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लेख
कौन हैं तुलसी के राम?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: इतना तो हम सभी जानते हैं कि राम के स्पर्श ने रामबोला को तुलसीराम और तुलसीराम को तुलसीदास बना दिया। लेकिन याद रखना होगा कि जैसा भक्त होता है, वैसा ही उसका भगवान भी होता है। भगवान तो भक्त को रचता ही है, भक्त के हाथों भी भगवान की रचना निरंतर होती रहती है।

वाल्मीकि के राम एक हाड़-माँस के पुरुष हैं, संसारी। वे श्रेष्ठ पुरुष हैं, धीर पुरुष हैं, वीर पुरुष हैं, पर हैं मानव ही। तुलसीराम ने तुलसीदास होकर राम को भी निराकार से साकार कर दिया। तुलसी के राम परमब्रह्म हैं, तुलसी के राम तुलसी के हृदयपति हैं। तुलसी को राम प्यारे हैं, रामकथा प्यारी है, राम के संगी प्यारे हैं, राम के भक्त प्यारे हैं। तुलसी के लिए ये पूरा जगत राम का ही फैलाव है। राम ने तुलसी को अपना उपहार दिया तो तुलसी ने अध्यात्म की श्रेष्ठतम परंपरा में उस उपहार को जगत में बाँट दिया।

तुलसी ने जगत को जो राम दिया है, वो किसी कथा का नायक मात्र नहीं है, वो किसी भी कथा से बहुत आगे का है। वो जैसे श्रेष्ठतम की मानवीय अभिव्यक्ति है, जैसे निर्गुण सगुण होकर उतर आया हो। और रामायण जितनी प्रसिद्ध और प्रचलित कभी न हुई थी, उतनी रामचरितमानस हुई। विश्व के सौ सबसे प्रभावशाली और सुप्रसिद्ध काव्यग्रंथों में मानस का स्थान प्रथम पचास में आता है। क्यों मिली उसे इतनी व्यापक प्रसिद्धि? क्यों उत्तर भारत के घरों में आज भी सुबह मानस के साथ होती है? क्योंकि तुलसी के राम एक छोर पर तो परमब्रह्म हैं और दूसरे छोर पर आपकी व्यवहारिक पहुँच के भीतर हैं। वो आपके सामने एक ऐसा वृत्त रखते हैं, एक ऐसा कथानक, जिसमें आप पार की झलक तो देख ही सकते हो, अपना चेहरा भी देखते हो। आपको ये उम्मीद बनती है कि आप हाथ बढ़ाओगे तो राम तक पहुँच जाओगे। वाल्मीकि के राम को भगवत्ता से ओत-प्रोत कर उन्होंने राम को घर-घर का राम बना दिया।

कैसे देखते हैं तुलसी राम को?

सीयराममय सब जग जानी।

करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।

~ संत तुलसीदास

ये जो पूरा जगत है, ये सियाराममय है – ये हैं तुलसी के राम। क्या तुलसी के राम एक पुरुष मात्र हैं? नहीं, बिल्कुल नहीं। क्या तुलसी के राम निराकार ब्रह्म हैं? नहीं, वो भी नहीं। तुलसी के लिए राम एक ऐसी जीवंत वास्तविकता हैं जो जगत की तो निश्चित रूप से है पर जिसमें आपको लगातार जगत के पार की भी झलक मिलती है। यही कारण है तुलसी के राम की विराट उपस्थिति का। यही कारण है कि वो जगत द्वारा इतने व्यापक रूप में स्वीकार किए गए हैं।

सियाराममय सब जग जानी।

ये जो पूरा जगत है, राम इसके पात्र नहीं हैं; ये पूरा जगत ही राममय है।

तीन आपको शुरू में दिखाई देंगे, हमें तीनों की एकता पर आना है – जगत, सिया और राम।

कौन हैं सीता? कौन हैं राम? क्यों कहते हैं सियाराम? वाल्मीकि से पूछेंगे तो सीता राम की भार्या, मिथिला की बेटी, जिन्हें धनुर्यज्ञ में जीता गया। तुलसी से पूछेंगे तो कहेंगे, "जो कुछ कहा वाल्मीकि रामायण में वो ठीक, हम स्वीकार करते हैं उसे।" निश्चितरूप से तथ्य यही कहते हैं कि सीता जनक की पुत्री, बड़ा स्वयंवर और धनुष, और तमाम राजकुमार, और रावण, और बाणासुर, और धनुष का टूटना, ये सब कथा की कड़ियाँ हैं। विश्वामित्र लेकर गए हैं राजकुमारों को और सीता ने राम का वरण किया। तुलसीदास कहेंगे कि ये सब ठीक है, ये हुआ।

पर बात ज़रा आगे की है; इतना तो हुआ पर इतना ही नहीं हुआ। कुछ और भी है जो हो रहा है, उस पर ग़ौर करो।

राम यदि 'ब्रह्म' हैं तो सीता 'प्रकृति' रूप में, स्त्री रूप में, देवीरूप में उस ब्रह्म का विस्तार हैं। राम यदि आदि 'सत्य' हैं तो सीता आदि 'शक्ति' हैं। अब ये जो बात है ये तथ्य नहीं है। तथ्य तो यही है कि अयोध्या का राज्य था, बहुत बड़ा नहीं, छोटा-सा। और उसमें दशरथ थे और उनकी तीन रानियाँ थीं। ये सब वो घटनाएँ हैं जो आपने घटती देखीं, तब आप भी थे, तब सरयु भी थी। आपने भी देखा कि हाँ, दशरथ की तीन रानियाँ, आपने भी सूरज को उगते देखा, आपने भी सरयु के पानी को बहते देखा। आपने देखा राजकुमारों का जन्म, आपने देखा वो शिक्षा के लिए गए, आपने देखा कि उन्होंने राक्षसों से युद्ध किया। ये सब हुआ। ये सब आपकी आँखों ने देखा। उसके साथ-साथ कुछ ऐसा हो रहा है जो आँखें नहीं देखती हैं। और दोनों घटनाओं में अंतर है। जो आपने देखा, वो मात्र तब हुआ। आँखें जो कुछ भी देखती हैं, वो होता है और फिर न होने के क्षेत्र में पहुँच जाता है। कुछ ऐसा भी होता है जो तब भी हो रहा था और अब भी हो रहा है।

