके आँसूं गिर रहें हैं| और चिट्ठी में एक ही बात लिख रही है, ‘दूर हो, बड़ा कष्ट है| आ जाओ, आ जाओ, आ जाओ’| और कह रही है, ‘तुम पास होते तो ऐसा होता, कितना सुन्दर होता, जीवन में रस ही रस बरसता, आनन्द होता, मौज रहती|

लिखते-लिखते सुबह हो जाती है| सूरज की पहली किरणें आती हैं| वो देखती है रोशनी हो गई है, चारों तरफ से रोशनी आ रही है| देखती है, जिसको चिट्ठी लिख रही थी, वो सामने ही खड़ा हुआ था, रात भर वो सामने ही खड़ा रहा| जब उसकी तरफ देखती है, तो हंसता है और कहता है, ‘चिट्ठी लिखने से फुरसत मिले, तो ना मेरी ओर देखोगी? मैं तो यहीं खड़ा था| तो रुठती है, बोलती है, ‘बताया क्यों नहीं?’

तो वो बोलता है, ‘मैं बता भी देता, तो तुम सुन नहीं पाती, तुम इतनी व्यस्त हो| तुम्हारे लिये याद करना ही सब कुछ है, तुम्हारे लिये गीत गाना ही सब कुछ है| इतनी गहराई से तुम्हारा मन इससे जुड़ा हुआ है कि तुम मेरी आवाज सुनोगी भी कैसे? तो मैं इंतज़ार कर रहा था कि सुबह हो| तो मैं इंतजार कर रहा था कि सुबह हो, फिर देख लोगी, फिर दिखाई पड़ जाएगा’|

वो उपलब्ध है, और वो नहीं कह रहा कि मेरे गीत गाओ| जो तुम्हारे मन के केंद्र में ही बैठा हुआ है, जो हृदय में विराजमान है, उसको क्या पड़ी है कि भगवान की प्रार्थना करो? उसे तो भगवान होने से भी कोई मतलब नहीं है| वो बेमतलब है, वो बेपरवाह है| तुम उसे मालिक बोलते हो, तो भी खुश है, कुछ और बोल लो, तो भी उसे कोई अंतर नहीं पड़ता| पर खोजने में बड़े व्यस्त हो ना? तुम्हें तरीके पहले ही पता हैं, ऐसे खोजना है और वैसे खोजना है| वो सामने दिखता नहीं|

सूफी कहानी है, बड़ी प्रासंगिक है| वो ऐसी ही है| एक आदमी जाता है एक सूफी संत के पास| फ़क़ीर है, उसमें कुछ खास नहीं, कुछ विशेष नहीं| वो एक पेड़ के नीचे बैठा रहता था, चुपचाप, गांव के बाहर| तो वो आदमी उसके पास जाता है, बोलता है, ‘मुझे सच्चे गुरु की तलाश है| कैसे मिलेगा? कहां मिलेगा? कैसे जानूंगा कि यही सच्चा है?’ वो संत बोलता है, ‘रहने दे’| तो बोलता है, ‘नहीं’|

वो आदमी भी उसी गांव का रहने वाला, तो उसके पास रोज़ आए| तो उसने कहा, ‘ठीक है, बताए देता हूं’| उसने कहा, ‘वो तुझे ऐसे-ऐसे पेड़ के नीचे बैठा मिलेगा, इस-इस प्रकार की उसके बैठने की मुद्रा होगी, और ऐसे-ऐसे उसके रंग-ढंग होंगे| जो ऐसा हो, उसे मान ले कि वो तेरा सच्चा गुरु हो सकता है’|

