आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
राम से दूरी ही सब दुर्बलताओं का कारण || आचार्य प्रशांत, श्रीरामचरितमानस पर (2017)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
11 मिनट
64 बार पढ़ा गया

तुलसी राम कृपालु सों, कहिं सुनाऊँ गुण दोष।

होय दूबरी दीनता, परम पीन संतोष।।

~ संत तुलसीदास

आचार्य प्रशांतः कृपालु राम के आगे अपने सारे गुण-दोष खोल कर रख दो, कह दो, सुना दो। इससे जो तुम्हारी दीनता है, जो तुम्हारी लघुता है, जो तुम्हारी क्षुद्रता है, वो दूबरी हो जाएगी, कम हो जाएगी, और जो तुम्हारा संतोष है, तुम्हारे भीतर जो तृप्ति का भाव है, पूर्णता का भाव है, वो पुष्टि पाएगा।

ये बात क्या है कि रामचंद्र के सामने दिल खोल कर रख दो, उनको अपनी सारी कथा सुना दो, अपना सारा सुख-दुःख सुना दो? बात क्या है?

बात बहुत सीधी-सी है। संसार आईना है। तुम द्वैत में जीते हो। परमात्मा भी जब उतर कर तुम्हारे सामने आता है, राम भी जब अवतार ले कर तुम्हारे सामने आते हैं, तो वो द्वैत की दुनिया में आ गए हैं, वो आईनों की दुनिया में आ गए हैं। और द्वैत की दुनिया का एक नियम होता है, आईनों की दुनिया का एक नियम होता है: तुम्हें वही दिखाई देता है जो तुम हो।

तुम राम के सामने अपनी असलियत खोल कर रख दोगे, तभी तो राम तुम्हारे सामने अपनी असलियत खोल कर रख पाएँगे। तुम राम के सामने खुलोगे नहीं, राम तुम्हारे सामने खुलेंगे नहीं – ये तो संसार का नियम है। और जब राम तुम्हारे सामने आए हैं तो संसार के हिस्से बन गए; संसार का आधार, संसार का हिस्सा बन कर तुम्हारे सामने आता है। अब और वो क्या करेगा? लेकिन अवतार भी जब तुम्हारे सामने आता है तो यदा-कदा ही तुम्हें समझ में आता है। क्यों? यदा-कदा ही क्यों?

वो राम हैं, ये तुम्हें नज़र आए, इससे पहले तुम्हें खुलना होगा। उसका भेद खुल जाएगा तुम्हारे सामने, जब तुम अपना भेद खोल दोगे।

ये थोड़ी अजीब-सी बात है।

आप भक्त हो जाओ, भगवान प्रकट हो जाते हैं।

वरना भगवान भी सामने खड़े हैं और तुम उनके पाँव में नहीं गिरे, तो वो प्रकट कहाँ हुए तुम्हारे लिए? तुम्हारे लिए तो कुछ नहीं रहे।

तुम खुल जाओ, तुम बता दो कि, "मैं तो गिरने ही योग्य हूँ," वो खुल जाएँगे। राम हों तुम्हारे सामने तो एक ही फिर तुम्हारा कर्तव्य बचता है कि—अपने और उनके बीच ये जो दीवार बन कर ‘तुम’ खड़े हो, अपने-आपको हटा दो, हट जाओ।

जानते हो ये जो बीच की दीवार है, ये क्या है? ये तुम्हारा व्यक्तित्व है, ये तुम्हारी धारणाएँ हैं, ये तुम्हारा मन है। इसी को अहंकार बोलते हैं, इसी को जड़ मूर्खता बोलते हैं। एक दीवार में, चारदिवारी में अपने-आपको हमने क़ैद कर रखा है। उसके बाहर कोई खड़ा भी हो तो तुम्हें दिखेगा कैसे?