तुलसी ने राम में उसको प्रविष्ट करा दिया जो अनंत है और नित्य है। उनके राम दो तल पर हैं, एक तल पर वो राम जो हुए और दूसरे तल पर वो राम जो निरंतर होते जा रहे हैं। एक तल पर वो राम हैं जो तथ्य हैं, जिनका किसी माता के गर्भ से जन्म हुआ, जिन्होंने तीर मारे और तीर खाए और जिन्होंने अंततोगत्वा समाधि ले ली। और दूसरे तल पर वो राम हैं जो न कभी पैदा हुए, न कभी विदा हुए, जो निरंतर होते ही जा रहे हैं। तुलसी के राम दोनों हैं। तुलसी इस मायने में वाल्मीकि से आगे निकल गए। भक्त ने भगवान में अपनी भक्ति का प्रकाश स्थापित कर दिया। जो नहीं दिख रहा था आँख से, वो भी देख लिया। आँख से देखोगे तो क्या दिखाई देगा? सिर्फ राम जो कि एक पुरुष हैं। और भक्त के हृदय से देखोगे तो क्या दिखाई देगा? राम जो कालातीत हैं, जो मात्र पुरुष ही नहीं, आदिपुरुष हैं, स्वयं सत्य हैं।

तुलसी के राम इसीलिए विशिष्ट हैं, तुलसी के राम इसीलिए वाल्मीकि के राम से बहुत आगे निकल गए हैं। तुलसी के राम इसीलिए वाल्मीकि के राम से कहीं ज़्यादा सत्य भी हैं। अगर आप तथ्यों के मापदंड पर देखेंगे तो वाल्मीकि के राम ज़्यादा सच्चे हैं क्योंकि उन्होंने कहानी शायद ज़्यादा हूबहू वर्णित करी है। जस की तस, जो हुआ सो बता दिया। तुलसीदास ने वो भी बता दिया है जो नहीं हुआ। अब आप कहेंगे कि ऐसे में तो तुलसी के राम ज़रा अयथार्थ हो गए, ज़रा अतथ्य हो गए, ज़रा झूठे हो गए। नहीं, झूठे नहीं हो गए, ज़्यादा सच्चे हो गए।

ये बात जोड़-घटाव पर चलने वाला मन नहीं समझ पाएगा। जोड़-घटाव पर चलने वाला, हिसाबी-किताबी मन कहेगा, "न, जो चीज़ जैसी थी वैसी ही बताओ, तब वो सच्ची मानी जाएगी"। तुलसी वो भी बता रहे हैं जो नहीं हुआ, हुआ ही नहीं। अब वो तुलसी की कल्पना भी कही जा सकती है या तुलसी की गहनतम अभिप्रेरणा। आपके ऊपर है आपको क्या दिखाई देती है। आप अगर तुलसी जैसे हैं तो कुछ दिखाई देगा, आप अगर तुलसी जैसे नहीं है तो कुछ और दिखाई देगा।

वाल्मीकि के राम वनवास की खबर मिलने पर सीता के पास जाते हैं और ज़रा चिंता व्यक्त करते हैं। वो कहते हैं, "मैं जा रहा हूँ सीते, और तुम भरत के साथ ज़रा बना कर रखना क्योंकि जिसके पास सत्ता होती है, उसके साथ संबंध अच्छे होने चाहिए"। शायद ऐसा हुआ भी हो, हाड़-माँस का कोई भी इंसान शायद ऐसी ही सलाह देगा अपनी पत्नी को जब वो उसे छोड़कर चौदह वर्ष के लिए जंगल जा रहा हो।

तुलसी के राम इसी मौके पर जब सीता के पास जाते हैं तो वो किसी चिंता से ग्रस्त नहीं हैं। उनमें पूरी धीरता मौजूद है, वो पूरी तरह शांत हैं। वो सीता को समाचार यूँ देते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो। आप तुलसी के शब्दों में इस मौके पर भी राम को करीब-करीब मुस्कुराते हुए देख सकते हैं। जैसे राम को सब कुछ पहले से ही पता हो और जैसे सीता की प्रतिक्रिया भी पहले से ही तय हो। कहाँ चिंता? कहाँ व्याकुलता? कहाँ भरत को लेकर शंका?

आप जानिए सच्चा कौन है। अगर आप वही सब कुछ देखना चाहते हैं जो चारों तरफ घट रहा है, जो एक साधारण मन के दायरे के भीतर आता है, जिसे आँखें देख पाती हैं, कान सुन पाते हैं, तो वाल्मीकि ने जो दर्शाया है वो ज़्यादा सच्चा है। पर अगर वो ज़्यादा सच्चा है तो जीवन जीने लायक नहीं है। अगर वो ज़्यादा सच्चा है तो आप प्यासे मर जाएँगे। अगर वो ज़्यादा सच्चा है तो आप जिएँगे किसलिए? अगर वो ज़्यादा सच्चा है तो ये विश्व फिर मशीनों का है, यंत्रों का है। इस विश्व में फिर कोई हृदय नहीं है, कोई प्रेम नहीं है; बस गणित है, हानि-लाभ, पाना-खोना, भय और लोभ, मोह और द्वेष – इतना ही है।

तुलसी ने जो वर्णन किया है वो हो सकता है तथ्यों की कसौटी पर खरा न उतरे, लेकिन फिर भी वो ज़्यादा सही है, वो ज़्यादा सच्चा है। दुनिया को उस वर्णन की ज़रूरत है ठीक उस तरह से जैसे शरीर को हृदय की ज़रूरत है। दुनिया को तुलसी के राम चाहिए। दुनिया को वो राम चाहिए जो सिर्फ मिट्टी के नहीं हैं, जिन्हें मिट्टी से आगे किसी ने छू दिया है; जो किसी पारलौकिक शक्ति से आविष्ट हैं, जो भगवत्ता से ओत-प्रोत हैं।

सियाराममय सब जग जानी।

अयोध्या का राजकुमार थोड़े ही सारे जग में पसरा हुआ है।

जो कुछ दिखाई दे वो सीता, और जो उसे समझ रहा है, जिसको उसका बोध हो रहा है, सो राम।

तो राम माने मन नहीं, मन को बोध नहीं होता। मन को भी देखा जा सकता है। जो बाहर दिख रहा है, वो सीता। जो भीतर देखने वाला बैठा है, सो भी सीता। और जो इन दोनों का साक्षी है, नियंता है, पति है, सो राम। सियाराम!