कहते हैं, वो आदमी तीस साल तक खोजता रहा, तीस साल तक| तीस साल तक खोजता रहा, कुछ पाया नहीं| वो वापस आता है, तो उस बूढ़े संत को वहीँ बैठा पाता है| उसे देखता है, देखता है पेड़ वैसा ही, व्यक्ति वैसा ही, उसके रंग-ढंग वही, उसके हाव-भाव वही और मुद्रा वही| तो बोलता है, ‘तुम्हीं थे? तो पहले क्यों नहीं बता दिया?’ उसने कहा, ‘मैं तो बता देता, तुझे समझ नहीं आता| तू यकीन ही नहीं करता| तो ज़रुरी था कि तू खोजे| खोज, तुझे खोजने में ज़्यादा रस था| तूने तो खोज लिया, खोजने में फिर भी चलता-फिरता रहा, मेरी हालत सोच, मैं तीस साल से इसी पेड़ के नीचे, इसी मुद्रा में बैठा हूं कि पता नहीं तू कब वापस आ जाए’|

तो ऐसी हमारी हालत है| जो सामने है हम उसे खोजने निकलते हैं, और उसका यशगान करते हैं कि हम तुझे खोज रहें हैं, तू कहां है| निश्चित रूप से इस बेवकूफी से सुरति नहीं सधेगी| हमने, देखो ना, खुद ही कितने कांटे डाल रख्रे हैं अपनी राह में| एक ओर तो हम ये कहते हैं कि वो हमारे बड़ा करीब है, दूसरी ओर हमने ये सब भी कहते हैं कि वो फलाने आसमान पर बैठता है, कठिन साधना से मिलता है, बड़ी तपस्या से मिलता है| खासों में खास है’|

उसको क्या खास है? प्रत्यक्ष है, रूबरू है| ये जो लोग आरती कर रहे होते हैं, प्रसाद चढ़ा रहे होते हैं, कभी देखो इनको ध्यान से, ये क्या कर रहे हैं| इनके लिये जीवन रस्मों की एक रेखा है, सब कुछ एक रवायत है| सुबह उठना है, नाश्ता करना है, नहाना है, फिर प्रसाद चढ़ा देना है| इन्होंने कुछ जाना है? इन्होंने कुछ पाया है? इन्हें कुछ समझ आया है? किसी ने कुछ मन्त्र थमा दिये, किसी ने पूजा की विधियाँ थमा दीं, और किसी ने ये धारणा बैठा दी कि उसकी तारीफ करो, खुश हो जाएगा| फिर तो जितने चमचे किस्म के लोग हैं, चाटुकार हैं, उन्हें सबसे पहले मोक्ष मिलना चाहिये| उन्होंने तारीफ कर-कर के ही तो काम चलाया है| ईश्वर को चमचे नहीं चाहिये|

(सभी श्रोतागण हंस देते हैं)

श्रोता १: पात्र चाहिये|

वक्ता: और देखो कि चमचों की पात्रता इतनी-सी होती है, फिर बड़ा पात्र चाहिये| चमचों में वो कहां समाएगा?

(सभी श्रोतागण हंस देते हैं)

वक्ता: कभी देखना, वो पूरे के पूरे लेट जाते हैं, और ये उनकी अनन्य भक्ति है कि साष्टांग दंडवत और उठ ही नहीं रहे हैं| और इसको वो अपनी उपलब्धि मानते हैं| हमारी है कि हम तो हर मंगलवार को ये करते हैं| तुम क्या कर रहे हो? आओ बताओ, कर क्या रहे हो? कोई नंगे पैर. .(तभी मंदिर से घंटी के बजने की आवाज़ आती है)

(सभी श्रोतागण ज़ोर हंस से देते हैं)

श्रोता २: बज गई घंटी|

वक्ता: क्या कर रहे हो? कोई फलाने दिन पानी नहीं पी रहा है, कोई फलाने समय के बाद ही पानी पियेगा| कोई कह रहा है कि ये दिन आए तो ये पकवान बनाओ और उसका भोग लगाओ| तुम ऐसे साध लोगे ब्रह्म को? ऐसे, पूरी तल-तल के, और बिरयानी पका के कि रोज़ा तोड़ रहें हैं? ऐसे पा जाओगे उसको? आदमी की बेवकूफ़ी, ब्रह्म जितनी ही अनन्त है!

(सभी श्रोतागण फ़िर से ज़ोर से हंस से देते हैं)

वक्ता: इससे ज़्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता|

-‘बोध-शिविर’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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