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लेख
माया या प्रकृति को हमेशा स्त्रीलिंग में ही क्यों सम्बोधित किया जाता है? || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, वृत्ति को या उस शक्ति को जो हमें समझने नहीं देती या देखने नहीं देती या जिस कारण से फँसे हुए हैं, उसको जनरल (सामान्य), न्यूट्रल (उदासीन) भी रखा जा सकता था, जैसे ब्रह्म कहते हैं तो जनरल न्यूट्रल होता है। इंसान रूप में जो स्त्री है उसमें और माया में क्या समानता है जिसके कारण माया को महामाया भी कहते हैं?

आचार्य प्रशांत: दोनों जन्म देती हैं। जन्म देने की प्रक्रिया में जो दैहिक पुरुष होता है, उसकी अपेक्षा दैहिक स्त्री का दस गुना योगदान होता है। जन्म देने की प्रक्रिया में पुरुष का जो पूरा योगदान है, उसका जो पूरा किरदार ही है, वो कितना न्यून है। और माँ जन्म भी देती है नौ माह तक गर्भ में रखकर, उसके बाद अगले दो वर्ष तुम्हें पोषण देती है और उसके बाद भी कई और वर्षों तक तुमको सहारा और संस्कार देती है। तो जो दैहिक पुरुष होता है, उसकी अपेक्षा दैहिक स्त्री को जन्मदाता मानना कहीं ज़्यादा तार्किक बात है न।

लॉजिकल (तार्किक) है कि तुमको अगर जो माया है, उनको किसी लिंग की उपाधि देनी ही है तो स्त्री लिंग की दो। क्योंकि अभी तुम बात अपने जन्म की कर रहे हो, तुम अपने जन्मदाता या जन्मदात्री की बात कर रहे हो। उनको तुम किस लिंग से विभूषित करना चाहोगे? पुरुष या स्त्री किस रूप में देखना चाहोगे? ज़्यादा तार्किक बात यह है कि स्त्री के रूप में देखो क्योंकि जन्म में स्त्री का योगदान ज्यादा होता है। इसलिए जब हमने संकेत बनाए, चिह्न बनाए या कथाएँ बनाईं तो उसमें जन्म देने वाली शक्ति को स्त्री रूप दिया गया। बस यही है।

प्र: हाँ, पर इसी में क्रिएटर (रचयिता) हमेशा ब्रह्मा जी को कहा गया है जो स्त्री नहीं हैं।

आचार्य जी: महामाया को ब्रह्मा का भी क्रिएटर कहा गया है। यह जो माँ हैं न, यह ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों की माँ हैं। जो कुछ भी तुम्हारे मन में आ सकता है, उन सबकी माँ हैं।

देखो, एक शिव हैं जो सत्य मात्र हैं और एक शिव हैं जिन्हें तुम भगवान शिव बोलते हो। जो शिव सत्य मात्र हैं, उनकी संगिनी हैं शक्ति। ठीक है न? और जो भगवान शंकर हैं, उनकी माँ हैं शक्ति। यह अंतर समझना बहुत ज़रूरी है।

भगवान का संबंध तुम्हारे मन से और तुम्हारी कल्पना से है। जो कुछ भी तुम्हारे मन में आ सकता है, जिसकी भी तुम बात कर सकते हो, जिसका भी तुम उल्लेख कर सकते हो, जिसके विषय में तुम लेश मात्र भी विचार कर सकते हो, वह सब कुछ प्राकृतिक है। जो कुछ प्राकृतिक है, वह महाप्रकृति से आ रहा है, उसकी माँ महाप्रकृति हैं।

तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इनकी भी माँ महामाया हैं। लेकिन शिव की माँ नहीं हैं शक्ति। शिव की अभिव्यक्ति हैं शक्ति। तुम यह नहीं बोलोगे कि शक्ति शिव की माँ है। शक्ति शिव की अभिव्यक्ति हैं। जब शिव ही सगुण हो जाते हैं तो शक्ति कहलाते हैं। पर फिर इन्हीं शक्ति से पूरा संसार है। और संसार में संसार के सब देवी-देवता, भगवान भी सम्मिलित हैं। संसार माने इंसान, कीट-पतंगे, पशु-पक्षी ही नहीं होता, संसार माने वह सब भी जिन्हें संसार पूजनीय मानता है माने सब देवी-देवता, भगवान वगैरह सब। उन सब की माँ हैं शक्ति। इसीलिए तो तुम पाते हो कि ब्रह्मा जी आ करके फिर महामाया की स्तुति कर रहे हैं, ‘माँ’ बोल रहे हैं उनको। मैं अभी पढ़ें देता हूँ, सुन लेना। ब्रह्मा जी भी आ करके महामाया को माँ कह कर संबोधित कर रहे हैं।

माने ब्रह्मा अनादि नहीं है, ब्रह्मा की भी कोई माँ है। और ब्रह्मा की माँ कौन हैं? माया। भगवान शिव अनादि नहीं है, पर शिव अनादि हैं क्योंकि सत्य अनादि हैं। इन दोनों में अंतर समझना, भगवान और ईश्वर अनादि नहीं होते, सत्य अनादि होता है। देवी-देवता अनादि नहीं होते। संतो ने गाया है न कि जितने देवता हैं, वो सब मरेंगे। क्यों मरेंगे? क्योंकि उन्होंने जन्म लिया था। आदि था इसीलिए अंत भी होगा। सत्य अनादि-अनंत होता है, बाकी सब कभी उठते हैं, कभी गिरते हैं। अध्यात्म में इनको ‘रात्रियाँ’ में बोलते हैं।

ब्रह्मा की रात्रि होती है जिसमें जितनी सृष्टि है, सब मिट जाती है। और सबसे बड़ी रात्रि होती है मुक्ति, जिसमें न दिवस बचता है, न रात्रि बचती है, उसमें ब्रह्मा भी मिट जाते हैं। ब्रह्मा की रात्रि में सृष्टि मिट जाती है और मुक्ति वह रात्रि है जिसमें स्वयं ब्रह्मा भी मिट जाते हैं। समझ में आ रही है बात? अभी मैं जो ब्रह्मा में और माया में क्या संबंध है, वह मैं थोड़ा पढ़ें देता हूँ तो तुम्हें और समझ में आएगा।

ऋषि बोले – “वास्तव में देवी तो नित्यस्वरूपा ही हैं। संपूर्ण जगत उन्हीं का रूप है तथा उन्होंने समस्त विश्व को व्याप्त कर रखा है, तथापि उनका प्राकट्य अनेक प्रकार से होता है। वह मुझसे सुनो अब। यद्यपि वे नित्य और अजन्मा है, तथापि देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए प्रकट होती हैं, उस समय लोक में उत्पन्न हुई कहलाती हैं।"

बस व्यावहारिक भाषा में हम कह देते हैं कि उत्पन्न हुईं, अन्यथा उत्पन्न क्या होंगी, ब्रह्म कभी उत्पन्न होता है?

"कल्प के अंत में"— कल्प काल का अंत कब होता है? प्रलय आती है तो फिर कल्प का अंत होता है। फिर अगला कल्प है, फिर अगला कल्प है, ऐसे।

"कल्प के अंत में जब संपूर्ण जगत एक एकार्णव में निमग्न हो रहा था और सबके प्रभु भगवान विष्णु शेषनाग की शय्या बिछाकर योगनिद्रा का आश्रय ले सो रहे थे, उस समय उनके कानों के मैल से दो भयंकर असुर उत्पन्न हो गए, जो मधु और कैटभ के नाम से विख्यात थे। वे दोनों ब्रह्मा जी का वध करने को तैयार हो गए। भगवान विष्णु के नाभि कमल में विराजमान प्रजापति ब्रह्मा जी ने जब उन दोनों भयानक असुरों को अपने पास पाया और भगवान को सोता देखा, तब एकाग्रचित्त होकर उन्होंने भगवान विष्णु को जगाने के लिए उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्रा का स्तवन आरंभ किया।"

"जो इस विश्व की अधीश्वरी जगत को धारण करने वाली संसार का पालन और संघार करने वाली तथा तेज:स्वरूप भगवान विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रा देवी की भगवान ब्रह्मा स्तुति करने लगे।"

ब्रह्मा जी ने कहा, “देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा और तुम्हीं वषट्कार हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार, इन तीनों मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो तथा इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो बिंदुरूपा नित्य अर्ध मात्रा है, जिसका विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो।"

‘मन में जो कुछ आ सकता है, देवी, वह तुम्हीं हो,’ इसी बात को भाँति-भाँति से ब्रह्मा जी कह रहे हैं। जो कुछ भी चाहे सांसारिक चाहे असांसारिक, तथाकथित रूप से जो कुछ भी है, वह देवी तुम्हीं हो।

"देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो। देवि! तुम्हीं इस विश्व-ब्रह्मांड को धारण करती हो। तुमसे ही इस जगत की सृष्टि होती है। तुम्हीं से इसका पालन होता है और सदा तुम्हीं कल्प के अंत में सबको अपना ग्रास बना लेती हो।"

तुम्हीं से सृष्टि होती है—ब्रह्मा। तुमसे ही पालन होता है—विष्णु और सदा तुम्हीं कल्प के अंत में सबको अपना ग्रास बना लेती हो—शिव। यहाँ पर भगवान शिव की बात हो रही है। ठीक है न? सदाशिव की, परम शिव की, आत्मा का पर्याय शिव की बात अभी यहाँ नहीं हो रही है।

"जगतजननी देवि! इस जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो, जब उत्पत्ति हो रही है तो तुमको हम कहेंगे सृष्टिरूपा हो, पालनकाल में स्थितिरूपा हो, जो चीज़ जैसी है यथास्थिति को तुम बनाए रखती हो, पोषण करती हो तथा कल्पांत के समय संघाररूप धारण करने वाली हो, अंत भी तुम ही करती हो।"

"तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो। तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो। भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करनेवाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ — ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं।”

“तुम्हीं सौम्य और सौम्यतर हो। इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो। पर और अपर, सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम्हीं हो। सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत्-असत्रूप जो वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो। ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है?"

"जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान् को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में कौन समर्थ हो सकता है? मुझको (माने ब्रह्मा जी को), भगवान् शंकर को तथा भगवान् विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है, तुम्हीं माँ हो सबकी। अतः तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है? देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो।”

देवी, तुम्हारे जो प्रभाव है माने तुम्हारी जो अभिव्यक्तियाँ हैं, यही तुम्हारी प्रशंसा है। अब अलग से कौन प्रशंसा करें?

“ये जो दोनों दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोह में डाल दो।”

क्योंकि मोह में डालना तुम्हारा ही काम है, देवी। तो इन असुरों को तुमने जन्म दिया है तो इनका संघार भी तुम्हीं करोगी, देवी।

“इन दोनों को मोह में डाल दो और जगदीश्वर भगवान् विष्णु को शीघ्र ही जगा दो।”

उनको सुलाया तुमने है तो जगाओ भी तुम्हीं, देवी।

“साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान् असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो।”

भगवान की बुद्धि तो तुम ही हो, तो इनको यह बुद्धि भी दे दो, विष्णु को कि इनको मारे भी। नहीं तो ये मुझे मार देंगे मधु-कैटभ।"

तो ऋषि कहते हैं – “राजन्! जब ब्रह्माजी ने वहाँ मधु और कैटभ को मारने के उद्देश्य से भगवान् विष्णु को जगाने के लिए तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा की इस प्रकार स्तुति की, तब वे भगवान् के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और वक्षःस्थल से निकलकर अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजी की दृष्टि के समक्ष खड़ी हो गईं।"

"योगनिद्रा से मुक्त होने पर जगत के स्वामी भगवान् जनार्दन उस एकार्णव के जल में शेषनाग की शैय्या से जाग उठे। फिर उन्होंने उन दोनों असुरों को देखा। वे दुरात्मा मधु और कैटभ अत्यन्त बलवान् और पराक्रमी थे तथा क्रोध से लाल आँखें किए ब्रह्माजी को खा जाने के लिये उद्योग कर रहे थे। तब भगवान् श्रीहरि ने उठकर उन दोनों के साथ पाँच हजार वर्षों तक केवल बाहुयुद्ध किया। वे दोनों भी अत्यन्त बल के कारण उन्मत्त हो रहे थे। इधर महामाया ने भी उन्हें मोह में डाल रखा था, तो वे भगवान विष्णु से कहने लगे, 'हम तुम्हारी वीरता से संतुष्ट हुए। तुम हम लोगों से कोई वर माँगो'।"

श्रीभगवान् बोले – “यदि तुम दोनों मुझ पर प्रसन्न हो तो अब मेरे हाथ से मारे जाओ। बस, इतना-सा ही मैंने वर माँगा है। यहाँ दूसरे किसी वर से क्या लेना है।”

ऋषि कहते हैं – “इस प्रकार धोखे में आ जाने पर जब उन दोनों राक्षसों ने सम्पूर्ण जगत में जल-ही-जल देखा, तब भगवान् से कहा – 'जहाँ पृथ्वी जल में डूबी हुई न हो, जहाँ सूखा स्थान हो, वहीं हमारा वध करना है तो वही हमारा वध करो'।"

ऋषि कहते हैं – “तब 'तथास्तु' कहकर शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान् ने उन दोनों के मस्तक अपनी जाँघ पर रखकर चक्र से काट डाले। इस प्रकार ये देवी महामाया ब्रह्माजी की स्तुति करने पर स्वयं प्रकट हुई थीं। अब पुन: तुमसे उनके प्रभाव का वर्णन करता हूँ, सुनो।”

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेय पुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवीमाहात्म्य में 'मधु-कैटभ-वध' नामक पहला अध्याय पूरा हुआ।

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