उस राम तक तुम कभी सीधे न पहुँच पाओगे। उस राम तक पहुँचने के लिए सीता को ही माध्यम बनाना पड़ेगा। 'सियाराम' – ये कोई रस्म अदाएगी नहीं है। ये लेडीज़ फर्स्ट नहीं है। ये परंपरागत रूप से स्त्रियों को सम्मान नहीं दिया जा रहा है कि पहले ज़रा भार्या का नाम ले लो फिर पति का नाम लो। ये बात ज़रा गहरी है, इसको ज़रा समझना। हम तो सीता के ही ज़्यादा निकट हैं। सीता प्रकृति है और हम हैं प्रकृति के पुतले। हमें सीता को ही जानना पड़ेगा, राम हमें वहीं दिखाई देंगे। सीता ही बनेंगी पुल। सीता ही बनेंगी माध्यम।

उचित तो ये है कि आप प्रार्थना करें कि आपको वो सीता मिले जो आपको राम तक ले जाए। राम तो चहुदिश हैं, लगातार उपलब्ध हैं; सीता नहीं मिलतीं, ज़रिया नहीं मिलता, पुल नहीं मिलता। जो उपलब्ध है, उसी तक ले जाने वाला नहीं मिलता। सीता वो ज़रिया हैं जो इस जगत का है। आप इस जगत के ही हो, जगत से पार जाने के लिए भी कोई आपको ऐसा चाहिए जो इसी जगत का हो। आप तो यहीं पर हो न? आपकी यात्रा तो यहीं से शुरू होनी है। आपको यहीं पर कोई साथी चाहिए – इसीलिए कहते हैं सियाराम।

सीता मिल जाएँ तो राम तक पहुँच जाएँगे।

हाड़-माँस का कोई ऐसा मिल जाए जो रास्ता दिखा सके, जो मार्गदर्शक हो जाए तो पहुँच जाएँगे राम तक। राम से प्रार्थना करेंगे तो राम कहेंगे, "मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास हूँ"। राम तो बता देंगे, "मैं तेरे पास हूँ"। तुम क्या करोगे? तुम्हें तो वो पास कहीं दिखाई नहीं देते। सीता वो हैं जो तुम्हें उस से मिलवा दें जो तुम्हारे पास ही खड़ा है। बड़ी अजीब बात है ये लेकिन राम भी मजबूर हैं, राम ने तो अपना सब कुछ तुम्हें दे ही दिया है। फिर तुम कहते हो, "हे! राम दर्शन दो। हे! राम सहारा दो।" वो कहते हैं, “जो कुछ दे सकता था सब दे दिया, अब और क्या दूँ?”

तुम्हें राम नहीं, तुम्हें सीता चाहिए। तुम्हें निराकार नहीं, तुम्हें साकार चाहिए। तुम्हें कोई उस पार का नहीं, तुम्हें कोई इस पार का चाहिए।

तुलसी की पत्नी थीं रत्नावली, अपने मायके में थीं। तब तुलसी 'तुलसीदास' नहीं थे। यौवन का आवेग, तुलसी पत्नी के गाँव की ओर एक रात निकल पड़े। यमुना उफनाई हुई थी, तुलसी उसे तैरकर पार कर गए। पत्नी शायद घर के प्रथम तल पर रहती थीं या शायद और ऊपर। आधी रात पहुँचे, द्वार कैसे खटखटाएँ? तो ढूंढा कि कोई रस्सी इत्यादि मिल जाए। कैसे ऊपर चढ़ें? भीतर प्रकृति ज़ोर मार रही थी, काम ज़ोर मार रहा था। देखा कुछ लटक रहा है ऊपर से, बादलों वाली रात, साफ दिखाई नहीं दिया, जो भी लटक रहा था, उसी को पकड़ा और कूद गए अंदर। पत्नी सामने थीं, उससे साथ चलने की याचना करने लगे। पत्नी झुंझलाई ख़ूब और फिर सन्मति देने के लिए एक स्वरचित दोहा कहा:

अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति।

नेकु यदि होती राम से, तो काहे भव-भीत।।

जितनी प्रीत इस माँस और खाल की देह से दिखा रहे हो, इतनी अगर राम से दिखा ली होती तो तर जाते। अब राम तो सदा से थे तुलसी के पास। कहते हैं कि तुलसी जब पैदा ही हुए थे तो प्रथम वर्ण 'राम' उच्चारित किया था। उनका नाम ही रख दिया गया था 'रामबोला'। रामबोला कहलाते थे। राम तो उनके पास सदा से थे, कोई ऐसा न था जो राम के पास ले जाता। विचित्र बात है न? कि जो तुम्हारे पास सदा से हो, उसी तक ले जाने के लिए तुम्हें कोई चाहिए। पत्नी सहारा बन गयीं, पत्नी गुरु बन गयीं। ऐसी चोट लगी कि ‘तुलसीदास’ हो गए। तुलसीराम कहलाते थे उस समय। तुलसीराम ‘तुलसीदास’ हो गए।

वहाँ से वापस गए तो पता चला कि इधर ये पत्नी के उद्वेग में निकले थे, उधर पीछे पिता का देहांत हो गया था। और चोट लगी, काम का अंजाम देखा, अंजाम ने राम की ओर और गहनता से प्रेरित कर दिया। पिता का संस्कार किया और गाँव ही छोड़ दिया। धीरे-धीरे चित्रकूट आ गए और उसके बाद की कहानी आपको पता ही है: मानस की रचना हुई, तदोपरांत अन्य कई ग्रंथों की रचना हुई। वो सब होता रहा लेकिन देखिए कि राम मिले तुलसी को, उससे पहले उन्हें कोई और मिला – इसलिए ‘सियाराम’। इसलिए सियाराम! पत्नी ही गुरु हो गयीं।

जिनके जीवन में सीता नहीं हैं, उन्हें राम नहीं मिल पाएँगे। सीता का मतलब समझते हैं? प्रकृति का एक पुल। कुछ ऐसा जो है तो दुनिया में लेकिन तुम्हें दुनिया से आगे ले जाने की सामर्थ्य रखता है। वो सामर्थ्य उस मौके पर दर्शाई थी रत्नावली ने। कोई साधारण पत्नी होती तो कहती, “पति मेरे लिए इतने कष्ट उठाकर आया है। मेरे लिए इतना ख़तरा मोल लिया है।" उसका अहंकार उसे और अंधा कर देता। वैसे भले कड़वी होती पर उस मौके पर तो बिल्कुल ही पति को कड़वे वचन न बोलती। तुम्हें भी कोई ऐसा चाहिए जो तुमसे तुम्हारे हित की बात करे। जो तुमसे अस्थि-चर्ममय देह से आगे की बात करे। जो तुमसे कह सके कि तुम्हें जो दिखता है, उतना ही भर नहीं है, उससे आगे राम हैं। कहाँ तुम दिल लगाए बैठे हो?

"सियाराममय सब जग जानी।"

इसीलिए भारत ने जग को उसकी समग्रता में प्रणाम किया है – "करउँ प्रणाम जोरि जुग पानी"। जो कुछ भी दिख रहा है, जो भी देख रहा है, वो दोनों जिससे उद्भूत हैं, मैं उसे प्रणाम करता हूँ। और अगर मैं रचयिता को प्रणाम करता हूँ तो मैं उसकी रचना को प्रमाण किए बिना कैसे रह सकता हूँ? रचयिता और उसकी रचना एक हैं; यही तो अद्वैत है।

तुम निराकार में मुझे प्यारे हो, जब साकार हो जाते हो तो विविध हो जाते हो, अनेक, अनंत रूप ले लेते हो – उनमें से किसी भी रूप का मैं अपमान कैसे कर सकता हूँ? इसीलिए सब जग को प्रणाम। तुम ही तो हो जो कुछ भी बन आए हो। तुम ही तो हो मेरे भीतर जो कुछ भी देखते हो। तुम न होते तो मैं अच्छा कैसे देखता? तुम न होते, मैं बुरा भी कैसे देखता? अच्छा देख रहा हूँ चाहे बुरा देख रहा हूँ, मेरा देखना इस बात का प्रमाण है कि तुम हो। अच्छे-बुरे से मुझे मतलब नहीं। मैं अच्छे को, बुरे को, काले को, गोरे को, समस्त प्रकार के द्वैतों को प्रणाम इसलिए करता हूँ क्योंकि उनके मूल में तो तुम बैठे हो।

तुम न होते तो न कोई देखने वाला होता, न दिखने के लिए कुछ होता। तुम तो मुझे कभी दिखाई दोगे नहीं, तो तुम्हारे होने से मुझे जो कुछ दिखाई देता है, मैं उसी को प्रणाम किए लेता हूँ। मेरे पास और उपाय क्या है? साधन क्या है? राम तो वन में हैं, तो सिंहासन पर राम की पादुकाएँ हीं सहीं, उन्हीं को प्रणाम कर लेते हैं। तुम खुद तो कभी दिखाई दोगे नहीं, न जाने क्या तुमने ठानी है निराकार रूप में, कि सामने ही नहीं आना है। भली तुम्हारी ज़िद्द है! चलो तुम्हारी ज़िद्द है तो तुम्हारी ही ज़िद्द है, उसका आदर करना ही पड़ेगा, उसका मान रखना ही होगा।

लेकिन फिर हमारी भी ज़िद्द है, तुम पर्दे के पीछे छुपे बैठे हो, तुम स्वयं साक्षात कभी सामने आओगे नहीं तो जो कुछ भी सामने आएगा, उसे हम तुम्हारा अवतार जानेंगे, उसे हम तुम्हारा रूप जानेंगे, हम उसे प्रणाम कर लेंगे। हम हज़ारों कहानियों में तुम्हारा वृत्त देखेंगे, हम पहाड़ों में, पशुओं में, नदियों में तुम्हारा चेहरा देखेंगे। हम जिधर भी देखेंगे, तुम्हें ही देखेंगे, ये हमारी ज़िद्द है। अब बताओ कि तुम छुपे रह गए या ज़ाहिर हो गए? अब बताओ, पर्दा अभी बाकी है या हट गया?

भगवान पर से पर्दा उतना ही हटता है जितना भक्त पर से हटता है। आपकी आँखों से पर्दा अगर हट गया तो भगवान के मंदिर के कपाट खुल गए, पर्दा हट गया। अब आपको भगवान हर जगह दिखाई देंगे।

"सियाराममय सब जग जानी।"

अर्थ इसका ये नहीं है कि जिधर देख रहे हैं उधर कोई धनुर्धारी खड़ा हुआ है। अर्थ इसका ये है कि मेरी आँखें अब ऐसी हो गयी हैं कि सत्य के अलावा कुछ देखती नहीं।

कैसे दिखें राम? कहानी सुंदर है। कहते हैं कि चित्रकूट में तुलसीदास को हनुमान पहले मिले। ये लगातार हो रहा है, राम से पहले सीता मिलेंगी, राम से पहले हनुमान मिलेंगे। जो हनुमान का भक्त नहीं हो सकता, जिसे हनुमान का सामीप्य नहीं मिल रहा है, उसे फिर राम का भी नहीं मिलेगा। कोई चाहिए जो आपके जैसा हो, वही बनेगा ज़रिया। तो पहले मिले हनुमान। कहानी है, समझना, ये सब संकेत हैं। इनको शाब्दिक मत ले लेना। तो हनुमान से बोले, सिफारिश लगाई, “राम के दर्शन चाहिए”। हनुमान बोले, “हो जाएँगे! होश में रहना, आँख खुली रखना।” तुलसीदास बोले, “हौ”। चले वहाँ से, आगे जाते हैं, भरा बाज़ार है, लोग आ-जा रहे हैं, भीड़ है, तमाम प्रकार के आकर्षण हैं, रोशनियाँ हैं। उन्हीं में देखते हैं कि दो नवयुवक चले आ रहे हैं घोड़ों पर। अब दुनिया में बहुत सुंदर लोग हैं, वो नवयुवक भी सुंदर थे। तुलसीदास ने उनको देखा, सराहा, और जाने दिया। जब आगे बढ़ आए तो हनुमान आते हैं, बोलते हैं, "अभागे! अरे, राम-लखन थे।" तुलसीदास लगे पछताने, “ये क्या चूक हो गयी!”

क्या कह रही है कहानी, समझिएगा। राम तक पहुँचने के लिए कोई चाहिए जो स्वयं राम से ओतप्रोत हो, उसके सहारे के बिना नहीं। अन्यथा राम साक्षात सामने भी आएँगे तो आपको नज़र नहीं आएँगे। कोई मध्यस्थ चाहिए, कोई हनुमान चाहिए, कोई सीता चाहिए। तो तुलसीदास अब छाती पीटें कि राम के दर्शन होते थे और मैं अभागा पहचान नहीं पाया। हनुमान बोले, "तू रो मत, दोबारा आएँगे। पर उनकी लीला का ठिकाना नहीं, अब ऐसे नहीं आएँगे घोड़े पर, आँख खुली रखना।" तुलसी बोले, “हौ”।

अब एक दिन सुबह तुलसी अपने नित्य भक्ति का आयोजन कर रहे थे, चंदन घिस रहे थे। तो एक बच्चा आया, जैसे सारे बच्चे होते हैं, भोला-सुंदर, कहता है, "बाबा, हमें भी चंदन चाहिए। दो चंदन।" अब वो चंदन तैयार कर रहे हैं देवता के लिए, भगवान के लिए, और बच्चा कह रहा है, खिलवाड़ में, हमें भी दो चंदन। अब तुलसीदास मना ही करने वाले थे, वहीं पेड़ पर बैठे थे हनुमान बोले, "ये फिर चूका, इसको नहीं दिखाई देगा"।

कहानी किधर जा रही है, देखना ध्यान से। तुम तो चूकोगे ही, बता भी दिया जाए कि आ रहे हैं, तो भी दिखाई नहीं देंगे। सारी सावधानी विफल जानी है। तो ऊपर से बोलते हैं, अब ये इशारा दे रहे हैं, जैसे परीक्षा में नकल कराई जाती है। होता है न? परीक्षा केंद्र के बाहर कोई खड़ा हुआ है, वो वहाँ से फुसफुसा के बता रहा है, इस समस्या का ये समाधान है। तो वो ऊपर से बोल रहे हैं:

चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़।

तुलसीदास चंदन घिसे तिलक देत रघुवीर।।

समझ रहे हो? कह रहे हैं कि अगर तुम चंदन घिस रहे हो तो तिलक देने वाले ये रघुवीर ही आए हैं। तुलसीदास ने देखा कि वो ऊपर से इशारा कर रहे हैं, “वही हैं”। कथा मनोरंजक तो है लेकिन मनोरंजन से बहुत आगे की भी है। इसलिए – सियाराम! इसलिए – सियाराम!

तुलसीदास चंदन घिस रहे हैं और संतों के माथे पर रघुवीर तिलक दे रहे हैं। सब हो रहा है, हो रहा है, पर तुम्हें कहाँ दिखेगा जब तक कोई हनुमान न मिले ये बताने वाला कि, “अरे पगले! यही तो हो रहा है। तुझे क्या लगता है कि तू आराधना के लिए चंदन घिस रहा है और एक कोई छोटा बच्चा आ गया है और खिलवाड़ में चंदन माँग रहा है? पगले! ये सब वो है जो आँखों को दिख रहा है। जो आँखों को दिख रहा होता है, उससे आगे का निरंतर कुछ घट रहा होता है। आँखें खोल!”

उसी को भारत में कहा गया है – ‘तीसरी आँख’। उससे देख कि वास्तव में क्या घट रहा है! दो आँखों से तुझे जो दिख रहा है वो सिर्फ ‘घट’ रहा है। घटने का मतलब बीत जाएगा। तीसरी आँख से वो देख जो कभी बीतने नहीं वाला, जो 'अघट' है। 'घटना' शब्द ही बड़ा सूचक है। घटने का अर्थ कम हो जाना है। ये तो वह चीज़ है जो दिखेगी फिर न दिखने के क्षेत्र में अदृश्य हो जानी है, तिरोहित हो जानी है। गयी! कहाँ गयी? पता नहीं कहाँ गयी! जहाँ से आयी थी, वहीं को गयी। जो घटना अभी थी, कहाँ गयी? अगर तुम्हारे जीवन में सिर्फ घटने वाली घटनाएँ हैं तो जिओगे कैसे? किसके भरोसे? किसके मत्थे? कोई ऐसा चाहिए न जो अघट हो, जो न घटता हो। तुम्हारे जीवन में अगर वो नहीं है तो कैसे जिओगे? सब कुछ अगर घटे ही जा रहा है तो मर जाओगे। तुम ऐसे हो जाओगे जैसे बिना रीढ़ का आदमी। खड़े कैसे होओगे?

एक पाश्चात्य दार्शनिक कह गए हैं: इफ़ गॉड डज़ नॉट एक्सिस्ट, मैन मस्ट इन्वेन्ट हिम (यदि भगवान अस्तित्व में नहीं है, तो मनुष्य को उसका आविष्कार करना चाहिए)। उन्होंने पता नहीं किस सुर्र में कह दिया, लेकिन बात में दम है। तुम्हें भगवान चाहिए। तुम्हें सत्य चाहिए। और तुम्हें इतनी बेसब्री से तलाश है, और तुम्हें इतनी गहरी कशिश है, और तुम्हारी आवश्यकता इतनी मूलभूत है कि अगर दिखाई न देती हो भगवत सत्ता, तो तुम प्रार्थना करो कि दिखो! तुम प्रमाण मत माँगो, तुम प्रार्थना करो! ये दो अलग-अलग मन होते हैं।

