आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
मुझे मरण का चाव || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
19 मिनट
743 बार पढ़ा गया

गगन दमदमा बाजिया, पड़ेया निसानी घाव। खेत बुहारया सूरमा, मुझे मरण का चाव।।

~ कबीर

आचार्य प्रशांत: जब कबीर गगन की, आकाश की बात करते हैं, तो उनका आश्य होता है मन का आकाश, चिदाकाश। वो बात कर रहें हैं कि जो आपका आतंरिक आकाश है, वहाँ पर ध्वनि हो रही है। जो ये दमदमा बज रहा है, ये और कुछ नहीं है, ये अनहद नाद है। एक ही शब्द है जो उस गगन में बज सकता है, वो नि:शब्द का नाद है।

मन भरा रहता है, आवाज़ों से, शोर से, शब्दों से और ये सब बाहरी होते हैं। जब तक मन में बाहरी ध्वनिया रहती हैं तब तक उसकी अपनी आवाज़ छुपी-छुपी सी ही रहती है। फिर कोई ऐसा भी होता है जिसकी ऐसी भी स्थिति आती है कि बाहर के सारे प्रभावों से वो खाली हो लेता है। वो अपने को और बाहर को अलग जान लेता है। उसके लिए संभव हो पाता है ये भेद कर पाना कि मैं बाहरी नहीं हूँ। अब वो ‘बाहरी प्रभावों’ का और ‘बाहरी शोर’ का भी ग़ुलाम नहीं रह जाता। जिसका मन बाहरी से खाली हो लिया वो फिर अपना अंतर नाद भी सुन पाता है। ऐसे के लिए ही कह रहें हैं कबीर कि “गगन दमदमा बाजिया।” कहने को तो वो मौन की ध्वनि है। कहने को तो वो नि:शब्द है। लेकिन जो सुनते हैं, उनके लिए वो किसी नगाड़े से कम नहीं है। किसी दमदमे से कम नहीं है।

बाहर के प्रभावों में बहोत दम है ये तो हम अकसर कहते रहते हैं। बाहर की आवाज़ें हम पर हावी हो जाती हैं ये भी हमने बहोत अनुभव करा है। लेकिन जो उस नाद को सुनते हैं सिर्फ़ वही जानते हैं कि जिसने उसको सुन लिया, अब उसके सामने कोई विकल्प नहीं रह जाता। इतनी ताकतवर आवाज़ है उसकी। फिर दुनिया भर की सौ आवाज़ें चाहे वो कहीं से आ रहीं हों, दुनिया भर की सौ आवाज़ें भी आपको अपनी तरफ आकृष्ट नहीं कर सकती हैं अगर चिदाकाश में उठती वो मौन की आवाज़ आपको सुनाई देने लगी। इतनी कशिश हैं उसमें, इतना खिचाव हैं उसमें।

इसी कारण दमदमा है, नगाड़ा है। निर्विकल्प हो जाएँगे आप। कोई दूसरा रास्ता ही शेष नहीं बचेगा। भीतर से मालिक जो कह रहा होगा वो करना ही पड़ेगा। एक तरफ से देखें तो ग़ुलामी की सी हालत है, कि कुछ और कर ही नहीं सकते। और दूसरी तरफ से देखें तो बड़ी सुविधा की हालत है, क्योंकि कुछ और करने का विकल्प ही नहीं है।

तो ना सोच है ना विचार है, सीधा सहज कर्म है अब। सुनो, समझो और उसे कर्म में तबदील होने दो।

‘गगन दमदमा बाजिया’ बज तो रहा ही है, लगातार सबके लिए बज रहा है। ऐसा नहीं है कोई विशेष आयोजन करना पड़ेगा। ‘सुनने वाले’ का फेर है। ‘सुनने वाले’ के कान जब तक दूसरी ही आवाज़ों से आकृष्ठ हैं, उसको मौन का संगीत सुनाई देता नहीं है। वो सब कुछ सुन लेगा सिर्फ वही नहीं सुन पाएगा जिसमें सार है। वो सुनने वाला है ही वही जो सब कुछ सुन सकता है। वो एक सामाजिक कृति है, उसको पैदा ही समाज ने किया है।

कहानी आगे बढ़ती है — ‘गगन दमदमा बाजिया, पड़िया निसानी घाव’। बिलकुल उपयुक्त शब्द चुना है कबीर ने घाव। जिसके अंतर आकाश में इतनी स्पष्टता आ जाती है कि नाद उठने लगता है। बाहर-बाहर तो उसको घाव ही झेलने पड़ते हैं। आपके शरीर पर पड़े घाव ही प्रमाण देंगे इस बात का कि आपके मन में उस परम की रणभेरी बज रही है।

युद्ध में क्या होता है? दुदुम्भी बजती है और उसके तुरंत बाद योद्धाओं के शरीर कटे-फटे, शत-विक्षत और खून ही खून चारो ओर। वहीँ से कबीर ने प्रतीक लिया है कि जिसके मन में ये नगाड़ा बजने लगा तो अब वो युद्ध में उतर गया और उसे घाव खाने ही पड़ेंगे। वही प्रमाण है, वही निशानी है।

ये हो ही नहीं सकता कि भीतर से तो नाद उठे और बाहर आप तब भी समायोजित रहो, सामाजिक रहो; नहीं हो सकता। नाद उठेगा नहीं की घाव पड़ेगा ज़रूर। और हुआ भी यही है हमेशा इतिहास में।

जिनके भी भीतर से मौन की, परम की आहटे उठनी शुरू हुई हैं, उन्हें घाव ज़रूर मिले हैं। वही उनका पुरस्कार है।

अपने घावों को, उसके रिसते-रिसते खून को योद्धा अपनी बदकिस्मती नहीं मानते। वो कहते हैं कि ये तो तमगे हैं मेरे। इनका मिलना लाज़मी था। सौभाग्य मेरा कि मुझे ये मिले। वो डरते नहीं हैं, वो शिकायत करने नहीं जाते। वो ये नहीं कहते हैं कि मेरे साथ तो कुछ अच्छा हुआ था, मैं तो बाकियों से श्रेष्ठ हूँ, मेरा चित्त तो साफ़ हुआ, फिर मुझे क्यों घाव पड़े? मुझपर क्यों आक्रमण हुए? वो ये शिकायत करने जाएँगी ही नहीं। उन्हें पता है कि ऐसा होना ही है।

बल्कि यदि ऐसा ना हो तो अचरज की बात होगी। आप यदि ये दावा करते हो कि मन की शुद्धि पा ली है, कि परम से सम्पृक्त हो गए हो, कि बाहरी आवाज़ों से मुक्त हो गए हो, कि अंतर नाद , मौन सुनाई देता है। ये सब आपके दावें हैं, और इन सब के साथ–साथ आप घर-परिवार, समाज में भी बड़े सम्माननीये हो तो मामला कुछ जमा नहीं। ये संभव ही नहीं है। देखने में तो ये आता है कि जितने हैं, जो ये दावा करते हैं कि हमारा योग हो गया, हम मिल गए, हमने जान लिया उन्हें बड़े उचे आसनों पर बैठाया जा रहा है। उनके ऊपर फूलों की बारिश है। उनकी बड़ी प्रतिष्ठा है। घाव कहीं नज़र नहीं आते। टेलीविज़न पर उनका सीधा प्रसारण हो रहा है। पर कबीर कह रहें हैं कि ना, जिसके अंतर-गगन में ध्वनि उठेगी उसकी तो निशानी ही घाव है और घाव ना दिखाई दे तो समझ लेना इसके अभी कोई ध्वनि उठी ही नहीं। ये कैसी बात है?

जीज़स को उठी थी ध्वनि और घाव खाए उन्होंने। और मंसूर को भी उठी थी ध्वनि और घाव उसने भी खाए। बुद्ध ने भी खाए, महावीर ने भी खाए। और ये कैसे लोग हैं, या ऐसा है कि स्वर्णयुग आ गया है मानवता का, और मानवता ने *मंसूरों*को और ईसाओं को अचानक से सम्मान देना शुरू कर दिया है। नहीं ऐसा तो नहीं हुआ है। लोग तो वैसे के वैसे ही हैं। इसका मतलब एक ही है कि वहाँ अभी कोई दमदमा बजा ही नहीं है। ये सब कहने की बात है कि सम्मान करो, प्रेम करो। जिस क्षण आपके सामने कोई बुद्ध आ जाएगा आपकी एक ही इच्छा होगी कि इसको मारो और पीटो। और भगादो उसको, आप उसपर बिना आक्रमण करे रह नहीं सकते।

क्या लग रहा है आपको जब कबीर कह रहें हैं कि ‘पड़िया निसानी घाव’। वो ‘घाव’ देने कोई किसी दूसरे ग्रह से आता है? आप ही घाव देंगे, और घाव देने के लिए आप विवश हैं। आपकी अनिवार्यता है, क्योंकि यही सीखा है।

*बुद्ध* का होना ही हमारे लिए एक अपमान की बात है। उसका होना ही लगातार-लगातार हमें ये बताता है कि हमारे रास्ते कितने टेड़े, कितने गलत हैं और कितने मूर्खतापूर्ण हैं। और कोई दिन-रात आपको ये ऐहसास कराए, अपने होने भर से ये ऐहसास कराए, कुछ ना बोले तब भी ये ऐहसास कराए कि तुम पगले हो, तो आपके सामने विकल्प क्या है? आपको उसे मारना ही पड़ेगा, आप चिढ़ जाओगे। और यदि आपकी मारने की इच्छा नहीं हो रही है बल्कि उसे और सम्मान देने की इच्छा हो रही है, इसका एक ही अर्थ है कि वो आपके ही जैसा है। फिर तो *‘एक डाल दो पंछी बैठे कौन गुरु कौन चेला’*।

‘खेत बुहारया सूरमा’, ये जो योद्धा है, ये जो ‘सूरमा’ है, इसका रणक्षेत्र ही इसका मंदिर है। वही इसकी कर्मभूमि है। क्या है क्षेत्र? ‘संसार’ ही एक क्षेत्र है। भगवत गीता में जब हम ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभागयुग’ पर आते हैं, तो खूब समझाया है कृष्ण ने, ‘जो दिखाई दे, जो प्रतीत हो, ये पूरा संसार, यही क्षेत्र है तुम्हारा’। उसी की बात कबीर कर रहें हैं। खेत बुहारया सूरमा।

ये सूरमा, ये योद्धा, ये संत, अंदर से पूरा भर चुका होता है। या यूँ कहिये कि खाली हो चुका होता है, एक ही बात है, वहाँ तो अब सिर्फ मौन बचा है और उस मौन ने उसको पूरा लबरेज़ कर दिया है।

अब उसका जीवन अपने लिए होता नहीं। अपना जैसा उसका कुछ बचा ही नहीं। वो होता ही इसलिए है कि अब वो ‘खेत बुहारे’। खेत बुहारने का अर्थ क्या हुआ? अब वो संसार के लिए है, संसार की सफाई के लिए है। ‘खेत बुहारया सूरमा’ सफाई करने चलेगा तो उसे साधूवाद नहीं मिलेगा। सुनने में बात अजीब लगती है, आप कहेंगे क्यूँ ऐसा? कोई आ करके सफाई कर रहा हो, गन्दगी हटा रहा हो, तो हम तो आभार व्यक्त करेंगे। नहीं, आप आभार नहीं व्यक्त करेंगे। ‘खेत बुहारया सूरमा, मुझे मरण का चाव’ — कबीर कह रहे हैं जिसे मरने का चाव हो वही आकर अपना घर साफ़ करे।

क्योंकि हम ऐसे आसक्त हैं गंदगी से की जिसने आकर हमारा घर साफ़ किया, हमने उसी को मार डाला।

और जैसे ही निकलेगा सूरमा, सफ़ाई करने के लिए, आप चाक़ू, तलवार, कुल्हाड़ियाँ, बंदूकें लेकर पहुँच जाओगे की इसे मार ही डालते हैं की ये हमारी पवित्र गन्दगी साफ़ करने आ गया। गंदगी, गंदगी है ये तो सूरमा को दिख रहा है। आपके लिए क्या है? आपके लिए तो ‘पवित्र’ गंदगी है। आपक कहोगे अरे! ये हमारी मान्यताओं को साफ़ करने आ गया, मान्यताओं पर हमला कर रहा है। आप चिढ़ उठोगे, तुरंत तलवार निकाल लोगे। कुछ भी करना, हमारी धारणाओं पर, हमारी मान्यताओं पर हमला मत करना।

अरे! ये डेढ़ हज़ार साल पुरानी गंदगी है, कोई आज की है। तुम्हारी क्या हिम्मत की तुम इसे साफ़ करदो? तो मरना तो उसकी नियति है, घाव खाना तो उसकी नियति है। और आप जब उससे कहोगे की मार डालेंगे तुझे, तो वो मुस्कुरा कर इतना ही कहेगा की मुझे मरण का चाव। मुझे तो चाव ही मरने का और तू मुझे क्या मारेगा मैं तो कबका मर चूका हूँ।

“मरण मरण सब करै, मरण न जाने कोए।

मैं कबीरा ऐसा मरा, दूजा जनम न होये।।”

मैं तो कबका मर चूका हूँ — मुझे मरण का चाव। वो दुसरे होंगे जिन्हें मरने से डर लगता है। आओ! मारो मुझे। वही मरेगा जो मर्त है, उसे मर ही जाने दो। हमने तो अपना अमर स्वरुप जान लिया है, वो नहीं मरेगा। खेत बुहारया सूरमा, मुझे मरण का चाव — कैसे निपटेंगे आप ऐसे आदमी से। ये जो इंसान है, ये मानवता के पैर में काँटे की तरह गाड़ा हुआ है। पैर में क्या छाती में गड़ा हुआ है काँटे की तरह और निकल नहीं रहा है। बड़ी दिक्कत है, हमारी सबकी सामूहिक इच्छा यही है की किसी तरह इसे निकाल कर फेक दो, पर ये ऐसा जिद्दी है की निकलता नहीं है।

आपको बाड़ी सुविधा ही जाए। न गगन से कोई आवाज़ आए, न कोई सूरमा हो, न कोई खेत बुहारने के लिए इच्छुक हो, बाड़ी सुविधा रहे।

हम जिन तरीकों से जी रहे हैं, जिन धारणाओं को पकड़ के चले जा रहे हैं उन्हीं पर चलते रहें। कोई आए ही न परेशान करने, कोई आए ही न टोका-टाकी करने। कोई आए ही न जो कहे की अरे! पागल गंदगी पकड़ के बैठे हो! बड़ी सुविधा रहे। पर इनका क्या करें की ऐसे पागल की अनायास टपक ही पड़ते हैं पता नहीं कहाँ से जिन्हें मरने का चाव होता है। जिन्हें घाव खाने में ही आनन्द होता है। जो घाव को देखते हैं और कहते हैं अच्छा हुआ प्रसाद मिला है, तमगा है।

बड़ा कष्ट है हमें। किसी तरीके से इन लोगों का होना ही अगर बंद करा जा सके, कोई विधि निकाली जा सके की ये आयें ही न हमें परेशान करने तो बड़ा अच्छा रहे न। मज़ें में सोएँ, सपने देखें। ये आतें हैं, हमारे सपने तोड़ते हैं।

पर एक बात याद रखिएगा की मानवता आज जहाँ भी है, ऐसे ही चंद मुट्ठी भर लोगों की वजह से है। बाकी तो कीड़े मकौड़े होते हैं, आते हैं और चले जाते हैं।

यही कुछ मुट्ठी भर लोग हैं जो सत हैं, सार हैं इस धरती का (साल्ट ऑफ़ दी अर्थ)। आपको वो बड़े चुभें हैं, उनसे बड़ा कष्ट रहा है। लेकिन वो न हों तो कुछ भी न हो।

ऐसे ही लोगों के लिए किसी कवि ने कहा है की उम्र सारी गुनाहों में बिताकर, जब मरूँगा, देवता बन कर पुजुंगा। ये लोग जब तक जिन्दा रहे हैं, आपने इन्हें गुनाहगार ही घोषित किया है। और ये ही दिखाई दिया ही की इन्होंने ये गलतियाँ की, ये गुनाह किए। और गुनाह तो वो करते ही हैं। आपके सारे नियम कायदे तोड़ ही देंगे। वो आपके मन के अनुसार चलते ही नहीं। उनको तो उनका कोई दूसरा ही मालिक मिल गया है, वो सिर्फ उसके अनुसार चलते हैं, वो आपके अनुसार नहीं चलते।

आपकी सारी नयतिकता तोड़ देते हैं। उनका सारा कर्म ऐसे ही दिखाई देता है की ये तो घोर निंदनीय, घोर अनयतिक कर्म है, तो आप उन्हें गुनाहगार घोषित करते रहते हैं।

उम्र सारी गुनाहों में बिताकर, जब मरूँगा, देवता बन कर पुजुंगा।

हाँ, जब वो मर जाते हैं तो उसके बाद फिर आप अपनी ही रक्षा के लिए, अपनी ही ग्लानी में फिर उनके मन्दिर बनाते हैं, उनकी दरगाहें बनाते हैं, बड़ा आँसूं बहाते हैं; हो सकता है न भी बहायें। उसी कविता में कवि आगे कहता है, सभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो, वो हम ही बदनाम लोगों ने रची है।

