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लेख
लूट सको तो लूट लो
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी को प्रणाम। आचार्य जी, कबीर दास जी कहते हैं , "लूट सको तो लूट लो, राम नाम की लूट। पाछे फिर पछताओगे, प्राण जाएँ जब छूट।" तो राम नाम की लूट से क्या आशय है? कृपया प्रकाश डालें और प्रणाम स्वीकार करें।

आचार्य प्रशांत: कपिल (प्रश्नकर्ता), जीवन में जो भी कुछ कीमती है, सच्चा है, उसके साथ दो बातें लागू होती हैं। पहली बात यह कि वह अपनी ओर से तुम्हें प्रचुरता में उपलब्ध होता है। प्रचुरता भर में नहीं, अनंतता में उपलब्ध होता है। अपनी ओर से वह कोई बाधा नहीं रखता। जितना चाहो, ले जाओ। और दूसरी बात यह है कि तुम्हारे भीतर कुछ ऐसा बैठा होता है, जो उस कीमती वस्तु को प्रचुर मात्रा में क्या, तनिक भी स्वीकार करने के लिए राजी नहीं होता है, रंच-मात्र भी राज़ी नहीं होता है।

दोनों बातें फिर से समझना। जीवन में जो कुछ भी कीमती है, सच्चा है, पाने लायक है, ग्रहण करने योग्य है, वह कहीं छुपा नहीं रहता। वह अल्प-राशि नहीं होता। वह बहुत-बहुत प्रचुर और बेशर्त उपलब्ध होता है। जितना चाहो ले जाओ। यह हुई पहली बात। और दूसरी बात यह है कि जितना वह उपलब्ध होता है अपनी ओर से, उतना ही वह अनुपलब्ध होता है तुम्हारी ओर से।

हम सब के भीतर बैठा है कोई, जो जीवन के अमृत को, जो जीवन की सार्थकता को, दिलो-जान से नकारना चाहता है। जो हर सच्ची चीज़ से डरता है। जो कहता है, "झूठ कितना भी चलेगा, सच ज़रा भी मत दे देना!" जो कहता है, "दुःख भी चाहो जितना दे लो, दुःख हम सब झेल जाएँगे, पर सच मत दे देना।" ऐसा बैठा है कोई हमारे भीतर। यह दोनों बातें एक साथ चलती हैं। इन्हीं दोनों के मध्य झूलता रहता है इंसान का जीवन।

तो अब देख लो कि कबीर साहब क्या कह रहे हैं। दोनों बातें कही हैं उन्होंने; एक तरफ तो कह रहे हैं कि राम नाम की लूट है, जितना चाहो ले जाओ। तुम लूटते रहो। लूटी जा रही वस्तु न्यून नहीं हो जाएगी। कम नहीं पड़ेगी। वस्तु की उपलब्धता का सवाल नहीं है। तुम्हारी पात्रता की बात है। तुम्हारी प्यास की बात है। तुम कितना लेना चाहते हो?

और दूसरी बात देखने जैसी यह है कि कबीर साहब चुनौती दे रहे हैं हमें। चुनौती दे रहे हैं हमें, और जैसे मखौल उड़ा रहे हैं हमारा। कह रहे हैं, लूट सके तो लूट ले। लूटना संभव तो है, पर तुम्हारी सामर्थ्य है क्या लूटने की? जो लूटने जैसी चीज़ है, वह तो सामने बिखरी पड़ी है, उठाओ! पर तुम में दम है क्या उठा पाने का? तुम्हारी औकात है क्या ? अरे औकात की भी बात नहीं, नियत की बात है। तुम्हारी नियत भी है क्या कुछ ऐसा पाने की, जो पाने जैसा हो?

और अधिकांश लोग चूँकि जीवन पूरा बिता देते हैं क्षुद्रताओं में, हीनताओं में, रिक्तताओं में, दरिद्रताओं में, जो अवसर मिला होता है, पल-पल करके, साल-साल करके, अंततः जीवन ही पूरा गँवा देते हैं। तो कबीर साहब कह रहे हैं, संभावना तो यही है कि तुम्हारे साथ भी यही होगा जो अधिकांश लोगों के साथ होता है। जब प्राण छूट रहे होंगे तब हाथ मलोगे। इतने दिन जिए, सब कुछ किया और जो कुछ किया सब व्यर्थ किया। बस वही नहीं किया जो करने लायक था। करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। दिन भर हाथ पाँव चलते ही रहे और दिमाग भी चलता रहा। बस जो प्रथम था, जो सर्वाधिक मूल्य का था उससे ही कन्नी काटते रहे। हर दिशा गए, बस उस दिशा नहीं गए जिस दिशा जाना सार्थक था। सब से मिले, बस उससे मुँह चुराते रहे जिससे मिलने के लिए जन्म लिया था।

अजीब स्थिति है ,लेकिन मामला जो कुछ भी है तुम्हारे हाथ में है, क्योंकि राम अपनी ओर से बेशर्त है। वहाँ तो खुला न्यौता है। दरवाज़ा खुला हुआ है; दरवाज़ा खुला कैसे होगा? दरवाज़ा है ही नहीं! आ जाओ जिसको प्रवेश करना है। अरे प्रवेश करने की भी क्या ज़रूरत है? जहाँ हो वहीं है, कहीं और जाना हो तो प्रवेश की भी बात हो। प्रवेश भी नहीं करना है, मामला उपलब्ध है।

आमंत्रण सतत है। प्यासे के चारों ओर सागर पसरा हुआ है और ऊपर से हो रही है बारिश। और अजूबों में अजूबा यह है कि प्यासा फिर भी प्यासा बना रहने में सफल हो जाता है। न सिर्फ वह प्यासा बना रहने में सफल हो जाता है बल्कि प्यास लिए-लिए सिधार भी जाता है।