सामने वाले को, बाहर वाले को देखने का प्रयास छोड़ दो। तुम तो इस दीवार को गिरा दो जिसको तुमने नाम दे दिया है अपने व्यक्तित्व का, अपने कवच का, अपने आवरण का, अपने ‘मैं’ का। हटाओ इसको, राम दिख जाएँगे।

इसको हटाते ही दो चीज़ें हुई हैं, क्या? तुम नकली नहीं रहे। भीतर का राम प्रकट हो गया, अनावृत हो गया, बाहर का आवरण हटा दिया। बाहर का आवरण हटा दिया, भीतर का राम प्रकट हो गया। और गिरा आवरण, गिरी दीवार, तो बाहर का राम भी प्रकट हो गया। यही भक्त का काम होता है। तुलसी की बात बहुत बड़ा इशारा है।

तुलसी राम कृपालु सों, कहिं सुनाऊँ गुण दोष।

सब बता दो: किसको अपना गुण मानते हो, किसको अपना दोष मानते हो। जिसको अपना गुण मानते हो, वहाँ भी तुम्हारा अहंकार पुष्टि पाता है; जिसको अपना दोष मानते हो, वहाँ भी तुम्हारा अहंकार पुष्टि पाता है। सब कह डालो। कहना ही स्वीकार बन जाएगा, स्वीकार ही समर्पण बन जाएगा। जानते सब कुछ हो, सब कह डालो।

इधर तुम कहते जाओगे, उधर जो सुन रहा है वो बदलता जाएगा, क्योंकि उसको देखने वाली तुम्हारी दृष्टि बदलती जाएगी। यही वजह है कि जो किसी के लिए भगवान होता है, बहुत सारे दूसरों के लिए साधारण इंसान होता है। भगवान उसके लिए है जो उसके सामने भक्त हो गया। साधारण इंसान उनके लिए है, जो उसके सामने भी विभक्त रहे आए, अपने में ही रहे आए, आपे में ही इतराते रहे।

"जितना अपनी दीनता बताते जाओगे, उतनी वो दुबली होती जाएगी," तुलसी कह रहे हैं। हम तो सोचते हैं कि जितना छुपाएँगे, उतनी वो छुपी रहेगी। वो कह रहे हैं, "जितना बताओगे वो उतनी दुबली होती जाएगी"। ज़रूर कोई बात है।

कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जो सिर्फ़ छुपे-छुपे में ही प्रश्रय पाती हैं। उन्हें खोल दो, उन्हें ज़रा धूप दिखा दो, वो मर जाती हैं, धुआँ हो जाती हैं। तुम्हारे मन की कोठरी में भी जो भरा हुआ है, उसको ज़रा धूप दिखाने की ज़रूरत है। जैसे साल भर से संदूक में बंद रजाईयाँ; गृहिणियाँ उनको जाड़े से पहले धूप दिखाती हैं। धूप दिखा दो बस, काम हो जाएगा। प्रकाश पड़ते ही बहुत कुछ ऐसा है जो अपने-आप बस छूमंतर हो जाता है—गया, कुछ था ही नहीं उसमें। बंद था संदूक में इसलिए ये भ्रम देता था जैसे कीमती हो; बाहर निकाला, ज़रा बाहर रखा, फट गया।

तर्क दोनों ओर चलता है, समझिएगा। एक तो ये होता है कि जो कुछ क़ीमती होता है उसको संदूक में रखा जाता है ताला दे कर, और दूसरा ये होता है कि जो कुछ संदूक में रख दो ताला दे कर, समय के साथ वो अपने कीमती होने का भ्रम दे देता है। हम अक्सर इस दूसरे भ्रम के शिकार पड़ जाते हैं। बहुत कुछ ऐसा जो आपने कभी किसी से कहा न हो, वो सिर्फ़ इस कारण बड़ा क़ीमती हो जाता है, बड़ा मूल्यवान हो जाता है, स्मृति में अपनी जगह बना लेता है, क्योंकि आपने कभी किसी से कहा नहीं।