एक मन होता है जो कहता है कि मुझे दिख नहीं रही है, इसका मतलब है कि नहीं है। न दिखना प्रमाण है उसके न होने का। दूसरा मन कहता है, नहीं दिख रही है, इसका अर्थ है मेरी प्रार्थना में कमी है। तुम प्रमाण मत माँगो, तुम प्रार्थना करो! है तो, तुम्हें नहीं दिख रही है, तुम में कमी है। उसका न दिखना उसके न होने का प्रमाण नहीं है। उसका न दिखना तुम्हारे न होने का प्रमाण है। तुम जिस दिन हो जाओगे, उस दिन – "सियाराममय सब जग जानी"।

सियाराम! सियाराम! सियाराम! सियाराम! सियाराम! नाहक ही मुस्कुराओगे। क्या दिख रहा है? – कोई पूछेगा। तुम कहोगे, "बस दिख रहा है"। वो पूछेगा, "क्या दिख रहा है?” तुम कहोगे, "अरे! दिख रहा है"। सुनने वाला शायद आशय समझ भी न पाए। तुम कह रहे हो, "मुझे दिख रहा है और तुम्हें दिखता ही नहीं। जिसे तुम दिखना कह रहे हो, वो अंधापन है।"

जो आँखें देखना शुरु कर देती हैं, वो आँखें बदल जाती हैं, उनमें कुछ और ही आ जाता है। वो फिर मात्र माँस की आँखें नहीं रह जातीं, उनका तरीका बदल जाता है। माँस ही बदल जाता है। आप जब सुनना शुरू करते हो, आपका चेहरा बदल जाता है, आपके बैठने का ढंग बदल जाता है, आप कुछ और हो जाते हो। और अगर आपका चेहरा नहीं बदल रहा, आपकी आँखें वही हैं जैसी लगातार रहती हैं, बाज़ार में रहती हैं, तो आप हो नहीं। आप हो नहीं!

(सत्रों में सहभागी जिन गद्दी पर बैठते हैं, उन्हें सम्बोधित करते हुए) गद्दी पर माँस रखा हुआ है। बाज़ार में माँस बहुत मिलता है, उसकी क्या कीमत है? मिट्टी है!

अपने जीवन में उन्हें प्रवेश दीजिए जो संसार को आपके लिए राममय बना दें। संसार अकेले नहीं बदलेगा, आप भी संसार के साथ बदल जाओगे। दोनों बिल्कुल समानांतर चलते हैं – आप और संसार। आँखें ऐसी हों जो राम को देखे बिना ही राम के स्वागत के लिए खुली हुई हों। अगर ये शर्त रखोगे कि पहले राम मिलें तब उनमें विश्वास करूँगा, तो तुम्हें कभी नहीं मिलने के। और आँखें तो वही देखेंगी जो आँखें देख सकती हैं – पदार्थ, संसार, वस्तुएँ, व्यक्ति। आँखें तत्पर हों कि जो दिखेगा उसी में राम को खोज लेंगे, तब तो राम के दर्शन होंगे अन्यथा तुम जीवन भर प्रतीक्षा करते रहो।

भारत भरा हुआ है कहानियों से, तुम्हें कभी हैरत नहीं होती? चलते-फिरते लोगों को दर्शन हो जाते हैं। चित्रकूट में तुलसी को हनुमान मिल गए, तुमने कभी विचार नहीं किया? कभी गौर नहीं किया? ये क्या हो रहा है? और जानते हो हनुमान भी कैसे मिले थे? कहते हैं कि मनुष्य के भेष में एक प्रेत आया था, वो तुलसी को बता गया था कि हनुमान उधर मिलेंगे। चलते-फिरते प्रेत मिल रहे हैं? कैसे मिल रहे हैं? ऐसे ही मिल रहे हैं – तुम्हारी तलाश इतनी गहरी है कि जैसे संसार मजबूर हो जा रहा है तुम्हें अपने पार का पता दे देने के लिए।

तुम इतनी शिद्दत से पूछ रहे हो कि दीवारें भी फुसफुसा दे रही हैं तुम्हारे कान में। तुम में है वो तीव्र वेदना? तुम में है वो सघन उत्कंठा कि मुझे जानना ही है, मुझे मिलना ही है? फिर कोई भी आ कर बता जाएगा कि कहाँ हैं हनुमान, फिर कोई भी आ कर बता जाएगा, फिर चलते-फिरते कोई मिलेगा। देखते नहीं हो, भक्त के सामने कभी कोई प्रकट हो जाता है, कभी ब्राह्मण के भेष में ये आ गए, कभी किसी के वेश में आ गए, कभी किसी पशु के वेश में आ गए, कभी नदी बन के आ गए, कभी पहाड़ बन के आ गए, कभी रोगी बन के आ गए, कभी भिक्षु बन के आ गए, कभी किसी पेड़ पर चिड़िया बनकर बैठे हैं। और नीचे राजा को कुछ बता गयी चिड़िया चहचहा के। वाकई लगता है तुम्हें चिड़िया का मंतव्य है बताने का? नहीं! चिड़िया के पास तो चिड़िया की ही बोली है, राजा के पास कान विशेष हैं। राजा ने सुन लिया है।

तुम सुनना शुरू करो, चहुदिश तुम्हें राम की ही आवाज़ सुनाई देगी। लेकिन अगर तुम ये कहोगे कि पहले राम बोलें फिर मैं सुनूँगा, तो हो नहीं पाएगा। संसार ऐसे चलता है, अध्यात्म ऐसे नहीं चलता, सत्य ऐसे नहीं चलता। संसार में तुम कहते हो कि जब कोई बोलता है तब मुझे सुनाई देता है। अध्यात्म में कहा जाता है जब तुम सुनते हो तब वो बोलता है। बात सही भी है क्योंकि बोल तो वो सतत रहा है, तुम्हारे सुनने में खोट थी तो जब तुम सुनते हो तब वो बोलता है।

संसार में तुम कहते हो कि जब कोई आता है तो मुझे दिखाई देता है, अध्यात्म में ऐसा नहीं होता क्योंकि वहाँ कोई आने वाला है ही नहीं, वो तो चहुदिश व्याप्त है तो वो आएगा कहाँ से? तो वहाँ तो ऐसा होता है कि जब तुम देखते हो तब वो तुम्हें दिखाई देता है, उसके आने का कोई सवाल नहीं। वो तो आया ही हुआ है, तुम देखो। पर तुम्हारी शर्त अजीब है, तुम कहते हो, “वो क्यों नहीं मिल रहा?” तुम ये कभी नहीं कहते कि, "मैं देख क्यों नहीं रहा?" देख तुम इसलिए नहीं रहे क्योंकि तुम हज़ार अन्य चीज़ों में व्यस्त हो। तुम क्या अभी भी सुन रहे हो? जो राम को सुन रहा होता है, वो राम ही हो जाता है। तुम्हारा चेहरा अभी राम का चेहरा है या तुम्हारा व्यक्तिगत चेहरा है?

