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लेख
पुरुष और स्त्री का मूल संबंध || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2017)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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खसम उलटि बेटा भया, माता मिहरी होय।

मूरख मन समुझै नहीं, बड़ा अचम्भा होय।।

~ कबीर साहब

आचार्य प्रशांत: कर्म, कर्म का केंद्र, कर्म का स्वामी, कर्मफल—समझेंगे इनको।

खसम उलटि बेटा भया

'खसम' का अर्थ हुआ जिसको तुमने स्वामी का स्थान दिया, और 'बेटा' हुआ स्वामी को स्वामित्व देने का फल। जिसको पति बनाओगे, उसी के केंद्र से अब बेटा पाओगे। तुम वो कर्ता हो जो किसी को अपना 'करतार' घोषित करता है। 'करतार' माने परमकर्ता, स्वामी। तुम अपने आप को छोटा-सा कर्ता मानते हो। तुम किसी को अपने ऊपर छा जाने का मौका दे देते हो, किसी को अपना करतार बना लेते हो। अब वो केंद्र हो गया है तुम्हारा। अब वो मालिक हो गया है तुम्हारा।

जब हम कहते हैं न कि - "तुम किस केंद्र से काम कर रहे हो, ये देखना आवश्यक है," तो दूसरे शब्दों में वो यही बात है कि तुम किसको मालिक बना करके काम कर रहे हो, ये देखना आवश्यक है। केंद्र ही मालिक होता है। जहाँ से तुम शुरू कर रहे हो, जिसकी आज्ञा तुम बजा रहे हो, वही मालिक है। और फिर उस केंद्र से तुम जो करते हो, उसका फल निकलता है। कैसे जानो कि तुम जो कर रहे हो वो ठीक है या नहीं? कैसे जानो कि तुम जिसके सामने झुके हो वो झुकने लायक है या नहीं? युक्ति सीधी है। युक्ति ये है कि यदि तुम्हारे कर्म से कोई फल आता हो, यदि तुम्हारे कर्म से कोई बेटा आ जाता हो, तो जान लेना कि तुमने जिसको स्वामी, करतार, केंद्र बनाया, वो ग़लत था। उचित कर्म वही है जिसका कर्मफल ही ना हो।

उचित कर्म तभी होगा जब कर्ता सही केंद्र पर विराजमान हो; जब कर्ता उचित हो। उचित कर्ता कौन है? जो परमकर्ता को समर्पित हो। उचित कर्तृत्व यही है कि तुम 'अकर्ता' बन जाओ और अपनी डोर परम करतार को दे दो। यही तो होता है सही केंद्र।

बात ज़्यादा गूढ़ हो रही है। समझ में नहीं आ रही है? हाँ या ना?

प्रश्नकर्ता: आ रही है।

आचार्य प्रशांत: जो भी कर्म करते हैं, किसी केंद्र से करते हैं। केंद्र माने "मैं कुछ हूँ,” ये मानकर करते हैं। हर कर्म के पीछे एक धारणा बैठी होती है। वो धारणा क्या बोलती है? "मैं कुछ हूँ।" उदाहरण के लिए―यदि मैं माँ हूँ तो मेरा कर्म क्या होगा? बच्चे की देखभाल। उदाहरण के लिए―यदि मैं व्यापारी हूँ तो मेरा कर्म क्या होगा? व्यापार और मुनाफ़ा। उदाहरण के लिए―यदि मैं लड़ाका हूँ तो मेरा कर्म क्या होगा? लड़ाई करना। ठीक है? बात समझ में आई? तो आप जो भी कर्म करते हो वो किसी को स्वामी मानकर करते हो, अपने आप को कुछ मानते हो, और आपने अपने आप को जो भी माना, उसमें कोई विषय शामिल होता है न जो आपको परिभाषा दे रहा होता है? जब आप कहते हो कि, "मैं माँ हूँ," तो आपने किसको स्वामी बना दिया है? ममत्त्व को, मातृत्व को। आप जिसको भी स्वामी बनाएँगे, उसके साथ आप के संबंध के फलस्वरुप कोई फल ज़रूर आएगा। उसी को कबीर साहब कह रहे हैं - "बेटा"। संबंध के फल को ही तो बेटा कहते हैं न? संबंध जुड़ा और फल निकला, वो बेटा है। जहाँ कहीं भी फल निकले, जान लेना संबंध गड़बड़ था। अंतर नहीं पड़ता कि फल मीठा है कि कड़वा है, फल यदि आया तो जान लेना कि संबंध गड़बड़ था।

परमात्मा अकेला पति है जो संतान नहीं पैदा करता। इस मामले में कुरान बड़ा साफ वक्तव्य देती है। वो कहती है - "ना वो किसी से आया है, ना उससे कोई आता है।" तमाम धर्मों में ये अवधारणा है कि सत्य पिता है। कुरान इस अर्थ में बड़ा सटीक और बड़ा स्पष्ट वक्तव्य देती है, वो कहती है - "ना! तुम ये भी मत कह देना," जैसा जीज़स ने कहा था, कि - "मैं अपने पिता से आ रहा हूँ।" तुम उसके पैगंबर हो सकते हो, उसके पुत्र नहीं। बात समझ में आ रही है?

तो वो जो वास्तविक पिता है, जो परमपिता है, उसके साथ जब तुम जोड़ते हो तो कोई फल नहीं आता, कोई बेटा नहीं आता, कोई उसका बेटा होता नहीं, कोई पुत्र उसका होता नहीं।

तो सही संगति तुम्हारी हो रही है या नहीं, ये जाँचने का तरीक़ा यही है: उस संगति के कारण ऐसा तो नहीं कि और फल लगते जा रहे हैं तुम्हारे जीवन में। फल लगने का मतलब हुआ कि भविष्य तैयार होता जा रहा है। फल लगने का मतलब हुआ कि प्रकृति की श्रृंखला आगे बढ़ती जा रही है। उसके साथ जुड़ो जो तुम्हें निष्फल कर दे। अब 'निष्फलता' हमारे लिए ज़रा डरावना शब्द होता है न? नहीं। अध्यात्म की सुनो, सत्य की मानो, तो निष्फलता से अच्छा शब्द कोई नहीं होता। निष्फलता का अर्थ होता है - 'भविष्य से मुक्ति', क्योंकि फल तो भविष्य में होता है। निष्फल होने का अर्थ हुआ कि उसने तुम्हारा भविष्य समाप्त कर दिया। उससे जुड़ो जो तुम्हारा भविष्य बिल्कुल चौपट कर दे।

अब ये बात कितनी ख़तरनाक हो जाती है। पर जिन्होंने जाना है उन्होंने तुम्हें यही समझाया है कि, जो तुम्हारे भविष्य की कल्पनाएँ, सपने, धारणाएँ ख़त्म कर दे, छीन ले, उससे जुड़ना। उससे मत जुड़ना जो तुम्हें और भविष्य तैयार करके दे दे। सांसारिक रुप से तो तुम जिस पति के साथ जुड़ते हो, वो जुड़ने के साल-दो साल के भीतर हीं तुम्हें थमा देता है भविष्य—किलकारियाँ भरता हुआ भविष्य। बच्चा और क्या होता है? बच्चा माने भविष्य। परमात्मा के साथ जुड़ोगे तो भविष्य छिन जाएगा; संसार के साथ जुड़ोगे तो भविष्य गोद में आ जाएगा। अब उसे पालो-पोसो बड़ा करो; मुक्ति नहीं मिलेगी। बात आ रही है समझ में?

यही समझा रहे हैं कबीर साहब - "खसम उलट बेटा भैया"। तुम जब किसी ग़लत पति के साथ जुड़ जाते हो तो वो तुमको दंडस्वरूप बेटा मिल जाता है, और परमात्मा के साथ जुड़ने का, परमात्मा को पति का स्थान देने का लाभ ही यही होता है कि वो तुम्हें बेटा नहीं देगा। जो परमात्मा का पति रूप में वरण करते हैं, उन्हें सौभाग्य ये मिलता है कि फिर उन्हें बेटे नहीं मिलते, और जो परमात्मा के अतिरिक्त किसी और को पति बना लेते हैं, उनको दंड ये मिलता है कि उन्हें बेटे मिल जाते हैं, भविष्य मिल जाता है, कर्मफल मिल जाता है। अब किया है ऐसा कर्म तो भुगतो कर्मफल।

बात आ रही है समझ में?

" खसम उलट बेटा भया " - तुम जिसको खसम बना रहे हो, वही अब बेटा बनकर सामने आ गया है; कर्म ही कर्मफल के रूप में सामने आ गया है।

किसको पति बनाना है? जो तुम्हें फलों से, फलों के प्रभाव से, और फलों की इच्छा से शून्य कर दे। जो तुम्हारे भीतर फल की इच्छा और बलवती कर दे, जो तुम्हारे भीतर भविष्य की कामनाएँ भर दे, उसी को कहते हैं 'कुसंगति'। कुसंगति यही करेगी, वो तुम्हारे भीतर भविष्य की कामनाएँ खड़ी कर देगी। कामनाएँ होती ही भविष्य की हैं। बात आ रही है समझ में?

" माता महरि होय " - माता, पत्नी। ये बात भी समझने जैसी है। तुम जहाँ से आए हो, वहीं तुम्हें जाने की भूख है। अगर इसको सूक्ष्मतम रूप से और शुद्धतम रूप से समझ लिया तो तुम कहोगे कि - "मैं परमात्मा से आया हूँ और मुझ में परमात्मा तक ही जाने की भूख है।" मैं कहाँ से आया हूँ? अगर चित्त शुद्ध है तुम्हारा, तो पूछूँगा तुम से कि - "कहाँ से आए हो?," तो तुम क्या कहोगे? "मैं परमात्मा से आया हूँ।" तो फिर मैं पूछूँगा - "भूख किसकी है तुम्हें फिर?” तो तुम क्या जवाब दोगे? "परमात्मा की ही भूख है।" लेकिन यदि चित्त शुद्ध नहीं है तुम्हारा, तो फिर यही सत्य विकृत होकर के जानते हो क्या रूप ले लेगा? बात तब भी यही रहेगी कि जहाँ से आए हो तुम वहीं जाना चाहते हो, उसी की भूख है तुम्हें, उसी की हवस है तुम्हें। तब तुम कहोगे - "मैं योनि से आया हूँ और इसीलिए मैं योनि में ही वापस जाना चाहता हूँ।" यही कामवासना है। तुम गर्भ से निकले थे एक दिन, योनि मार्ग से, और उसी गर्भ में तुम वापस जाना चाहते हो, इसीलिए स्त्री के शरीर के लिए, इसीलिए योनि के लिए इतना तड़पते हो। वास्तव में तुम्हें शरीर की भूख नहीं है, भूख तुम्हें परमात्मा की है। गर्भ से पूर्व जो है वो परमात्मा है, तुम्हें वहीं वापस जाना है। पर वहाँ तुम वापस जा नहीं पाते। वहाँ वापस जाने के लिए एक शुद्धि चाहिए, एक सूक्ष्मता चाहिए। तुम स्थूल बने रहना चाहते हो, तुम देह धारण किए रहना चाहते हो, और तुम इतनी बड़ी देह धारण किए हुए वापस उसी बिंदु तक जाना चाहते हो जहाँ से आए थे। इतनी बड़ी देह उस बिंदु तक पहुँचेगी कैसे? तो तुम्हारे सारे यत्न असफल जाते हैं। तुम बार-बार वयस्क हो जाने के बाद भी स्त्री के गर्भ में प्रवेश करने की चेष्टा करते हो। उसी चेष्टा का नाम है काम-क्रीड़ा, वही संभोग है। वो और कुछ नहीं है।

मनोवैज्ञानिकों से पूछो तो वो कहेंगे कि हर पुरुष के मन में गर्भ की विश्रांति पाने की, गर्भ की शांति पाने की गहरी इच्छा होती है। तुम्हारे जीवन में सुकून के उससे गहरे क्षण नहीं थे जब तुम गर्भ में थे। तब मात्र अंधेरा था; कोई कर्तव्य नहीं, कोई ज़िम्मेदारी नहीं, कोई पीड़ा नहीं, कोई हलचल नहीं। तुम थे और तुम्हारे चारों ओर सुरक्षा की दीवार थी। उसी दीवार के मध्य तुम्हें बिना प्रयत्न के पोषण मिल रहा था। अब बाहर निकलते ही हाथ-पाँव चलाने पड़ते हैं, कर्ता बनना पड़ता है, भोजन भी जुगाड़ना पड़ता है। कामवासना के मूल में तुम्हारा दुःख है। तुम्हें अच्छा ही नहीं लगता संसार में जीना माँ के बिना। तुम्हें भाता ही नहीं है कि तुम गर्भ से बाहर आए ही क्यों। तुम छटपटाते हो गर्भ के उन्हीं शांत दिनों को दोबारा पाने के लिए। तो तुम लिंग का उपयोग करके योनिमार्ग से दोबारा गर्भ में प्रवेश करना चाहते हो। तुम कैसे प्रवेश कर लोगे? इतनी बड़ी तुमने देह धारण कर रखी है। प्रवेश तो तुम नहीं कर पाते। हाँ, प्रवेश के प्रयत्न के फलस्वरुप तुम अन्य जीव और पैदा कर देते हो।

पत्नी वास्तव में माता का ही रूप होती है, इसीलिए तुम पाते हो कि विवाह के, साथ के कुछ ही वर्षों बाद पत्नी करीब-करीब माता जैसा व्यवहार शुरु कर देती है क्योंकि तुम हो ही पुत्रवत उसके लिए। हर स्त्री मूल में माँ है और स्त्री के साथ तुम्हारा संबंध कुछ ही समय बाद हो पुत्र का ही जाना है। जैसे छोटा बच्चा माँ के स्तनों को लालायित होकर देखता है, वैसे ही तुम भी तो पत्नी की देह को देखते हो। पत्नी भी फिर धीरे-धीरे माँ का ही रूप, माँ के ही हक़, माँ के ही कर्तव्य, सब उठा लेती है। बात आ रही है समझ में?

जब कबीर साहब कह रहे हैं, "माता महरि होय," तो वो तुमको यही बता रहे हैं कि ये जो तुमने सांसारिक स्त्री कर रखी है, इसको गौर से देखो, इसके और अपने संबंध की हक़ीक़त को पहचानो। तुम जितनी बार अपनी पत्नी की ओर बढ़ते हो, वास्तव में तुम बढ़ना परमात्मा की ओर चाहते हो। तुम जितनी बार 'कामवासना' में उद्यत होते हो, वास्तव में तुम उद्यत 'राम' में होना चाहते हो। तुम्हारी नियत ठीक है, बस एक कमज़ोरी है, एक कमी रह जाती है। कमी क्या रह जाती है? कि तुम देह धारण किए-किए, देहभाव को पकड़े-पकड़े राम में जाना चाहते हो, गर्भ में जाना चाहते हो, शुरुआत तक जाना चाहते हो।

गर्भ का मतलब है 'आदि'; गर्भ का मतलब है 'शुरुआत'। 'शुरुआत' का मतलब है वो स्थान जहाँ से सब आया। वो जो प्रथम है, वो जो परमात्मा है, उसी के लिए दूसरा नाम है 'गर्भ'। परमात्मा महागर्भ है, क्योंकि उसी से सब पैदा हुआ है।

जिसने ये देख लिया कि क्यों वो इच्छाओं में पड़ा रहता है, जिसने ये देख लिया कि उसकी समस्त इच्छाएँ, समस्त वासनाएँ वास्तव में परमात्मा की ही इच्छा है, तो फिर वो कहता है कि - "जब मुझे परमात्मा ही चाहिए वास्तव में तो फिर मैं इन छोटी-मोटी इच्छाओं में क्यों उलझा हुआ हूँ?"

'काम' को जानना ही वैराग्य है। और जिसने काम को जान लिया, वो राम में स्थापित हो गया। जिसने काम को जाना नहीं, वो जीवनभर काम में ही उलझा रह जाएगा। काम को जानने का ही प्रतीक ये हुआ है कि भारत में सन्यासियों ने हर स्त्री को माँ पुकारा है, क्योंकि उन्हें पता है कि पुरुष का और स्त्री का एक ही संबंध होता है कि―पुरुष स्त्री में माँ को ही तलाश रहा है। भले ही वो स्त्री को पत्नी बना ले, लेकिन फिर भी वो उसमें तलाश माँ को ही रहा है। तो फिर संन्यासी कहता है, "जब माँ को ही तलाश रहा हूँ, तो सीधे ही छोटी भी स्त्री हो, बच्ची भी हो, तो उसके सामने हाथ जोड़ करके कहूँ - "माँ!” एक दस साल की कन्या होगी, उसको भी कहेगा - "माँ!” क्योंकि उसको पता है कि - "माँ ही तो है, और क्या है? इसके साथ मेरा और रिश्ता हो भी क्या सकता है?”

गौर करिएगा कभी, बहन छोटी हो तो भी बड़े भाई का ख़याल रखना शुरु कर देती है। बहुत छोटी हो तो नहीं कहता मैं, पर ज़रा-सी उसकी उम्र बढ़ती नहीं है कि वो बड़े भाई का भी ख़याल रखना शुरु कर देती है। और बड़ा भाई यदि अपनी परवाह ना करता हो तो उसे उलाहना भी देती है; उसे कभी प्यार से समझाएगी, कभी धमका भी देगी, और है छोटी उम्र में। क्योंकि स्त्री वास्तव में माँ ही होती है। यही कारण है कि स्कूलों में छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए स्त्रियों को ही पाएँगे। यही कारण है कि अस्पतालों में आप ज़्यादा स्त्रियाँ पाएँगे नर्स के तल पर ,क्योंकि ध्यान दे पाना, परवरिश कर पाना, संभाल पाना, सहेज पाना, मुलायम चीज़ के साथ कोमल व्यवहार कर पाना, ये स्त्री की प्रकृति है। और पुरुष उसी कोमलता के लिए तड़पता है।

परमात्मा वो जो कठोर-से-कठोर है, और अति कोमल भी है। परमात्मा गर्भ जैसा कोमल है। गर्भ जानते हो कितना कोमल होता है? वहाँ कुछ भी ठोस होता ही नहीं। बच्चा जब गर्भ में होता है तो एक तरह से पानी में तैर रहा होता है। इतना कोमल है परमात्मा। उसी की याद है तुम्हें, तुम उसी कोमल स्पर्श को दोबारा पाना चाहते हो, क्योंकि संसार में तो बहुत कुछ ठोस है। वो ठोकर देता है, चोट लगती है, बुरा लगता है। तुम्हें वही कोमलता वापस चाहिए गर्भ जैसी, इसीलिए तुम स्त्री को तलाशते हो। इसीलिए स्त्री जितनी सुकोमल होती है, तुम्हें उतनी भाती है ―"माता महरि होय"।

" मूरख मन समुझै नहीं, बड़ा अचम्भा होय "

अचम्भा क्यों कह रहे हैं कबीर? क्योंकि बात ज़ाहिर है। तुम्हें दिखती नहीं क्या? "मैं कोई नई बात बता रहा हूँ क्या?” - कहते हैं कबीर। "अरे, मैं वही तो बता रहा हूँ जो तुम दिन रात किए जा रहे हो। बड़ा अचंभा है मुझे कि तुम उसको नहीं देख पाते जो इतना प्रत्यक्ष है। *मूरख मन समुझै नहीं, बड़ा अचम्भा होय*। अरे, ये कोई राज़ की बात है कि 'खसम उलट बेटा भया'?”

ज़ाहिर सी बात है कि यदि प्रकृति में बने रहोगे, अपने आप को देह मानोगे, तो देह का ही पति कर लोगे, और फिर प्रकृति की धारा आगे बढ़ती रहेगी, वंश आगे बढ़ता रहेगा, कर्मफल की नदी बहती रहेगी; कभी कर्मफल से मुक्ति ना पाओगे, कभी मोक्ष ना होगा।

" माता महरि होय " - दिखता नहीं है कि जैसे संसार में स्त्री ढूँढते हो तो ढूँढ क्या रहे हो? ढूँढ रहे हो माँ, और 'माँ' माने परमात्मा। संसार में तुम जब भी तलाशते हो, स्त्री ही तो तलाशते हो। स्त्री ही तो इच्छा का दूसरा नाम है। जिन्होंने जाना है उन्होंने कहा है कि हर इच्छा स्त्री की ही इच्छा है। इसीलिए देखते नहीं हो, हर विज्ञापन जो तुम्हारे भीतर इच्छा पैदा करना चाहता है, उसमें स्त्री आ जाती है। गाड़ी के इंजन ऑयल का विज्ञापन होगा, उसमें बगल में एक कोमलांगिनी खड़ी होगी। अब इंजन ऑयल का कामिनी से क्या संबंध है? पर है। बाज़ार में एक नया कंप्यूटर आया है, बेच कौन रही है? स्त्री बेच रही है। क्योंकि चाहते तो तुम अंततः स्त्री ही हो। अगर तुम्हें ये भरोसा दिला दिया जाए कि इस माल को खरीदने से स्त्री सुलभ हो जाती है, तो माल जल्दी बिकेगा। तुम्हें बता दिया जाए कि - "ये वाली कार ले लो तो लड़कियाँ ज़्यादा मोहित होंगी," तो वो वाली कार तुम ले लोगे क्योंकि तुम्हें कार नहीं चाहिए, चाहिए तो स्त्री ही; कार माध्यम है।

" माता महरि होय " - माता जब नहीं होती, परमात्मा जब नहीं होता, तो कामनाओं का जाल फैलता है। इसीलिए जिनको माता मिल जाती है उनकी कामनाएँ फिर क्षीण हो जाती हैं। और यदि तुम्हारी कामनाएँ बहुत हैं, तो जान लो फिर तुम्हारे पास माँ नहीं है। जिन्हें माँ मिल गयी—माँ माने परमात्मा, सत्य—वो फिर महरि की, स्त्री की इच्छा की खोज त्याग देता है। क्योंकि स्त्री के माध्यम से तुम खोज तो माँ ही रहे थे। माँ जब मिल ही गई तो अब स्त्री क्यों चाहिए? यही ब्रह्मचर्य है!

"माँ मिल गई, अब स्त्री का क्या करेंगे? क्योंकि स्त्री नहीं चाहिए थी, चाहिए तो माँ थी। स्त्री भी मिल जाती, तो उसे क्या बन जाना था? माँ। अब माँ मिल ही गई, तो अब करेंगे क्या स्त्री का?" स्त्री माने कामनाएँ, इच्छाएँ, संसार। यही ब्रह्मचर्य है।

"ब्रह्म मिल गया, अब ब्रह्म में ही चर्या होगी, संसार को अब कौन क़ीमत दे?" ―यही ब्रह्मचर्य है।

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