अब कहा तो जो हार्दिक है उसको भी नहीं जाता, जा नहीं सकता। आपका जो परम प्रेम है, वो बयाँ नहीं किया जा सकता। "जे जानत ते कहत नाहीं, कहत ते जानत नाहीं।" एक ओर तो ये बात है, जो कुछ आपके हृदय की गहराईयों में हीरे की तरह, आत्मा की तरह, प्राण की तरह बैठा हुआ है, उसका आप भीड़ के सामने ऐलान नहीं करते, ज़िक्र यूँ ही नहीं कर देते। दूसरी ओर ये बात भी सही है कि किसी बात को आप व्यर्थ ही पकड़ लें, और पकड़ करके उसको अकथनीय का दर्जा दे दें, तो उस बात को आपने परमात्मा ही जैसा मूल्य दे दिया क्योंकि मात्र परमात्मा है जिसकी बात न करनी चाहिए, न सुननी चाहिए। आपने और कुछ छुपा लिया, और कुछ बड़ा बना लिया, तो आपने उसको बड़े का दर्जा दे दिया न।

और बड़ा कौन है? परमात्मा। बाकी सब तो हल्की बातें हैं, उनको तो हल्के में उड़ा देना चाहिए।

दस साल पहले आप बाज़ार में पिट गए थे। और गनीमत ये थी कि किसी ने आपको पिटते हुए देखा नहीं। आपकी मित्रमंडली में से, आपको जानने वालों में से, परिवारजनों में से किसी ने देखा नहीं। आप उस बात को सीने से लगाए घूम रहें हैं। पिटे भद्दा थे, तबीयत के साथ धुलाई हुई थी आपकी बिल्कुल, और आप उसका कहीं ज़िक्र नहीं कर पाए। उससे भला तो ये होता कि किसी ने देख ही लिया होता।

ज़िक्र न करके आपने उस बात को इतनी कीमत दे दी है, इतनी क़ीमत दे दी है कि अब वो बात भगवान तुल्य हो गयी है। जाइए और हल्के में उस बात को खोल दीजिए, “हाँ-हाँ, हुआ था, बहुत पिटे थे। आज भी निशान हैं। वो जो टैटू बनवाया था वो यूँ ही थोड़ी बनवाया था, वो निशान छुपाने के लिए बनवाया था।" आधे से ज़्यादा लोग इसीलिए बनवाते हैं।

जो चीज़ प्रकट कर देने लायक ही है, उसको प्रकट कर देने से वो अपने उचित मूल्य को प्राप्त हो जाती है। और मन का बोझ हटा नहीं कि हल्कापन आ ही गया, मौजूद ही था। उसी हल्केपन की मौजूदगी के एहसास को तुलसी कह रहे हैं कि — संतोष की पुष्टि हो जाती है।

संतोष तो स्वभाव ही है, पूर्णता तो स्वभाव ही है। उसके ऊपर ज़बरदस्ती बिठा दें आप अपूर्णता को, वो आपकी मर्ज़ी है। अपूर्णता बड़ी मेहनत की चीज़ है। और मेहनत आप हमेशा कर भी नहीं पाते हैं। इसलिए कई बार अपने भरसक प्रयत्न के बावजूद आप पूर्ण महसूस कर ले आते हैं। और तब आप बहुत बिदकते हैं, तब आप कहते हैं, "ये देखो! ये सेंध लग गयी। हम तो पूरी कोशिश करके बैठे थे कि पूर्णता नाम का चोर कहीं घुसे न हमारे घर के भीतर।" और अचानक आ गया मौज का कोई पल, अचानक मिल गया कोई ऐसा जिसने मस्त ही कर दिया, और उस मस्ती में भूल ही गए कि हम तो कितने लध्धड़ हैं, हीन, टुच्चे। पंद्रह मिनट को भूल गए थे कि हम टुच्चई को बिल्कुल बाँध के चलते हैं अपने साथ। पंद्रह मिनट बाद जब याद आया तो ऐसी नाराज़गी उठी अपने ऊपर कि पूछो मत। "पंद्रह मिनट के लिए टुच्चई छूट कैसे गयी? पंद्रह मिनट के लिए ये भूल कैसे गए कि हमें दुनिया से खफ़ा-खफ़ा रहना है?" उन पंद्रह मिनटों का फिर बदला निकाला जाता है दो-चार महीने तक, प्रायश्चित किया जाता है। ये तो बेवफ़ाई हो गई न अपूर्णता की देवी के साथ! तो बेवफ़ाई का फिर प्रायश्चित होता है और ज़हर के साथ।