आज जो कुछ भी आपके पास जो आपको शान्ति देता है, जिसके कारण आप इंसान कहलाने के हकदार हो तो वो इन्हीं लोगों से मिली है। इन्हीं लोगों से, जिनको आपने घाव दिए बदनाम किया। जो आपको फूटी आँख नहीं सुहाए। जिनको लेकर आपके मन में हमेशा कलेश, शंकाएँ बनी ही रहीं।

देखिये, जहाँ तक इस शरीर की बात है, एक ही जन्म है। और आप तो आपने आपको शरीर ही जानते हैं तो उसका तो एक ही जन्म है। आपका एक ही जन्म है। आप जो हैं, उसका एक ही जन्म है। बहुत समय है नहीं। थोड़ा हिम्मत करके ऐसा होने का भी रस ले लीजिए।

कौतुहल के नाते ही सही ज़रा ध्यान तो दीजिए की कैसा होगा वो। जिसको दीखता होगा की इन रास्तों पर बड़ा खतरा है, जान का जोखिम है और फिर भी वो हँस के कहता होगा — मुझे मरण का चाव, मुझे इन्हीं पर चलना है। हमें जहाँ दिखाई देता है की खतरा है, हम अपनी बड़ी होशियारी समझते हैं इस बात में की उन रास्तों से अलग हो लें, मुड़ लें और ये कैसा होगा पागल, मस्त। थोड़ा इसकी मस्ती को भी अनुभव कर लीजिए।

की हाँ मैं जानता हूँ की मेरी बर्बादी तय है पर बर्बाद होने से डरता कौन है? कैसी होंगी उसकी आँखें, कैसा दीखता होगा वो जब वो बोलता होगा की जा रहे हैं बर्बाद होने; बड़ा आनन्द है। और कैसी हैं हमारी आँखें जिनमें से डर चूता रहता है हर समय।

क्या राज़ है जो उसने जान लिया है और जो हमें नहीं पता? कौनसा सच है जो उसको प्रकट हो गया है और हमसे छुपा हुआ है? थोड़ा ध्यान दीजिये, स्पष्ट हो जाएगा।

एक बार कहा था न की अंतर गगन में वो नाद तो हमारे बज ही रहा है। हमें भी सुनाई पड़ जाएगा, वो बेपरवाही, वो बेख़ुदी उपलब्ध हमें भी है। कैसा होगा वो जिसको आप घाव पे घाव दिए जाते हो और वो फिर भी आपका घर बुहारे जाता है? कैसा होगा वो जिसका दिल इतना बड़ा है और कैसे हैं हम जो अपनी क्षुद्रताओं और संकीर्णताओं में जिए जाते हैं? किसी ने मुझे दो कड़वे शब्द बोल दिए, किसी ने मेरा पाँच रूपए का नुक्सान कर दिया, गणित, हिसाब-किताब, इर्ष्या, द्वेष, सीमाएँ और वो कैसा होगा?

एक जेंन प्रतिमा है जिसमें एक योद्धा खड़ा है, जिसके एक हाथ में तलवार है और दुसरे हाथ में किताब है। एक दूसरी भी उसकी छवि है जिसमें एक हाथ में तलवार है और दुसरे में प्रकाश है। आज कबीर हमें तीसरी छवि दे रहे हैं — एक हाथ में तलवार है और दुसरे हाथ में झाड़ू। खेत बुहार्या सूरमा पर गंदगी इतनी है की सूरमा आते हैं और चले जाते हैं पर साफ़ होते दिखाई नहीं दे रही। पकड़ के रखा हुआ है हमने गंदगी को। पवित्र नाम दे दिए हैं गंदगी को, ऊँचे से ऊँचे नाम दिए हैं और हिम्मत ही नहीं पड़ती हमारी की आँखें खोल कर साफ़-साफ़ देख तो लें हम की जिस चीज़ को हम इतना प्यारा, इतना पवित्र बोल रहे हैं वो है क्या?

ऐसे डरे हुए हैं की आँख खोलकर देख भी नहीं पाते। आक्रंत हैं। सत्य बेताब है आने को। आता है, बार-बार सामने आता है, तुरंत मुँह फेर लेते हैं, पीठ दिखा देते हैं।

सूरमा पीछे से आ करके झाड़ू लगा भी गया। संतों ने घर बुहार भी दिया। तो ज्यों ही आएँगे तो कहेंगे अरे! साफ़ कर दिया किसी ने, बिलकुल रुच नहीं रहा। जल्दी जाओ! जल्दी जाओ!, पड़ोस से कचरा उधार लेकर आओ और फिर जब उसमें से बदबू उठेगी, फिर बड़ी शान्ति मिलती है हमको। आह! अब कुछ पहले जैसा लगा, वरना खतरा था। अड़ोस-पड़ोस, चारो तरफ़ गंदगी ही गंदगी हो तो उनके मध्य में साफ़ हो जाना बड़ा खतरा होता है।

धूमिल ने कहा है की जिस बस्ती में सब नंगें हों, वहाँ अगर आपके पास आँखें हैं तो आपकी जान को खतरा है। नंगे आपको छोड़ेंगे नहीं। तो नंगों की बस्ती में जान बचाने के लिए, अन्धा हो जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता, इस कारण हम अन्धे हुए पड़े हैं।

एक मछुआरा था तो उसको लोगों ने कहा की तू दिन-रात यहाँ मछलियों के बीच में रहता है, काटा-कूटी करता है, बड़ी बदबू उठती है। तो शहर में उस तरफ़ जो है, इत्र का बाज़ार है। वहाँ चल तो वहाँ तुझे कुछ अलग-अलग तरह के इत्र (पेर्फुम्स) खरीद कर दिए जाएँ। मछुवारे ने कहा बदबू उठती है? हमें तो आई नहीं आज तक, कैसी बाते कर रहे हो? हमें तो सब यही बताते हैं की बड़ी भीनी-भीनी खुशबू है तुम्हारी। तो उसने पुछा कौन बताते हैं? तो बोला, बीवी भी यही कहती है, अब बीवी भी मछुआरन। और कौन बताता है? माँ-बाप यही बताते हैं, पुश्तैयनी मछुआरे हैं। और कौन बताता है? दोस्त-यार यही बताते हैं, वो भी सब मछुवे। उन्होंने सब ने यही बताया की बड़ी खुशबू है।

उसने कहा अच्छा चल कोई बात नहीं, एक बार चल थोड़ा सा बदलाव के लिए। अब वो वहाँ पहुँचा इत्र के बाज़ार में और वहाँ चारो तरफ़ इत्र की दुकानें, खस, केवड़ा, गुलाब। ये वहाँ पहुँचा और इसको दौरा आ गया और बिलकुल छटपटा कर जमीन पर गिर पड़ा और तड़प रहा है। बर्दाश्त ही नहीं हुआ इससे और मुँह से झाग-वाग आने लग गया और चारो तरफ़ के व्यापारी, उन्होंने कहा, “अरे! अरे!” अब वो जो खुशबुएँ थीं, वो दवा की तरह भी प्रयुक्त होती हैं तो कोई ला रहा है और कह रहा है की ये खास खुशबू है, ये इसे सुंघाओ, अभी ये ठीक हो जाएगा।

जितना वो उसे खुशबू सुंघा रहे हैं वो उतना तड़प रहा है। जान देने को तैयार हो गया है की अब नहीं बचूँगा। तभी किसी ने कहा की अरे! मछुआ है, अभी किसी को इसकी बस्ती से ले करके आओ। उसकी बस्ती से एक को बुलाया गया और वो आया, कहा की देखो क्या है, मर ही जाएगा, तड़प रहा है। हम इसे इतनी-इतनी खुशबुएँ सुंघा रहे हैं और ये! उनसे कहा, “पागल हो तुम। उसने एक मरी हुई मछली निकाली, उसकी नाक में ठूँस दी।

उसने ऐसे गहरी साँस ली, पूरा उसकी गन्ध को आपने रेशे-रेशे में भरा और उठ बैठा। बोलता है, आह! अब जान में जान आई। अरे! हमारी पुश्तैनी गंध है, छोड़ कैसे देंगे? उसके बाद उसने जितनी गालियाँ देने थी, उसने दीं, इत्र के व्यापारियों को। बोला, “तुम भ्रष्ट करने आए हो, हत्यारे हो तुम। तुम चाहते हो हम मर ही जाएँ।”

खेत बुहार्या सूरमा, मुझे मरण का चाव।

शब्द-योग सत्र से उद्धरण। स्पष्टता के लिए सम्पादित।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें