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लेख
प्रारब्ध, कर्मफल और आत्मविचार || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: अभी आप कह रहे थे कि श्रीकृष्ण अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हैं और बाकी सब लोग अपने बारे में बोले जा रहे हैं। तो क्या इसका सम्बन्ध इससे है कि श्रीकृष्ण का कर्मफल और प्रारब्ध कट चुका है लेकिन बाकी सभी का कर्मफल और प्रारब्ध अभी जारी है?

आचार्य प्रशांत: कर्मफल, प्रारब्ध कोई अपने-आपमें वस्तुएँ नहीं होतीं। चेतना प्रमुख होती है। तुम्हें निर्णय करना होता है, निर्णय सब कर्मफलों को काट सकता है। कोई ऐसी विवशता नहीं होती कि आपको कर्मफल के कटने तक बंधनों में रहना ही पड़ेगा। कर्मफल की ही अवधि को अगर भुगतना है तो फिर अध्यात्म किसलिए है? कर्मफल उसके लिए होता है जो अभी कर्म के फल का भोग करने को इच्छुक हो। कर्मफल, दोहरा रहा हूँ, सिर्फ़ उसके लिए होता है जो अभी कर्म के फल का भोग करने को इच्छुक हो। जो अभी वही हो जिसने कर्म करा था, वही विवश होता है कर्मफल भोगने को। अध्यात्म एक भीतरी मृत्यु है, बाहरी को मृत्यु कहते हैं तो भीतरी वाली को महामृत्यु कह देते हैं।

महामृत्यु का अर्थ होता है कि जिसने कर्म करा था वो नहीं बचा तो अब फल कौन भोगेगा? अध्यात्म इसीलिए होता है ताकि तुम अपने अतीत से अलग हो जाओ। जब अतीत से अलग हो गए तो अब अतीत के कर्मों के परिणाम क्यों भोगोगे भाई? तो इसमें बात ना प्रारब्ध की है, ना भाग्य की है। बात अर्जुन के चैतन्य चुनाव की है और वो चैतन्य चुनाव आप भी कर सकते हैं। नहीं अंतर पड़ता कि आपका अतीत कैसा रहा है और उसमें कर्म कैसे रहे हैं।

अतीत के प्रति मृत हो जाएँ, इसी का नाम मुक्ति है। जो अतीत के प्रति मृत नहीं हो सकता वो अतीत को ही आगे ढोता रहेगा, इसी का नाम तो भविष्य है।

भविष्य किसको कहते हैं? अतीत की लाश को भविष्य कहते हैं। अतीत ख़त्म हो चुका है, उसकी लाश बची हुई है, उसको तुम ढो रहे हो, इसी का नाम भविष्य है। अतीत में कर्म है, भविष्य में कर्मफल है। अतीत में जो था वो फिर भी जीवित था, भविष्य में जो है वो उसकी लाश है, वो गंधाती है; ठीक वैसे, जैसे कर्मफल की सड़ांध हमें अनुभव होती है। जब कर्म करते हो तब तो इसी दृष्टि से करते हो न कि इसका कुछ बहुत अच्छा परिणाम मिलेगा? करते बेहोशी में हो, फिर परिणाम जब आता है तो पछताते हो। बात समझ रहे हो?

तो इस तरह के सिद्धांतों में नहीं फँसना है कि अर्जुन इसलिए बच कर निकल पाए क्योंकि अर्जुन को कोई वरदान प्राप्त था या अर्जुन फ़लाने तरीके से विशिष्ट थे या कोई और बात थी। वेदांत बस एक विशिष्टता सिखाता है, वो विशिष्टता है — सही चुनाव। जो सही चुनाव कर ले गया, वो विशेष है। और नहीं कोई विशेष होता। ना कोई जाति से विशेष है, ना जन्म से, ना आयु से, ना अनुभव से; किसी भी प्रकार से कोई विशेष नहीं होता, ना किसी का कोई विशेषाधिकार होता है।

सत्य-मात्र है जिसको आप अपनी दृष्टि से विशेष कह सकते हो। क्योंकि आप साधारण हो तो वो विशेष है; उस दृष्टि से। सत्य मात्र है जो विशेष है, तो एक मात्र विशेषता है फिर – सत्य का चयन करना। और नहीं कुछ विशेष है। और सत्य के बिंदु से देखो, तो सत्य निर्विशेष है। इसलिए बोल रहा हूँ क्योंकि कहीं-न-कहीं वो पढ़ोगे, फिर भ्रमित होओगे कि, ‘सत्य तो निर्विशेष है, पर आचार्य जी बोल गए सत्य विशेष है, क्या हो गया ये!’

प्र: लेकिन जब तक अहम् है, तब तक तो सत्य विशेष है।

आचार्य: आपकी दृष्टि से तो विशेष है इसीलिए तो पूजते हो आप। नहीं तो काहे को पूजोगे, क्यों नमन करोगे? तात्विक दृष्टि से निर्विशेष है।

प्र: तो अभी आप एक और बात कह रहे थे विचार के बारे में कि वृत्ति विचार को उठा देती है और विचार अनुमति माँग कर नहीं आता है। तो विचार आ गया, अब जब विचार आ गया तो एक दूसरा विचार आता है कि ‘मैंने ये सोचा’, या ‘ये मेरा विचार है’। ये जो दूसरा विचार है, क्या यही ममता का बंधन है?

आचार्य: नहीं। पहला, दूसरा, तीसरा, सब विचार एक होते हैं। सारे विचार एक होते हैं। वो एक ही पेड़ के फल हैं, कोई थोड़ा छोटा हो सकता है, कोई बड़ा है, कोई हरा है, कोई थोड़ा पीला हो गया; उससे नहीं बहुत अंतर पड़ता, वो सब एक ही हैं। हाँ, जब कोई ये विरल निर्णय करता है कि, ‘मैं विचार को उसकी वृत्ति के विरुद्ध मोड़ दूँगा, मैं ये नहीं कहूँगा कि मैं क्या चाहता हूँ, मुझे किधर जाना है; मैं पूछ लूँगा कि मैं हूँ कौन।‘ तब कुछ अनहोनी घटती है। इसको हम कह रहे हैं, ये आत्मविचार हो जाता है फिर।

आमतौर पर हम 'मैं' को तो मान कर रखते हैं, ठीक है? 'मैं' तो केंद्र ही है, 'मैं' पर विचार नहीं करना है। अब 'मैं' से चल कर के, 'मैं' से उठ कर के, दुनिया भर के और मुद्दों पर विचार करना है। ये साधारण व्यवस्था होती है। अध्यात्म इस साधारण व्यवस्था का प्रतिकार करता है। वो कहता है कि ऐसा नहीं करना है कि 'मैं' को तो अग्रिम मान्यता दे ही दी, और अब ये कह रहे हैं कि, ‘मैं यहाँ जाऊँ, मैं वहाँ जाऊँ, मुझे ये पाना है, मुझे ये छोड़ना है’। नहीं, नहीं, नहीं।

पहले तो ये बताओ कि ‘मैं हूँ कौन?’ ये आत्मविचार है। 'मैं हूँ कौन' का मतलब ये नहीं कि आप अपने अस्तित्व से सम्बंधित सिद्धांतों की बात करने लगें। 'मैं हूँ कौन' माने कि अभी जिस केंद्र से ये विचार उठ रहा है, वो केंद्र क्या है? क्या मैं प्रयास कर सकता हूँ जानने का कि मैं अभी कौन हूँ?

मेरी ईर्ष्या मुझे बोल रही है कि फ़लानी दूकान पर जाओ और फ़लानी चीज़ खरीद लो, ठीक है? तो विचार क्या कह रहा है? विचार कह रहा है, भाग कर जाओ और वहाँ से कोई चीज़ खरीद लो। किसी और के पास कोई चीज़ है और उससे तुम्हें ईर्ष्या हो रही है, तो उसके फल में तुम कह रहे हो तुम भी किसी दूकान पर जाओ और कोई वस्तु खरीद लो। ये साधारण विचार है।

आत्मविचार कहता है कि ‘मेरे पूरे वक्तव्य में ईर्ष्या नामक तो कोई शब्द है ही नहीं। मेरा पूरा वक्तव्य क्या कह रहा है? फ़लानी दूकान पर जा कर फ़लानी चीज़ खरीद लो, इसमें ईर्ष्या शब्द है कहीं पर? कहीं नहीं है, पर मैं मुड़ कर के देखूँगा और मैं कहूँगा, ‘मैं ईर्ष्यालू हूँ’। मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ वो बात बाद में आती है, सबसे पहले कौनसी बात आती है? मैं ईर्ष्यालू हूँ।‘ ये आत्मविचार की प्रक्रिया है।

प्र: तो कभी ये देखने को मिलेगा कि मैं लोभी हूँ, ऐसा लगेगा, या मैं कामुक हूँ?

आचार्य: हाँ, हर विचार के केंद्र में विचारक की एक दशा बैठी होती है और ये सारी दशाएँ, एक तरह से, नकली होती हैं। तुम्हें उस दशा को पकड़ना होता है। ज्यों ही तुम उस दशा को पकड़ते हो, ज्यों ही तुम्हारे जानने का, तुम्हारे बोध का प्रकाश तुम्हारी अपनी आन्तरिक दशा पर पड़ता है, तुम उस दशा से मुक्त हो जाते हो। वो दशा फिर पिघल सी जाती है।

प्र: वो दशा से मुक्ति लेकिन सिर्फ़ उस पल की है, अगले पल कोई और दशा...

आचार्य: अगले पल फिर कोई दशा आ सकती है, तुम्हें फिर अभ्यास से उस दशा को पकड़ लेना है। विचार समझ लो उस सैनिक की तरह है, जो एक दीवार के पीछे से गोलियाँ चला रहा हो और दीवार मज़बूत है। उस दीवार के पीछे से वो पूरी दुनिया का शिकार कर सकता है, उस दीवार में वो एकदम छुपा हुआ है। अब ज़रूरी हो जाता है कि उसके पीछे से उसको पकड़ा जाए। विचार भी ऐसा ही है। उसके आगे जो कुछ है वो उसपर गोलीबारी करता चलता है, फँसता वो सिर्फ़ तब है जब ये देखा जाए कि उसके पीछे क्या है, उसको पीछे से पकड़ो।

उसके आगे से तुम उसका विरोध करोगे, विचार के उत्तर में, विचार के प्रतिकार में, तुम दूसरे विचार दोगे, तो बस एक अन्तर्युद्ध चलता रहेगा, भीतर फँसे रहोगे। उसको हराने का सबसे अच्छा तरीका है उसके पीछे जा कर खड़े हो जाओ। उसकी बन्दूक किस दिशा में है? आगे की दिशा में है, तुम उसके पीछे जा कर खड़े हो जाओ, अब वो फँस गया। वहीं से उसको हरा सकते हो बस। ‘तू आ, कहाँ से रहा है?’ और उसकी बन्दूक ऐसी है कि पीछे को नहीं मुड़ सकती, तो डरो मत। विचार बहिर्गामी होता है, उसकी बन्दूक पीछे को नहीं मुड़ती।

प्र: एक और बात है, जैसे अभी आपने बताया कि सबसे नीचे है आत्मा, उसके बाहर है वृत्ति, फिर विचार, उसके बाहर है संसार। तो ये जो विचार का तल है, यही है मॉरेलिटी (नैतिकता) का तल? जो आम नैतिकता है?

आचार्य: हाँ, बिलकुल, बिलकुल।

प्र: और जो वृत्ति का तल है वो है पाशविक तल क्योंकि हम देखते हैं पाशविकता मॉरेलिटी पर भारी पड़ती है।

आचार्य: हाँ, बिलकुल, बिलकुल, बढ़िया।

प्र: और जो एक पाशविकता है यही क्राइम (अपराध) है। जैसे पाशविकता की वजह से ही सारे अपराध होते हैं।

आचार्य: नहीं।

प्र: लेकिन जो क़ानून है वो विचार के माध्यम से वृत्ति को पकड़ना चाहता है और इसीलिए क़ानून हारता है, इसीलिए आध्यात्मिकता की ज़रूरत है। और नीचे से, आत्मा से वृत्ति को पकड़ना है।

आचार्य: ठीक, ठीक, बढ़िया पकड़ रहे हो। इसीलिए कितने भी तुम नियम-कानून बना लो, जिसको तुम अपराध बोलते हो, वो समाप्त नहीं होता। पहले परम्परा थी कि ज्ञानियों को राजाओं का संरक्षण प्राप्त होता था, और गाँव-गाँव में जो साधु-संत घूम रहे होते थे, इनको रोटी दी जाती थी, छाँव दी जाती थी; उसकी वजह थी। बहुत सारी वजहें थीं लेकिन हम अभी जिस सन्दर्भ में बात कर रहे हैं, उसमें एक वजह ये भी थी कि ये लोग कानून व्यवस्था बिलकुल ठीक रखते थे। विचार कर-कर के या नैतिकता बता कर-कर के, तुम पाशविक, आपराधिक वृत्ति को काबू नहीं कर सकते। लेकिन जब आत्मा सामने आती है तो अपराध रुक जाता है।

जो काम पचास सैनिक नहीं कर पाते थे वो एक साधु कर देता था, वो अपराध कम कर देता था। क्योंकि सैनिक वृत्ति को जीतना चाहते थे तलवार से, और नियमों से; सैनिक वृत्ति को जीतना चाह रहे हैं नियम-कायदों का भय बता करके और दण्ड वगैरह का। उससे बस आंशिक सफलता मिल सकती है। साधु वृत्ति को प्रेम में डाल देते हैं तो फिर उसको अपराध करने की फ़ुर्सत नहीं रह जाती।

तो एक तरीके से जो प्रश्रय और संरक्षण दिया जाता था ज्ञानियों को और ऋषिओं को, साधु-संतों को, वो व्यर्थ ही नहीं था। आप उनको जो एक कुटिया और दो रोटी दे देते थे, उसके बदले में वो आपका बहुत सारा खर्चा और आपकी बड़ी तकलीफ़ें बचा देते थे। सिर्फ़ मानसिक तकलीफ़ ही नहीं, वो आपका आर्थिक खर्चा भी बचा देते थे। आप पचास सैनिकों को तनख़्वाह देते न? वो तनख़्वाह आपकी बच गयी। उस गाँव में एक साधु रहता है वहाँ अपराध बहुत कम हैं, तो राजकोष से जो सैनिकों को खर्चा जाता वो खर्चा नहीं गया फिर। बच गया न?

प्र: तो इसी सन्दर्भ में जब मैं देखता हूँ क़ानून को भी तो जैसे वो कहते हैं कि चोरी करोगे तो दंड मिलेगा। लेकिन अक्युमुलेशन (संचय) पर कोई रोक नहीं है। लेकिन जब तक अक्युमुलेशन होता रहेगा तब तक चोरी तो – अक्युमुलेशन मतलब सारा धन इकट्ठा कर लिया – तो चोरी होगी ही।

आचार्य: नहीं, अक्युमुलेशन है तो इसलिए चोरी होगी ही, ये बात उतनी ठीक नहीं है। अक्युमुलेशन ही चोरी है, संचय ही चोरी है। कैसे चोरी है? थोड़ा समझना पड़ेगा; आपका असली काम था अपने जीवन में मुक्ति की ओर प्रयास करना और आपने उस काम से चोरी कर के अपना समय किसी और जगह लगा दिया। तो चोरी पहले हुई, संचय बाद में हुआ। भाई, मैं तुम्हें कुछ समय दूँ पढ़ने के लिए और तुम समय चुरा कर के जाओ और कोई और चीज़ इकट्ठा कर लो। मैंने समय किसलिए दिया था तुम्हें? पढ़ने के लिए, तुमने उस समय से चोरी करके जा कर कोई और चीज़ इकट्ठा कर ली, तो वो इकट्ठा तुमने पहले करी या चोरी पहले हुई?

प्र: पहले चोरी।

आचार्य: हाँ, तो ये नहीं है कि संचय होता है उसके परिणामस्वरूप चोरी होती है। चोरी होती है उसके परिणामस्वरुप संचय होता है। आप जीवन में जो भी कुछ उल्टा-पुल्टा कर रहे हैं, उसके पहले चोरी की एक घटना घटती है। अगर आप चोर ना होते तो कुछ भी उल्टा-पुल्टा करने का आपको समय कहाँ से मिलता? कुछ भी व्यर्थ करने के लिए आपने दो चीज़ निश्चित रूप से चुराई होंगी, एक समय और एक ऊर्जा। और जिसने आपको समय दिया है और जिसने आपको ऊर्जा दी है, उसने आपको बता रखा है कि समय और ऊर्जा का क्या इस्तेमाल करना है। लेकिन आपने चोरी करी और अपने समय और अपनी ऊर्जा का कुछ और ही प्रयोग कर लिया, तो चोरी पहले आयी न। उसके बाद फिर जो कुछ भी आया सो आया।

प्र२: अभी जो हमने बात की कि विचारों से वृत्ति तक नहीं पहुँच सकते, तो वृत्ति के बारे में जो भी हम लोग बातें किया करते हैं, वो एक प्रकार से विचार ही हैं?

आचार्य: अवलोकन, विचार को देख कर पहुँचते हो, विचार पर सवार हो कर नहीं पहुँचते। विचार की सवारी निकल रही है, तुम उसपर बैठ जाओगे तो वृत्ति तक नहीं पहुँचोगे। उसपर बैठ जाओगे तो संसार की तमाम अंधी दिशाएँ हैं, वहाँ पहुँच जाओगे। पर ये जो विचार की गति है, उसको देख कर के तुम उसको समझ सकते हो। तुम्हारे पास विचार ही भर नहीं है न, तुम्हारे पास ध्यान की भी क्षमता है। वो क्षमता तुम्हें वृत्ति तक पहुँचाएगी, विचार नहीं पहुँचाएगा।

प्र३: विचार को उसके पीछे से पकड़ने वाली बात पर प्रश्न पूछना चाह रहा हूँ। अभी जब यहीं पर बैठा हुआ था, व्हाट्सऐप्प पर एक घटना घटी और उसने ट्रिगर कर (भड़का) दिया और विचार एकदम तेज़ी से आगे बढ़ रहा था। तब ही संयोगवश आपने कहा कि ये कौन है जो सम्मान चाहता है, और वो बात एकदम फ़िट बैठ गयी उस घटना पर। और एक तरीके से उस विचार को पीछे से पकड़ लिया। यकायक ऐसा लगा कि बहुत सारा बोझ वहीं पर उतर गया। तो वो जो आपकी बात से बढ़ता हुआ बहाव एकदम से यू-टर्न लेकर (मुड़कर) पीछे आ गया। तो उसको मैं कैसे धीरे-धीरे करके अपनी ज़िन्दगी में उतार सकता हूँ?

आचार्य: अगर बात ही तुम्हारे लिए इतनी सहायक सिद्ध होती है तो ये बात दिनभर सुन लो न। पुराने लोगों को इतनी सुविधा नहीं थी तो वो ग्रन्थ ले कर बैठ जाते थे और अहर्निश पाठ करते रहते थे, चौबीस घण्टे न सही तो कम-से-कम चार घण्टे। तुम्हें तो न जाने कितनी टेक्नोलॉजी उपलब्ध है, तुम सुन लो चौबीस घण्टे। यहाँ मैं तुम्हारी इस बात को मान कर, और आधार बना कर, कह रहा हूँ कि तुम्हें उस बात को सुनने से लाभ हुआ है। अगर नहीं लाभ हुआ है, यूँ ही कह रहे हो तब तो कोई बात ही नहीं। पर अगर स्वयं ही कह रहे हो और इमानदारी से, कि लाभ हुआ है तो निष्कर्ष सीधा है कि उस बात को दिन भर सुनो। सुनो न चौबीस घण्टे, कौन रोक रहा है? एक बटन ही तो दबाना है, चौबीस घण्टे सुनते रहोगे।

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