तुम्हारी ज़िंदगी में ऐसा कुछ भी नहीं है जो बहुत बड़ा हो, ठीक है न? होगा बहुत बड़ा, तुम मरोगे, तुम्हारे साथ मर जाएगा। कितना बड़ा था? तुम्हारा जितना आकार है, तुमसे बड़ा तो नहीं था न? तुम चिता में जलोगे, वो भी जल जाएगा। तुम जिस बाज़ार में पिटे थे, तुम तो मरोगे ही, वो बाज़ार भी मर जानी है। अब बताओ कितनी बड़ी घटना थी? क्या छुपाए-छुपाए घूम रहे हो? तुम्हारे साथ कुछ भी ऐसा हो ही नहीं सकता जो बड़ा हुआ हो, पर तुम यूँ घूमते हो, "तुम्हें क्या पता मेरे साथ क्या हुआ है?" हुआ क्या था? इन्हें तिलचट्टा काट गया था।

कभी बच्चों का शिविर लगा था, वहाँ रात में एक बिल्कुल घिघिया के रोए। मैनें कहा, “सपने मुझे आते नहीं, ये कैसे होने लग गया सपने में?” फिर पता चला कि सही में रो रहा है। तो वहाँ जाकर देखा कि बात क्या है। कुछ नहीं, उसके कमरे में दूर एक मकड़ा था। (एक स्वयंसेवक की ओर इशारा करते हुए) याद है आपको? फिर उसका रोना बंद हुआ तो उसका बड़ा भाई रो रहा है। वो क्यों रोया था? उसे क्या दिख गया था? कुछ और। अब ये बड़ी बातें हैं जिनके लिए आर्तनाद किया जा रहा है।

मीरा क्या रोईं? बुल्लेशाह क्या रोए? कबीर क्या रोए? ये रो रहे हैं, "मकड़ा!" वैसे ही आप रोते हो। लाल कच्छा ख़रीदने गए थे, गुलाबी मिल गया! अब ये बात दिल पर धब्बे की तरह बिल्कुल जम गयी है, हट नहीं रही है। बीवी ले के आए, उसके चौतीस दाँत हैं, दो वो छोड़ने को राज़ी नहीं!

ये सब मज़ाक की बातें नहीं हैं। कितने लोगों से मिलता हूँ, उनके मन पर बीसों-पच्चीसों साल पहले की घटनाओं के जो ठप्पे हैं, मिट ही नहीं रहे। किसी को बचपन में कुत्ते ने काट लिया, वो आज तक चूहे से भी डरता है। किसी को बचपन में कुत्ते ने नहीं काटा, उसे बड़ा अफ़सोस है—“मुझमें क्या बुराई थी?”

हल्के हो जाओ, सब बक दो। जिसके ही सामने तुम निश्चिंत होकर के सब उड़ेल दो, सब बक दो, उसी को जान लेना कि तुम्हारे लिए राम है। अवतारों की कोई कमी थोड़ी ही है।

कौन-कौन से राज़ दफ़न हैं इस चुप्पी के पीछे? उफ़! क्यों नहीं खुलती है आवाज़? क्या है ऐसा विशाल, क़ीमती?

"कह दूँ तुम्हें या चुप रहूँ, दिल में आज मेरे क्या है।"

और क्या होगा? चूमना होगा, चाटना होगा, और क्या करोगे? पर भूमिका ऐसी बाँध रहे हो जाने पता नहीं हिमालय हिला दोगे!

प्र: पर खुलना सबके सामने है या सिर्फ़ आपके सामने?

आचार्यः जहाँ तुम खुल सको। जहाँ तुम खुल सको उसी जगह को सही जानना। हर जगह तुम खुल ही नहीं पाओगे। एक आता है मौका जब भीतर कुछ होता है, जान जाता है कि यहाँ बात हो सकती है, बस उस मौके पर तुम मत चूक जाना, तुम मत दीवार बन कर खड़े रह जाना।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें