आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
मरे बिना जन्म न पाओगे || आचार्य प्रशांत, यीशु मसीह पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
6 मिनट
104 बार पढ़ा गया

Verily, Verily, I say unto thee, Except a man be born again, he cannot see the kingdom of God. Except a man be born again, he cannot see the kingdom of God.

~Jhon (3:3)

“मैं तुझ से सच सच कहता हूँ, यदि कोई नये सिरे से न जन्मे तो परमेश्वर का राज्य देख नहीं सकता।”

~Jhon (3:3)

आचार्य प्रशांत: “एक्सेप्ट अ मैन बी बॉर्न अगेन, ही कैन नॉट सी द किंगडम ऑफ़ गॉड”

डर लगा? ये तो मारने की बात कर रहे हैं। ‘द्विज’ शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है, द्विज समझते हो? जिसका दूसरा जन्म हुआ हो। भारत ने इस शब्द को बड़ा महत्त्व दिया है – द्विज। जो हिंदी अनुवाद है, वहाँ पर भी वो शब्द आ रहा है। पहला जन्म शरीर का होता है, ठीक,पहला जन्म सिर्फ शुरुआत होती है। पहला जन्म सिर्फ जैसे भूमिका लिखी गयी हो। जैसे प्रस्तावना लिखी गयी हो असली कहानी की। पहला जन्म तो समझ लो ऐसा है कि अभी गर्भ में आए, ताकि जन्म हो सके। पहले जन्म को जन्म न मानना। पहले जन्म को तो गर्भस्थ होना मानना।

किसी कवि ने कहा है कि हम सब गर्भों में जीते हैं। अगर मुझे ठीक से याद है तो कहा है “हम सब घटनाओं के जाये हैं, संदर्भो में जीते हैं, पैदा अभी हम हुए नहीं, हम सब गर्भों में जीते हैं।” कवि इन पंक्तियों में ऋषि बन गया है – “पैदा अभी हम हुए नहीं, हम सब गर्भों में जीते हैं।”

पहला जन्म, देह का जन्म तो ऐसा ही है कि जैसे अभी गर्भ में आए, दूसरा जन्म ही असली जन्म है। दूसरा जन्म है, जानना कि जन्म कहते किसको हैं। दूसरा जन्म है बोध में उतरना। पहला जन्म तो कुछ रखा नहीं है – यंत्रवत प्रक्रिया है, देह से देह मिली, रसायन से रसायन मिला, पुरुष कोशिका से स्त्री कोशिका मिली, और वो काम एक में भी हो सकता है। बिलकुल रासायनिक प्रक्रिया है। हम अच्छे से जानते हैं, परखनली में होती है। उसमें जन्म जैसा क्या है? सोचा नहीं कभी कि जो घटना परखनली में घट सकती है, उसको तुम जन्म कहना चाहोगे? बच्चे परखनलियों में पैदा हो रहे हैं, टेस्ट ट्यूब बेबीज़ सुना होगा।

तुम गर्भ में रखो, या परखनली में रखो, एक ही तो घटना घटी है। रसायन से रसायन, कोशिका से कोशिका – ये कौन सा जन्म है? ये जन्म नहीं है। द्विज, जिसने दूसरा जन्म लिया हो। मैं उसे पहला जन्म कहूँगा, क्योंकि पहले जन्म को जन्म मान कर के हम बड़ी सहूलियत में जीने लगते हैं, हमें बड़ी आसानी हो जाती है कि जन्म ले तो लिया। नहीं, उससे बेहतर है, कि हम कवि को कहने दें जो उसने कहा, “हम अभी गर्भों में जीते हैं।” बहुत कम लोग हुए हैं, जो वास्तव में जन्म ले पाए।

एक बुद्ध जन्म लेता है, एक कबीर जन्म लेता है, नानक ओर जीसस जन्म लेते हैं। कृष्ण जन्म लेते हैं ओर नाचते हैं।

कुछ साल पहले की बात है, तब तक मेरी कहानी इतनी फैली नहीं थी, तो लोग आ जाते थे बताने कि आज मेरा जन्मदिन है। दो-तीन साल पहले की बात है, तो एक का फ़ोन आ गया – खुद तो करेगा नहीं, मैंने ही कर दिया — मैंने कहा, “क्यों किया भाई?” कहा, “जन्मदिन है, बधाई दे दे।” मैंने कहा, “ठीक है, कभी जन्मदिन काश तेरा एक ऐसा भी आए, यही मेरा तेरे जन्मदिन पर सन्देश है कि, कभी तेरा कोई जन्मदिन ऐसा भी आये जब तू पैदा भी हो जाए।”

जन्मदिन ही मनाते जाओगे या कभी पैदा भी होओगे? मनाये जा रहे हो, मनाये जा रहे हो जन्मदिन और एक दिन बिना पैदा हुए मर गए। कहे, “हम मर गये।” तो पूछो, “पैदा कब हुए थे?” पैदा हुए नहीं मर गए, बड़ी त्रासदी है। और उतना ही मजेदार चुटकुला भी है – शवयात्रा जा रही है, किसकी? जो अभी पैदा ही नहीं हुआ।

कबीर को ये सुनाई पड़ता, उन्हें बड़ा मज़ा आता है, उलटबाँसी लिखते इसपर- “जो अभी पैदा नहीं हुआ, उसकी अर्थी जा रही है। और वो चार अन्य लोग उसे कन्धा दे रहे हैं, जो अभी खुद माँ के पेट में मचल रहे हैं।” ऐसे ही लिखते थे।

यहाँ लोग बैठे हैं, किसी ने बीस, किसी ने पच्चीस, किसी ने चालीस जन्मदिन मना लिए हैं, अच्छा चुटकुला है कि नहीं? जीसस कह रहे हैं, “बाहर आओ।”

कब तक पेट में ही हाथ पाँव मारते रहोगे? बड़ा अच्छा मौसम है, आओ खेलते हैं। बाहर आओ, तुम गर्भस्थ हो। अनंत समय से गर्भस्थ हो, तुम क्या सोचते हो, नौ ही महीने, नहीं। तुम नौ कल्पों से पेट में ही बैठे हुए हो। बाहर निकलने का नाम ही नहीं ले रहे। बाहर आओ, बढ़िया, ताज़ी हवा है। प्रेम के फूल खिले हैं। जीसस ही जीसस नाच रहे है। कृष्ण हैं, उनकी गोपियाँ हैं। कहीं किसी ओशो की दाढ़ी उड़ रही है, कहीं कोई कृष्णमूर्ति एकांत में बैठे हैं। यही लोग हैं जो पैदा हो पाए, बाहर आओ, देखो। कबीर, रैदास के साथ चाय पी रहे हैं। मीरा, रैदास के चरणस्पर्श कर रही है। मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे को साफ़ कर रहा है। देखो।

हमें गर्भ में ही रहे आने में मज़ा आने लगा है, वहाँ अच्छा-अच्छा सा लगने लगा है। “देख अभिषेक अर्थी पर, बिना पैदा हुए मर जाए, चार कंधे कोख से कन्धा दिए जाए।” नहीं पैदा होना चाहोगे? एक औरत चली आ रही है, और उसने शैतान के कान पकड़ रखे हैं, कह रही है, “चल, ठीक करती हूँ तुझे।” उसे शैतान से भी प्रेम है। राबिया है। और वहाँ पर, कोने पर ग्यारह लोगों के साथ कोई बैठा हुआ है, जीसस हैं। मज़ा नहीं आएगा, उनके साथ उठोगे, बैठोगे, खाओगे, पियोगे?

जो वास्तव में जन्म ले लेता है ना, उसे अपनी पिछली ज़िन्दगी सपने की तरह ही लगती है। ऐसा नहीं है कि वो पिछली ज़िन्दगी को अस्वीकार कर देता है, नहीं। उसे साफ़ दिखाई देता है कि ऐसा लग रहा है कि जैसे किसी नशे में जी रहे थे। ऐसा लग रहा है जैसे तब जी ही नहीं रहे थे, ऐसा लग रहा है जैसे पहली बार साँस ली है। चेतना स्वभाव है हमारा, जब चैतन्य होंगे, तभी तो होंगे ना, और जब हैं, तभी तो जन्मे, जब हैं ही नहीं तो जन्मे कहाँ?

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें