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लेख
न कैद की कसक, न मुक्ति की ठसक || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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हद चले सो मानवा, बेहद चले सो साध।

हद बेहद दोनों तजे, ताका मता अगाध।।

~ संत कबीर ~

वक्ता: और ये आपने लिखा है:

हद टपे सो औलिया, बेहद टपे सो पीर।

हद बेहद दोनों टपे, ताका नाम कबीर।।

दोनों एक ही हैं। आदमी लगातार रहता है वर्जनाओं में, सीमाओं में। ये आपका साधारण मानव है, गृहस्थ, यही आपकी अधिकांश जनसंख्या है। ‘ हद चले सो मानवा, ’ वो अपनी हदों में कैद रहता है हमेशा। उसके लिए जीवन का मतलब ही है सीमाएं, उसके शरीर की सीमाएं, मन की सीमाएं, समाज की सीमाएं, समय की सीमाएं। ‘ हद चले सो मानवा’’ । ध्यान से देखेंगे जब, तो दिखाई देगा कि हमारे लिए जीवन का और कोई अर्थ है ही नहीं, सीमाओं के अलावा। आप जो कुछ भी कहेंगे वो सीमित ही होगा, आप जीवन को जो भी अर्थ देंगे, वो अर्थ ही इसीलिए हैं क्योंकि उसकी एक सीमा खिंची हुई है। सीमा हटा दीजिए, अर्थ ख़त्म हो जाएगा।

आपसे पूछें जीवन किस लिए हैं? आप कहेंगे “मेरे परिवार के लिए, मेरे घर के लिए।” परिवार क्या है एक सीमा के अलावा? घर क्या है दीवारों के अलावा? सीमाओं को हटाते चलिए जीवन अर्थहीन होता जाएगा, जहाँ तक साधारण मानव की बात है; ‘हद चले सो मानवा’ । दुःख की ही सी बात है कि जीवन का अर्थ सिर्फ़ जीवन रेखा बन कर रह गया है।

फिर कहते हैं, ‘बेहद चले सो साध’

साधु वो जिसने सीमाओं का त्याग कर दिया,

जो समाज की दी हुई बंदिशों को नहीं मानता पर देखेंगे अगर हम ध्यान से तो साधु अक्सर अपनी एक अलग दुनिया बना लेता है। साधु ने बात बिल्कुल ठीक पकड़ी कि ये दुनिया तो सीमाओं की दुनिया है; उसने बिल्कुल ठीक कहा “ये दुनिया छोड़नी है” लेकिन ये छोड़ कर उसने क्या किया? उसने एक नई दुनिया बना दी। उसने कहा “ये भौतिक जगत है, इसको छोड़ना है।” उसने एक नया ही जगत बना दिया जिसको नाम दे दिया ‘आध्यात्मिक जगत’। ध्यान दीजिएगा, आध्यात्मिक परन्तु?

श्रोता: जगत।

वक्ता: तो कहाँ गए तुम जगत से बाहर? कहाँ गए तुम जगत से बाहर? एक गृहस्थ है, उसकी अपनी दिनचर्या है, उसकी अपनी बंदिशें हैं, उसकी अपनी समय बद्धता है और आप साधुओं को देखिए तो वहाँ भी यही सब हो रहा होता है। एक ख़ास पोशाक है जो पहननी है, जैसे आपकी एक पोशाक होती है वैसे उनकी भी है। कुछ ख़ास नियम-कायदे हैं जिनका पालन करना है, जैसे आपके अपने नियम कायदे हैं वैसे उनके अपने नियम कायदे हैं। आपके पास घर हैं, उनके पास आश्रम हैं।

तो ये कुछ ऐसा नहीं हुआ है कि सीमाओं का परित्याग कर दिया गया है, ये बस इतना ही किया गया है कि इन सीमाओं को छोड़कर के दूसरी सीमाएं खींच ली गई हैं। ऐसा नहीं हुआ है कि जगत के परे चले गए हो। बस इतना ही हुआ है कि ये जगत रास नहीं आया तो एक दूसरा जगत बना लिया है। इन्हीं को लेकर के कबीर ने बड़ा मजाक किया है कि, ‘घर को तज कर वन गए और वन तज बस्ती माही’ और दूसरी पंक्ति कुछ इस तरीके से है कि ‘मन का क्या करें, जो मन ठहरत नाही’। घर को छोड़ कर के वन जाते हो और जब वन भारी पड़ता है तो फिर वापस बस्ती में आ जाते हो; भागते ही फिर रहे हो। तलाश तुम्हें अभी भी किसी दुनिया की ही है। उम्मीद कायम है। सोच यही रहे हो कि यहीं पर कुछ ऐसा हो जाएगा जिससे छुटकारा मिल जाएगा, आनंद मिल जाएगा, मुक्ति मिल जाएगी। इस अर्थ में तुम गृहस्थ से बहुत अलग नहीं हो।

समाज से उठे तो पर कहीं न कहीं अपनी सामाजिकता को साथ लेकर के आ गये, पूरी तरह नहीं उठ पाए। कबीर कह रहे हैं ‘हद चले सो मानवा, बेहद चले सो साध’, जिन हदों को साधारण मानव पकड़ कर बैठता है साधु उन हदों को छोड़ देता है पर दूसरी हदें इख्तियार कर लेता है। ‘हद बेहद दोनों तजे, ताका मता अगाध।’ कबीर कह रहे हैं, “हम तो ऐसे हैं जिसने हद भी छोड़ दी और हदों को छोड़ना भी छोड़ दिया। हदों का भी त्याग कर दिया और हदों के त्याग का भी त्याग कर दिया। हमें इस दुनिया को छोड़कर कहीं भागना नहीं है क्योंकि हमें पता है कि भागने का कृत्य ही दुनिया है। हमें किसी और जगह नहीं जाना है क्योंकि हमें पता है कि जगह को मान्यता देने का नाम ही दुनिया है। हम जहाँ हैं, वहीं ठीक हैं। हम जहाँ है हमने वहीं पर सत्य को देख लिया है, पा लिया है। कुछ नहीं वर्जित है हमारे लिए, कुछ छोड़ना नहीं है।’’

‘हद बेहद दोनों तजे, ताका मता अगाध’। वो मन अति गहरा है, उसकी थाह ही नहीं मिलेगी। वो परम से मिला हुआ मन है जिसने हद और बेहद दोनों को ही छोड़ दिया है, जिसने छोड़ने को ही छोड़ दिया है, जिसे न पाने से मतलब है, न छोड़ने से मतलब है। जो ये तो कहता ही नहीं है कि ‘’मुझे भोगने में बहुत उत्सुकता है” और ये भी नहीं कहता कि ‘’मुझे भोगने में उत्सुकता है”, मौका मिलेगा तो भोग भी लेगा। जैसा काल, जैसी स्थिति और राम जैसा रखे, वो वैसा चलेगा।

ऐसा आदमी किसी भी तरीके से कल्पित नहीं हो सकता। आप चाहो कि किसी तरीके से उसका एक ख़ाका खींच लो, उसके बारे में कोई धारणा बना लो, आप नहीं कर पाओगे, आप फंस जाओगे। गृहस्त का ख़ाका खींचना बहुत आसान है, आपसे कहा जाए कि ग्रहस्त पर एक लेख लिखो, निबंध लिखो, आप तुरंत लिख दोगे क्योंकि गृहस्त की कुछ पहचान होती है, गृहस्त के कुछ ढंग होते हैं, बंधे हुए तरीके होते हैं, हदें होती हैं।

‘हद चले सो मानवा’, इसी कारण आप पहले से ये भी बता सकते हो कि अमुख स्थिति में गृहस्त का, सामाजिक आदमी का व्यवहार क्या होगा, वो क्या सोचेगा और क्या करेगा; ये बातें पूर्वनिर्धारित की जा सकती हैं। साधु भी कैसा चलेगा आप ये भी बता सकते हो, आप उसका खाका भी खींच सकते हो। आप उसका पूर्व अनुमान लगा सकते हो कि “ऐसा बोला गया तो साधु का उत्तर क्या आएगा? यदि ये स्थिति हो तो साधु का कर्म क्या होगा? अगर आप साधुओं को भली-भांति जानते हो तो आप पूरा अनुमान लगा लोगे।

श्रोता: कि मैं ये बोलूँगा, तो ऐसा रिस्पोंस आएगा।

वक्ता: बिल्कुल आएगा। लेकिन जो तीसरा आदमी है जिसने हद बेहद दोनों का त्याग कर दिया है, आप इसके सामने असहाय हो जाओगे, आप इसके बारे में दो अक्षर नहीं कह सकते। छोड़ो लेख लिखना, छोड़ो निबन्ध लिखना क्योंकि ये आपकी कल्पना से बाहर की बात है। ये किसी ढ़ांचे में बैठता ही नहीं है, न हद के ढ़ांचे में बैठता है, न बेहद के ढ़ांचे में बैठता है; आप इसके बारे में कुछ भी बोलोगे कैसे? ये पूरे तरीके से अकल्पनीय है, इनकन्सीविएबल है। ये बार-बार आपकी धारणाओं को तोड़ेगा। आप इसके विषय में जो भी सोच के बैठे होगे हर दो दिन बाद आपको पता चलेगा वो टूटा और क्योंकि इसका कुछ भी पूर्व नियोजित नहीं होता इसीलिए ये आपकी पकड़ में भी नहीं आएगा; आप इसके मालिक नहीं बन पाओगे।

मालिक बनने के लिए जिस पर मालकियत कर रहे हो उसकी थोड़ी समझ होनी चाहिए। आप जिसका कुछ पता ही नहीं कर सकते, उसको कैद कैसे करोगे? उस पर हुक्म कैसे चलाओगे? हुक्म चलाने के लिए भी पहले ये आश्वासन तो होना चाहिए कि “मैं जो हुक्म दूँगा, उसका इस तरीके से पालन होगा।” आपको तो ये भी नहीं पता कि आप हुक्म दोगे तो उधर से उत्तर क्या आएगा? वो एक पूरे तरीके से अज्ञात वस्तु है जिसको जाना ही नहीं जा सकता। ‘ताका मता अगाध’; अगाध है, अगाध! जान ही नहीं सकते। एक ही तरीका है उसको जानने का..

श्रोता: उसके जैसे हो जाओ।

वक्ता: बस। और फिर जानने की कोई इच्छा ही शेष नहीं रहेगी।

श्रोता: डिटेल्स तो फिर भी जान सकते हैं।

वक्ता: तब भी नहीं। पर जब वैसे हो गए तो फिर आप डिटेल्स में चलते ही नहीं हो न, आप जिंदा ही नहीं हो डिटेल्स में।

श्रोता: आपकी विशेषताओं में रूचि ही नहीं रहेगी।

वक्ता: और आपकी उत्सुकता भी जाती रहेगी। छोटी-छोटी जानकारी इकट्ठा करने की आपकी सारी उत्सुकता ख़त्म होती रहेगी, आप जानना ही नहीं चाहोगे। फिर तो वैसा ही है कि जैसे एक बड़ी नदी दूसरी बड़ी नदी में आकर के मिल गयी है। वहाँ कौन सी बूंद किससे टकराई क्या फ़र्क पड़ता है? एक हो गए न, बात खत्म।

पता नहीं अभी कितनी दूर की बात है पर कबीर इतना तो स्पष्टया कह ही रहे हैं कि “हदों को तजें।” देखें कि कहाँ पर आपने अपने लिए हदें, सीमाएं खींच रखी हैं। जहाँ कहीं भी हदें खींच रखी हैं, वहीं आपका दुःख है। जहाँ कहाँ भी आपने सीमाएं खींच रखी हैं, ठीक वहीं पर आपका दुःख बैठा हुआ है।

श्रोता: सर, इसका मतलब इसका जो दूसरा भाग था उसमें बेहद को भी तजने की बात की है। बेहद को तजने का मतलब?

वक्ता: बेहद का अर्थ यह है कि जिसको आप बेहद बोल रहे हो, वो एक नए प्रकार की हद है। तो भूल में मत आ जाना। तुमने सोचा ही है कि तुमने सीमाओं का त्याग कर दिया, तुमने सीमाओं का त्याग नहीं किया है, तुमने अपने लिए नई सीमाएं बना ली हैं। तो कबीर कह रहे हैं कि सीमाओं को त्यागो पर माया से सावधान रहो क्योंकि त्याग ही एक नई सीमा बन जाएगा। “मैं कौन हूँ? त्यागने वाला,” तो तुमने सीमा बना ली न अपने लिए?

श्रोता: त्यागने वाले तो ख़ुद त्यागी बन जाते हैं। उनका भी एक समूह बन जाता है, त्यागने वालों का एक समूह।

वक्ता: तो जब कह रहे हैं कबीर कि “हद और बेहद दोनों को तजो,” तो वो वस्तुतः हदों को ही त्यागने की बात कर रहे हैं। ये जो बेहद है, बेहद का अर्थ यही है कि जिन्होंने भी आज तक दावा किया कि “हम सीमातीत हो गए हैं, हम हदों के पार चले गए हैं,” वो हदों के पार नहीं गए थे, उन्होंने बस नई हदें बना ली थी। तो कबीर सावधान रहने के लिए कह रहे हैं, ‘माया तो ठगनी भई, ठगत फिरत सब देश’। वो ऐसे ठगे तुमको, तुम नई सीमाएं बना लोगे।

शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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