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लेख
परिणाम शब्द का क्या अर्थ है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
15 मिनट
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आचार्य प्रशांत: सवाल आया है रोहित से, कि ‘परिणाम’ शब्द से क्या अर्थ है?

अब ऐसा तो है नहीं कि ‘परिणाम’ शब्द हम पहली बार सुन रहे हैं। ‘परिणाम’ शब्द से हमारा वास्ता रोज़ ही पड़ता रहता है। रोज़ाना ही ये हमारे सामने आता रहता है। तो ‘परिणाम’ शब्द के पहले उन अर्थों को ध्यान से देखना आवश्यक है, जो हमारे मन में पहले से ही बैठे हुए हैं। जो हमारे मन में पहले से ही बैठ गए हैं।

क्योंकि जब तक हम उसको नहीं समझते, जो मन में पहले से ही बैठा हुआ है, उसको ध्यान से देख नहीं लेते; किसी नए के आ जाने की कोई सम्भावना है नहीं! जो ये सवाल तुम पूछ रहे हो, कि परिणाम से क्या अर्थ है, तो निश्चित रूप से, तुम ये नहीं चाहते कि मैं वही सब दोहराऊँ जो तुम्हें पहले से ही पता है। क्योंकि उसमें तुम्हारा कोई लाभ नहीं है। ठीक? ‘परिणाम’ के वो मायने जो तुम्हें पहले से ही पता हैं, जो तुम्हारे मन में पहले ही भरे हुए हैं, अगर मैं उन्हीं को दोबारा निरूपित करूँ, तो तुम्हें कुछ मिलेगा नहीं। तुम चाहते हो कुछ नया मिले, कुछ असली मिले, कुछ वास्तविक मिले। ठीक? तो पहले उसको देखते हैं, और फिर उसके आगे बढ़ पाएँगे।

तुमने ‘परिणाम’ का सदा अर्थ ये जाना है कि अभी कुछ करूँगा, और इसका कुछ परिणाम निकलेगा ‘भविष्य’ में! तुम्हारे लिए ‘परिणाम’ का अर्थ हमेशा भविष्य में है। तुम कहते हो कि असली चीज़ वो है जो भविष्य में घटेगी। जो सबसे महत्वपूर्ण है, वो भविष्य में कहीं होगा! इसका सीधा-सीधा अर्थ ये है, कि तुम कहते हो, कि अभी जो हो रहा है, उसका मूल्य नहीं है। असली मूल्य है उसका, जो आगे होगा। जो परिणाम है।

उदाहरण ले लो – "पढ़ाई का कोई महत्व नहीं है, वो एक दिन ख़ास होगा, जिस दिन मेरा परिणाम घोषित होगा। बी.टेक. का कोई विशेष महत्व नहीं है, वो एक दिन ख़ास होगा जिस दिन मुझे अपनी डिग्री मिलेगी या नौकरी मिलेगी।" परिणाम ये है कि आज तुम्हें पता चल जाए, कि डिग्री नहीं मिल रही है, या नौकरी मिलने की कोई सम्भावना नहीं है, तो पढ़ाई बेकार हो जाएगी। तुम शायद चाहोगे ही नहीं कि कॉलेज आऊँ और आगे की पढ़ाई करूँ। क्योंकि जीवन एक ‘परिणाम’ पर टिका हुआ है। और वो परिणाम अभी नहीं है, सदा भविष्य में बैठा हुआ है। परिणाम सदा भविष्य में है, मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ, जीवन कहाँ पर है? तुम कब जी रहे हो? अभी? या भविष्य में?

श्रोता: अभी।

आचार्य: और कुछ लोगों को मैंने बोलते सुना कि भविष्य में! तो ज़रा वो भविष्य में दो चार साँसें ले कर के दिखाएँ! अभी से पाँच मिनट बाद की साँस अभी ले कर के दिखाओ।

हम सब ‘अभी’ जी रहे हैं! जीवन है ‘अभी’! और परिणाम है भविष्य में। और तुम कहते हो, कि परिणाम है असली चीज़, और अभी जो हो रहा है इसकी कोई ख़ास महत्ता नहीं है। मज़ा तब आएगा जब वो ख़ास घटना घटेगी। जिस दिन परिणाम मिलेगा, या जिस दिन किसी एक विशेष तरीके की घटना घटेगी। कुछ होगा आगे, तब विशेष होगा; वो जीवन का सार है। लेकिन जीवन है अभी, और जब तुम कहते हो कि असली चीज़ वहाँ है, तो तुम कह रहे हो, कि ‘यह’ मूल्यहीन है। नतीजा ये होता है कि हम बड़े नीरस हो जाते हैं। उदास, बोरियत से भरे। लगातार एक प्रतीक्षा बनी रहती है। किसकी? परिणाम की, भविष्य की! "जब वो आएगा, तब जीवन में कुछ ‘ख़ास’ घटेगा। जब वो ख़ास दिन आएगा, तब मैं खुश हो पाउँगा, अभी तो कुछ विशेष नहीं है।"

रेलवे प्लेटफार्म पर हम सभी ने कभी-न-कभी इंतज़ार ज़रूर किया होगा। ट्रेन आने वाली है, चार घंटे के बाद, लेट (विलम्बित) है। और आप इंतज़ार कर रहे हैं। और हम सब जानते हैं, कि रेलवे प्लेटफार्म पर वो जो घंटे बिताए जाते हैं इंतज़ार में; बार-बार घोषणा हो रही है, ट्रेन लेट है, इतना लेट है, और इतना लेट है। वो समय कोई बहुत आनंद का नहीं होता। आप नाचने नहीं लग जाते। कि, "वाह, आज मज़ा आ गया, ट्रेन लेट है।" वो बेचैनी के पल होते हैं, आप चाहते हैं, कब ये समय बीते, क्योंकि असली घंटा तब का है जब ट्रेन आएगी, ये पल तो सिर्फ इंतज़ार का है। चार घंटे इंतज़ार करना आपको भारी पड़ जाता है।

तीन साल या चार साल कैसे इंतज़ार करोगे? क्योंकि तुम तो आए ही कॉलेज में इसलिए हो कि चार साल बाद कुछ विशेष घटेगा! डिग्री मिलेगी! चार घंटे में, बोरियत, बेचैनी, निराशा, हावी हो जाती है, तो चार साल में क्या होगा? स्वाभाविक सी बात है, ऐसा ही होगा जैसा अभी हो रहा है। शक़्लें हमारी उतरी-उतरी रहती हैं, कॉलेज से भागने को बेक़रार रहते हैं। कंधें झुके हुए रहते हैं, और मन खिन्न रहता है। क्योंकि वर्तमान में हमें कुछ सार दिखता ही नहीं। सब कुछ भविष्य में है।

ये है परिणाम की बात, कि सब कुछ भविष्य में है, वर्तमान में कुछ नहीं है।

अब एक दूसरे पहलू से इसके ऊपर विचार करते हैं। ये जो ‘भविष्य’ है, ये क्या है?

अगर मैं भविष्य को कहूँ कि एक पेड़ है; परिणाम, ‘रिज़ल्ट’, तो वर्तमान बीज है जिससे वो पेड़ निकलता है। ठीक है न?

हमारा सारा कर्म ये है कि बीज को तो सड़ा दो और कल्पना करो, एक सुन्दर भविष्य की। तर्क हमारा यह है कि आज की कुर्बानी दे देंगे! और जब मैं आपसे ये पूछ रहा हूँ, जो आपने बीज की क़ुर्बानी दे दी, तो पेड़ पाओगे कहाँ से? जब बीज की कुर्बानी दे दी, तो पेड़ कहाँ से पाओगे? पर तुम कहते हो, "नहीं, ‘अभी’ में कुछ नहीं रखा है। अभी को तो ऐसे ही व्यर्थ बिता दो। इधर-उधर गप-शप कर लो, घूम लो, समय खराब कर लो, लेकिन भविष्य बहुत सुन्दर चाहिए।" और भविष्य बनता है वर्तमान से। जब वर्तमान को तुम दिन-रात नष्ट कर रहे हो, भविष्य मिल कहाँ से जाएगा? कोई तरीका ही नहीं है!

लेकिन, जीवन पूरे तरीके से परिणामोन्मुखी बना रखा है, ‘*रिज़ल्ट-ओरिएंटेड*’। ठीक है न? तुम जीवन को क्षणों में नहीं नापते, तुम जीवन को नापते हो मील-के-पत्थरों (माइलस्टोन्स) के द्वारा। जैसे कि, दसवीं, फिर बाहरवीं, फिर बी.टेक। जैसे कि दसवीं और बाहरवीं के परिणामों के बीच में ये जो दो साल थे, इनकी कोई कीमत ही नहीं थी। तुम सिर्फ नापते ये हो कि दसवीं के ख़ास दिन क्या हुआ, जिस दिन परिणाम घोषित हुए! फिर बाहरवीं में ख़ास दिन क्या हुआ, जिस दिन परिणाम घोषित हुए! फिर बी. टेक. के चार साल, और पूरा जीवन?

