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लेख
नकली 'कॉन्फिडेंस' और 'विज़ुअलाइज़ेशन' (Fake confidence and visualisation) || आचार्य प्रशांत (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, कॉन्फिडेंस (आत्म-विश्वास) के ही सन्दर्भ में आजकल काफ़ी चर्चित एक वक्तव्य भी यूज़ (प्रयोग) किया जाता है, फ़ेक इट टिल यू मेक इट (जब तक कामयाब न हो जाओ, कामयाब होने का नाटक करते रहो) तो मतलब उनका ये कहना है कि मान लीजिए अगर आप अभय, निडर नहीं हैं तो आप उसको फ़ेक (नाटक) करिए तो फ़ेक करते-करते आप असल में हो जाऍंगे। तो इस सन्दर्भ में आपका क्या कहना हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि आप फ़ेक करते-करते ही असल में हो जाऍं?

आचार्य प्रशांत फ़ेक इट टील यू मेक इट? क्या बना रहे हो, बुद्धू बना रहे हो अपनेआप को ही, और क्या बना रहे हो? हम क्या कहना चाहते हैं कि तुमको पूड़ी बनानी नहीं आती है तो तुम पूड़ी बनाने का नाटक करो, जब तक कि पूड़ी बन न जाए? ऐसा कैसे होगा? ऐसा होगा कैसे?

ये जो तरक़ीब बतायी ये अधिक-से-अधिक उन लोगों पर कामयाब हो सकती है जो ख़ुद ही बुद्धू हैं, जो आप ही के जैसे हैं। ये किस तरीक़े की तरक़ीब है, मैं समझ रहा हूँ, वो तरक़ीब ये है कि आप कहीं दस लोगों के बीच में जाऍं, और वहाँ चुनाव हो रहे हैं, वही दस लोग जो हैं उसमें मतदाता हैं; और आप उन सबसे कहें, ‘मैं बहुत बड़ा आदमी है, बहुत बड़ा आदमी हूँ’, आप फ़ेक करें, आप स्वांग करें?

और वो जो दस लोग हैं वो इसी बहकावे में आ जाऍं कि आप बड़े आदमी हैं तो आपको वो अपना वोट दे दें, जब वो वोट दे दें, तो आप वाक़ई बड़े आदमी बन जाओगे। तो आपने अभिनय किया बड़ा आदमी होने का, इसके कारण उन लोगों ने आपको वोट दे दिया, जब वोट दे दिया तो आप वाक़ई बड़े आदमी हो गये। ये कहानी सुनने में अच्छी लगती है, ऐसे नहीं होता; कोशिश कर के देख लेना। और दूसरी बात अगर आप ये करोगे भी, तो ये करके आप किसका भला कर रहे हो? अपना, दूसरों का; क्या कर लोगे? ये करके आप अपने लिए ख़तरा और दुश्मन और समस्या ही तो तैयार कर रहे हो? फिर कोई ऐसा पद है अगर जो हासिल ही किया जाता है मूर्खों के मत के द्वारा, तो उस पद की क़ीमत कितनी होगी? पहली बात; दूसरी बात मान लो तुम उस पद पर पहुँच भी गये, तो तुम्हें अब उस पद पर किन लोगों को सन्तुष्ट करके रखना है? मूर्खों को। और मूर्ख तो सन्तुष्ट तभी होते हैं जब उनके साथ कोई मूर्खता का काम किया जाए, जैसे तुमने किया था कि उनको बेवकूफ़ बना दिया था।

तो अब उस पद पर बैठकर तुमको लगातार करना भी क्या पड़ेगा? वही मूर्खों को सन्तुष्ट करते रहना पड़ेगा बार-बार; और वो किसी सही काम से सन्तुष्ट होने वाले नहीं। जैसे तुम ग़लत थे और वो तुम्हारे बहकावे में आ गये, वैसे ही वो हर ग़लत चीज़ के बहकावे में आ जाऍंगे। कोई तुमसे भी ज़्यादा बड़ा नौटंकीकार निकलेगा तो वो मैदान मार ले जाएगा, तुम बैठे ही रह जाओगे, तुम कहोगे, ‘ये तो और अव्वल दर्ज़े का झूठा निकला!’ समझ में आ रही है बात? तो दुनिया में कोई भी सही काम, ऊँचा काम इस तरक़ीब से नहीं किया जा सकता।

हाँ तुम्हारी निगाह ही किसी बहुत छिछोरी चीज़ पर हो, तो लगा लो ये तरक़ीब इससे कुछ हासिल होगा नहीं। फिर तुमने बात विज़ुअलाइज़ेशन (कल्पना) की करी; देखो, तुम विज़ुअलाइज़ कैसे करोगे उसका जो विज्ञान है वो तो समझो।

अच्छा तुम विज़ुअलाइज़ करो ज़रा कि तुम बृहस्पति ग्रह पर घूम रहे हो, करो विज़ुअलाइज़; करा? अभी-अभी जो तुमने देखा उसमें तुमने बृहस्पति की सतह कैसी देखी? कैसी है, एकदम समतल है, सपाट है, कैसी है?

श्रोता: ऊबड़-खाबड़।

आचार्य: उबड़-खाबड़ है, अच्छा! ऊबड़-खाबड़ है, बंजर है; वो तुमने जैसी भी देखी, वैसी तुमने पहले कहीं और देखी है कि नहीं देखी है? वैसी तुमने अगर नहीं भी देखी है तो पढ़ी है कि नहीं पढ़ी है? उसकी कोई छवि अतीत में तुम्हारे अनुभव में रही है कि नहीं रही है? रही है न?

विज़ुअलाइज़ेशन की यही बात है। तुम अपने भविष्य के लिए कुछ ऐसा विज़ुअलाइज़ (कल्पना) कर ही नहीं सकते जो तुम्हारे अतीत में बिलकुल नहीं है।

कल्पना यहीं पर तो आकर के अटक जाती है, असफल हो जाती है। जब तुम कहते भी हो कि तुम किसी नयी चीज़ की कल्पना कर रहे हो, तो तुम वास्तव में पुरानी चीज़ों को ही अलग तरीक़े से, अलग अनुपात में मिश्रित करके कुछ ऐसा तैयार कर रहे हो, जो बस बाहर-बाहर से नया दिख रहा है वो वास्तव में नया नहीं है, तो जब तुम अपने लिए एक नया भविष्य या नयी सफलता विज़ुअलाइज़ करते हो तो उसमें कुछ नया होता ही नहीं है, उसमें सब पुराना-ही-पुराना होता है।

तुमने सुन रखा था कि फ़लाना आदमी जब अमीर हो गया तो उसने इतना बड़ा मकान बनवा लिया और इतनी गाड़ियॉं ख़रीद लीं, और ऐसा-ऐसा। तो अब तुमसे कहा गया है कि तुम भी विज़ुअलाइज़ करो कि तुम सफल हो गये हो, तो तत्काल तुम ऑंखें बन्द करके क्या देखोगे?

तुम देखोगे, मेरा एक बड़ा मकान है और ये और वो है; उससे आगे तो तुम नहीं जा सकते न? जबकि तथ्य ये है कि सफलता अगर वाक़ई सफलता है, तो वो तुमको एक बिलकुल नया अपूर्व अनुभव देगी जिसके बारे में तुम कुछ जानते ही नहीं हो। नहीं समझ में आ रही बात?

अच्छे से समझिए, आपका अभी जो संसार है मानसिक; वो इसलिए है न कि अभी आप वैसे हैं, जैसे आप हैं? ठीक है? आप अभी ऐसे हैं ‘अ’ आप अभी कैसे हैं? आप ‘अ’ हैं, अपने संसार की केन्द्र पर आप ‘अ’ बिन्दु हैं।

इस ‘अ’ बिन्दु के इर्द-गिर्द आपका पूरा संसार है जिसमें आपकी कल्पनाओं का संसार भी शामिल है, आप चूॅंकि ‘अ’ हैं इसीलिए आपकी कल्पनाएँ एक ख़ास तरह की हैं।

आपकी कल्पना वैसी ही तो होती है न जैसे आप होते हैं, जब आप बच्चे थे तो आपकी कल्पनाएँ कैसी होती थीं, वैसी ही होती थीं जैसी आज हैं? तो आपकी कल्पनाएँ इसी पर निर्भर करती हैं न कि आप कैसे हैं? आप बदलते जाते हैं आपकी कल्पनाएँ बदलती जाती हैं।

बच्चे की अलग होती हैं, किशोर की अलग होती हैं, फिर प्रौढ़ की अलग होती हैं, वृद्ध की अलग होती हैं। तो अभी आप ‘अ’ हैं और उसके अनुसार आपकी सारी कल्पनाएँ हैं। ठीक है?

सफलता का क्या मतलब हुआ? सफलता का ये मतलब हुआ कि आपकी कल्पनाएँ बदल जाऍं या सफलता का ये मतलब हुआ कि उसके केन्द्र पर जो आप ‘अ’ बनकर बैठे हैं ये ‘अ’ बेहतर होकर ‘ब’ हो जाए? ‘ब से बेहतर।’ कहिए, है न?

सफलता का ये मतलब तो नहीं है न कि ‘अ’ , ‘अ’ ही रह गया उसकी कल्पनाओं में आपने कुछ नये रंग भर दिये; ये तो कोई बात ही नहीं हुई, फिर तो जो बेहतरी हुई भी है, वो बड़ी कृत्रिम है, बड़ी बाहरी है, है न?

तो अब बनना है ‘ब’ सफलता का मतलब है ‘ब’ बनना, और ‘ब’ का तो संसार ही दूसरा होगा, ‘ब’ की कल्पनाएँ भी दूसरी होंगी , ‘ब’ की दुनिया ही दूसरी होगी।

लेकिन ‘ब’ बनने का विज़ुअलाइज़ेशन आप कब कर रहे हो? ‘अ’ बनकर। ‘अ’ जो कुछ भी विज़ुअलाइज़ करेगा, वो कहाँ रहेगा? उसके अपने दायरे के भीतर का; और ये जो दायरा है ये ‘ब’ तक उसे ले ही नहीं जा सकता; क्योंकि ‘ब’ का तो दायरा ही दूसरा है। ‘अ’ और ‘ब’ अलग-अलग आयाम में है न; बिलकुल एक दूसरे से कटे हुए हैं, हटकर के हैं।

‘अ’ अधिक-से-अधिक ये कर सकता है कि बहुत विज़ुअलाइज़ करे , खूब कल्पनाओं की उड़ान मारे, तो अपनी ही कल्पना का या अपने ही संसार का जो दायरा है उसको थोड़ा और विस्तृत कर ले; कर लो उससे कोई बहुत अन्तर नहीं पडे़गा, तुम तो वही रह गये न जो तुम थे।

पाॅंच साल का बच्चा तुम पहले भी थे पहले तुम ट्रेन से खेलते थे, खिलौना। पाॅंच साल के बच्चे तुम अभी भी हो, अब तुमको खिलौने में हवाई जहाज़ दे दिया गया है, लेकिन तुम पाॅंच ही साल के रह गये खेलते खिलौनों से ही रह गये।

क्या कर रहे थे बैठकर? विज़ुअलाइज़। वो पाॅंच साल वाला विज़ुअलाइज़ करेगा भी तो क्या करेगा? कि आज मेरे पास ट्रेन है कल मेरे पास खिलौना जहाज़ आ जाएगा।

तो लो उसको खिलौना जहाज़ मिल गया; इससे उसकी कोई तरक्की हो गयी क्या? समझ में आ रही है बात?‘ब’ बनने का मतलब होगा, तुम ‘अ’ को छोड़ दो उसी को छोड़ दो जो विज़ुअलाइज़ेशन करना चाहता है। विज़ुअलाइज़ेशन कौन कर रहा था? ‘अ’, ‘ब’ बनने के लिए तुम्हें अपनेआप से दूर जाना पड़ेगा, अपनी कल्पनाओं को और विस्तार नहीं देना है, तुम ही हो कल्पना देने वाले अपनेआप से आगे जाना है।

‘ब’ का जो संसार होगा वो एकदम कैसा होगा? नया और अलग; जिसकी ‘अ’ अनुभव करना तो छोड़ो, कल्पना भी नहीं कर सकता था। तो जो लोग कहते हैं कि हमें तो साहब विज़ुअलाइज़ेशन से बड़ा फ़ायदा हुआ है, बड़ी तरक्की हुई है – समझ लेना कि इनकी इतनी ही तरक्की हुई है कि पहले इनके हाथ में खिलौना रेल थी, अब इनके हाथ में खिलौना जहाज़ आ गया है।

तरक्की तो हुई है साहब, बिलकुल हुई है; हॅंस देना कि खूब तरक्की करी बेटा तुमने! तो ये विज़ुअलाइज़ेशन वगैरह बेकार की बातें है, आध्यात्मिक दृष्टि से मूर्खता की बातें है, लोग अगर इनमें फॅंस रहे हैं तो इसका मतलब ये है कि लोग ईमानदारी से उत्सुक ही नहीं हैं तरक्की करने के लिए।

‘अ’ से ‘ब’ पर आने के लिए सर्वप्रथम ‘अ’ को देखना पड़ता है कि अगर मैं ‘अ’ बना रह गया तो अपने इसी छोटे और बचकाने संसार में क़ैद सीमित रह जाऊॅंगा, मुझे ‘अ’ रहना ही नहीं है। मुझे ‘अ’ बने-बने और नहीं पंख पसारने हैं, मुझे ‘अ’ रहना ही नहीं है, मैं ये ‘अ’ छोड़ना चाहता हूँ, मुझे ‘अ’ बनकर और कुछ नहीं करना है, और कुछ कर गया ‘अ’ बनकर तो मैं और ज़्यादा ‘अ’ रह गया। मुझे तो ‘अ’ से आगे बढ़ना है।

‘अ’ के अतीत जाना है, ट्रांसेंड (पार जाना) करना है, वो बिलकुल अलग बात होती है। एक्सपेंशन (विस्तार) और ट्रांसेंडेंस (पार जाना) बिलकुल अलग बातें होती हैं न; विस्तार पा जाना और अतीत चले जाना ये दो अलग बातें हैं या नहीं है? कीचड़ में आपका घर है, पहले आपका घर था एक कमरे का, और चारों तरफ़ क्या है? कीचड़-ही-कीचड़ है, बहुत लम्बी-चौड़ी कीचड़ उसके बीच में आपका घर है। पहले आपका घर था; आपने घर बढ़वा लिया, चार कमरे का कर दिया, ये क्या हुआ? विस्तार।

कर लिया चार कमरे का लेकिन रह अभी भी कहाँ रहे हो? कीचड़ में। और ट्रांसेंडेंस क्या है अतीत जाना क्या है? कि वो कीचड़ का संसार ही छोड़ दिया; ऊपर उठे गये, अतीत चले गये। आगे, बियॉन्ड तो अध्यात्म क्या सिखाता है? बियॉन्डनेस वो ये नहीं सिखाता कि कीचड़ में हो वहीं पर और पंख पसारकर लोटो।

प्र: और इस कॉन्सेप्ट (अवधारणा) में कितना सार्थकता है कि आप विज़ुअलाइज़ करके उस लक्ष्य तक पहुॅंच सकते हैं? आचार्य: कोई भी कर सकता है, कोई भी करेगा परिणाम एक ही रहेगा, जहाँ पर हो वहीं पर थोड़ा सा विस्तार पा जाओगे, जहाँ हो वहीं थोड़ा विस्तार पा जाओगे। ये ऐसा सा है, समझ लो कि जैसे तुम जहाँ रहते हो उस क्षेत्र के आस-पास माॅंस का बाज़ार हो बहुत बड़ा; ठीक है? तो पूरे इलाके में दुर्गन्ध फैली रहती है किसकी? माॅंस की। और तुम कहो मैं यहीं पर एक प्लॉट और ख़रीद लेता हूँ, मैं बड़ा आदमी हो रहा हूँ ये बुद्धिमानी है या मूढ़ता? बोलो? हाॅं, तो ये ऐसा ही है कि तुम अपनी जगह नहीं छोड़ना चाहते, हाँ उस जगह पर बैठे-बैठे तुम और बड़े बन जाना चाहते हो। ये विज़ुअलाइज़ेशन है।

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