आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
क्या हमारे कर्म पूर्व-निर्धारित होते हैं? भाग्य क्या है? || (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं आज शिविर में आया हूँ तो क्या यह मेरा निर्णय है या यह एक पूर्व-निर्धारित घटना है?

आचार्य प्रशांत: आप यहाँ पर आए हो ये आपके अहं का निर्णय है। आपको मुक्त होना ही है ये बात आपके निर्णय की नहीं है, यह बात तय है। आपके निर्णय की वही सब चीज़ें हैं जो संसार के घटना चक्र में घट सकती हैं, जो आपके जीवन काल में घट सकती हैं अर्थात काल के भीतर की हैं, समय के भीतर की हैं। जो कुछ समय के भीतर घटता है — आज घटेगा, कल घटेगा, एक साल, दो साल, छह साल बाद घटेगा या छह साल पहले घटा। उस सब में आपका निर्णय चलता है, आपका निर्णय शामिल है। मुक्ति में आपका निर्णय नहीं शामिल है। मुक्ति होनी-ही-होनी है; मुक्ति समय से बाहर की घटना है। हाँ, मुक्ति आपको कैसे मिलेगी, कब मिलेगी, कितनी देर लगा कर मिलेगी — ये आपका चुनाव होता है, आपका अर्थात अहं का।

मुक्ति के लिए आपको आना ही पड़ेगा। ये पत्थर की लकीर है, आना ही पड़ेगा। लेकिन कब आओगे ये आप जानो। आपने ये फैसला कर लिया है कि आप अभी प्रयत्नरत हो गए, आप ये भी फैसला कर सकते थे कि आप अभी पाँच साल और टालते रहते। मुक्त होना है — ये आपका सौभाग्य भी है, ये आपकी बाध्यता भी है, यही आपकी नियति है, यही आपका स्वभाव है, यही आपका स्वरूप है। भीतर आपके कुछ बैठा हुआ है जो मुक्त है ही इसीलिए उसे अमुक्त रखा नहीं जा सकता और बाहर-बाहर अमुक्ति-ही-अमुक्ति है। भीतर कोई बैठा है जो मुक्ति के अलावा कुछ जानता नहीं और बाहर-बाहर अमुक्ति-ही-अमुक्ति है। बाहर-बाहर क्या चलेगा? वो आप जानो, आपका हिसाब जाने। वो आपका चुनाव, आपके निर्णय। आप चाहो तो उसमें पाँच साल लगा लो, पचास साल लगा लो, आप चाहो तो सीधे रास्ते से जाओ, आप चाहो तो पूरी दुनिया घूम कर जाओ, आपको जैसे करना हो करो।

लेकिन मुक्त तो होना पड़ेगा क्योंकि अंदर और बाहर में ये जो विभाजन है ये झूठा है, ये जो संघर्ष है उसका परिणाम तय है — केंद्र जीतेगा परिधि हारेगी, हृदय जीतेगा मन हारेगा। सत्यमेव जयते! आत्मा ही जीतेगी, माया को हारना पड़ेगा। लेकिन माया भी कमज़ोर खिलाड़ी नहीं है, वो कहती है, "हार तो जाऊँगी पर समय बर्बाद करके हारूँगी, ये तो मुझे पता है कि जीतेगी मुक्ति ही लेकिन इतना तो मैं कर सकती हूँ न कि तेरे अस्सी साल खराब कर दूँ। अस्सी साल का जब तू हो जाए तब तुझे ये समझ में आए और तब तू मुक्ति का चुनाव करे। चुनाव तो तुझे अंततः करना पड़ेगा मुक्ति का ही।" पर माया कहती है कि, "मैं जाते-जाते भी नुकसान तो करके ही जाऊँगी, अस्सी साल खराब करके जाऊँगी। एक नहीं अनेक देशों की यात्राएँ करवा कर जाऊँगी।" घूम लो पूरी दुनिया, अपने ह्रदय तक तो पहुँचे नहीं। बुल्लेशाह बाबा बोल गए हैं — मक्के गयो ते मुक्ति नाहीं और गंगा गयो ते मुक्ति नाहीं

