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लेख
मूल्य देने से पहले, मूल्यों को जानो || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

प्रश्न : सर, क्या हो अगर जिस स्थिति को हम संभाल रहे हैं और जो हमारे जो हमारे मूल्यों में अंतर्विरोध हो।

आचार्य प्रशांत : नाम क्या है तुम्हारा?

श्रोता : भरत।

वक्ता : भरत? भरत कह रहा है, “क्या हो अगर कि जिस स्थिति का मैं सामना कर रहा हूँ और जो मेरे मूल्य हैं, उनमें अंतर्विरोध हो?” आप में से कितनों ने इस दुविधा का सामना किया है? मैं जो उचित समझता हूँ, और जो स्थिति मेरे से करना चाहती है वो अलग अलग चीज़ें हैं। ऐसा कितने लोगों के साथ कभी ना कभी हुआ है?

दो-चार और कह रहे हैं, मेरे साथ हुआ है।

मूल्य क्या होते हैं? मूल्य से आप क्या अर्थ समझते हैं?

देखो, यह एक ईमानदार प्रश्न है, और यह हर एक पर लागू होता है। आपको मेरे साथ-साथ चलना होगा।

आपको ध्यान देना होगा। सारी बात यहाँ पर ध्यान की हो रही है।

मूल्यों से आप क्या समझते हो? और हम में से हर कोई मूल्यों को पकड़े हुए है। “वैल्यू” अंग्रेजी भाषा का एक शब्द है, इसका अर्थ है मूल्य।

किसी चीज़ को मूल्य देना मतलब उसे महत्व देना। यहाँ तक समझ गए? यहाँ तक बात साफ़ है? जब आप कहते हो कि मैं किसी को मूल्य देता हूँ, तो इसका अर्थ है कि आप उसको महत्वपूर्ण समझते हो। क्या हम इस बिंदु तक साथ हैं? किसी चीज़ को मूल्य देना मतलब उसे महत्त्व देना। ठीक है?

जब आप कहते हो कि मैं इसे मूल्य देता हूँ, और इसे मूल्य नहीं देता हूँ, तब आप कहना चाहते हैं कि मैं इसे महत्वपूर्ण मानता हूँ और इसे महत्त्वपूर्ण नहीं मानता हूँ। क्या हम यहाँ तक साथ हैं।

अगर मुझसे कहा जाए कि बताओ, ए और बी में से ज़्यादा महत्वपूर्ण कौन है, या ए और बी में से ज़्यादा बड़ा कौन है तुम्हारे लिए। अगर मुझसे कहा जाए कि ए और बी में से, तुम्हारे लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण कौन है? ए और बी। क्या मैं इसका उत्तर दे सकता हूँ बिना यह जाने कि ए और बी हैं क्या? क्या मैं कह सकता हूँ कि यह है जिसे मैं मूल्य दे सकता हूँ? क्या मैं ये कह सकता हूँ कि ये वो चीज़ें हैं जिन्हें मैं मूल्य देता हूँ? मैं प्रेम को महत्व देता हूँ, मैं विश्वास को महत्त्व देता हूँ, मैं आज़ादी को महत्त्व देता हूँ – मैं उन्हें महत्त्व कैसे दे सकता हूँ जब मैं उन्हें जानता नहीं। क्या मैं किसी भी चीज़ को बिना जाने मूल्य दे सकता हूँ? क्या मैं किसी भी चीज़ को बिना वास्तव में जाने मूल्य दे सकता हूँ?

और क्या मूल्य एक शब्द मात्र है? जब तुम कहते हो कि मैं पानी को बहुत मूल्य देता हूँ, तो तुम ‘पानी’ माने किस शब्द को मूल्य दे रहे हो? ‘डब्ल्यू’ ‘ए’ ‘टी’ ‘इ’ ‘आर’ – को वैल्यू दे रहे हो? या उस पानी को वैल्यू दे रहे हो, जिसका तुमको अनुभव है, जिससे तुम्हारी प्यास बुझती है? तुम ‘डब्ल्यू’ ‘ए’ ‘टी’ ‘इ’ ‘आर’ – को वैल्यू दे रहे हो? एच टू ओ, को मूल्य दे रहे हो? या उस पानी को मूल्य दे रहे हो, जिसका तुमने अनुभव किया है? जिसको तुम बिलकुल आंतरिक तौर पे जानते हो, जिससे तुम्हारी प्यास बुझती है। किसको मूल्य दे रहे हो?

श्रोतागण : जिससे प्यास बुझती है।

वक्ता : मूल्य, एक शब्द तो नहीं? मूल्य तो एक आंतरिक अनुभव से निकलेगी जब तुमने उसे महत्वपूर्ण जाना। ठीक है ना? क्या हम साथ हैं? यहाँ तक बात समझ में आ रही है?

हम सब किसी ना किसी चीज़ को मूल्य देते हैं। हम उसे कहते हैं – खयाली मूल्य; खयाली मूल्य वो, जिनका हम दावा करते हैं, जिसको तुम दावा करो कि मूल्य हैं – वो कहलाता है खयाली मूल्य। खयाली मूल्य और वास्ताविक मूल्य में ज़मीन-आसमान का अंतर होता है। वास्तविक मूल्य वो है, जिसे तुम वास्तव में महत्त्व देते हो। उदाहरण के लिए, तुम से पूछा जाए, “तुम क्या समझ को मूल्य देते हो ? अभी सब लोग लिख के दोगे, “हाँ”। क्या तुम आज़ादी को मूल्य देते हो? सब लिख के दोगे, “हाँ”। पर अगर तुम्हारे कर्म देखे जाएँ, जो कि मूल्यों के असल सूचक हैं, तब शायद जुड़ कर इन दो कक्षाओं का अटेंडेंस, पूरे एच आई डी पी में, चालीस या पचास प्रतिशत से अधिक नहीं होगा।

अब अगर असल में तुम अपने विकास को मूल्य देते तो, तुम यहाँ होते, वहाँ बाहर नहीं।

हम कह तो ये देंगे, कि हम मूल्य देते है अपने विकास को, अपनी समझ को, अपनी आज़ादी को, लेकिन क्या सच में हम इसे मूल्य देते हैं? क्या हम जानते हैं कि हम किसे मूल्य दे रहे हैं ? दावा करने की बात नहीं है। देखो, दावा करना एक बात है, मैं दावा कर सकता हूँ। मैं दस लोगों का वहाँ ग्राउंड पर क़त्ल कर रहा हूँ, और क़त्ल करते हुए भी मेरा दावा ये हो सकता है कि मैं बहुत प्रेमपूर्ण हूँ। दावा करने में कुछ नहीं रखा है, ये एक झूठा नाटक है।

क्या मैं सच में समझता हूँ कि मैं किसे मूल्य दे रहा हूँ? बड़े अच्छे-अच्छे शब्द हैं, सुन्दर शब्द हैं, और हमें कोई वक़्त नहीं लगेगा ये कहने में कि हाँ, हाँ, हाँ, मैं भी इसको मूल्य देता हूँ। मैं भी इसको मूल्य देता हूँ। पर आप इसको वास्तव में मूल्य करते हो, अगर इसको समझना चाहते हो, तो सुबह से ले के शाम तक अपनी दिनचर्या को देखो। तुम कहोगे कि मैं आनंद को मूल्य देता हूँ। अगर तुम वास्तव में आनंद को मूल्य देते हो, तो तुम हमेशा उदासीन क्यों लगते हो?

मैं सुबह से आपके कॉलेज में आया हुआ हूँ, सब की शक़्लें देख रहा हूँ, और लग नहीं रहा कि जवानी है चेहरे पर। जवानी की जो उमंग होती है, जो तेज होती है, वो तो कहीं दिखाई ही नहीं पड़ रही।

पर अगर पूछा जाए, “आप किसे मूल्य देते हैं?” यू विल से वी वैल्यू एनर्जी, वी वैल्यू एडवेंचर आप कहेंगे, “हम उर्जा को मूल्य देते हैं, हम रोमांच को मूल्य देते हैं।” आप पहले चीज़ों को मूल्य देते हैं फिर उनसे दूर भागते हैं? आप जिसे मूल्य देते हैं क्या आप उससे दूर भागेंगे? आप जिसको महत्वपूर्ण समझते हो, आप उससे पीछा छुड़ा के भागोगे? तो ये मत कहो इतनी जल्दी कि स्थिति मेरे मूल्यों के विपरीत है।

स्थिति को भी समझना है, और मूल्य को भी समझना है। सबसे बड़ा मूल्य, सबसे ऊँचा मूल्य, एक मनुष्य के लिये, यही है। इससे ऊँचा कोई भी मूल्य नहीं है। तो, इससे पहले कि आप ये कहें कि मूल्य स्थिति से विरोध में है, मेरा एक निवेदन है कि कृपया मूल्य को समझें और कृपया स्थिति को भी समझें। फिर उस समझ से, जो कार्य निकलता है, उसमें ये सोचना नहीं पड़ता कि अब मैं करूँ क्या। “अब मैं करूँ क्या?” फिर जो स्थिति आएगी तुम एक तात्कालिक प्रतिक्रिया दे पाओगे, उसी समय। उसी समय दे पाओगे, क्योंकि तुम जिन मूल्यों का दावा करते हो, वो मात्र काल्पनिक मूल्य हैं, वास्तविक मूल्य नहीं हैं। तो इसी कारण तुम पाते हो कि स्थिति में तुम्हारे हाथ बंध जाते हैं। तुम्हारे पास शक्ति नहीं रह जाती कुछ कर पाने की।

अब एक स्थिति में गए, इस स्थिति को ध्यान से समझना – तुम एक स्थिति में गए, वहाँ तुमने कुछ देखा, जो तुम्हें लग रहा हैं कि तुम्हारे मूल्यों के विपरीत है। पर तुमने कहा कि मेरे हाथ बंधे हैं, मैं कुछ कर नहीं सकता, मैं वापस आ गया। ठीक है? क्या तुम देख नहीं रहे हो कि यहाँ पर भी तुमने किस चीज़ को मूल्य दिया? तुमने कर्म के ऊपर, अकर्मण्यता को मूल्य दे दी है, पर तुम समझे ही नहीं। हर एक निर्णय एक मूल्य निर्णय है। तुम दरवाज़े के बाहर खड़े हो, तुम अंदर आते हो, या बाहर ही रह जाते हो, क्या तुम देख नहीं पा रहे कि यह एक मूल्य निर्णय है?

तुम किसे महत्त्व दे रहे हो – कैंपस में घूमने को या फिर यहाँ होने को ? यह एक मूल्य निर्णय है, “मैं किसे अधिक मूल्य देता हूँ – यहाँ होने को या फिर बाहर होने को ? अब तुम उस स्थिति में थे , जहाँ पर तुम्हें लग रहा है , तुम्हारी भाषा में , कि कुछ गलत हो रहा है , मेरे मूल्यों के विपरीत हो रहा है , और मैं कुछ कर नहीं पा रहा। अब यहाँ पर भी तो तुम्हारे सामने एक निर्णय उपस्थित है ना कि कुछ कर डाला जाए , या कुछ ना कर डाला जाए ? प्रतिउत्तर दिया जाए या पलायन करा जाए ?

ये मूल्य है ना? प्रत्युत्तर अथवा पलायन।

और तुमने क्या चुना?

श्रोतागण : पलायन

वक्ता : पलायन। तुम देख नहीं रहे हो कि तुम अपने होने से अधिक पलायन को महत्त्व दे रहे हो।

तुम जो भी कर रहे हो, वो कर तो अपने मूल्यों के हिसाब से ही रहे हो। तुम्हारी असली समस्या जो है, वो ये है कि तुम्हारे झूठे मूल्य, और तुम्हारे असल मूल्य में इतना (ज़्यादा) अंतर है। और वो अंतर तुम समझ नहीं पा रहे हो। तुम कहते कुछ और हो पर तुम्हारी वास्तविकता कुछ और है। और ये हम सब की कहानी है। कहानी हम सबकी ऐसी ही है। हम जिस चीज़ का दावा करते हैं, महत्वपूर्ण मानने का, वक़्त आने पर हम उससे टकरा के निकल जाते हैं। और इसलिए ये सारा भेद पैदा होता है।

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