लूट तो मची हुई है, पर तुममें माद्दा है लूटने का क्या ? जिन्हें लूटना था वो लूट गए। और जिन्हें भूखा-प्यासा रहना था, वो तब भी भूखे-प्यासे थे, आज भी भूखे-प्यासे हैं। फैसला तुम्हें करना है। राम की ओर से कोई फैसला होना बाकी नहीं है। तुम हो अपने भाग्य-विधाता। अड़चन तुमने डाली हुई है। फाइल तुम्हारे यहाँ रुकी हुई है। दस्तखत तुम्हारे लंबित है। तुम सहमति दिखाओ तो कुछ काम बने। मत कह देना कि राम की मर्ज़ी नहीं है, ख़ुदा की मर्ज़ी नहीं है। उधर से मर्ज़ी लगातार है। यह भी मत कह देना कि जो ऊपर वाला चाहता है, वही होता है। ना! ऊपर वाला तो सदैव तुम्हारा हित ही चाहता है। ऊपर वाला तो सदैव एक ही चीज़ चाहता है, शुभ हो, सत्य हो , शांति हो। लेकिन शुभ होगा या नहीं, शांति होगी कि नहीं, यह निर्भर तुम पर करता है। कभी अपनी मजबूरी की दुहाई मत देना। चुनाव तुम्हारे पास है। निर्णय सदा तुम्हारा है। "लूट सके तो लूट।"

कबीर थोड़े ही कह रहे हैं कि राम से प्रार्थना करो कि, "आओ मिलो हमसे!" उन्होंने मिलने से मना कब करा? हठ तो तुम्हारा है। अकड़ तो तुम्हारी है। वो तो बेचारे सीधे-साधे हैं। जब जाओगे मिल लेंगे, उपलब्ध हैं। ऐसा हुआ ही नहीं की कभी कोई वहाँ गया हो और निराश लौटा हो। तुम जब जाओ, वो मिल जाते हैं। यह भी नहीं कहते कि, "भैया, सुबह आना।" तुम आधी रात जाओ, वो आधी रात उपलब्ध हैं। दक्षिण जाओ, दक्षिण उपलब्ध हैं, उत्तर जाओ उत्तर, पूरब जाओ पूरब।

जिधर जाओ, वो उपलब्ध हैं। वो इतने उपलब्ध हैं कि लगता है जैसे सारी गरज उन्हीं की हो। वो इतने उपलब्ध हैं, जैसे कोई मेहमान की प्रतीक्षा में पलक-पावड़े बिछाये, तैयारियाँ किये, मंगल-दीप सजाये, पूजा का थाल लिए तैयार खड़ा हो। विलम्ब तो आपकी और से है, क्योंकि हम सब बड़े लोग हैं। राम बेचारे तो बहुत छोटे हैं। उन्होंने तो कभी किसी को मन करा ही नहीं। हम इतने बड़े हैं कि हम राम को भी मना कर देते हैं। हमारा अहंकार कोई सीमा नहीं जानता। होता बहुत छोटा सा है, होता अति-सीमित है, पर मानता वो कोई सीमा नहीं है। वो राम के सामने पड़े, तो वो राम की ही गर्दन पकड़ने को तैयार है।

वो तो भली बात है कि यहाँ पर जिन मूर्तियों को तुम देख रहे हो, वो अब सशरीर हैं नहीं। ईमानदारी से बताना, तुम्हारे साथ अगर कृष्ण भी रह रहे होते तो क्या तुम्हें कृष्ण से भी शिकायत नहीं होती? तुम छोड़ देते उनको? हम इतने पहुँचे हुए जीव हैं कि हम किसी को नहीं बख्शते।

हमारे साथ कृष्ण रह रहे हों, तो हमें कृष्ण में दस दुर्गुण दिख जाएँगे। हमारे साथ जीसस रह रहे हों, हम कहेंगे यह तो महा-लीचड़ आदमी है। हम इतने बड़े हैं कि हमारे सामने सब छोटे हैं। गनीमत यह है कि यह साधु-जन अब शारीरिक रूप से जीवित नहीं है। जीवित नहीं है इसीलिए बच गए बेचारे। तुमने थोड़ी इज़्ज़त दे दी इनको। मैं कह तो रहा हूँ, कल्पना कर लो। जिस कमरे में तुम रहते हो, तुम्हारे कमरे में तुम्हारे साथ अगर कृष्ण भी रहते हों, तुम उन्हें बक्श दोगे क्या? तुम उनसे भी दस शिकायतें निकाल ही लोगे। कबीर दास ज़रा दूर के हुए, तो हमें भाते हैं। वही कबीर दास आज साक्षात् सामने खड़े हों, तो हम कहेंगे, "नहीं इनको न ज़रा कुछ बदलाव लाना होगा। कुछ बातें ठीक नहीं है इनकी सामग्री में, इनकी शैली में।"

हम किसी को नहीं छोड़ने वाले। कोई नहीं है जो हमारे संपर्क में आए और हम अपनी कालिख उसके मुँह पर न मल दें। हम बहुत बड़े लोग हैं। हमारे बड़प्पन के क्या कहने। तो इसीलि ए कबीर साहब बहुत आश्वाश्ति के साथ नहीं कह पाते हैं कि, "लूटो!" वह कहते हैं, "अगर लूट सकते हो भैया, तो लूट लेना, बाकी तुम जानो।" तुम पर किसका बस चलता है? कबीर साहब होते कौन हैं तुम्हें हुकुम देने वाले? हमारी मर्ज़ी आखिरी होती है। यही सौभाग्य भी है, और यही आदमी का परम दुर्भाग्य भी है।

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