जब मक्के गए भी मुक्ति नहीं है तो पेरिस गए से मुक्ति कहाँ से मिल जाएगी? और कहाँ जा रहे होओगे, दो ही चार जगह हैं जहाँ जा सकते हो। या तो पेरिस जा रहे होओगे या सस्ता जुगाड़ होगा तो थाईलैंड, इन्हीं दोनों के बीच में सारा पर्यटन हो जाता है।

बैंकॉक गयो ते मुक्ति नाहीं और पेरिस गयो ते मुक्ति नाहीं।

मुक्ति वैसे गंगा जा कर भी नहीं है तो उन्होंने ये भी नहीं कहा कि ऋषिकेश जाकर मुक्ति हो जाएगी। कैसे होगी वो आप देखिए।

प्र: आचार्य जी, सवाल मेरा अभी भी वही है कि क्या सबकुछ पूर्वनिर्धारित है?

आचार्य: क्या पूर्व-निर्धारित है वो बता दिया, क्या पूर्व-निर्धारित नहीं है वो भी बता दिया। यहाँ आना पूर्वनिर्धारित नहीं है। आप अभी चाहें तो उठकर बाहर जा सकते हैं। चुनाव का हक़ सदा है। आप चाहते तो आज की रात्रि ये सवाल नहीं पूछते, वो आपका चुनाव होता।

प्र: इसका मतलब भौतिक क्रियाएँ पूर्व-निर्धारित नहीं हैं?

आचार्य: बिलकुल! क्या एक झटके में आप पूरे तरीके से आश्वस्त हो गए थे कि आपको आना ही है?

प्र: नहीं।

आचार्य: नहीं हुए थे न? चुनाव करा न? तो जहाँ चुनाव है वहाँ फिर क्या तय-शुदा है? जब चुनाव बाकी ही है तो अभी तय क्या हुआ? अहं की दुनिया में चुनाव-ही-चुनाव हैं, उसे हमेशा चौराहे दिखाई पड़ते हैं इधर जाऊँ कि उधर जाऊँ। और वो निर्णय लेता ही रहता है तभी तो उसका सर चकराता रहता है न कि अब क्या करना है। अगर सब कुछ पूर्व-निर्धारित होता तो तुम्हारा सर इतना क्यों भारी होता? तुम्हारा सर इसीलिए तो भारी है कि तुम्हें चुनाव करने पड़ते हैं। तो ये भी चुनाव है कि यहाँ बैठे हुए हो, सवाल पूछ रहे हो।

प्र: तो क्या कार्य-कारण सिद्धांत की श्रृंखला जैसा कुछ नहीं होता?

आचार्य: सब होता है, अहं की दुनिया में सब होता है। मुक्ति का लेकिन कोई कार्य-कारण नहीं होता। आखिरी चीज़ पर नहीं चलता कार्य-कारण का सिद्धांत। उसके पहले जो कुछ है उस पर तो पूरा चलता है।

प्र: जैसे किसी की इंजीनियरिंग हो गई तो वो भी क्या कार्य-कारण सिद्धांत के कारण हुई?

आचार्य: हाँ, बिलकुल।

प्र: तो फिर तो वो डेस्टिनी हो गया।

आचार्य: वो डेस्टिनी नहीं है, उसके लिए आप शब्द ही माँग रहे हो तो उसको फेट बोल लो। डेस्टिनी शब्द का सम्बंध डेस्टिनेशन से है, आख़िरी मंज़िल। डेस्टिनी मुक्ति है। ये जो आप रोज़मर्रा के काम कर रहे हो वो तो आपके हक़ के हैं, वो तो आपके अख़्तियार के हैं, आपके चुनाव के हैं, उसको किस्मत क्यों बोल रहे हो? उसकी ज़िम्मेवारी तो खुद लो न। शराब पी कर गाड़ी चलाई गड्ढे में गिर गए और बोलो किस्मत थी। कोई ज़बरदस्ती थी कि पीनी थी? ज़बरदस्ती थी क्या? कितनी ही बार तुमने नहीं भी पी है, आज पी है तो ये तुम्हारा चुनाव है और अगर तुम कहो कि तुम्हारे चुनाव जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं तो फिर मुक्ति की भी कोई बात व्यर्थ है। फिर तो अगर ग़ुलामी है तो ग़ुलामी ही रहेगी।

मुक्ति का तो सवाल ही तभी पैदा होता है न जब मुक्ति का विकल्प मौजूद हो। अगर मुक्ति का कोई विकल्प ही नहीं है, अगर तुम्हारी ज़िन्दगी में जो कुछ भी हो रहा हो वो पूर्व-निर्धारित है तो तुम्हारी ज़िन्दगी में तो लगातार पूर्व-निर्धारित ग़ुलामी ही चल रही है। और अगर ग़ुलामी पूर्व-निर्धारित है तो तुम मुक्ति की बात ही क्यों कर रहे हो?

इसका मतलब तुम जो कुछ भी कर रहे हो उसमें विकल्प सदा उपलब्ध है और यही तुम्हारी उम्मीद है, यही सौभाग्य है तुम्हारा, इसी पर तुम्हारी सारी आशा टिकी है कि ग़लत करता रहा, ग़लत करता रहा, भले ग़लत करता रहा लेकिन सही करने का विकल्प मौजूद है, आज भी मौजूद है। सौ बार ग़लत कर लो उसके बाद भी सही रास्ता चुनने का विकल्प मौजूद रहेगा।

टिकट करवा लिया। कैंसिलेशन का विकल्प था कि नहीं? था न? अरे रिफंड नहीं मिला बस यही तो हुआ। कैंसिलेशन का विकल्प तो सदा होता है न? दुनिया में बताओ ऐसा क्या है जहाँ पर कोई विकल्प ही नहीं? दुनिया में कभी कुछ ऐसा होता है जहाँ पर पूर्ण निर्विकल्पता हो? अगली साँस भी आए इसमें भी तुम्हारे पास विकल्प है। ज़रूरी नहीं है अगली साँस आए। तुम कह दो कि, "यही आख़िरी है", हो सकता है वो आख़िरी ही हो। तुम चाहो तो हो सकता है।

प्र२: काफ़ी बार ऐसा हुआ है। सरकारी नौकरी हाथ में थी और अचानक वो छोड़कर मैं एम.एन.सी (बहुराष्ट्रीय कंपनी) में चला गया। पता नहीं अचानक कब हो गया।

आचार्य: अब ऐसा तो नहीं था कि सो रहे थे और सुबह उठे तो पाया कि एम.एन.सी में बैठे हो? निर्णय लिया न?

प्र२: हाँ, लेकिन निर्णय क्यों बदल जाता है?

आचार्य: तुम बदलते हो इसलिए। ज़िम्मेदारी उठाओ भाई! कल को तुम इसी रौ में बहते हुए कह दोगे "ये बच्चा कहाँ से आ गया? बच्चा क्यों आ जाता है?" अरे, आ जाता नहीं है, तुमने पैदा किया है, जिम्मेदारी उठाओ।

प्र३: अचानक वो विचार आ जाता है और वो फिर बड़ा हो जाता है।

आचार्य: उस विचार को समर्थन कौन देता है? तुम हर विचार को समर्थन नहीं देते न? अगर तुम कहते हो कि "मैंने कुछ नहीं किया और विचार कहीं से आ गया तैरता हुआ और विचार ने मुझसे सब कुछ करवा दिया" तो तुम झूठ बोल रहे हो। तुम्हें जितने विचार आते हैं क्या तुम सब को कार्यान्वित कर देते हो? नहीं न? तुम चुनते हो कि, "मैं कौन-सा विचार पकड़ कर के कार्यान्वित करूँगा, मैं कौन-से विचार को समर्थन दूँगा।"

ये तुमने बिलकुल ठीक कहा कि विचारों के आने पर तुम्हारा नियंत्रण नहीं है। विचार उड़ते-उड़ाते कहीं से भी आ सकते हैं, कोई भी विचार आ सकता है लेकिन क्या तुम सभी विचारों को ऊर्जा देते हो? क्या तुम सभी विचारों का समर्थन करते हो? क्या तुम सभी विचारों को कार्यान्वित कर देते हो? ऐसा तो नहीं करते न? वहाँ पर तुम्हारा चुनाव होता है। जिम्मेदारी लो, "मैंने चुना!" ये मत कहो कि हो गया।

ग़ौर से अगर देखोगे तो पाओगे कि किसी भी समय अनंत विचार मौजूद हैं, जैसे समुद्र में किसी भी समय अनंत लहरे हैं। बस कुछ पास हैं, कुछ दूर हैं, निर्भर करता है कि तुम कहाँ खड़े हो। कुछ बड़ी हैं, कुछ छोटी हैं। इन सब विचारों में सदा तुम्हारा चुनाव शामिल होता है कि तुम किसे प्रश्रय और प्रोत्साहन देने जा रहे हो। यही निर्णय सही करना होता है, यही भेद करना होता है। इसी को विवेक कहते हैं। इसी पर तुम्हारा पूरा जीवन आश्रित होता है कि निर्णय तो कर ही रहे हो प्रतिपल — सही निर्णय करो। वो निर्णय करो जो तुम्हें तुम्हारी डेस्टिनी की ओर ले जाएगा। डेस्टिनी क्या? जो अनिवार्य है। जो अनिवार्य है ही उससे लड़ना क्या? या तो पता होता कि वहाँ भी कोई चुनाव उपलब्ध है, वहाँ कोई चुनाव उपलब्ध नहीं है।

मुक्ति आवश्यक है, मुक्ति अपरिहार्य है। मुक्ति होनी-ही-होनी है। नहीं होगी तो चैन नहीं पाओगे। तो जो होना-ही-होना है उससे विवाद क्यों किया जाए? उससे संघर्ष क्यों किया जाए? भलाई इसी में है न कि उसी दिशा में चल दिया जाए। तो अगर चार बातें आती हैं मन में — तीन मुक्ति के ख़िलाफ़ और एक मुक्ति के पक्ष की तो किसका समर्थन करना है? क्या चुनाव करोगे? उस बात का समर्थन करो जो मुक्ति की दिशा में जाती है, यही विवेक है।

प्र: वो तो कहता है जॉब छोड़ दो।

आचार्य: अब देख लो।

प्र: आचार्य जी, मतलब जो मन में आए वो करना?

आचार्य: मन में बहुत कुछ है। अभी भी वो बता रहे हो जो बताने का चुनाव कर रहे हो। बात ना नौकरी करते रहने की है, ना नौकरी छोड़ देने की है। बात मुक्ति को जीवन के केंद्र में रखने की है। तुम्हारे सारे निर्णयों में प्रधान बात यही हो, प्रधान लक्ष्य यही हो कि, "मेरा ये निर्णय मुझे मुक्ति की तरफ ले जा रहा है या नहीं ले जा रहा है?" मुक्ति के लिए बिलकुल आवश्यक हो सकता है कि तुम नौकरी छोड़ दो और मुक्ति के लिए ये भी आवश्यक हो सकता है कभी-कभी कि तुम नौकरी ना छोड़ो। वहाँ कोई बँधा-बँधाया सिद्धांत नहीं चलता।

अगर नौकरी छोड़ने भर से मुक्ति मिल सकती होती तो उपनिषद बस एक सूत्र कह कर छोड़ देते। क्या सूत्र? कि नौकरी छोड़ो। नौकरी छोड़ी नहीं कि मुक्ति मिली। फिर तो दुनिया के किसी ग्रंथ में कोई और बात कही ही नहीं गई होती। इतनी सस्ती नहीं है मुक्ति कि नौकरी का त्यागपत्र डालने से मिल जाएगी। नौकरी का त्यागपत्र सहायक हो सकता है अगर सही समय पर डाला गया हो और सही कारण से डाला गया हो। अन्यथा नहीं, अन्यथा तो ये भी हो सकता है कि तैश में आकर नौकरी छोड़ आए उसके बाद एक नौकरी से ज़्यादा बड़ा बंधन किसी और नौकरी में चुन लिया। या कि पाया कि बेरोज़गारी नौकरी से ज़्यादा बड़ा बंधन है तो मुक्ति की बात करते-करते और बड़े बंधनों में फँस गए। ऐसे नहीं।

प्र: आचार्य जी, कुछ बच्चे अमीर घर में पैदा होते हैं और कुछ गरीब घर में, ऐसा क्यों होता है?

आचार्य: कुछ पैदा ही नहीं होते। ऐसा क्यों होता है? सागर में लहरें उठती हैं ऐसा क्यों होता है? ये तो संसार है।

प्र: घूम फिर कर मेरा प्रश्न 'कर्म के सिद्धांत' पर ही आता है और मन शांत नहीं हो पाता।

आचार्य: फिर ये भी पूछ लो कि जो 'कर्म का सिद्धांत' है वो क्यों है?

प्र: नहीं, वो क्या है?

आचार्य: वो क्या है तुम्हें बता भी दिया गया तो भी ये जिज्ञासा तो नहीं शांत होगी कि क्यों है। अगर तुम क्यों पूछ रहे हो तो तुम पीछे का कारण पूछ रहे हो। कारण तुम निकालते जाओ, हर चीज़ के पीछे तुम्हें दूसरा कारण मिल जाएगा, उसके पीछे कोई और कारण मिल जाएगा। अनंत श्रृंखला है और एक नहीं अनंत श्रृंखलाएँ हैं और वो आपस में गुथी हुई हैं। इतनी श्रृंखलाएँ जब आपस में गुथ गई हैं तो कार्य-कारण का पूरा जाल बिछा हुआ है। कारण-पे-कारण निकलते जाएँगे, नेटवर्क है। कहीं पर अंत नहीं होगा।

इस प्रश्न का अंत तब होता है जब मन शांत हो जाता है। मन जब तक है तब तक वो आगा-पीछा खोजता ही रहेगा। इस जिज्ञासा को मन कहते हैं। इस जिज्ञासा का कोई अंत नहीं है। जब तक तुम जिज्ञासा के केंद्र में ही ना घुस जाओ, आख़िरी कारण नहीं मिलता। तुम अकारण शांत हो जाते हो तो फिर कह दिया जाता है आख़िरी कारण अकारण है। सत्य अकारण है। तुम बस शांत हो जाते हो।

ये तुम्हें अपनी वर्तमान मनोदशा में सुनने में अजीब लगेगा पर संतो के पास ऐसा नहीं कि सब सवालों के जवाब हैं। बात दूसरी है — उनके पास अधिकांशतः वो सवाल ही नहीं हैं जो तुम्हारे पास हैं। वो इसलिए शांत हैं। तुम्हें तमाम सवाल उठते रहते हैं — "पड़ोस के घर से कुकर की सीटी बजी, बन क्या रहा है आज? और जो बन रहा है उसका कारण क्या है, पूर्व जन्म का फल?"

संतो को ये सब प्रश्न ही नहीं उठते। ऐसा नहीं कि उन्हें उत्तर मिल गए हैं। उनके पास जाकर तुम पूछोगे कि, "कढ़ी में जो पकौड़ा था वो टेढ़ी शक्ल का था, कारण बताइए?" तो ये थोड़े ही होगा कि महात्मा जी अपने दिव्य चक्षु खोलेंगे और तुम्हें पकौड़े के पूर्वजन्म की कथा सुना देंगे। वो बस मुस्कुराएँगे और आगे बढ़ जाएँगे क्योंकि उन्हें इन प्रश्नों से कोई लेना-देना नहीं। उनके लिए ये प्रश्न बचकाने हैं। उन्हें इन प्रश्नों से क्या ताल्लुक? और ऐसा नहीं है कि पकौड़े की कोई कथा नहीं है देखो। पकौड़ा यूँ ही पकोड़ा नहीं बन गया, उसके पीछे की कहानी ढूँढने निकलोगे तो पुस्तकालय कम पड़ जाएँगे ऐसा इतिहास निकलेगा। विचार करो पकौड़े के पीछे क्या-क्या है? संत वो जो कहे, "पकौड़ा तो पकौड़ा, आगे बढ़ो भैया!"

सब जिज्ञासा आध्यात्मिक नहीं होती। अधिकांशतः जिज्ञासा सिर्फ़ मन का विक्षेप होता है, मन का पागलपन। सिर्फ़ आत्म-जिज्ञासा आध्यात्मिक होती है। तुम्हारी जिज्ञासा भड़का कर तो माया मज़े लेती है।

प्र: वो जिज्ञासाएँ बंद कैसे होंगी?

आचार्य: भीतर घुस जाओ। उस जिज्ञासा के केंद्र पर जाओ। कौन है जो ये पूछ रहा है? उसे इससे मिल क्या जाएगा? क्या उसे यही चाहिए? जैसे पिंजरे का पक्षी पूछता हो कि, "आज सर्राफ़ा बाज़ार गर्म है या ठंडा?" अरे तुझे इससे मिल क्या जाएगा पागल! जैसे क़ैदखाने का कोई क़ैदी पूछे "आज मैच का स्कोर क्या है?" तुझे इससे मिल क्या जाएगा पागल? तेरी ये जिज्ञासा होनी चाहिए? तेरी क्या जिज्ञासा होनी चाहिए? "मुक्ति कैसे मिलेगी?" पर सही जिज्ञासा ना करनी पड़े इसलिए तू भाँति-भाँति की व्यर्थ जिज्ञासा करता रहता है। माया का दूसरा नाम समझो जिज्ञासा।

आत्मजिज्ञासा को छोड़कर बाकी सब जिज्ञासाएँ मायावी हैं। देखते नहीं हो ये लोग तुम्हें पकड़ने के लिए तुममें कैसी-कैसी जिज्ञासाएँ उठवाते हैं? कोई खबर होगी उसका शीर्षक क्या रखा जाएगा — "माला चोपड़ा कुटकू द्वीप पर क्या कर रही थी?" तुम्हें माला चोपड़ा से कोई लेना-देना ना हो, कुटकू द्वीप कहाँ है इसका तुम्हें कुछ पता ना हो। पर तुम्हें खुजली कर दी गई है "क्या कर रही थी? माला चोपड़ा कुटकू द्वीप पर क्या कर रही थी?" अब तुम पढ़ जाओगे पूरा। अब जो पढ़ जाओगे तो उसमें बीच में बैठे होंगे चार अदद विज्ञापन। बेचने वाले का काम हो गया, बुद्धू बने तुम क्योंकि तुम पकौड़ा शास्त्री हो। तुम कैसे छोड़ दोगे माला चोपड़ा के कुटकू द्वीप को! तुम्हें तो जानना है, "ये हुआ कैसे?"

ज्ञान का मतलब होता है वो ज्ञान जो मुक्ति में सहायक बने और किससे मुक्ति चाहिए? ग़ौर से सुन लो — व्यर्थ के ज्ञान से। ज्ञान का मतलब होता है वो ज्ञान जो मुक्ति में सहायक बने और मुक्ति चाहिए ही किससे? व्यर्थ के ज्ञान से। तो ज्ञान का मतलब वो ज्ञान जो व्यर्थ के ज्ञान को काट दे। व्यर्थ का ज्ञान इकट्ठा करना अध्यात्म नहीं होता कि "चलो, ऋषिकेश शिविर के प्रतिभागियों, कल की आध्यात्मिक गतिविधि ये है कि तुम गिनोगे कि गंगा में लहरें कितनी हैं। तुम गिनोगे कि तट पर रेत के कण कितने हैं। और तुम गिनोगी कि पेड़ पर पत्ते कितने हैं और जो लोग बच गए हैं वो अपने-अपने सर के बाल गिनेंगे।" बढ़िया!

प्र: तो ऐसे सवाल अगर आएँ तो उनकी उपेक्षा करना है?

आचार्य: ऐसे सवाल आएँ तो अपने आप से पूछो कि "ज़िंदगी कैसी है मेरी जो ऐसे सवाल आ रहे हैं? असली सवाल कहाँ गया? कितनी दरिद्रता की मेरी ज़िंदगी है जो ऐसे दरिद्र प्रश्न आ रहे हैं? असली सवाल कहाँ हैं?"

आंतरिक फरेब है न? असली सवाल का उत्तर ना देना पड़े इसीलिए झूठमूठ के नकली सवाल पैदा करे जा रहे हो।

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