श्रोता: व्यर्थ।

आचार्य: जब थोड़ा वरिष्ठ लोगों से मिलता हूँ, और बात-चीत होती है, एक बार हो रहा था कि एक वरिष्ठ-मैनेजर पूछ रहे थे कि, "अपने कर्मचारियों को मोटीवेट (उत्साहित) कैसे करें?" तो बोलते हैं, "ये हमारी ‘इंसेंटिव’ स्कीम है।" ‘इंसेंटिव’ जानते हो? कुछ करोगे तो उसके एवज़ में तुम्हें कुछ और ज़्यादा पैसे मिल जाएँगे, तन्ख्वाह के ऊपर। उन्होंने कहा कि, "हमने ये ‘इंसेंटिव-स्कीम’ बना रखी है अपने कर्मचारियों के लिए, पर ये काम करते हुए नहीं दिख रही, तो आप बताइए इसमें हम क्या बदलाव कर सकते हैं? क्योंकि ये लोग बड़े हतोत्साहित रहते हैं।" ठीक जैसे तुम रहते हो हतोत्साहित, वैसे ही, "ये बड़े ऊबे हुए रहते हैं। आँखों में उदासी झलकती है। कोई तेज नहीं है जीवन में, कोई उत्साह नहीं रहता।"

तो मैंने, उनसे पूछा, कि जो भी देंगे वो महीने में कितने दिन देंगे? वो कहते हैं, "एक ही दिन देंगे, जिस दिन चेक जाता है, तीस तारीक को।" मैंने कहा, "चेक जाता है एक दिन, तीस तारीक को, और महीने में दिन कितने होते हैं?" बोले, "तीस!" मैंने कहा, "बाकी उन्नत्तीस दिन क्या होगा? अगर वो इस एक दिन की अपेक्षा में जी रहा है, इस परिणाम की अपेक्षा में काम कर रहा है, कि उस दिन मुझे ये परिणाम मिलेगा, उस दिन मुझे ये पैसे मिलेंगे, तो वो सिर्फ उसी दिन ख़ुशी मना पाएगा, जिस दिन पैसे मिलेंगे। और बाकी दिनों क्या करेगा?"

काम तो उसे बाकी उन्नत्तीस दिन भी करना है। उन दिनों में वो निश्तेज रहेगा, बस प्रतीक्षा में रहेगा, कि कब बीस तारीक आए। सिर्फ प्रतीक्षा में जीवन बीतेगा। और हम सब जानते हैं, कि प्रतीक्षा बेचैन करती है। ठीक है न? हम में से कोई भी नहीं चाहता कि लगातार लगातार, एक प्रतीक्षा में ही जीवन बीतता रहे।

जीवन तो तुम्हारा भी ऐसे ही बीत रहा है! और इसमें देखो, तुम्हारी कोई ग़लती भी नहीं है, क्योंकि तुम्हें सिखाया ही यही गया है कि असली चीज़ परिणाम है, किसी भी तरीके से, भले से या बुरे से।

परिणाम ले कर के आओ, परिणाम आना चाहिए, तरीके कौन से हैं कोई फ़र्क नहीं पड़ता, परिणाम ज़रूरी है। यही जाना है न तुम ने? और तुम एक ऐसे प्रदेश से हो, ज़्यादातर लोग, जहाँ पर सरकारें ऐसी हैं, कि तुमने देखा है कि दसवीं में, बाहरवीं में, सार्वजनिक नक़ल के द्वारा लोगों को पास करा दिया गया है। और तुमने कहा, कि, "क्या फ़र्क पड़ता है, जिन्होंने पढ़ा वो भी पास, जिन्होने नहीं पढ़ा, वो भी पास हुए! अंततः परिणाम ही तो महत्वपूर्ण है।"

"जब परिणाम ही सब कुछ है, तो परिणाम कैसे भी आए और कभी भी आए!" ये जीवन जीने का बड़ा भद्दा तरीका है। जो सिर्फ परिणाम के लिए जी रहा है, भविष्य के लिए जी रहा है, उसने अपना वर्तमान चौपट कर लिया है और जीवन सिर्फ वर्तमान है। बात समझ रहे हो बेटा?

जीवन जीने का एक और तरीका होता है, वो तरीका होता है जीवन में डूबने का, ध्यान का! कि, "मैं जो भी कर रहा हूँ, उसमें पूर्णतया उपस्थित हूँ। प्रतिपल हो रहा है।" परिणाम हर पल है। हर पल का परिणाम उसी समय घोषित हो रहा है। या तो वो पल तुमने जी लिया, या गँवा दिया। और वो लौट कर नहीं आएगा, जीवन का वो हिस्सा बह गया।

जीवन में परीक्षा सेमेस्टर में एक बार या तीन बार नहीं होती। हर पल होती है। वो पल अगर तुमने पा लिया, तो उसी पल परिणाम घोषित हो गया कि कौन अच्छा! और जिन्होंने नहीं पाया वो फेल हो गए, और अब ऐसे हुए हैं कि इसमें बैक-वैक नहीं लगती। वो गया, अब नहीं लौटेगा। दूसरा कोई मौका नहीं मिलेगा, उस पल को दोबारा जीने का। ठीक अभी, जो लोग ध्यान से सुन पा रहे हैं, वो इन पलों को पूरी तरह जी रहे हैं, और उन्हें जो मिलना है वो मिल रहा है। और जो नहीं सुन पा रहे हैं, जिनका मन भटक ही रहा है, वो खो रहे हैं। और जो खो दिया वो वापस लौट कर नहीं आएगा।

जीवन सदैव नया है, पूरा है, कुछ भी इसमें दोहराया नहीं जाता, रीवाइंडिंग के लिए कोई स्थान नहीं है।

‘परिणाम’ भविष्य में नहीं है, ‘परिणाम’ ‘अभी’ में है। ठीक अभी परिणाम घोषित होता जाता है। बड़ी सुचारु मशीनरी है समय की। वो इतना समय नहीं लेती, कि आज परीक्षा दो, फिर पर्चों का मूल्यांकन होगा, फिर परिणाम घोषित होगा, हमें पसंद नहीं आया तो मूल्यांकन फिर से भी हो जाएगा। और तुम चाहो तो न्यायालय भी चले जाओ। कि, "हमारा पर्चा ठीक नहीं आँका गया है।"

जीवन में ये सब नहीं होता। जीवन कहता है, अभी परीक्षा दो, अभी परिणाम लो। और ये अंतहीन सिलसिला बस चल ही रहा है। जो इसको नहीं समझेंगे, वो जीवन को गँवा देंगे, और गँवाते ही रहेंगे। बात समझ में आ रही है? जो नहीं समझ रहे हैं, वो गँवा देंगे, गँवाते ही रहेंगे। वो यही सोचते रहेंगे, कि, "अभी क्या करना है, अभी मौज करो, अभी परीक्षा दूर है।" वो नहीं समझ रहे हैं कि परीक्षा तो चल ही रही है। लगातार चल रही है, दूर नहीं है। और ये परीक्षा इस बात की नहीं है कि तुम अपने ऊपर कितना तनाव ले लेते हो। याद रखना, तुम जो परीक्षाएँ देते आए हो उनमें शायद तुमने ये जाना है कि तनाव लेने से फायदा होता है।

जीवन की परीक्षा में, उत्तीर्ण वो माना जाता है, सफल वो माना जाता है, जो मस्त हुआ। जिसने आनंद का अनुभव किया। वो नहीं जो ऐसे काम चला रहा है जैसे सर के ऊपर बोझ हो। जीवन की परीक्षा में उत्तीर्ण वो माना जाता है, जो पूरी तरह से डूब गया उस पल में। खेल रहा है तो उसमें पूरी तरह से उपस्थित है, पढ़ रहा है तो उसमें पूरी तरह से उपस्थित है। फिल्म देख रहा है, तो भी उसमें पूरी तरह से है। फिर और चारों तरफ नहीं घूम रहा है। कि बैठे यहाँ पर हैं और मन? न!

जीवन तुमसे ये बिलकुल भी अपेक्षा नहीं करता कि तुम किसी भी पल को कष्ट में, तनाव में, भटकाव में गुज़ार दो। जीवन कहता है, "मुझे जियो, इसलिए मैं हूँ।" और जो इसको नहीं जानते, जो सिर्फ हिलना-डुलना जानते हैं, जो सिर्फ भटकना जानते हैं, स्थिर रहना नहीं जानते, जीवन उनके लिए सिर्फ एक यातना बन कर रह जाता है। जैसा हम में से अधिकांशतः के लिए है। एक यातना, एक कभी ना ख़त्म होने वाला उत्पीड़न। और हम समझ नहीं पाते कि दुनिया हमारे साथ ऐसा क्यों कर रही है! हम कहते हैं, "शायद हमारा हाथ ही खराब है!" हम सोचते हैं, ये हमारे घर वालों का, समाज का, व्यवस्था का, शिक्षा का दोष है। किसी का दोष नहीं है, दोष तुम्हारी समझ का है। तुमने समझा ही नहीं जीवन को।

जो जीवन में डूबना नहीं जानते, जीवन उन्हें बड़ा कष्ट देता है। प्रतिपल तड़पाता है। जैसे मैंने कहा, कि तिलमिला कर रह जाओगे। और ये तुम अपने ऊपर खुद ले कर के आते हो, कोई और इसके लिए उत्तरदायी नहीं है। तुम सोचो कि शायद मैंने ही तुम्हारे साथ ये किया है! नहीं, मैंने नहीं किया है। ना समाज करते हैं, ना व्यवस्था करती है। क्योंकि तुम जीवन जीना नहीं जानते। किसी और को दोष मत देना। जैसे बारिश हो रही है और घड़ा उल्टा रखा हो। फिर घड़ा दोष दे, कि, "मैं तो भरा ही नहीं!" तुम क्यों अपना घड़ा उल्टा कर के बैठ गए हो? जैसे सूरज चमक रहा हो और तुम आँख बंद कर के खड़े हो, कि, "बड़ा घना अन्धकार है! चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा है।" तुम आँख खोलना क्यों नहीं जानते? सूरज तो चमक ही रहा है। बात समझ में आ रही है?

जो प्रेम से पढ़ेगा, जो किताब के साथ खो जाएगा, डूब जाएगा, क्या उसे चिंता करनी पड़ेगी कि परिणाम कैसा आएगा? क्या उसे चिंता करनी पड़ेगी? पर तुमने वो कभी जाना नहीं। तुम किताब के पास जाते ही तब हो, जब तुम्हें डर लगने लगता है कि, "अरे! परसेंटेज (अंक प्रतिशत) कम हो जाएगा, या डेट-शीट लग गई, तो पढ़ने का समय आ गया।" तुम किताब के पास कभी इसलिए जाते ही नहीं कि किताब में ऐसा कुछ है जो कीमती है। वो तुमने कभी सीखा ही नहीं ।

तुम्हारे लिए किताब का अर्थ ही सिर्फ ‘अंक’ है। अंकों के अलावा तुम्हारी किताब का कोई अर्थ नहीं। और मज़े की बात ये है कि जो किताब के पास अंक के लिए जाता है, सिर्फ अंक के लिए; उसे मार्क्स (अंक) भी नहीं मिलते। और जो किताब के पास इस कारण जाता है कि किताब अपने आप में मूल्यवान है, उसे बिना माँगे अंक मिल जाते हैं। सरप्राइस गिफ्ट की तरह। उसने माँगा नहीं, मिल गए। उसे आश्चर्य होगा। कि, "अरे! मैं तो कम्पीटीशन के लिए पढ़ ही नहीं रहा था, मैं तो अंकों के लिए पढ़ ही नहीं रहा था। मैं तो अपने मज़े के लिया पढ़ रहा था। ये इतना अच्छा रिजल्ट कैसे आ गया?"

ऐसे ही आता है!

जो अंकों के लिए पढ़ेगा, वो डरा हुआ होगा। और ये डरा हुआ मन कुछ समझ नहीं पाता। उसे कुछ समझ में नहीं आता।

परिणाम की चिंता छोड़ो। पूरी तरह से जियो, पूरे दिन को, सुबह से ले कर शाम तक। जीवन जैसा भी है, उसमें पूरी तरह से उपस्थित रहो। बेहोश से मत रहो, लड़खड़ाते, लड़खड़ाते, कि, "सब चल दिए तो हम भी चल दिए। सब बैठ गए तो हम भी बैठ गए। सब इंजीनियरिंग कर रहे हैं, तो हम भी कर रहे हैं। सब मास-बंक कर रहे हैं, तो हम ने भी कर दिया।" ऐसी तिरछी आड़ी चाल मत चलो।

शब्द-योग सत्र से उद्धरण। स्पष्टता के लिए सम्पादित।

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