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।

तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर ।।

~ संत तुलसीदास

राम के नाम का मणिदीप दहलीज़ पर रखो, द्वार पर रखो। "तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर" – भीतर और बाहर अगर चाहते हो कि उजियारा फैले तो राम का नाम उस जगह पर रखो जो बाहर और भीतर को मिलाती है, देहरी पर, द्वार पर। शाब्दिक अर्थ लें तो ऐसा लगता है कि तुलसीदास कह रहे हैं कि राम का नाम बार-बार लेते रहो। जीभ की अभिकल्पना एक ऐसे अंग के रूप में की गयी है जो बाहर और भीतर का समागम कराती है। उदित तो भीतर से होती है लेकिन जाती बाहर तक है। माँस के रूप में भी और शब्द के रूप में भी, जीभ के माध्यम से भीतर का शब्द बाहर जाता है।

बात इससे आगे की कह रहे हैं तुलसी। तुलसी इसीलिए सफल हैं, आप जिस तल पर हैं, आपको वो उस तल की सामग्री थमा देंगे। अभी अगर आपको इतना ही समझ में आता है कि राम का नाम लेने से भला होता है तो इस श्लोक का अर्थ इतना ही है कि राम का नाम लिए जाओ। बाहर भी उजाला हो जाएगा, जो सुनेगा उसका भी भला हो जाएगा, और भीतर भी उजाला हो जाएगा, जो कहेगा उसका भी भला हो जाएगा। बाहर उजाला होगा अर्थात संसार में राम का शब्द पहुँचेगा, जो सुनेगा वो तरेगा और भीतर उजाला होगा क्योंकि वक्ता तुम हो, तुम कह रहे हो तो तुम्हारी शुद्धि होगी।

बात इससे आगे की है। क्या कह रहे हैं तुलसी ज़रा समझिएगा। बाहर और भीतर के बीच में वो रख देने को कह रहे हैं – राम। माया क्या? अविद्या क्या? वो जो बाहर और भीतर का विभाजन पैदा करती है, जो दो का सृजन करती है। जो कहती है कि बाहर संसार है और भीतर तुम। विभाजन रेखा का ही तो नाम अहंकार, माया, अविद्या – जो कहना चाहो वो है। वहीं अंधकार है, वहीं अज्ञान है।

तुलसी कह रहे हैं कि वहीं पर राम के नाम का मणिदीप रख दो, वहीं पर प्रकाश कर दो। प्रकाश की आवश्यकता तो वहीं है न जहाँ अंधकार है? गहनतम अंधकार है अविद्या। गहनतम अंधकार है तुम्हारे और संसार की पृथकता को बनाने वाली रेखा। वो एक काली रेखा है, वो एक छाया है, उसको मिटा दो। संसार वैसा नहीं बचेगा जैसा दिखता है। तुम भी वैसे नहीं बचोगे जैसे दिखते हो। और संसार और तुम्हारे बीच में जो दूरी है, वह तो प्रकाशित होकर मिट ही जानी है।

क्या कह रहे हैं तुलसी? समझेंगे। हम में और संसार में रिश्ता क्या है? जो रिश्ता है, वही विभाजन का रिश्ता है न? तुलसी वहीं पर अंधेरा देख रहे हैं, वहीं पर कह रहे हैं कि मणिदीप रखना है। तुम्हारे और संसार के बीच रिश्ता क्या है? तुम्हारे और संसार के बीच अर्थ का रिश्ता है, लोभ का, भय का, मृत्यु का। संसार एक ऐसी जगह है जहाँ अब तुम्हें मृत्यु मिलने वाली है। पैदा तो अब तुम हो चुके हो। यहाँ जितने भी लोग बैठे हो, संसार तुम्हारे लिए अब क्या है? वो जगह है जहाँ पर कुछ वर्ष का जीवन शेष है और उसके बाद अनंत मृत्यु है। और मृत्यु के जितने वर्ष हैं वो जीवन के वर्षों से अनंत गुना ज़्यादा हैं। तो संसार क्या है तुम्हारे लिए? संसार बहुत बड़ा ख़ौफ़ है; संसार काल है। ये हमारा रिश्ता है संसार से। तुलसी कह रहे हैं कि ये अंधकार का रिश्ता है, इसको रौशन करो! ये रौशन सिर्फ तभी होगा जब मृत्यु तुम्हारे मन से निकल जाएगी।

मृत्यु, मज़ेदार बात है कि जिसको आती है वो मौत से कभी नहीं डरता। आपने चिता पर किसको जलते देखा है? आपने पाँव को जलते देखा होगा, आपने हाथ को जलते देखा होगा, आपने बाल को जलते देखा होगा। अपने विचारों को जलते देखा है कभी? पर मौत से डर कौन रहा है? पाँव? हाथ? बाल? आँख? या विचार? अब ये बात ज़रा अद्भुत नहीं है? जिसे सही में मौत का ग्रास बनना है, वो तो डरता कभी है नहीं। पाँव को रोते देखा है कभी मौत के नाम से? और जो मौत से डरे जा रहा है, उसको तो हमने कभी मरते देखा नहीं! किसी भी चिता पर हमने कभी मन को जलते तो देखा नहीं। किसी भी चिता पर हमने चित्त को जलते देखा नहीं। विचारों का धुआँ देखा है कभी, कि ये विचार जले?

तो मृत्यु एक झूठ है क्योंकि मृत्यु विचार के लिए है और विचार को मृत्यु आनी नहीं है। मृत्यु जिसे आनी है वो डर ही नहीं रहा। हमारा और संसार का मृत्यु का, डर का रिश्ता है। हमारे मन में संसार वो जगह है जो हमें मिटा देगी। जहाँ हमें बचने के तमाम तरह के आयोजन करने हैं। इसीलिए हम डर की और लालच की ज़िंदगी जीते हैं। हम चूँकि डरे हुए हैं इसीलिए लालची हैं। हम कहते हैं, हम ऐसा कुछ पा लें जो किसी तरीके से हमें मौत से बचा ले।

तुलसी कह रहे हैं – प्रकाश महाकाल है। संसार यदि काल है तो राम का नाम महाकाल है। महाकाल वो जो काल का काल हो जाए, जो काल को खा जाए। संसार मृत्यु का विचार बनके तुम्हारे मन में बैठ जाता है। राम का नाम उस विचार को ही खा जाता है। काल से बचना हो, महाकाल की शरण में चले जाओ। बात आ रही है समझ में?

जब तक अपने-आपको संसार से अलग मानते रहोगे, तब तक तुम्हें ऐसा लगता रहेगा कि एक पराई जगह पर हो जहाँ तुम्हें किसी तरह से अपना रास्ता बनाना है। तुम्हें लगेगा कि तुम किसी विचित्र देश में फँस गए हो। तुम कहते रहोगे कि, "मैं निवासी कहीं और का हूँ, न जाने यहाँ कहाँ आ गया? और ये मृत्युलोक है, यहाँ मुझे कष्ट-ही-कष्ट मिलने हैं।" तुम दो आयोजन करोगे, तुम कहोगे, या तो अगर मुझे यहाँ बसना है तो मैं अमर हो जाऊँ या फिर मैं यहाँ से पूर्ण विदाई ले लूँ। और आदमी सिर्फ यही दोनों काम करता रहता है। जो भौतिकता परस्त लोग हैं, वो कहते हैं कुछ ऐसा कर लूँ की यहीं पर अमर हो जाऊँ। वो विज्ञान का सहारा लेते हैं, वो धन का सहारा लेते हैं, वो अपनी उम्र बढ़ाना चाहते हैं कुछ भी करके। और जो तथाकथित आध्यात्मिक लोग हैं, वो कहते हैं, “यहाँ बचने की तो कोई संभावना नहीं है तो मैं किसी तरीके से यहाँ से पूर्ण पलायन कर जाऊँ”। वो फिर मोक्ष माँगते हैं, वो मुक्ति, फिर निर्वाण माँगते हैं।

तुलसी की बात अगर आप समझेंगे तो आप जानेंगे कि इन दोनों ही मार्गों की आपको ज़रूरत नहीं है। जगत में न तो कुछ करके आपको अपने-आपको अमर बनाना है और न ही जगत को खतरे का अड्डा मानकर जगत से कहीं भाग जाना है। आप जगत ही हैं, ये देख लीजिए! ये शरीर मिट्टी से उठा है, मिट्टी में मिल जाना है। कुछ घटा-बढ़ा नहीं। ऐसी ही बात थी कि सागर से बादल बना और बादल फिर बरस गया, पुनः सागर हो गया – कुछ घटा-बढ़ा नहीं। तुम किस मौत के डर से घबरा रहे हो? कौन है जो मौत से डर रहा है? मिट्टी से शरीर बना है और शरीर तो डरता नहीं दिखता। बूँद से बादल बना है, बादल तो डरता हुआ नहीं दिखता। तुम कौन हो जो डरे जा रहे हो? उस कौन को, उस अंधेरे को प्रकाशित कर दो। उसको हटा दो। वो जो डरे जा रहा है, वो सिर्फ एक विचार है। वो विचार तुम्हें तभी तक घेरे रहेगा जब तक तुम्हारे जीवन में राम नहीं हैं। मन को या तो राम दे दो या मौत दे दो। मन को या तो महाकाल दे दो या काल दे दो। इस से कम में मन राज़ी नहीं होगा।

जिनके पास राम नहीं है, उनकी सज़ा ये रहेगी कि उनके पास लगातार मृत्यु का विचार रहेगा। मृत्यु का विचार ऐसे ही नहीं आता कि, “मेरी मौत हो जाएगी, कल मैं कहीं मर न जाऊँ।” ये तो बड़ी स्थूल बात हुई। अपने-आपको बचाने का हर विचार, मृत्यु का ही विचार है। अपना संवर्धन करने का हर विचार, मृत्यु का ही विचार है। हर प्रकार का लालच, मृत्यु का विचार है। हर प्रकार की तिकड़म, हर छल, हर प्रपंच – मृत्यु का ही विचार है। जिनके पास राम नहीं, उनकी सज़ा ये है कि उनका जीवन तमाम तरह के उपद्रवों में बीतेगा।

बात आ रही है समझ में?

राम को पा लीजिए, आप भी रौशन हो जाएँगे, संसार भी रौशन हो जाएगा। आप अपने-आपको अंधेरे में न जाने क्या माने बैठे हैं! आप वो हैं नहीं। आप संसार को अंधेरे में न जाने क्या माने बैठे हैं! संसार भी वो है नहीं। दोनों को मानने का काम वो इकाई कर रही है जो आपके और संसार के बीच में दूरी बनकर बैठ गयी है। उसी को कहते हैं – अहंकार।

तुलसी कह रहे हैं, उसको रोशन करो, वो अंधेरा है। उसने व्यर्थ ही एक सीमा खींच दी है। उसको हटाओ। उसने कुछ ऐसा करा है कि जैसे कोई खुले आकाश में एक लकीर खींच दे। उस लकीर का कोई अर्थ है? और वो लकीर ही डरती रहती है। क्या डर है उसको? कि कहीं इस पार का आकाश उस पार के आकाश से मिल न जाए। इस मिलन को जानते हैं वो क्या नाम देती है? मृत्यु। मौत आ जाएगी। मिट्टी मिट्टी से मिल गयी, इसको वो कहती है – "मौत आ गयी"!

ये लकीर अनावश्यक है, इसको हटाओ।

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